गुरुवार, 10 मार्च 2022

Satire & Humor : अकबर रोड का वह भूत; कभी हंसता है, कभी रोता है…

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ए. जयजीत

हिंदुस्तान के एक अज़ीम शासक अकबर के नाम पर बनी सड़क पर स्थित है वह महल। आज खंड खंड। नींव मजबूत है, लेकिन कंगुरे या तो ढह चुके हैं या ढहने के कगार पर हैं। ढहते कंगुरों से लटके शीर्षासन करते चमगादड़ महल के भूतिया गेटअप को बढ़ाने का ही काम करते हैं। इस अफवाह के बाद कि इस खंड-खंड इमारत से अक्सर किसी भूत के रोने की आवाजें आती हैं, आज पूरे मामले की तफ्तीश करने निकला है वह भूतिया रिपोर्टर। हाथ में टिमटिमाती लालटेन के साथ वह उस इमारत के सामने खड़ा है। भानगढ़ के भूतिया किले से कई बार रिपोर्ट कर चुका वह जांबाज रिपोर्टर भूत मामलों का एक्सपर्ट हैं। भूतिया रिपोर्टर्स के हाथों में पेन या माइक टाइप का तामझाम हो या ना हो, लेकिन पुरानी वाली टिमटिमाती लालटेन होती ही होती है। भूतिया महलों की रिपोर्टिंग करने वाले अनुभवी रिपोर्टर जानते होंगे कि ऐसे मौकों पर टिमटिमाटी लालटेन भूतों के लिए "बिल्डिंग कॉन्फिडेंस' का काम करती है।

तो आइए चलते हैं उसी खंड खंड इमारत के पास...

एक हाथ में लालटेन लिए रिपोर्टर ने दूसरे हाथ से जैसे ही इमारत का मुख्य दरवाजा खोला, सफेद बालों में खड़ा भूत सामने ही नजर आ गया। रिपोर्टर चौंका - हें, ये कैसा नॉन ट्रेडिशनल टाइप का भूत है जो तुरंत आ गया। न सांय-सायं की आवाज आई। काली बिल्ली भी झांकती नजर नहीं आई। उसे खटका तो उसी समय हो गया था, जब दरवाजा भी बहुत स्मूदली खुल गया था। और फिर स्साले चमगादड़ भी कंगुरों पर लटके हुए टुकुर-टुकुर देखते ही रहे। मजाल जो उड़कर माहौल बनाने आ जाए। सालों से एक जगह पड़े-पड़े उनके परों में जैसे जंग लग गया हो। खैर, तुरंत अपनी विचारतंद्रा को तोड़ते हुए भूतिया रिपोर्टर ने टांटनुमा डायलॉग मारा, "हम पूरी तरह आए भी नहीं और आप उससे पहले ही पधार गए! कुछ इंतजार तो करते। माहौल-वाहौल तो बनने देते। भूतों के लिए इतनी अधीरता ठीक नहीं।'

"मैं गया ही कहां था जो आऊंगा़? मैं तो यहीं था। शुरू से यहीं था। लोगों ने जरूर मेरे पास आना छोड़ दिया। शुक्र है आप तो आए बात करने।'

"मतलब? आप हैं तो भूत ही ना?' रिपोर्टर को अब भी भरोसा नहीं हो रहा। दरअसल, भानगढ़ के किले में चिरौरी करनी पड़ती, तब कोई आता।

"हां भई, अब मैं भूत ही हूं। 135 साल पुराना भूत। एंड आई एम प्राउड ऑफ माय भूतपना।'

"वाह जी, ऐसा भूत तो पहली बार देख रहा हूं जिसे अपने भूतपने पर प्राउड हो रहा है।'

"जब वर्तमान ठीक न हो और भविष्य नजर न आ रहा हो तो अपने भूतपने पर ही प्राउड करना चाहिए। वैसे आप तनिक आराम से बैठो और अपनी लॉलटेन बुझा दो। तेल वैसे भी बहुत महंगा हो गया है। विरोध करने वाला भी कोई नहीं है।'

"लेकिन... लेकिन भूत जैसे कोई लक्षण तो हैं नहीं। आपके तो उलटे पैर भी नहीं हैं। भानगढ़ के भूतिया किले के तो सभी भूतों के पैर उलटे होते हैं।' रिपोर्टर बार-बार कंफर्म कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि धोखा हो जाए।

"अरे भाई, किसने कहा कि भूत के लिए उलटे पैर होना जरूरी हैं? कांग्रेस होना ही काफी है।'

"अच्छा, तो आप कांग्रेस के भूत हैं? तभी लोगों को अक्सर यहां से रोने की आवाजें सुनाई देती हैं।'

"हां भाई, रोऊं नहीं तो क्या करुं?'

"लेकिन अगर आप कांग्रेस के भूत हैं तो फिर 10 जनपथ पर कौन हैं?'

