सोमवार, 31 मई 2021

Satire: और राह में चलते-चलते, एक दिन कोरोना की बाबाजी से मुलाकात हो गई...

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By Jayjeet

एलोपेथी और आयुर्वेद के बीच जारी विवाद के बीच अचानक ही बाबाजी की कोरोना से मुलाकात हो गई। पहली नजर मिलते ही दोनों एक-दूसरे को देखकर कन्नी काटने लगे। पर जब सामने पड़ ही गए और एक-दूसरे से बचना नामुमकिन हो गया तो औपचारिक हाय-हलो से बात यूं शुरू हुई :  

बाबाजी : अरे कोरोना, क्या हाल है? बहुत मुटा गया इतने दिनों में! 

कोरोना : पर कल मैंने वुहान वीडियो कॉल लगाया था। मम्मी तो कह रही थी कि इंडिया जाकर तू बहुत दुबला हो गया। प्रॉपर खाने को नहीं मिलता क्या?

बाबाजी : अब क्या करें, हर मां को ऐसा ही लगता है। 100 किलो वजनी बेटे को भी यही बोलती है- तू बहुत दुबला हो गया रे। पर तू ने बताया नहीं कि यहां तो तेरी खूब खातिरदारी होती है। लोग पलक-पावड़े बिछाए तेरा इंतजार करते हैं। कई लोग तो तेरे को खुद ही अपने साथ घर ले जाते हैं। 

कोरोना : हां, पर बाबाजी अब मैं बोर हो गया हूं। अब घर की याद आने लगी है। 

बाबाजी : बेटा, इतनी जल्दी चला जाएगा तो हमारा इनोवेशन धरा का धरा ना रह जाएगा? अब तो हम स्वदेशी वैक्सीन के फॉर्मूले पर भी काम करने वाले हैं। 

कोरोना : बाबाजी, तीन करोड़ के करीब मरीज हो तो गए। अब बच्चे की जान लोगे क्या?

बाबाजी : पर तेरे को जल्दी क्या है? मेहमाननवाजी में कोई कमी रह गई है क्या? रोज चाऊमीन खाने को मिल तो रही है। 

कोराना : सोया बड़ी व पत्ता गोभी वाली चाऊमीन भी कोई चाऊमीन होती है क्या? ऊपर से इतना ऑयल अलग डाल देते हो। माना आप लोगों की हमारे चाइना से दुश्मनी है, पर ये दुश्मनी चाऊमीन के साथ क्यों निकालते हों! 

बाबाजी : पर बेटा, अभी तू चाइना वापस जाएगा तो वहां तुझे बहुत दिक्कतें हो सकती हैं। अमेरिका के नए राष्ट्रपति ने वुहान लैब वाला मामला फिर छेड़ दिया है। तो तू जैसे ही चाइना जाएगा, तेरी अपनी सरकार अमेरिका की नजर से बचाने के लिए तुझे ही काल कोठरी में डाल देगी। फिर सड़ते रहना....

कोरोना : तो आप चाहते क्या हो?

बाबाजी : बेटा अगले दो-चार दिन में देश के कई राज्य धीरे-धीरे अनलॉक हो रहे हैं।  देखना फिर लोग मजे में घूमेंगे। न मास्क लगाएंगे, न सोशल डिस्टेंसिंग रखेंगे। तेरे लिए तो स्कोप ही स्कोप है..

कोराना : बाबाजी, इनडायरेक्टली आप इसमें अपना तो स्कोप ना देख रहे हों? वो आपने कौन-सी दवा बनाई। नाम भूल रहा हूं, मेरे ही नाम से मिलती-जुलती है ना ...

बाबाजी : (बीच में बात काटते हुए) : आज तू कुछ ज्यादा समझदारी की बात ना कर रहा! 

कोरोना : समझदार होता तो यूं इंडिया में आता क्या? यहां आकर वजन बढ़ा सो बढ़ा, पर न जाने कितनी ही बीमारियां और हो गईं। 

बाबाजी : हर बीमारी का मेरे पास इलाज है। कल से आ जा मेरे पास। दो चार महीने योगासन करेगा तो सारी बीमारियां छूमंतर हो जाएंगी। 

कोरोना : बाबा, ये वो बीमारियां नहीं हैं, जो किसी योग से जाएंगी। ब्लैक मार्केटिंग, नकली दवाइयों का धंधा, झूठ, चमचागीरी, भाई-भतीजावाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार, बेमतलब पंगेबाजी जो आपने अभी ली है, इन सब बीमारियों के लक्षण मैं यहां इंडिया में आकर फील कर रहा हूं। इनका कोई इलाज हो तो बताओ आपके पास...

बाबाजी : हूंम्म... बताता हूं, पर अभी जरा बिजी हूं, वो एलोपैथी वालों को दो-चार जवाब और दे दूं, फिर इसके बाद अपने सीईओ के साथ एक जरूरी बिजनेस मीटिंग है। अपन फिर मिलते हैं... पर ये शीर्षासन जरा करते रहता... सबसे बढ़िया आसन है।   

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शनिवार, 29 मई 2021

Not Funny : बक्सवाहा में हीरों का खनन - असली हीरों को नष्ट कर नकली हीरों की तलाश!

