बुधवार, 30 जून 2021

पेट्रोल से खास बातचीत.... जब लोग अपनी बाइकों में इतना पेट्रोल डलवा रहे हैं तो कुछ तो गड़बड़ है...



पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी

By Jayjeet 

बहुत दिनों के बाद आज रिपोर्टर फ्री था। तो सोचा, थोड़ा पेट्रोल से भी मिल लिया जाए। और पहुंच गया उसी पेट्रोल के पास जो अब खुद को एक तरह से सेलेब्रिटी मानने लगा था।

"नमस्कार भैया। कहां चढ़े हों? तनिक नीचे तो उतरो।' रिपोर्टर आसमान की ओर देखते हुए पेट्रोल से मुखातिब था।

"कौन है भाई? हमारा विकास देखा नहीं जा रहा तो मुंह फेर लो।' पेट्रोल उतने ही एटीट्यूड में बोला, जितना ऐसी स्थिति में आमतौर पर आ ही जाता है।

"आपका जरा इंटरव्यू करना है।'

"अच्छा तो आप रिपोर्टर हैं। बड़ी जल्दी आ गए। डीजल को भी जरा 100 पार कर लेने देते, फिर आते।' अपनी उपेक्षा के चलते पेट्रोल के मुंह पर एक तरह के कटाक्ष का भाव है।

"आपकी शिकायत जायज है। देर हो गई आते-आते। अब क्या करें, कुछ बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं में फंस गया था। इसलिए समय ही नहीं मिल पाया।'

"अच्छा तो अब आप भी कांग्रेस हो गए। बड़ी-बड़ी समस्याओं में फंसे हुए हैं और हम जैसे छोटों के लिए टाइम ही ना मिल रहा। बहुत बढ़िया!'

"अगर टांटबाजी हो गई हो तो सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू करें?'

"हां, जब सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत ना होती है तो फिर पूछने के लिए हम गरीब ही बचते हैं।' इतना कहते ही पेट्रोल ने ऐसा जोर से ठहाका लगाया कि थूक के कुछ छीटें रिपोर्टर के शर्ट पर आ गिरे। उसने यह ठहाका अपनी गरीबी पर उसी अंदाज में लगाया था जैसे अक्सर कई अमीर खुद की गरीबी पर लगाते हैं।

"इतना थूक ना उड़ाओ। आपकी थूक की एक-एक बूंद बड़ी कीमती है। और फिर हमारे कपड़ों पर गिरकर रिस्की भी हो रही है। हवा में कब कौन कहां से तीली निकाल लें, इन दिनों पता ही नहीं चलता। हां, पर आपने क्या कहा, मैंने कुछ सुना नहीं?'

"असली बातें सुनकर भी ना सुनना तो आप जैसों से सीखें। मैं कह रहा था कि ये इंटरव्यू विंटरव्यू सरकार से क्यों नहीं करते?'

"अरे सरकार क्या हमारे लिए फालतू बैठी है? ट्विटर की वो छटाक भर की चिड़िया भी सिर उठा रही है। इन दिनों बहुत चें चें कर रही है। लगता है राजद्रोहियों के साथ मिल गई है। तो उसका थूथना दबाने में लगी है सरकार।'

"हां, ये तो सही कर रही है सरकार। ट्विटर को कम से कम देश के नक्शे-वक्शे के साथ खेला नहीं करना चाहिए। इससे हम-आप तो ठीक है, पर उन लोगों की भावनाओं को बड़ी ठेस पहुंचती है जो स्विस बैंकों के बजाय देश की सीमाओं के भीतर ही भ्रष्टाचार की अपनी गाढ़ी कमाई रखते हैं। देश का पैसा देश में ही रहे, ऐसी पावन सोच वाले लोग जब ट्विटर की ऐसी करतूत देखते हैं तो दुख तो होगा ही।'

"तो असल सवाल पूछने का सिलसिला शुरू करें?'

"असल सवाल?' हंसते हुए, "पर हमसे पूछने के लिए बचा ही क्या है? यही पूछोंगे ना कि हमने तो सेंचुरी मार ली है, अब ये विराट दो साल से क्या कर रहा है? पर बता दूं, क्रिकेट में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।'

"मेरी भी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर ऐसे सवाल पूछने के लिए उनकी बीवी बैठी हुई हैं। हम क्यों पर्सनल बातें करें?'

"तो फिर पूछिए, जो भी पूछना हो। पर जरा जल्दी कर लेना। वैसे भी आपने बहुत टाइम खोटी कर लिया। इतनी देर में हम दो-चार सेमी और ऊंचाई पर पहुंच जाते।'

"एक बहुत ही गंभीर सवाल है जो दो-तीन दिन से मन में मंडरा रहा है। आपने सुना या पढ़ा ही होगा कि महामहिम ने कहा है कि वे अपनी आधी सैलरी टैक्स में दे देते हैं ...'

"देखिए, महामहिम जी का हम बहुत सम्मान करते हैं। तो उनके खिलाफ हम कुछ ना बोलेंगे, समझ लीजिए।' बात को बीच से ही काटते हुए पेट्रोल बोला।

"तो हम क्या कम सम्मान करते हैं उनका? बहुत सम्मान करते हैं। सबको करना चाहिए। हम तो केवल उनकी बात से जुड़ा एक सवाल पूछ रहे हैं। पूरा सुन तो लीजिए। जब महामहिम जी इतना टैक्स चुका रहे हैं, तो अपनी मोटरसाइकिलों में जो इतना महंगा तेल भर-भरकर लोग जा रहे हैं, उनकी भी इनकम टैक्स जांच होनी चाहिए कि नहीं?'

"क्यों? हमारे दाम खटकने लगे! जरा खाने के तेल से भी ऐसा ही पूछो ना!'

"हां, उससे पूछकर ही तो आ रहा हूं। वह भी इस बात से सहमत है।'

"क्या बोला वो? '

"यही कि लोग सब दिखावे के लिए झोपड़ियां तानकर रखे हैं और दो-दो टाइम का खाना, वह भी तेल में बघारा हुआ खा रहे हैं। सरकार को पूरी जांच करके इस बात का पता लगाना चाहिए कि आखिर आम लोगों के पास इतना भर-भरकर पैसा आ कहां से रहा है?'  