"वो कांग्रेस का वर्तमान है, पर कांग्रेस का भूत तो मैं ही हूं। पक्का...।'

"और भविष्य?'

"यह भूत से नहीं, वर्तमान से पूछो। भविष्य तो वर्तमान ही तय करता है, भूत नहीं।'

यह कंफर्म होने के बाद कि वह भूत से ही बात कर रहा है, भूतिया रिपोर्टर अब सहज हो चुका है। भूत की एडवाइज पर लालटेन बुझा दी है। दरवाजा बंद कर दिया है ताकि ढहते हुए कंगुरों पर जोंक की तरह चिपके चमगादड़ उसके इंटरव्यू को पहले ही लीक ना कर दें।

"तो आप अक्सर रोते ही हैं?' भूतिया रिपोर्टर ने इंटरव्यू की शुरुआत करते हुए एक घटिया-सा सवाल दागा।

"आपने तो भानगढ़ के किले में काफी भूतों को कवर किया है। फिर भी ऐसा भूतिया टाइप का सवाल पूछ रहे हैं? आप तो जानते ही होंगे कि भूत दो काम बहुत ही एफिशिएंसी के साथ करते हैं। एक, रोने का और दूसरा हंसने का। मैं दोनों काम बखूबी करता हूं। अपने अतीत को देख-देखकर मुस्कुराता हूं, हंसता हूं, ठहाके लगता हूं। वर्तमान को देखकर रोता हूं।'

"अकेले रोते या हंसते हुए आप बोर नहीं हो जाते हैं?'

"अक्सर शहंशाह-ए-अकबर का भूत भी इस सड़क पर आ जाता है, खैनी मसलने के लिए। वह भी तो इन दिनों फालतू है।'

"अच्छा, इस अकबर रोड पर?'

"हां, उसके नाम पर रोड रखी है तो वह यही मानता है कि ये उसी के बाप की, आई मीन उसी की रोड है। तो वह अपनी इस रोड पर अक्सर मिल जाता है। फिर हम दोनों सामूहिक रूप से रोनागान करते हैं।'

"आपका रोना तो समझ में आता है। पर वह क्यों रोता है?'

"फिर वही भूतिया सवाल। अरे भाई, जैसे मेरे वंशजों ने मुझे बर्बाद किया, तो उसके भी बाद के वंशज कहां दूध के धुले थे। इसलिए वह भी बेचारा जार-जार रोता है।'

.... और बातचीत का सिलसिला चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा। बाहर कंगुरों पर लटके चमगादड़ों में अब बेचैनी होने लगी थी। पंख फड़फड़ाने लगे थे। इस बीच, काली बिल्ली की भी एंट्री हो गई थी। मुंह बनाते हुए झांककर दो-तीन बार देख भी गई थी। खिड़की में एक साया भी झांकते हुए नजर आया, पर तुरंत लौट भी गया। शायद अकबर का भूत होगा। अब बारी कुछ अंतिम सवालों की थी -

"बताइए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?' सवाल इस बार का संकेत था कि भूत अपनी पूरी रामकहानी बहुत ही दुखद अंदाज में सुना चुका था और भूतिया रिपोर्टर के लिए सहानुभूति दर्शाने की यह औपचारिकता निभानी भी जरूरी थी।

"बस, अब बहुत हो गया। मेरी मुक्ति का इंतजाम करवाइए।' भूत ने उसी बेचारगी के भाव के साथ कहा, जैसा उसने पूरे इंटरव्यू के दौरान बनाए रखा होगा।

"उसकी तो मोदीजी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अगर आप पूरी तरह से मुक्त हो जाएंगे तो फिर झंडेवालां पर बैठे लोगों को डराएगा कौन? वे न वर्तमान से डरते हैं, न भविष्य से। उन्हें तो केवल आपसे डर लगता है। और यह डर अच्छा है। उन लोगों के लिए भी, देश के लिए भी और देश की जनता के लिए भी।'

"अच्छा!! तो मैं दूसरों के लिए यूं ही भटकता रहूं, रोता रहूं जार-जार?'

"इंतजार कीजिए ना। हो सकता है, आपके भूत से ही भविष्य पैदा हो। जब वर्तमान नपुंसक हो तो भविष्य को पैदा करने की जिम्मेदारी भूत को ही उठानी पड़ती है। जिम्मेदारियों से मत भागिए। सोचिए, क्या कर सकते हैं। तब तक मैं यह रिपोर्ट फाइल करके आपसे फिर मिलता हूं...'

और लॉलटेन जलाकर दरवाजे से बाहर निकल गया भूतिया रिपोर्टर। ढहते कंगुरों पर उलटे लटके चमगादड़ अब सीधे खड़े हो गए हैं। फिलहाल वे वेट एंड वॉच की मुद्रा में हैं...!

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

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