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By  ए. जयजीत

मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बहुत संवेदनशील हैं, हां वाकई...! गत सप्ताह जैसे ही सुंदरलाल बहुगुणा के निधन की खबर आई, उन्होंने तत्काल ट्विटर पर उनके प्रति संवेदना व्यक्त की। दूसरे नेता भी पीछे ना रहे। सब ट्विटाने लगे। वाह, क्या पल थे! प्रकृति का एक संरक्षक विदा हुआ और ट्विटर संवेदनाओं से कलरव (tweets) करने लगा। लेकिन यहां मप्र के मुख्यमंत्री का कलरव ज्यादा मायने रखता है। क्यों? क्योंकि इन्हीं के मप्र में, माफ कीजिएगा, हम सबके मप्र के एक इलाके में हमें फिर से एक सुंदरलाल बहुगुणा की जरूरत महसूस हो रही, कहीं शिद्दत से... यह क्षेत्र है मप्र के छतरपुर जिले का बक्सवाहा। 

बक्सवाहा के जंगल की जमीन बहुत ही बहुमूल्य है। अब और भी बहुमूल्य हो गई है। उसके नीचे छिपे हैं हीरे, अनगिनत। हीरे बहुमूल्य होते हैं। मगर इतने भी नहीं कि इन हीरों को पाने के लिए उन पेड़ों को नष्ट कर दिया जाए, उस पर्यावरण को भ्रष्ट कर दिया जाए, जो अनमोल है। आज से दो साल पहले तत्कालीन कमलनाथ सरकार ने एक निजी कंपनी को बक्सवाहा के जंगलों की हीरा भंडार वाली 62 हेक्टेयर जमीन को 50 साल के लिए लीज पर दे दिया था। अब कंपनी ने कुछ सौ हेक्टेयर जंगल और मांगा है, ताकि वह वहां भी खदानों से निकले मलबे को डंप कर सके। किसी जंगल की वर्जिन भूमि को माइनिंग के लिए लीज पर देने का मतलब जानते हैं? यह उतना ही भयावह हो सकता है, जितना कि किसी निहत्थी निर्भया का हवसियों के हाथों में पड़ जाना। जंगलों में हीरों या खनिज का 'खनन' इसी 'हवस' का पर्यायवाची है। 

तो इतना पढ़ने और लिखने के बाद सवाल अब भी रहा अनुत्तरित का अनुत्तरित। करना क्या है? अब से करीब सप्ताह भर बाद विश्व पर्यावरण दिवस है। हमेशा की तरह हम सब इस दिवस की औपचारिकता निभाने के लिए तैयार बैठे हैं। बीते दिनों ऑक्सीजन की मारामारी के बीच हम सबको पेड़ों के साथ ऑक्सीजन को नत्थी दिखाने का भी अच्छा मौका मिल गया है। तो तमाम नेता भी इस दिन एक पौधा तो जरूर रोपेंगे। उम्मीद है जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक पौधा रोपेंगे तो उस पौधे के बड़े-बुजुर्ग भी उन्हें जरूर याद आएंगे जो बक्सवाहा के जंगलों में अपने संभावित कत्लेआम इंतजार कर रहे हैं। इन बड़े-बुजुर्गों की संख्या करीब सवा दो लाख आंकी गई है। आखिर शिवराज सिंह मप्र के कई बुजुर्गों को तीरथ करवाकर 'बेटे' का स्वतमगा हासिल कर चुके हैं। इतिहास उन्हें एक और तमगा हासिल करने मौका दे रहा है। फिर विश्व पर्यावरण दिवस का मौका भी सामने है। सुंदरलाल बहुगुणा को याद करने वाला उनका ट्वीट भी ट्विटर के आर्काइव में अब तक जिंदा है... 

उम्मीद को एक मौका तो देना चाहिए...हालांकि कड़वी राजनीतिक और वित्तीय हकीकत और तथाकथित विकास का रटा-रटाया फॉर्मूला इस उम्मीद पर भारी नजर आ रहा है... 

(लेखक पत्रकार और खबरी व्यंग्यकार हैं।)


सोमवार, 24 मई 2021

Satire : विश्व कछुआ दिवस पर जब कुछ कछुए टी पार्टी में मिले

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By Jayjeet

कल (23 मई) को विश्व कछुआ दिवस था। इस मौके को सेलिब्रेट करने के लिए कुछ कछुए सोशल डिस्टेंसिंग के साथ चाय पर चर्चा के लिए जुटे। उनके बीच क्या बातचीत हुई, एक रपट ....
कछुआ : सबको बहुत-बहुत बधाइयां, कछुआ दिवस की।
सरकारी फाइल : क्या दिन आ गए हमारे कि अब आपके साथ चाय पीनी पड़ रही है!!
न्यायिक सिस्टम (सरकारी फाइल से) : लॉकडाउन में पड़े-पड़े मुटा गए हों और टांटबाजी बेचारे कछुए पर कर रहे हों? इट्स नॉट फेयर...
सरकारी फाइल (न्यायिक सिस्टम से) : आप तो अभी समर वैकेशन पर हैं तो वैकेशन पर ही रहिए। ज्यादा मुंह मत खुलवाइए। मुंह खुल गया तो आपकी कछुआवत सबके सामने आ जाएगी।
कछुआ : क्या हुआ भाई सरकारी फाइल? इतने फ्रस्टेट क्यों हो रहे हों? न्यायिक सिस्टम हमारे बीच अपनी कछुआवत की वजह से ही है। इसके लिए उन पर क्या ताना मारना!
लॉकडाउन (दिल्लगी करते हुए) : सरकारी फाइल भाईसाहब इसलिए फ्रस्टेट हो रहे हैं क्योंकि पिछले कई दिनों से इन पर कोई वजन नहीं रखा गया है। इसलिए बेचारे जहां पड़े है, वहीं सड़े हैं टाइप मामला हो रहा है।
सरकारी फाइल : इसमें हंसने की क्या बात है? हमारी मजबूरी पर हंस रहे हों? हमारे भगवान लोगों ने हमें बनाया ही ऐसा है तो क्या करे। पीठ पर जितना वजन होगा, उतना ही तो आगे बढ़ेंगे!
लॉकडाउन (फिर दिल्लगी) : कौन हैं ये आपके भगवान टाइप के लोग? हम भी तो सुनें जरा? हां हां हां...
सरकारी फाइल (लॉकडाउन से) : ये वही 'भगवान' हैं, जिन्होंने तुम्हें बनाया है और आज तुम हमारी संगत में बैठने की औकात पाए हो।
न्यायिक सिस्टम (बढ़ती गर्माहट के मद्देनजर बीच में दखल देते हुए) : मिस्टर कछुए, आप तो हमारे होस्ट हों। व्हाय आर यू सो वरीड? कहां उलझे हुए हों?
कछुआ : वैक्सीनेशन प्रोसेस का इंतजार कर रहा हूं। उन्हें चीफ गेस्ट बनाया था। पता नहीं कब आएंगे?
बाकी सभी : ओह नो..., ये हमारे चीफ गेस्ट हैं? तब तो आ गए। फोकट हमारा टाइम खोटी कर दिया। अच्छे भले सो रहे थे...।