"जब खाने का तेल यह बात बोल रहा है तो सही ही बोल रहा होगा। तो सरकार जांच करवा लें और जो टैक्स चुरा रहे हैं, उनसे पूरी शक्ति के साथ पूरा टैक्स वसूले। बेचारे देश के महामहिम टाइप के लोग ही टैक्स क्यों दें?' पेट्रोल ने सहमति जताई।

"तो फिर आप दोनों का यह ज्वाइंट स्टेटमेंट छाप दूं ना कि गाड़ियों में पेट्रोल और पेटों में खाने का तेल अगर आम लोग इतनी आसानी से भरवा रहे हैं तो इसमें कुछ तो गड़बड़ है।'

"पर हमारा नाम मत लेना। सूत्रों टाइप कुछ छाप सको तो छाप देना। कहीं सरकार बुरा ना मान जाए। अभी सरकार से बहुत काम है। 150 तक जाना है। आप जानते ही हैं कि अगर सरकार से काम हो तो ज्यादा क्रांति नहीं दिखानी चाहिए। अब मैं चलूं, आज के लेटेस्ट दाम आ गए हैं। अब तो दो इंच और ऊपर चला मैं...'

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

सोमवार, 28 जून 2021

Political_Rumour_with_Humour : यह कैसी अफवाह? ...... पेट्रोल पर कांग्रेस जागी, राहुल ने लिखी चिट्ठी।

 

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By Jayjeet

आप इसे कोरी अफवाह मान सकते हैं। अफवाह यह है कि अंतत: कांग्रेस के वर्चुअल अध्यक्ष ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर भाजपा अध्यक्ष को एक चिट्ठी लिख मारी है। यकीन नहीं हो रहा ना कि कांग्रेस आखिर इस मुद्दे पर जाग कैसे गई? इसीलिए ये सबकुछ अफवाह जैसा ही लग रहा होगा। तो पढ़ लीजिए ये चिट्ठी। यह राहुल के स्टेटस से मेल खाती है।

प्रति
श्री जे.पी. नड्डा
राष्ट्रीय अध्यक्ष, बीजेपी

विषय : पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी के खिलाफ कांग्रेस का राजनीतिक प्रस्ताव।

महोदय,

सेवा में नम्र निवेदन है कि इस समय देश में पेट्रोल-डीजल के दामों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हो रही है। आप जानते ही हैं कि मुख्य विपक्षी पार्टी होने की मजबूरी के चलते हम पेट्रोल-डीजल जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की चाहकर भी अनदेखी नहीं कर सकते। इस मुद्दे पर सरकार का विरोध करने के लिए हम पर काफी नैतिक दबाव है। इसलिए गत दिनों 10 जनपथ रोड पर पार्टी की आयोजित एक अहम बैठक में इस पूरे मसले पर गहन विचार-विमर्श किया गया।

मैं इस पत्र के माध्यम से सूचित करना चाहता हूं कि इस अहम बैठक में पार्टी ने जीरो के मुकाबले तीन मतों से एक राजनीतिक प्रस्ताव पारित किया है। प्रस्ताव के अनुसार, चूंकि आप सात साल पहले ज्यादातर समय तक विपक्ष में रहे। पेट्रोल के जरा से दाम बढ़ने पर आसमान सिर पर उठा लेने का आपको पुराना अनुभव रहा है। ऐसे कठिन समय में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के मामले में आपको देशहित में अपने इस अनुभव का समुचित उपयोग करते हुए विरोध प्रदर्शन करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। ऐसा करना न केवल आपका राष्ट्रीय कर्म व सियासी धर्म है, बल्कि नैतिक दायित्व भी है।

पार्टी ने जीरो के मुकाबले तीन मतों से यह भी निर्णय लिया है कि समय मिलने पर हम भी कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को आपके द्वारा आयोजित किए जाने वाले एक या दो विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए प्रेरित करेंगे। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि प्रदर्शन के लायक कांग्रेसी कार्यकर्ता मिलते ही हम तुरंत उन्हें देशसेवा में झोंक देने के लिए तत्पर होंगे।

आपको फिर याद दिला दूं कि अगर इस कठिन समय में भी ओछी राजनीति करते हुए आप इतने महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी करते रहे और सड़कों पर नहीं निकले तो देश के साथ इससे बड़ा विश्वासघात और कुछ और नहीं होगा। विरोध प्रदर्शन आयोजित न कर पाने की स्थिति में आप इस पत्र को ही कांग्रेस पार्टी की ओर से भर्त्सना पत्र की तरह मानने का कष्ट करें। 

आपका तो हरगिज नहीं...

राहुल

(Disclaimer : हम इस चिट्ठी की सत्यता की पुष्टि नहीं करते हैं। बस चिट्ठी के सीधे-सादे नेचर से यह राहुल की प्रतीत होती है। कांग्रेस पर यह मजाक भी हो सकता है। उसके साथ वैसे भी इन दिनों बड़ा मजाक हो रहा है।)

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

 

बुधवार, 23 जून 2021

Satire : तीसरा मोर्चा और मोनालिसा की मुस्कान!

