बुधवार, 26 मार्च 2014

चट भी अपनी, पट भी अपनी

I wrote this Satire when Telangana issue was on fire. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




समस्या बड़ी गंभीर है। इसलिए उनके माथे पर चिंता की लकीर भी उसी अनुपात में गहरी है। आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक कई मौके आए होंगे, लेकिन माथेे की लकीर इतनी गहरी कभी नहीं हुई। जब मंत्री थे तो कई काम चुटकियों में हल कर देते थे। दो-चार लाख के लिए कभी झिक-झिक नहीं की। बड़ा दिल। थोड़ा कम ज्यादा होने पर भी माथे पर कभी बल नहीं पड़ा। कोई आज के नेता हैं भला! आजादी की लड़ाई के समय के नेता हैं। जेल भी गए थे। ऐसा वे खुद कहते आए हैं और अब सबने मान भी लिया है। उसका ताम्रप़त्र भी है, और क्या सबूत चाहिए? हां, देष हित में पेंषन का त्याग कर रखा है। वैसे देष ने उन्हें बहुत कुछ दिया है, ऐसे में वे पेंषन तो छोड़ ही सकते हैं। रिष्तेदारों के नाम पर पांच पेट्रोल पम्प, गैस की दो एजेंसियां हंै। कुछ साल पहले बडे बेटे के नाम पर माइन भी लीज पर मिल गई थी। चार-पांच कोठियां है। देष ने जब उन्हें इतना दिया, तो वे भी कहां पीछे रहे हैं। सूद सहित लौटा रहे हैं। पहले खुद को समर्पित कर दिया। फिर दोनों बेटों को देषसेवा में झोंक दिया। आज दोनों एमएलए हैं। दामाद भी बड़ा सेवाभावी मिला। नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है। तीन पोते अलग-अलग पार्टियों की युवा षाखाओं का दायित्व संभाले हुए हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि पूरा परिवार ही राष्ट को समर्पित है।
‘आप बताइए, क्या करें!’ बड़े एमएलए बेटे ने पूछा।
‘तुम दोनों में से एक को इस्तीफा देना होगा। तुम तय कर लो कि किसे देना है इस्तीफा।’
‘लेकिन इस्तीफा देने की जरूरत क्या है?’ छोटे एमएलए बेटे ने पूछा।
‘बिल्कुल मूरख हो, बाप को लजाओगे। लोग कहेंगे, चाणक्य के घर कैसे मूढ़ पैदा हुए।’
‘लेकिन ऐसा करने से क्या अपने स्टेट को बंटने से बचाया जा सकेगा?’
‘भाड़ में जाए स्टेट, राजनीति को समझो मूरखों। एक को अलग राज्य की मांग करने वालों के पक्ष दिखना होगा और वह इस्तीफा नहीं देगा। दूसरा अलग राज्य की मांग के विरोध में इस्तीफा देगा। अब भविष्य में जो होगा, वह होगा, लेकिन एक का तो मंत्री बनना तय हो जाएगा ना। मैं पूरे परिवार के भविष्य की सोचकर चल रहा हूं। अब राजू, गणेष, सुरेष - तीनों पोते- को अलग-अलग पार्टियां पकड़ने को क्यों कहा? इसीलिए ना कि षासन किसी भी पार्टी का हो, परिवार का दाना-पानी चलता रहे, रूखी-सूखी रोटी मिलती रहे।’
‘लेकिन इस्तीफा देना क्या इतना ही जरूरी है?’ छोटा अब भी अड़ा हुआ है।
‘देखो, राजनीति का 60 साल का अनुभव है, आज तक मैं ने कई बार इस्तीफे दिए, लेकिन स्वीकार कभी नहीं हुआ। यह पूरा देष नाटक नौटंकी में बड़ा विष्वास करता है और उसे ही सही मानता है। इसलिए बेटों, राजनीति में टिकना हो, तो ऐसी नौटंकियों में माहिर होना पड़ेगा। देषसेवा यूं ही नहीं होती, समझें। जयहिंद!’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

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