Not Funny : बड़े वकीलों की दिल्लगी...और कुछ नॉटी गॉसिप्स...!!

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By Jayjeet

दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक ऑनलाइन सुनवाई के दौरान देश के कुछ वरिष्ठ वकीलों ने हंसी-दिल्लगी के दौरान एक ऐसे विषय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जो अब गंभीर चर्चा की डिमांड कर रहा है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी एक खबर के अनुसार देश के लब्ध प्रतिष्ठ वकीलों के बीच मजाक का विषय यह था कि कौन-सा वकील सबसे ज्यादा पैसा लेता है। इस हंसी-मजाक में शामिल थे अभिषेक मनु सिंघवी, सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता। 

वकीलों ने आपसी मजाक में इस बात का खुलासा किया कि देश के कुछ वकील ऐसे हैं जो महज 10 मिनट की पैरवी के लिए ही दस लाख रुपए तक लेते हैं। इस बात का खुलासा भी हुआ कि सालों पहले वकीलों द्वारा ली जाने वाली भारी-भरकम फीस को अनुचित मानते हुए सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट मुरली भंडारे फीस की ऊपरी सीमा तय करने के लिए प्रस्ताव भी लाए थे जिसे शांतिभूषण ने यह कहते हुए डस्टबीन के हवाले कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ऐसा करने वाला कौन? 

वहां ये सब बातें बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में कही जा रही थी और इसलिए ऑनलाइन सुनवाई के लिए जजों के आते ही उनकी इस टिप्पणी के साथ खत्म हो गई कि जज बनने से पहले हम भी वकील थे और जानते हैं कि वकील किस तरह की 'नॉटी गॉसिप' करते हैं। 

सही है, बड़े-बड़े वकीलों के लिए तो यह नॉटी गॉसिप ही है। और हमारी न्याय प्रणाली में ऐसी छोटी-छोटी नॉटी गासिपें चलती रहती हैं कि किस तरह लॉकडाउन की तरह कोर्ट केसेस में तारीख पे तारीख बढ़ती रहती है, किस तरह फैसले आने में 30 से 40 साल तक लग जाते हैं, किस तरह लाखों की तादाद में हर साल मामलों के अंबार लगते रहते हैं, किस तरह आज भी हमारा पूरा न्यायिक सिस्टम 40-50 दिन के समर वैकेशन पर जाना समृद्ध परंपरा का अभिन्न हिस्सा समझता है, आदि आदि... ये सब छोटी-छोटी नॉटी गॉसिप्स हैं, इनके क्या मायने भला?  

पर इन गॉसिप से इतर एक बड़े सवाल पर चर्चा करना जरूरी है। जब इतने बड़े-बड़े वकील इतनी बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं तो उन्हें देने वाला भी तो बड़ा ही होता होगा। और कोई उन्हें इतनी भारी-भरकम फीस क्यों देता है? अभी कुछ दिन पहले ही हम सबने वेब सीरीज 'स्कैम 92' देखी है। याद कीजिए, वेब सीरीज का वह दृश्य जिसमें राम जेठमलानी की बाजू में हर्षद मेहता बैठा हुआ है। राम जेठमलानी जी स्वर्ग सिधार चुके हैं। इसलिए संस्कार यही कहते हैं कि हम उनके बारे में अच्छी बातें ही करें। तो अच्छी बात यह थी कि उन्होंने जनहित के कई मामले फ्री में लड़ें... हां, फ्री में भी... एक दावे के अनुसार 90 फीसदी मामले उन्होंने फ्री में लड़े। जो पैसा कमाया, वह केवल हर्षद मेहता स्कैम, हाजी मस्तान स्मगलिंग केस, जेसिका लाल मर्डर केस फेम मनु शर्मा जैसों से कमाया। आज जो लब्ध प्रतिष्ठ वकील हैं, जिनमें से कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों से भी जुडे़ हैं, कई मंत्री हैं और कई मंत्री रह चुके हैं, वे भी जनहित के कई मामले फ्री में लड़ते हैं...। वे भी हर्षद मेहताओं, मनु शर्माओं से ही पैसा कमाते हैं या फिर मधु कोड़ाओं जैसे भ्रष्ट नेताओं से। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि भारी-भरकम पैसा देने वाले सभी अपने अपराधों से बच ही जाते होंगे। फिर भी भारी-भरकम फीस दी जा रही है। बड़े-बड़े वकीलों के टैलेंट का इस्तेमाल हो रहा है। यह इस्तेमाल कैसा और कहां होता होगा, हम-आप जैसे सामान्य लोग तो कभी समझ भी नहीं पाएंगे। हम तो बस हिरण हत्याकांड जैसे मामलों की कोर्ट कार्रवाई में कभी-कभार जाते हुए अपने सल्लू भाई को अपने प्रशंसकों के सामने हाथ हिलाते ही देख पाते हैं, कहीं और 'हाथ मिलाते' हुए नहीं...। 

खैर, देश को अगर वाकई बदलना है तो क्या इसकी चिंता भी नहीं करनी चाहिए कि वकीलों की फीस कितनी होनी चाहिए? मजाक में नहीं, हकीकत में....पर कौन करेगा, कैसे करेगा, पता नहीं क्योंकि माननीय जज तो कह ही चुके हैं - जज बनने से पहले हम भी वकील ही होते हैं...