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By Jayjeet

हाल ही में कुछ अखबारों में दो खबरें एक साथ छपीं। एक, गैर भाजपाइयों-गैर कांग्रेसियों का तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयासों की खबर थी। दूसरी खबर थी- मोनालिसा की पेंटिंग की एक कॉपी ढाई करोड़ रुपए में बिकी। मोनालिसा ऐसी पेंटिंग है, जिसकी दुनियाभर में भर-भरकर कॉपी हुई है। आज तो खुद लियोनार्दों दा विंची उन्हें देखकर चकमा खा जाए कि उनकी वाली कौन-सी है। आजकल की नकली तो असली वाली से भी ज्यादा असली ही लगेगी। विंची को इस बात का मुगालता हो सकता है कि वे शायद मुस्कान से अपनी वाली मोनालिसा को पहचान जाएंगे। पर मुस्कानों का क्या! उन्हें कॉपी-पेस्ट करना भी कहां मुश्किल है।
खैर, वापस उन्हीं दोनों खबरों पर आते हैं। तीसरे मोर्चे की खबर आई तो लीजिए, मोनालिसा भी आ गई। अब मोनालिसा है तो मुस्कुराएगी ही। पवार साहब शिकायत कर सकते हैं कि देखिए, मीडियावाले सब मिले हैं जी। हमारे प्रयासों पर हंसने वाला कोई और नहीं मिला तो साथ में मोनालिसा की पेेंटिंग लगा दी। लेकिन मोनालिसा तो मुस्कुराती है, हंसती नहीं। मुस्कान तो पॉजिटिविटी लाती है। तो शिकायत क्यों? लेकिन एनसीपी सुप्रीमो अंदर से जानते हैं कि मोनालिसा तीसरे मोर्चे के प्रयासों पर मुस्कुरा तो नहीं सकती। हंस ही सकती है। अब अगर पवार साहब जैसे सीजन्ड लीडर को यह लगता है तो हम सब को भी मान लेना चाहिए कि मोनालिसा हंस ही रही होगी। यह तीसरे मोर्चे के अतीत में हुए हश्र को देखकर पवार साहब के अंदर का वह डर बोल रहा है जो उसके भविष्य को लेकर है।
लेकिन मोनालिसा केवल मुस्कुराती नहीं है, अद्भुत रूप से मुस्कुराती है। कला पारखी कहते हैं कि मोनालिसा की मुस्कान अद्भुत ही नहीं, रहस्यमयी भी हैै। अगर हम कला पारखी नहीं हैं तो हमें बगैर ज्यादा सोचे-विचारे मान लेना चाहिए कि मोनालिसा की मुस्कान वाकई बहुत ही अद्भुत है। रहस्यमयी भी होगी ही। जहां कुछ पता न हो, वहां तर्क-वितर्क करना केवल नेताओं को ही शोभा देता है। जैसे पवार साहब कह सकते हैं कि मोनालिसा मुस्करा नहीं रही है, वह तो हंस रही है, वगैरह वगैरह...। हालांकि पवार ने ऐसा कहा नहीं है। वे वैसे भी बहुत कम कहते हैं। उनका कम कहना ही ज्यादा रहस्यमयी रहा है। बनने वाले कथित तीसरे मोर्चे की बैठक में महाराष्ट्र में सरकार चला रहे दो अन्य साथी दलों के नेता तो न्यौते नहीं गए। अब यह क्या कम रहस्यमयी नहीं है? यह राजनीति की अमूर्त कला है जिसे समझ में न आने पर भी समझा हुआ मानकर आगे बढ़ जाना चाहिए। इसी से हम कला के पारखी कहला सकते हैं।
तो हम वही करते हैं। लो आगे बढ़ गए जी...। राजनीति से ही आगे बढ़ गए। मन की बात सुन मोनालिसा मुंह बिचकाकर-बिचकाकर कितना मुस्कुराएगी या कांग्रेस के वर्चुअल लीडर के ट्वीट्स को पढ़कर पेट पकड़-पकड़कर कितने ठहाके लगाएंगी, हम इन तमाम गैर जरूरी बातों से ही आगे बढ़ जाते हैं। बात केवल मोनालिसा की मुस्कान की करते हैं।
यह मानने के बाद कि मोनालिसा की मुस्कान वाकई बड़ी अद्भुत है, चलिए मान लीजिए रहस्यमयी भी है तब भी यह सवाल मेरे मन में शुरू से रहा है कि क्या वाकई मोनालिया मुस्कुरा रही है? और फिर क्या वह सदियों से ऐसे ही मुस्कुरा रही है? उसको इस दुनिया में आए करीब पांच सौ साल हो गए हैं। तो क्या इन पांच सौ सालों से वह यूं ही मुस्कुराते मुस्कुराते थकी नहीं है? हमारे यहां तो नकली मुस्कान का थेगला लगाए दिग्गज नेता चुनाव प्रचार खत्म होते-होते ही थक जाते हैं। तो मोनालिया क्यों न थकी?
इसमें मोनालिसा का कोई हाथ नहीं है। मोनालिसा को मुस्कान तो आर्टिस्ट ने ही दी होगी। आखिर वह ऐसा कौन-सा खुशी का पल था जिसके वशीभूत होकर आर्टिस्ट ने इसके अधरों पर मुस्कान का स्ट्रोक हमेशा-हमेशा के लिए फेर दिया था? क्या आर्टिस्ट उस समय किसी बहुत मलाईदार पद पर विराजमान था? या उसके किसी भतीजे या साले को माइनिंग का कोई बड़ा ठेका मिल गया था? या फिर क्या उसे किसी कारपोरेशन के अध्यक्ष पद का आश्वासन मिल गया था? ऐसा क्या था? या माफ करना, वह किसी रात शराब के नशे में इतना डूब गया था कि उसे याद ही ना रहा कि मोनालिसा के चेहरे पर मुस्कान को उसने कब स्थाई भाव दे दिया? इतना अन्याय!
सच क्या था, यह विंची साहब ही जानें। पर वे तो चले गए, लेकिन बेचारी मोनालिसा को हमेशा के लिए रहस्यमयी मुस्कान के आवरण में रहने का श्राप दे गए। हर हाल में मुस्कुराना मोनालिसा की जिंदगी की मजबूरी बन गई। बीते 500 सालों में बेचारी मोनालिसा ने क्या-क्या नहीं देखा होगा? यहूदियों पर हिटलर के अत्याचार, अमेरिका के परमाणु हमले में गलते जापानियों के शरीर, अफ्रीकी देशों में भूख से मिट्टी खाने को मजबूर बच्चे। तब से लेकर अब तक न जाने कितने अकाल आए, न जाने कितनी महामारिया आईं, कितने युद्ध लड़े गए, लेकिन मोनालिसा को तो हर हाल में मुस्कुराना ही था। भले ही पवार साहब लाख शिकायत कर लें, मुस्कुराना मोनालिसा की मजबूरी है। अब चाहे तो उसे हंसी मान लीजिए।
मोनालिसा की इस पीड़ा को समझने का प्रयास कीजिए। जिस समय दरिंदों के हाथों निहत्थी निर्भया की लुटी जा रही अस्मत मानवता के चेहरे पर बदनुमा दाग बनने की प्रक्रिया में थी, उस समय भी मुस्कुराना मोनालिसा की मजबूरी थी। गंगा नदी में बहते सैकड़ों शवों को या ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते असहाय लोगों को देखकर भी मोनालिसा मुस्कुराई ही होगी। हां, इनसे मुंह चुराकर मुस्कुराई होगी। समस्या से मुंह मोड़कर आप कुछ भी कर सकते हैं, मुस्कुरा भी सकते हैं। जलते हुए रोम की ओर से मुंह फेरकर बांसुरी बजाते हुए नीरो भी हो मुस्कुरा ही रहा होगा। बांसुरी बजाते-बजाते कोई रोता है भला! ऐसा तो हुआ नहीं होगा कि नीरो बांसुरी बजा रहा है और उसकी आंखों से टप-टप आंसू भी गिर रहे हैं।
तो मोनालिसा के लिए मुस्काना उसकी मजबूरी है, पर उसकी मुस्कान रहस्यमयी भी है। कला के ज्ञानी कहते हैं कि उसका एंगल बदलकर देखिए। एंगल बदलते ही मुस्कान की आब कमजोर हो जाती है और कहीं-कहीं तो मुस्कान गायब भी हो जाती है। अब यह एंगल ढूंढने वाला मामला बन गया। मामला पूरा की पूरा सब्जेक्टिव हो गया। कला में अक्सर यही होता है और राजनीति में तो इससे भी ज्यादा होता है।
मोनालिसा की मुस्कान का यह पूरा प्रकरण दिन दहाड़े रोशनी का है। रोशनी में मुस्कुराती है, शायद हंसती है, शायद ठहाके भी लगाती है। पर क्या पता वह रात को रोती हो? क्या किसी ने उन्हें अंधेरे में देखा है? अब इस बात पर पवार साहब खुश होंगे कि नाखुश?

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

गुरुवार, 17 जून 2021

Satire : सत्ता का हाथी और छह आधुनिक अंधे!

 

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By Jayjeet

बात बहुत पुरानी है। बात जितनी पुरानी होती है, उतनी ही भरोसेमंद भी होती है। तो यह भरोसेमंद भी है। किसी जमाने में छह अंधे हुआ करते थे। अंधे तो उस जमाने में और भी बहुत थे, लेकिन एक हाथी ने उन अंधों को अंधत्व के इतिहास में अमर बना दिया। अमर होने का फायदा यह होता है कि आप किसी भी बात को उसकी अमरता पर लाकर खत्म कर सकते हैं। यह बात नेहरू-गांधी के अनुयायियों से बेहतर भला और कौन जान सकता है? तो इन छह अंधों की बात भी हाथी की ऐतिहासिक व्याख्या पर आकर खत्म हो गई। बात भले खत्म हो गई हो, लेकिन अंधत्व की वह परम्परा खत्म नहीं हुई। वैसे यहां कोई राजनीति न ढूंढें, हम वाकई अंधों की ही बात कर रहे हैं। तो बगैर ब्रेक के बढ़ाते है वही बात, अंधों की बात।

तो हुआ यूं कि उन छह अंधों के छह आधुनिक वंशज हाल ही में किसी वेबिनार में मिल गए। चूंकि वे अपने पूर्वजों की अमर परम्परा को जीवित रखने के लिए ही अवतरित हुए थे, ऐसा उन्हीं का मानना था। तो उन्होंने दो काम किए। एक, वे अंधे बने रहे और दूसरा, उन्होंने भी हाथी की व्याख्या करने के अपने पुरखों के पुनीत काम को ही आगे बढ़ाने का फैसला किया। पुरखों का काम आगे बढ़ाने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि कुछ नया नहीं करना पड़ता है। नुकसान केवल पुरखों का नाम डूबने के खतरे के रूप में होता है। पर चूंकि पुरखे जा चुके होते हैं। तो यह खतरा अक्सर लोग और यहां तक कि पॉलिटिकल पार्टियां भी उठा लेती हैं। 

तो जैसा कि पहले बताया, ये छह अंधे एक वेबिनार में मिले। नए जमाने के नए अंधे। तो हाथी को जंगल में खोजने की मशक्कत करने के बजाय उन्होंने उसे गूगल पर ही खोजने का निर्णय लिया। गूगल का फायदा यह भी होता है कि वह गलत खोजों को भी करेक्ट कर देता है। जैसे इन छह अंधों द्वारा "Elephent' लिखकर सर्च करने पर भी गूगल ने स्पेलिंग ठीक कर ढेरों हाथी सामने पटक दिए। छोटे-बड़े, आड़े-टेढ़े, पस्त और मदमस्त। उन्होंने बहुमत से एक मदमस्त हाथी चुन लिया। हालांकि उन्होंने वही हाथी क्यों चुना, इस बारे में उन्हें कुछ पता नहीं था। बस चुनना था तो चुन लिया। लेकिन खुशी तो उनके चेहरे पर ऐसी थी मानो सरकार चुन ली। दिखावा तो एेसा कि क्या समझ-बूझकर हाथी चुना। चूंकि वे वोर्टस भी थे तो उन्हें ऐसा हाथी चुनने में अपने मतदान का अनुभव काम आया।

खैर हाथी का चुना जाना ज्यादा महत्वपूर्ण था। उन्होंने जो हाथी चुना था, वह शायद उनके चुने जाने से पहले ही मदमस्त था। वह सत्ता का हाथी था जो इन दिनों ट्विटर, वाट्सऐप के पीछे-पीछे गूगल के बाड़े में भी आ धमका था और इसीलिए उन अंधों को वह गूगल पर ही चरते हुए मिल गया। सत्ता का वर्चुअल हाथी उनके सामने तो था, लेकिन उसे न देख पाना उनकी परंपरागत मजबूरी थी।

खैर, अंधों ने वर्चुअल हाथी की वर्चुअल व्याख्या शुरू की, क्योंकि हमने भी तो बात उस व्याख्या के लिए ही शुरू की थी।

पहला अंधा वर्चुअल हाथी के पेट पर अपने कम्प्यूटर माउस का कर्जर रखते ही बोला। अरे यह तो दीवार है। वोटों के लिए हिंदुओं-मुस्लिमों के बीच खींची हुई दीवार।

अब दूसरे अंधे ने अपने माउस का कर्जर हाथी के मुंह की तरफ मोढ़ा। सूंड पर पहुंचते ही बोला, - नहीं जी, यह दीवार नहीं, यह तो सांप है। विष वमन करने वाला सांप, धर्म के नाम पर तो कभी पाकिस्तान के नाम पर।