तो क्या बेहतर नहीं होगा कि बड़े-बड़े वकील ही इसकी चिंता करें...? क्योंकि जेब वाले कफन बनने तो अभी शुरू हुए नहीं। कफनों को तो मैनुप्यूलेट नहीं किया जा सकता...कम से कम अभी नहीं...!

शुक्रवार, 21 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य – ‘अथ श्री गणेशाय नम:’ यानी देश के चूहों की कहानी

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शरद जोशी

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी। या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे। या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं। इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता। सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं। आख़िर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।

विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है – ग़रीबी। सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं। कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि ग़रीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग ‘ग़रीबी हटाओ’ के ख़िलाफ़ हैं। तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ।

वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से चालू हुआ है। वे ही उसके आदि देवता हैं। ‘ऋद्धि-सिद्धि’ आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है। चूहा पैरों के पास बैठा रहता है। रचना ख़राब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। ‘निज कवित्त’ के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है। चूहा परेशान रहता है। महाराज, कुछ खाने को दीजिए। गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो। भूखे रहना सीखो। बड़ा ऊँचा मज़ाक-बोध है श्री गणेश जी का। चूहा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भारीपन तो आ ही जाता है।

चूहे को साहित्य से क्या करना। उसे चाहिए अनाज के दाने। कुतरे, खुश रहे। सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए। भूखे भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड में मिल रहा है। जो अफ़सर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए। पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है। चूहा शत्रु है। देश के गोदामों में घुसा चोर है। हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है। चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी विचार किया अापने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं।

विचार किया। यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए। समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज़ है। हा-हा-हा, ज़रा सुनिए।

आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। यह बात सिर्फ़ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है। हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का। कुछ देर पहले जो पराठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना। यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं। और किसी के बस का नहीं है यह काम। परिश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है। साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का। बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को। उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर। जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए।

दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेज़ी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं। अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख़्स को मिल जाए। काम जारी है। चूहा नीचे बैठा है। बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कुराते हैं। उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं। वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के। चूहा गोदामों में घुसता है। जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेश-महिमा।

एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते। भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक। घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे।

अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने। चुप रहो, ज़्यादा चूं-चूं मत करो।

नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो। चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया। न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए। नाम लिखने की भी ज़रूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?

प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?

वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है। क्या कीजिएगा!


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शरद जोशी का व्यंग्य - चौथा बंदर

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शरद जोशी

एक बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए।

उनके जाने के बाद गांधी जी का चौथा बंदर आश्रम में आया। वह पास के गांव में भाषण देने गया था। वह बुराई देखता था, बुराई सुनता था, बुराई बोलता था। उसे जब पता चला कि आश्रम में पत्रकार आए थे, फोटोग्राफर आए थे, तो वह बड़ा दु:खी हुआ और धड़धड़ाता हुआ गांधी जी के पास पहुंचा। ‘सुना बापू, यहां पत्रकार और फोटोग्राफर आए थे। बड़ी तस्वीरें ली गईं। आपने मुझे खबर भी न की। यह तो मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है बापू।’ गांधी जी ने चरखा चलाते हुआ कहा, ‘जरा देश को आजाद होने दे बेटे! फिर तेरी ही खबरें छपेंगी, तेरी ही फोटो छपेगी। इन तीनों बंदरों के जीवन में तो यह अवसर एक बार ही आया है। तेरे जीवन में तो यह रोज-रोज आएगा।’

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गुरुवार, 20 मई 2021

Humor & Satire : जब कहानी की जगह कविता सुनाने लगा बेताल

 

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By Jayjeet

रिपोर्टर बरगद के पेड़ के नीचे फेसबुक चेक करने को रुका ही था कि अचानक उसकी बाइक की पिछली सीट पर अट्‌टहास करती एक आकृति कूद पड़ी। सामान्य काल होता तो रिपोर्टर चौंककर हॉस्पिटल में होता, लेकिन अब कोई भी घटना चौंकाती नहीं। आंखें थोड़ी फटी जरूर लेकिन मन में ब्रेकिंग न्यूज का सैलाब उमड़ने लगा। तो आंखों में डर की जगह चमक आ गई। चुपचाप से फोन का कैमरा चालू कर शुरू हो गया...