तीसरे अंधे के माउस का कर्जर हाथी की पूंछ के पास पहुंचा। उसे महसूस करके बोला, - यह रस्सी है, ऐसी रस्सी जो सत्ता में ऊपर चढ़ने के भी काम आए और विरोधियों का गला कसने के भी।

अब चौथे की बारी थी। चौथे अंधे ने हाथी के कानों को छूआ तो बोला, अबे, यह तो सूपड़ा है। जो काम का न हो, उसे झटक देता है। 75 साल के बूढ़ों को साफ करने में यह ज्यादा काम आया।

पांचवें अंधे के माउस का कर्जर हाथी के पैर के पास पहुंचा तो ऐसा उत्साह से भर गया मानो हाथी का रहस्य उसी ने ढूंढ़ लिया हो। वह चिल्लाने ही वाला था कि यकायक चुप हो गया। बाकी के अंधे 'क्या क्या' करते ही रह गए, पर वह न बोला तो न बोला। शायद वह अकल से अंधा न था।  

छठे ने अब ज्यादा इंतजार करना ठीक न समझा। वह अपने आप को ज्यादा बुद्धिमान तो नहीं, लेकन दूसरों को मूर्ख जरूर समझता था। उसने सोचा, बहुत बकवास हो गई। सब घिसी-पिटी बात कर रहे हैं। मैं देखता हूं। उसने हाथी के दांतों तक अपने माउस का कर्जर पहुंचाया और धीरे से बोला, ‘अरे मूर्खों, यह तो बांसुरी है, बांसुरी। यह वही बांसुरी है, जो कभी नीरो बजाया करता था।’

पांचवें को छोड़कर बाकी सभी अंधों ने चिल्लाकर कहा, अरे हां, कुछ दिन पहले यही बांसुरी तो हमने सुनी थी। क्या सुंदर धुन थी। अब वे आंखों से अंधे थे, कानों से बहरे थोड़े ही थे। तो वह सुंदर धुन तो सबने सुनी ही थी, पांचवें वाले ने भी।

अब फिर से पुराने जमाने की कहानी में लौटते हैं। पूर्वजों द्वारा हाथी की व्याख्या में तो वह हाथी कन्फ्यूज हो गया था। लेकिन सत्ता के इस मदमस्त हाथी को कोई कन्फ्यूजन नहीं है। नतीजा : एक अंधे को छोड़कर बाकी सभी धारा 124 के तहत जेल में चक्की पीस रहे हैं। पांचवें अंधे ने हाथी की इमेज को दुरुस्त करने के लिए उसका सोशल मीडिया अकाउंट संभाल लिया है।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

बुधवार, 16 जून 2021

Humor & Satire : गेहूं की बोरियों का भी वाट्सएप ग्रुप, बारिश में भीगती बोरियां डाल रही हैं स्टेटस

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 By Jayjeet

और तेज हवाओं के साथ झमाझम बारिश होने लगी। मानसून की पहली बारिश थी। बैग में छाता तो था, लेकिन बाइक पर उसे कैसे संभालता। तो रिपोर्टर ने भीगने से बचने के लिए सीधे उस यार्ड की शरण ली जहां गेहूं की बोरियां रखी हुई थीं। लेकिन वहां का सीन देखा तो माथा ठनक गया। गेहूं की एक नहीं, कई बोरियां पहली बारिश में भीगने का लुत्फ उठा रही थीं। छई छप्पा छई, छप्पाक छई... पर डांस कर रही थीं। न कोई लाज, न कोई शरम। रिपोर्टर का रिपोर्टतत्व जागृत हो उठा और अपना छाता तानकर सीधे पहुंच गया ऐसी ही एक बोरी के पास ...

रिपोर्टर : बोरीजी... बोरीजी ssss... ऐ बोरी...

बोरी : कौन भाई। आप कौन? क्यों चिल्ला रहे हों? 

रिपोर्टर : ये आप बारिश में बिंदास भीग रही हैं। क्या आपको ना मालूम कि आपके भीतर बहुत ही कीमती दाना भरा हुआ है?

बोरी : अरे कहां ऐसी छोटी-मोटी बातों में लगे हों। पहली बारिश है। आप भी फेंकिए ना अपना छाता और मस्त भीगिए ना। (और फिर वह लग छई छप्पा छई, छप्पाक छई... ) 

रिपोर्टर : अरे नहीं, मैं तो आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करवाने आया हूं।

बोरी : देखिए, जब मानसून की पहली बारिश होती है ना तो महीनों की सारी तपन दूर हो जाती है। मेरी सारी सहेलियां और कजीन सब भीगने का मजा ले रही हैं और आप हैं कि अपनी रिपोर्टरगीरी में इन शानदार पलों को खो रहे हों। 

रिपोर्टर : सब भीग रही हैं, मतलब? 

बोरी : हमारा वाट्सएप ग्रुप है। मप्र से लेकर राजस्थान, उप्र, पंजाब, हरियाणा, सब जगह की बोरियां इससे जुड़ी हैं। सब बोरियों ने पहली बारिश में भीगने की सेल्फियां पोस्ट की हैं। तो मैं क्यों यह मौका छोड़ू? अब आप आ ही गए तो मेरी बढ़िया-सी फोटो ही खींच दीजिए। ग्रुप में भी डाल दूंगी और स्टेटस पर भी।

रिपोर्टर (फोटो खींचने के बाद) : बहुत हो गया बोरीजी। मुझे आपके भीतर पड़े दाने की चिंता हो रही है। आप समझती क्यों नहीं?

बोरी : आप क्यों चिंता कर रहे हों? चिंता करने वाले दूसरे लोग हैं ना। अनाज भंडारण केंद्रों के कर्मचारी, मंडियों के अफसर सब हैं ना। कल आएंगे। आंकलन कर लेंगे कि कितना अनाज खराब हुआ, कितना सड़ा। अपने दस्तावेजों में सब दुरुस्त कर लेंगे। बेमतलब की चिंता छोड़िए और आप तो मेरे साथ एक सेल्फी लीजिए। किसी बोरी ने आज तक किसी रिपोर्टर के साथ सेल्फी ना खिंचवाई होगी। आज तो सबको जलाऊंगी...