रिपोर्टर : अरे, बेताल जी, अचानक इतने दिनों बाद आप यहां कैसे?
बेताल : आपने मुझे पहचान लिया? घोर आश्चर्य...
रिपोर्टर : हां, आप तो बिल्कुल ना बदले। वैसे ही सेम टू सेम हैं। आपको बचपन में देखा था टीवी पर।
बेताल : हां, कुछ चीजें कभी ना बदलतीं। जैसे सिस्टम...
रिपोर्टर (बीच में रोकते हुए) : बस, बस...। इस पर काफी बात हो गई है। हम सब पक गए हैं सिस्टम-विस्टम की बातें सुनते-सुनते। आप तो कोई नई कहानी सुनाइए। ... लेकिन राजा विक्रमादित्य कहां गए? उन्हें कहां छोड़कर आ गए?
(बेताल ने कोई जवाब नहीं दिया) बात बदलते हुए : कहानी...! हां जरूर, लेकिन पहले तू कविता सुन। इन दिनों कविताएं भी शुरू की हैं...
रिपोर्टर : अच्छा, अब समझा कि महाराज विक्रमादित्य क्यों गायब हो गए...
(इस पर भी बेताल की कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली) अपनी बात कन्टीन्यू करते हुए : मस्त कविता है, सुन...फिर कहानी भी सुनाता हूं...
रिपोर्टर : चलिए, सुनाइए, अगर कहानी सुनाने की यही शर्त है तो...
बेताल : मुर्दा बोला मुर्दे से, क्या है तेरी औकात। अब क्या बचा इस दुनिया में, कर लें मन की बात...। ओ बेटा, ओ बाबू, कर लें मन की बात...(ढाई-तीन मिनट तक तुकबंदियों का यह भयंकर तूफान चलता रहा)
रिपोर्टर : यह तो सोशल मीडिया से चुराई हुई है, मैंने कहीं पढ़ी है! शायद रवीश की वॉल पर। ओह नो, मतलब आप सोशल मीडिया पर भी...!!
बेताल : मैं तो नहीं हूं। हां, बीते दिनों विक्रम ने जरूर सोशल मीडिया ज्वॉइन किया था। हो सकता है उन्होंेने ही वायरल की हो मेरी कविताएं...
रिपोर्टर : अच्छा, पर आप तो कहानी ही सुनाइए, वही आपकी यूएसपी है
बेताल : तो अब कहानी सुन...। और ये तेरे कैमरे के फोकस को भी ठीक कर लें। मेरा पूरा चेहरा नहीं आ पा रहा।
रिपार्टर : जी, बिल्कुल। अब तो फेसबुक लॉइव कर दिया, पूरा देश सुन रहा है...सुनाइए ...
बेताल (नाराज होते हुए) : अरे, क्या राष्ट्र के नाम संबोधन है जो पूरे देश को सुना रहा है?
रिपोर्टर : आप चिंता मत कीजिए। राष्ट्र के नाम संबोधन भी कहानीनुमा ही होते हैं। आप तो शुरू कीजिए।
बेताल : अभी कैमरा बंद कर। थोड़ा मेक-अप तो करने दें। राष्ट्र के नाम संबोधन में तो आदमी को गेट-अप में लगना चाहिए।
रिपोर्टर : पर एक्चुअल में आप राष्ट्र के नाम संबोधन नहीं दे रहे। आपको तो कहानी सुनाना है। और हिंदी में कहानियां सुनाने वाला आप जैसा थोड़ा विनीत ही दिखना चाहिए (विनीत की जगह फटीचर पढ़ें, पर रिपोर्टर बेताल से यह कहने की हिम्मत न कर सका।)
बेताल : ठीक है, मैं कहानी तो सुनाऊंगा। पर तुझे मालूम ही है कि कहानी के अंत में मैं एक सवाल भी पूछता हूं। जब पूरा देश मुझे सुन रहा होगा तो जवाब कौन देगा? हर कोई जवाब देने लगेगा तो भगदड़ नहीं मच जाएगी?
रिपोर्टर : इसकी चिंता मत कीजिए। कोई जवाब नहीं मिलने वाला आपको। जो जवाबदेह हैं, वे भी आपको जवाब नहीं देंगे। बची पब्लिक। तो उसका काम तो हाथ पर हाथ धरके केवल सुनना ही रहा है। आज से नहीं, सालों से। कभी भाषण सुन लेती है, कभी भागवत कथा तो कभी राष्ट्र के नाम संबोधन। थोड़ा-बहुत टाइम बच जाता तो क्रिकेट की कॉमेन्ट्री सुन लेती।
बेताल : पर, जवाब पता होते हुए भी अगर कोई जवाब नहीं देता है तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। यह शाश्वत नियम है। विक्रम भी इसका पालन करता है।
रिपोर्टर : आप नियम-वियम छोड़िए, कहानी सुनाइए। हम सब एंटरटेनमेंट पसंद लोग हैं...
बेताल: अबे मुझे क्या फालतू समझा? इससे तो विक्रम ही ठीक थे। मुझे ध्यान से सुनते तो थे और जवाब भी देते थे।
रिपोर्टर : पर ये राजा विक्रमादित्य हैं कहां? मैं आपसे लगातार वही तो पूछ रहा था इतनी देर से? आप टाल रहे थे। बताइए ना...
बेताल (ठंडी आहें भरते हुए) : वे तो गंगा के किनारे बैठे हैं। बहते शवों को देखकर इतने डिप्रेस हो गए कि उल-जुलूल बोलने लगे। न्याय-व्याय, शासन व्यवस्था जैसी बातें करने लगे। तो मुझसे बहस हो गई और उन्हें वहीं छोड़कर यहां उड़ आया। पर अब मैं उनके पास ही जा रहा हूं। पता नहीं, किस हाल में होंगे बेचारे...
और बेताल, फेसबुक लाइव शुरू होने से पहले ही ह हा हा करते हुए लौट चला... बेचारा रिपोर्टर उसका केवल हवा में जाते हुए फोटो ही खींच सका, वो भी धुंधला-सा (देखें तस्वीर)

#betal #vikram aur betal


रविवार, 16 मई 2021

Humour : डॉक्टर कितने तरह के होते हैं?



डॉक्टर दो तरह के होते हैं : एक, झोला झाप और दूसरा सूटकेस छाप।

झोला छाप डॉक्टरों की इस समय खूब लानत-मलानत हो रही है। कुछ टीवी चैनलों ने हाल ही में उनका स्टिंग भी किया। जब टीवी चैनलों के पास कोई काम नहीं होता तो वे ऐसे ही स्टिंग करते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टर ऐसे स्टिंग से मुक्त होते हैं। वे तो स्टिंग देते हैं...