रिपोर्टर : पर ये कौन अफसर हैं? मुझे जरा उनका नंबर दीजिए, अभी बात करता हूं।

बोरी : आप बहुत ही विघ्न संतोषी टाइप के आदमी मालूम पड़ते हों। लगता है, न आप कभी खुद खुश होते हो और न दूसरों को खुश देख सकते हों... 

रिपोर्टर : अरे, मैं तो उनकी जिम्मेदारी याद दिलाना चाहता हूं, बस।

बोरी : अब आप भी बस कीजिए रिपोर्टर महोदय। बेचारे अफसर पहली बारिश में घर में बैठकर अपनी-अपनी बीवियों के हाथों पकोड़े खा रहे होंगे। आप क्यों छोटी-छोटी बातों पर उन्हें परेशान करना चाहते हैं। आप भी जाकर खाइए ना पकोड़े-सकोड़े... और इतना कहकर फिर लग गई ...छई छप्पा छई, छप्पाक छई...

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)


सोमवार, 14 जून 2021

Funny : कोरोना की जिंदगी में भी शुरू हुआ स्यापा!


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By Jayjeet

कोरोना ने हम सब लोगों की जिंदगी में तूफान मचा रखा है। लेकिन अक्षय तृतीया के बाद से अब यह तूफान कोरोना की जिंदगी में उठ रहा है। वजह - उसने कोरोनी से शादी जो कर ली है। कोरोना की जिंदगी में क्या स्यापा चल रहा है, आइए सुनते हैं कोरोना और उसकी धर्मपत्नी यानी कोरोनी की यह बातचीत। बहुत ही गोपनीय ढंग से रिकॉर्ड की गई इस बातचीत की एक्सक्लूसिव सीडी केवल हमारे पास ही है :

कोरोना : हे कोरोनी, तुमने ये इतना बड़ा-सा घुंघट क्यों डाल रखा है?

कोरोनी : आपसे हमें संक्रमण ना हो जाए, इसी खातिर...

कोरोना : अरे, जबसे तुमसे शादी हुई है, तबसे हममें संक्रमित करने की ना तो इतनी ताकत बची, ना इतना समय..

कोरोनी : तो इसमें हमें काहे दोष देते हों? हमने ऐसा क्या किया?

कोरोना : क्या किया? सुबह से ही बिस्तर पर बैठे-बेठे ऑर्डर देने लगती हो, चाय बनी क्या? नाश्ता बना क्या? चाय-नाश्ता बनाकर फारिग होता ही हूं कि आलू-प्याज की रट लगा देती हो। बस, थैला उठाए आलू-प्याज और सब्जी लेने निकल जाता हूं। लोगों को संक्रमित क्या खाक करुं?

कोरोनी (घुंघट को हटाते हुए) : देखिए जी, अब ये तो ज्यादा हो रहा है... अरे और दूसरे हस्बैंड लोग भी तो हैं। वे अपने पड़ोस में शर्माजी को ही देखो..

कोरोना : शर्माजी, कौन शर्माजी?

कोरोनी : वही शर्माजी, जिनको तुमने हमारी इन्गेजमेंट के दिन ही संक्रमित किया था, भूल गए क्या? देखो उनको भी तो, कैसे बीवी के इशारों पर नाचते हैं, पर बॉस की भी पूरी हाजिरी लगाते हैं। ऐसे एक नहीं, कई लोग हैं जो बीवी और बॉस दोनों की चाकरी पूरे तन-मन से करते हैं और मुंह से उफ्फ तक नहीं निकलाते। और एक तुम हो कि बीवी जरा-से काम क्या बताती, उसी में चाइना वाली नानी याद आने लगती है.... काम धाम कुछ नहीं, शो-बाजी तो पूछो मत...

कोरोना (गुस्से में) : क्या काम-धाम ना करता हूं, बताओ‌ तो जरा? सुबह उठकर चाय-नाश्ता तैयार मैं करता हूं, सब्जी-वब्जी मैं लाता हूं। दोनों टाइम के बर्तन मैं साफ करता हूं। तंग आ गया मैं तो ... घर-गृहस्थी के चक्कर में अपना असली काम ही भूल गया... देखो, कैसे लोग बिंदास बगैर मास्क लगाए घूम रहे हैं, जैसे मुझे चिढ़ा रहे हों कि आ कोरोना आ... पर अब ताकत ही ना बची ...

कोरोनी (मामले को शांत करते हुए) : अरे जानू, तुम तो नाराज हो गए। अच्छा, चलो आज डिनर में चाऊमिन मैं बना दूंगी। .... और सुनो जी, गांधी हॉल में साड़ी की सेल शुरू हुई है। उसमें हजार-हजार की साड़ी पांच-पांच सौ में मिल रही है। चलो ना वहां, तुम्हारा भी मूड फ्रेश हो जाएगा...

कोरोना (सीने पर हाथ रखते हुए) : हे भगवान, क्यों सेल का नाम लेकर मेरा बीपी बढ़ा रही हो? उधर, सरकार ने वैक्सीन पर फिर पॉलिसी बदल ली है। मेरे लिए तो जिंदगी में टेंशन ही टेंशन है। क्या करुं, कहां जाऊं...!!

कोरोनी : हाय दैया, ये सरकार है कि तमाशा है। पल में तोला, पल में माशा। पर सरकार तुम्हारे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ी है?

कोराना : अरे हमें पूरी तरह से नाकारा बनाने के लिए, और क्या! आधे मरे को पूरा मारने के लिए।

कोरोनी : अजी, तब तो तुम टेंशन मत लो। हम सरकार से कह देंगे कि देश में कोनो वैक्सीन-फैक्सीन की जरूरत नहीं है। अब हम है ना...!! और अब फटाफट तैयार हो जाओ। लॉकडाउन खुलने के बाद पहली सेल है। ऐसा ना हो कि सेल में अच्छी-अच्छी साड़ियां पहले ही खतम हो जाए...

और कोरोना "जी जी' करते हुआ तैयार हुआ और कंधे झुकाए निकल पड़ा बाइक पर कपड़ा मारने...


शनिवार, 5 जून 2021

Satire & Humor : उस पौधे से बातचीत जिसे बड़ा होकर नेताओं की कुर्सी बनना है...