झोला छाप डॉक्टरों के पास डिग्रियां नहीं होतीं। इसलिए उनके पास डॉक्टरी का लाइसेंस भी नहीं होता। डॉक्टरी का लाइसेंस न होने पर भी वे लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टरों के पास बड़ी-बड़ी डिग्रियां होती हैं। ये डिग्रियां उनके लिए मूर्ख बनाने का डिफॉल्ट लाइसेंस होती हैं...। तो इन्हें प्रयास करने की जरूरत नहीं होती।

झोला छाप डॉक्टरों को कुछ पता नहीं होता। इसलिए ये 'मन के गुलाम' होते हैं। जो मन कहे, वही दवाइयां लिखते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टरों को सबकुछ पता होता है। इसीलिए ये 'मनी के गुलाम' होते हैं। इसलिए जो मनी कहती है, ये वही लिखते हैं- टेस्ट से लेकर दवाइयां तक...

झोला छाप डॉक्टर सेहत के लिए खतरनाक होते हैं। सूटकेस छाप डॉक्टर आर्थिक सेहत के लिए घातक होते हैं।

हमें न झोपा छाप डॉक्टर चाहिए। न सूटकेस छाप डॉक्टर।

(जैसा कि जॉली एलएलबी-2 में वकील बने अक्षय कहते हैं - हमें न कादरी जैसे टेररिस्ट चाहिए, न सत्यवीर जैसे करप्ट पुलिस अफसर...)

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तो कौन-से डॉक्टर चाहिए, महाराज? डॉक्टर पुराण बहुत हो गई...

हमें तो वही डॉक्टर चाहिए जो कभी देवलोक से आते थे, डैपुटेशन पर... भगवान के दूत के रूप में...

पर देवलोक ने डैपुटेशन पर डॉक्टर भिजवाने की व्यवस्था तो कब की बंद कर दी है...

अच्छा, इसीलिए तमाम सूटकेस छाप डॉक्टर डैपुटेशन वाले नहीं, डोनेशन वाले हैं...कुछ रिजर्वेशन वाले भी हैं शायद...

और जो बचे, वे झोला झाप हैं, कितना सिंपल तो है
 
तो चलिए, इसी स्टॉक में से चुनते हैं...🙁

(By : Jayjeet)

शनिवार, 15 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य - शेर की गुफा में न्याय

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जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?

उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –

‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’

चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.

जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.

शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है

जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारे गुफा में होंगे.

इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ इसे सब जानते हैं.

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गुरुवार, 13 मई 2021

Humor : नीरो की बंशी को लेकर नया खुलासा, बदलनी पड़ेगी अब इतिहास की किताबें!

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By Jayjeet

रिपोर्टर तो अक्सर गढ़े मुर्दों की तलाश में रहते ही हैं। एक दिन ऐसे ही एक मुर्दा तलाशते-तलाशते रिपोर्टर के हाथ लग गई एक खास बंसी, जिस पर लिखा था- मेड इन रोम। उससे थोड़ी हाय-हेलो हुई तो पता चला कि यह वही ऐतिहासिक बंसी है जो कभी नीरो ने बजाई थी। अब इतनी कीमती चीज हाथ लगी हो तो रिपोर्टर एक्सक्लूसिव इंटरव्यू का मौका कैसे छोड़ सकता था। पढ़िए उसी इंटरव्यू के मुख्य अंश...

रिपोर्टर : जब रोम जल रहा था, तब आप कहां थीं?

नीरो की बंसी : नीरो जी के हाथों में।

रिपोर्टर : तो मतलब यह बात सही है ना कि जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंसी ही बजा रहे थे?

बंसी: हां, लेकिन यह पूरा सच भी नहीं है।

रिपोर्टर: पर इतिहास में भी यही लिखा है कि....

बंसी: आपने इतिहास में जो पढ़ा है, वे केवल आरोप हैं जो उस समय नीरो जी के विरोधियों ने लगाए थे। मीडिया ट्रायल में उन्हें दोषी मान लिया गया और वही इतिहास का हिस्सा हो गया।

रिपोर्टर: लगता है आप नीरो की बड़ी भक्त रही हैं।

बंसी: भक्ति, चमचागीरी तो आपके यहां की महामारियां हैं जी। मैं तो तथ्यों के प्रकाश में यह बात कर रही हूं।

रिपोर्टर: तो तथ्य ही बताइए, पहेलियां बहुत हो गईं।

बंसी: तो सुनिए। जिस समय रोम जल रहा था, उस समय मैं नीरो के पास ही थी। वे वैसे ही बंसी वादन कर रहे थे, जैसा अभी आपके यहां हो रहा है। लेकिन आपके और हमारे यहां जो अंतर है, वह विपक्ष का है। हमारे यहां का विपक्ष एग्रेसिव था, आपके यहां जैसा नहीं कि बस दो-चार चिटि्ठयां लिख दो, ट्विट कर दो, हो गई विपक्षगीरी। तब हमारे यहां विपक्षियों ने रोम की गली-गली गुंजा दी थी - इस्तीफा दो इस्तीफा दो, बंसी वादक नीरो, इस्तीफा दो।

रिपोर्टर : सही तो था। पूरा रोम जल गया तो इस्तीफा तो बनता ही था।

बंसी:
 इस्तीफा इसलिए नहीं मांगा गया था कि रोम जल गया था। रोम की किसको चिंता थी? चिंता का विषय तो केवल यह था कि नीरो जी बांसुरी क्यों बजा रहे थे?

रिपोर्टर: उफ, मतलब सदियां बीत जाती हैं, लेकिन राजनीति नहीं बदलती। हमारे यहा, आपके यहां सब शेम टू शेम... अच्छा, आगे बताइए, फिर क्या हुआ? इस्तीफा दिया?

बंसी: अब ऐसे छोटे-मोटे मामलों मंे इस्तीफा कैसे दे दें? पर विपक्ष का भी तो मुंह बंद करना था। तो सरकार ने बंसी कांड की जांच के लिए तीन सदस्यों की एक जांच समिति बैठा दी ।

रिपोर्टर: तो जांच समिति ने अपनी जांच में क्या कहा?

बंसी: लंबे समय तक तो मामले की जांच ही नहीं हो पाई।

रिपोर्टर: क्यों?

नीरो: दरअसल जांच समिति के सदस्यों ने अपने घर से ऑफिस और ऑफिस से घर आने-जाने तथा अपनी पत्नियों के लिए बाजार जाने के वास्ते एयरकंडिशनर रथों की मांग कर दी। अब जब तक इनके पास अपना वाहन न हों, वे जांच कर भी कैसे सकते थे।

रिपोर्टर: हां, रथ की मांग तो जायज थी। तो उनके लिए स्पेशल रथों की व्यवस्था कैसे की गई?

बंसी: यही तो पेंच था। रथों की स्वीकृति उस समय साम्राज्य की सीनेट की उच्चाधिकार प्राप्त समिति से जरूरी थी। इस स्वीकृति में डेढ़ साल लग गया। इसके बाद रथों के लिए टेंडर बुलाए गए। टेंडर एक पार्टी को दे भी दिए गए। लेकिन फिर विपक्ष ने नया आरोप लगा दिया कि टेंडर में भारी घोटाला हुआ है। टेंडर नीरो के भतीजे के नाम पर बनाई गई एक फर्जी फर्म को दे दिए गए थे। इसको लेकर विपक्ष के लोगों ने इतना हंगामा किया कि सरकार को अंतत: झुकना पड़ा। टेंडर निरस्त कर दिए गए। विपक्ष यहीं तक नहीं रुका। उसने टेंडर घोटाले की जांच के लिए एक अलग से कमेटी गठित करने को भी मजबूर कर दिया।

रिपोर्टर: पर उस बंसी जांच समिति का क्या हुआ? रथों का क्या हुआ?

बंसी: समिति के सदस्यों को सरकारी रथ नहीं मिले तो नहीं मिले, लेकिन फिर भी उनके महल रूपी बंगलों में अत्याधुनिक रथ देखे गए, ऐसा लोगों का कहना था। पर मैं मान ही नहीं सकती कि उन्होंेने जांच के दौरान कोई भ्रष्टाचार किया होगा। बहुत ही सज्जन लोग थे तीनों के तीनों। इतने सज्जन कि नीरो के आगे हमेशा हाथ जोड़े खड़े रहते। मैं खुद चश्मदीद रही।

रिपोर्टर: इतनी राम कहानी आपने कह दी। पर मुद्दे की बात तो बताइए, जांच हुई भी कि नहीं? रिपोर्ट आई कि नहीं?

बंसी: जैसा कि हर जांच समिति के लिए रिपोर्ट पेश करना नैतिक दायित्व होता है, तो नीरो बंसी जांच समिति ने भी अपना नैतिक दायित्व पूरा किया। सीनेट के पटल पर बाकायदा रिपोर्ट रखी गई। रिपोर्ट में जांच समिति के माननीय सदस्यों ने सर्वसम्मति से लिखा - 'नीरो पर लगाए गए आरोप तथ्य आधारित प्रतीत नहीं होते। हमारी विस्तृत जांच से पता चलता है कि यह बात सत्य नहीं है कि 'जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंसी बजा रहे थे।' सत्य इसके बिल्कुल विपरीत है और सत्य यह है कि 'जब नीरो बंसी बजा रहे थे, तब रोम जल रहा था।' इसलिए इसमें गलती नीरो की नहीं, बल्कि रोम की है। नीरो के बंसी बजाने के मौके पर रोम ने स्वयं आगे आकर जलने का जो आपराधिक कृत्य किया, उसके लिए समिति रोम को कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की अनुशंसा करती है और नीरो को तमाम आरोपों से मुक्त करती है।' नीरो पक्ष ने करतल ध्वनि के साथ रिपोर्ट को मंजूर कर लिया और विपक्ष ने पूरे मामले में एक नई जांच समिति की मांग करते हुए सीनेट की कार्रवाई का बायकॉट कर दिया।

रिपोर्टर : ओह, यह तो बिल्कुल नई ऐतिहासिक जानकारी है।

नीरो की बंसी : जी, और अब अपने इतिहासकारों से भी कहिएगा कि वे किताबों में जरूरी बदलाव करें। जबरन हमारे-तुम्हारे नीरो बदनाम हो गए। अब मैं चलती हूं।

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गुरुवार, 6 मई 2021

Satire & Humor : कफ़न की जेब का अब क़फन के थैलों से होने लगा कॉम्पीटिशन!

 

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By Jayjeet

रिपोर्टर बहुत दिनों से दुविधा में था। उसे एक सवाल खूब काटे जा रहा था। तो वह सीधे पहुंच गया कफ़न के पास। उसे टटोला तो वहां मिल गई जेब। वह जेब ही है, यह कंफर्म होते ही शुरू हो गया सवाल-जवाब का सिलसिला ...

रिपोर्टर : आपको नमस्कार करने का मन तो नहीं है, पर फिर भी स्वीकार कीजिए।

कफ़न की जेब : आप कौन? क्या जेब लेने आए हों? बताइए, किस साइज की?

रिपोर्टर : नहीं जी, मैं तो रिपोर्टर हूं। बीते कुछ दिनों से आपके बारे में काफी कुछ सुनने को मिला। भरोसा नहीं हो रहा था। तो सोचा आप से ही कंफर्म कर लूं कि क्या आप वाकई में हो या यह केवल कुछ शातिर लोगों द्वारा फैलाई अफवाह है?