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By Jayjeet

कई पौधे पड़े-पड़े मुस्करा रहे थे। बड़ी ही बेसब्री से नेताजी का इंतजार कर रहे थे। उन्हें प्रफुल्लित देखकर ऐसा लग रहा था मानो वे इंसानों को चिढ़ा रहे हों कि आपके अच्छे दिन आए या ना आए, हमारे तो आ गए। पर उन्हीं में से एक पौधा कोने में मुंह फुलाए दीवार के सहारे अधखड़ा था। उसे विश्व पर्यावरण दिवस से रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ रहा था। रिपोर्टर तो हमेशा ऐसे ही असंतुष्ट और बागियों की तलाश में रहते हैं। ब्रेकिंग न्यूज तो आखिर उन्हीं से मिलती है। तो यह रिपोर्टर भी पहुंच गया उसी बागी पौधे के पास और लगा कुरेदने ...

रिपोर्टर : नमस्कार, आज तो आपका दिन है। लेकिन आपके चेहरे पर इतनी मुर्दानगी क्यों छा रही है भाई? 

पौधा : मुझे तो उन पौधों पर तरस आ रहा है तो आज के दिन बड़े खुश हो रहे हैं। देखो, नेताजी के इंतजार में कैसे खुशी से मरे जा रहे हैं।

रिपोर्टर : खुश तो आपको भी होना चाहिए। पर आप तो सचिन पायलट बन रहे हों।

पौधा : तो क्या हमें सिंधियागीरी मिल जाएगी, जो खुश हो जाएं?

रिपोर्टर : वाह, नहले पर दहला जड़ दिया। राजनीति का आपको इतना इल्म कैसे?

पौधा : आपके नेताओं से हमारे बाप-दादाओं का पुराना राब्ता रहा है।

रिपोर्टर : अरे, भला कैसे?

पौधा : आपके नेता लोग लकड़ी की जिन कुर्सियों पर बैठते हैं, वे आखिर हमारे बाप-दादाओं के बलिदान का ही तो प्रतिफल है।

रिपोर्टर : अच्छा, इसीलिए आपके दिलो-दिमाग में नेताजी के प्रति इतनी नफरत भरी है?

पौधा : और नहीं तो क्या! बड़े होकर नेताओं की कुर्सी की लकड़ी बनना ही तो हमारी नियति है। नेताओं से बच गए तो किसी बड़े इंडस्ट्रीयल प्रोजेक्ट के लिए काट दिए जाएंगे।

रिपोर्टर : लेकिन ये भी तो सोचो कि बड़े होने पर अगर किस्मत से जंगल मिल गया तो फिर तो ऐश ही ऐश। मस्ती से कई पीढ़ियां बीत जाएगी आपकी।

पौधा : सब मन बहलाने वाली बात है। अपने पुरखों की आत्मकथाएं बांच रखी हैं मैंने। उनमें वे कटने से पहले विस्तार से बता गए कि कैसे कभी कोयले के लिए, कभी सोने या हीरों के लिए तो कभी बड़े-बड़े बांधों के लिए जंगल के जंगल साफ कर दिए गए। 

रिपोर्टर : लेकिन आप मानवता के काम आ रहे हों, यह सौभाग्य कम ही लोगों को मिलता है।

पौधा : ये अपना इमोशनली ब्लैकमेल वाला फंडा उन मूर्ख पौधों पर आजमाइए जो नेताजी के हाथ से खुद को बर्बाद करने को तैयार बैठे हैं। मैं इंकलाबी खुद को सुखाकर मर मिटूंगा, लेकिन तुम मनुष्यों के लिए कभी नहीं....

वह बागी पौधा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया कि उससे पहले ही सायरन बजाती गाड़ियां धमक पड़ीं। क्षण भर में ही फॉरेस्ट विभाग के कारकून के दो हाथों ने उस पौधे पर मानो झपट्‌टा-सा मारा। पौधे ने शुरू में प्रतिरोध किया, लेकिन फिर अपनी नियति के लिए निकल पड़ा। फोटोग्राफर्स भी दूर खड़े नेताजी की तरफ लपक पड़े...

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शुक्रवार, 4 जून 2021

व्यंग्य : सरकार के बनने और दौड़ने की एक दंतकथा


 By ए. जयजीत 

सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। 

बहुत पुरानी बात है। बात जितनी पुरानी होती है, उतनी ही दमदार होती है। तो यह दमदार बात भी है। एक दिन ऊपर बैठी हुई ईश्वरीय शक्ति, जिसे हम आगे शॉर्ट में ईश्वर ही कहेंगे, को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ भी करते-धरते नहीं हैं। तो क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने पर कार्य शुरू किया। इस व्यवस्था को बाद में कुछ लोगों ने शासन प्रणाली कहा तो कुछ ने सरकार। हम यहां शॉर्ट में इसे सरकार ही कहेंगे क्योंकि शासन प्रणाली उच्चारित करना जरा कठिन है। कठिन चीजों से हमेशा बचना चाहिए।

तो सरकार के तहत कुछ लोगों को भर्ती किया गया। बाद में ईश्वर यह बात भूल गए कि उन्होंने कोई व्यवस्था बनाने की बात सोची थी, कुछ भर्तियां भी की थी। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते, जैसे कि पहले बैठे हुए थे। यही लोग बाद में चलकर सरकारी कर्मचारी कहलाए। 

महीनों बीत गए। फिर उनमें से कुछ ने खुद ही सोचा कि बैठे-बैठे क्या करें, करते हैं कुछ काम। तो वे कुछ करने को निकले। सबसे पहले उन्होंने ऐसी जगह ढूंढने की ठानी जहां बैठकर वे बगैर काम किए भी वे खुद को बिजी दिखला सकें। तो उन्होंने ऐसे ठिकाने ढूंढ लिए। यही ठिकाने बाद में सरकारी दफ्तर कहलाए। ठिकानों पर पहुंचकर सब लोग खुश हुए। सरकारी नौकरी लगने पर खुश होने की महान परंपरा का यहीं से जन्म हुआ। इस तरह सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।

अब कर्मचारी थे। दफ्तर भी थे, मगर खाली-खाली थे। महसूस हुआ कि दफ्तर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें तो होनी ही चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ मूर्खों ने कहा, चलो फ्री तो बैठे ही हैं। बाजार चलकर खरीद लाते हैं। लेकिन समझदार लोगों ने समझाया - सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं ऊंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यह दफ्तरों में सवाल पूछने की परंपरा का आगाज था। सबसे इसका स्वागत किया। सदियां बीत गईं, यह उसी 

सवाल का प्रताप है कि आज भी  हर दफ्तर में जवाबदेही से ज्यादा सवालदेही मिलती है। 

हर काम सिस्टैमेटिक हो, पर कैसे हों? इस पर कई लोग साथ बैठते, भर-भरकर विचार करते। यह

मीटिंग्स का शुरुआती काल था जो कालांतर में प्राइवेट दफ्तरों में खूब फला-फूला। खैर, मीटिंग्स पर मीटिंग्स के बाद अंतत: सामान की खरीदी के लिए प्रपोजल्स मंगवाने पर एकराय बनी। जो इस एकराय पर एकमत नहीं थे, वे मीटिंग्स से बाहर चले गए, कानाफूसी करने। तो इस मीटिंग्स से सरकारी दफ्तरों में दो चीजें एकसाथ अस्तित्व में आईं- कानाफुसी और टेंडर। इससे तीन फायदे हुए। दफ्तरों में लोगों को तीन तरह के काम मिलने शुरू हुए - मीटिंग्स करना, कानाफुसी करना और खरीदी के टेंडर निकालना।

तो कुछ चीजों के लिए टेंडर निकाले गए। टेंडर के कार्य के लिए टेबलें जरूरी थीं। तो उन्हें पिछले दरवाजें से बुलवाना पड़ा, बगैर टेंडर के। यहां कर्मचारियों को एक महाज्ञान की प्राप्ति भी हुई - कुछ काम नॉन-सिस्टेमैटिक तरीके से भी हो सकते हैं। जिन्होंने पहले यह ज्ञान दिया कि था कि सब कुछ सिस्टेमैटिक होना चाहिए, वे भी इस नए महाज्ञान पर आसक्त हो गए।

टेंडर के काम के लिए टेबलें तो आ गईं, लेकिन कुर्सियां बुलाना भुल गए। चूंकि वह शुरुआती काल था। तो लोग कुर्सी की महिमा से इतने परिचित नहीं थे। सो, कुर्सी न होने पर भी उन्होंने उस समय मलाल नहीं किया। कुछ लोग टेबलों के ऊपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट होने लगा। टेबलों के ऊपर बैठे लोग भी अब ऊंगली को नीचे करके इशारा करते। यहीं से एक और ज्ञान मिला - काम टेबलों के नीचे से ज्यादा आसानी से हो सकता है, बनिस्बत ऊपर के। इसलिए पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए।

इस तरह सरकार और आगे बढ़ी।

इसी दौरान ईश्वर को अचानक याद आया कि उसे तो कोई व्यवस्था बनानी थी। उसने ऊपर से नीचे झांका। उसे यह देखकर बड़ी खुशी मिली कि कुछ समझदार इंसानों ने आत्मनिर्भर होकर खुद ही कुछ व्यवस्था बना ली। परंतु चूंकि उसे भी कुछ तो करना था। तो उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। और इस तरह ईश्वरीय दायित्व पूरा हुआ। इसके बाद से ही मतदान को आज भी ईश्वरीय दायित्व कहा जाता है।

अब मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों का प्रमुख बना दिया। लेकिन अब वे सब क्या करते? मीटिंग्स भी कितनी करते। कानाफुसी करना छोटा काम था और टेंडर निकालना नीचे वालों का काम था। तो ये विभाग प्रमुख तो निठल्ले के निठल्ले ही रहे।

फिर मुखिया को याद आईं वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थीं। वे सब धूल खा रही थीं। उसने विभागों के प्रमुखों को आदेश दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के प्रमुखों के दिन फिरे। उन्हें अपनी हैसियत के अनुसार प्रॉपर काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्श करें।

इस तरह लोग अब मीटिंग्स के अलावा चर्चा और परामर्श भी करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलों को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने तक, जो अब ऑफिशियली दफ्तर कहलाने लगे थे, फाइलें चलने लगीं। फाइलों के चलने की गति उस पर रखे गए वजन के समानुपाती होती थी। फाइल पर जितना ज्यादा वजन, उसकी गति उतनी तेज। तो अब सरकार दौड़ने लगी थी।

यहां छोटा-सा एक ब्रेक लेने का वक्त है। लेकिन चूंकि स्टोरी में एक ट्विस्ट आ गया है। तो पहले उस ट्विस्ट की बात कर लेते हैं…

इधर सरकार रुक-रुककर दौड़ रही थी और उधर राज्य में कुछ समाज विरोधी तत्व भी मर-मरकर पैदा हो रहे थे। ये तत्व बाद में क्या कहलाए, आप तय कीजिए, क्योंकि इनको लेकर थोड़ा वैचारिक कन्फ्यूजन है। खैर, इन समाज विरोधी तत्वों ने सरकार से ही सवाल पूछने शुरू कर दिए। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए!

लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। सरकार क्या कर रही है, इसी सवाल पर उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया। यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की शुरुआत हुई। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता को तो ईश्वर ने मुखिया चुनने की शक्ति देकर पहले ही चुप करवा दिया था। भला जनता का ऐसे आलतू-फालतू सवालों से क्या लेना-देना?

तो सरकार चलती रही। इस बीच स्पीड ब्रेकर नामक एक महान आविष्कार भी हो चुका था। तो इन स्पीड ब्रेकरों पर सरकार रुकती भी रही और उछलती भी रही। यूं ही रुकते-उछलते-दौड़ते सालों बीत गए।

फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने के लिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला जो फाइलें पुट-अप करते-करते अब बूढ़े हो गए थे। बुढ़ापे की इस सरकारी व्यवस्था को तब तक रिटायरमेंट का नाम दे दिया गया था।

कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही, दौड़ती रही। स्पीड ब्रेकरों पर रुकती रही और उछलती रही। यह परंपरा आज तक चली आ रही है।

 इति दंतकथा। अब एक लंबा ब्रेक ले लेते हैं...।