कफ़न की जेब : गजब के रिपोर्टर हो। इसमें कंफर्म करने जैसी क्या बात है। हम तो हमेशा से रही हैं? कल भी थीं, आज तो हैं ही और उम्मीद है कल भी रहेंगी। कफ़न में जेब नहीं होती, ऐसी दंतकथाएं सुनी होंगी आपने, तभी डाउट कर रहे हैं। (गजब में तारीफ का नहीं, टांट का भाव था...आगे जवाब मिलेगा)

रिपोर्टर : आज जब पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है, ऐसे माहौल में भी आप?

कफ़न की जेब (बीच में ही बात काटते हुए) : अरे, यह तो आपदा में अवसर है। जेब होकर भी अगर हम पीछे रह गई तो आने वाली पीढ़ियों को क्या मुंह दिखाएंगे?

रिपोर्टर : मतलब, पांचों उंगलियां घी में, सर कड़ाही में? (रिपोर्टर का जवाब महाटांट से...)

कफ़न की जेब : पर बीते कुछ दिनों से कुछ दिक्कतें भी शुरू हो गई हैं।

रिपोर्टर : कैसी दिक्कतें?

कफ़न की जेब : बीते दिनों मैंने पूरे कफ़न को ही थैले के रूप में देखा है। थैले रूपी कफ़न की डिमांड बढ़ रही है। लोग कहने लगे हैं कि केवल छुटैया जेब से काम ना चलेगा। अब हम कफ़न की जेबों को कफ़न के थैलों से काम्पीटिशन करना होगा। हे भगवान, ऐसे भी दिन देखने को मिलेंगे, सोचा ना था।

रिपोर्टर : कौन हैं ये लोग, कहां से आते हैं ऐसे लोग?

कफ़न की जेब : भैया, पिक्चरें कम देखा करो। इस माहौल में ये डायलॉगबाजी शोभा नहीं देती। अभी तो कफ़न की जेब को मजबूत करने का वक्त है।

रिपोर्टर : आप जैसी घटिया मानसिकता वाला इंसान ना देखा? लोग मर रहे हैं और तुम्हें अपनी पड़ी है।

कफ़न की जेब (थोड़ा गुस्से में) : कफ़न में जेब सिलवाने की आपकी औकात नहीं है, तो आप मुझ पर तो फ्रस्टेट मत होइए। और ये मुझे इंसान कहके मेरी इज्जत की चार वाट मत लगाइए। मैं तो बस इंसान की बाय प्रोडक्ट हूं....

रिपोर्टर : माफी चाहूंगा। अच्छा ये बताइए, किस धर्म या जाति के लोगों के कफ़न में आप ज्यादा इंगेज होती हैं?

कफ़न की जेब : हम इंसानों की तरह धर्म-जाति में नहीं बंटे हैं। हम धर्मों, जाति, समुदायों से परे हैं। बल्कि हमारा अपना ही एक अलग कल्ट है।

रिपोर्टर : फिर भी नेता, सरकारी अफसर, बिल्डर, दलाल, डॉक्टर, माफिया, कालाबाजारी, टैक्सचोर व्यापारी, मिलावटखोर... इनमें से किनसे आपको ज्यादा इज्जत मिलती है?

कफन की जेब : भैया, आपने जिनके भी नाम गिनाए, उन तमाम समुदायों में ऐसे कई लोग हैं, जिनसे हमारे बड़े अच्छे संबंध हैं। कुछ मीडिया वाले भी शामिल हैं। हां, इन्हीं समुदायों में भी ऐसे कई लोग हैं जो हमारी जरा भी इज्जत ना करते। अच्छा भैया, बहुत सवाल हो गए। इस समय थोड़ी ज्यादा व्यस्तता है। फिर कभी बात करेंगे।

रिपोर्टर : अच्छा, एक अंतिम जिज्ञासा। भरी जेब के साथ आपका कस्टमर जब ऊपर जाता है तो वहां क्या होता है। आप तो देखती ही होगी?

कफ़न की जेब (धीरे से) : यह ऑफ द रिकॉर्ड बता रही हूं। छापना मत, नहीं तो मेरा धंधा खत्म हो जाएगा। सुनिए ध्यान से... भरी जेब के साथ कस्टमर बड़े ही ठस्के के साथ यह सोचकर ऊपर जाता है कि स्वर्ग में अपने लिए एक बेड जुगाड़ लेगा। पर स्वर्ग में जाने से पहले ही नरक का गेट आता है। सारी जेब वहीं खाली करवा ली जाती है और कस्टमर के साथ क्या होता है, अपन फिर जानने की कोशिश नहीं करती। अपन को क्या! अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता। चलती हूं.... पर यह बात छापना मत, फ्रेंडली रिक्वेस्ट है भाई...

सोमवार, 3 मई 2021

Satire : बंगाल में राहुल गांधी के जाए बगैर ही कांग्रेस का सूपड़ा साफ, जाते तो न जाने क्या होता!


बंगाल में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली है। वहां राहुल गांधी के जाए बगैर ही कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया है। जाते तो न जाने क्या होता! इसी पर यह व्यंग्य वीडियो...

रविवार, 2 मई 2021

Satire & humor : बंगाल में क्यों हारी बीजेपी? क्या है इसका राहुल कनेक्शन? अमित शाह ने बताई ऐसी Funny वजह





 आज बंगाल में #BJP​ चुनाव हार गई। ममता की #TMC​ चुनाव जी गई। बीजेपी आखिर क्यों हारी? इस हार का क्या है राहुल गांधी कनेक्शन? देखिए यह फनी वीडियो