रविवार, 30 अप्रैल 2023

राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!


By Jayjeet Aklecha

यौन शोषण के आरोपों पर एफआईआर दायर होने के बाद भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह की पहली प्रतिक्रिया थी कि वह पूरी तरह मजे में है। जिस व्यक्ति पर हत्या के प्रयास करने सहित पहले से ही अनगिनत मामले दर्ज हों (ADR के अनुसार चार और याचिकताकर्ताओं के वकील के अनुसार 40), जिस पर कभी दाऊद इब्राहिम के साथियों को शरण देने का संगीन आरोप भी लग चुका हो, वाकई उसे इन 'छोटे-मोटे' आरोपों से क्या फर्क पड़ेगा?
लेकिन आरोपी के मजे में होने, उसकी नजर में 'छोटे-मोटे' आरोप होने के बावजूद ये आरोप इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि ये उन बेटियों ने लगाए हैं, जिनकी उपलब्धियों पर पूरा देश पार्टी लाइन से ऊपर उठकर गर्व करता है। ये आरोप गंभीर इसलिए भी हैं, क्योंकि बेटियों की उपलब्धियों की बात करते समय हमारे देश के प्रधानमंत्री की आंखें भी हमेशा गर्व से चमक उठती हैं। और ये आरोप इसलिए और भी गंभीर हैं, क्योंकि यह बृजभूषण उसी पार्टी से सांसद है, जो अक्सर उस सनातन संस्कृति की बात करती है, जहां 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' श्लोक दोहराने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती है।
पर दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि इस पूरे मसले का भी राजनीतिकरण हो गया है। हमारे यहां समस्या ही यह है कि हर मामले का राजनीतिकरण हो जाता है और भोली जनता उसकी बात को ही सच मानने लगती है, जिसकी राजनीति में ज्यादा दम होता है। अब देखिए ना, खबरें आ रही हैं कि यूपी के कुछ संतों ने भी भोलेपन में कह दिया है कि वे यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में जंतर-मंतर पर जाकर पहलवानों के खिलाफ धरना देंगे।
पर एक चिंता यह भी है। अगर भविष्य में इनमें से कोई महिला पहलवान कभी पदक जीतकर लाती है तो हमारे देश के सर्वोच्च कर्णधाता की आंखों में उसकी उपलब्धि का बखान करते समय क्या वैसी ही चमक होगी? या उस चमक पर बृजभूषण जैसे लोगों की कालिमा का ग्रहण रहेगा?
वैसे यह केवल एक नैतिक सवाल है, जिसका आज के राजनैतिक माहौल में कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन यह सवाल तो हमेशा मौजूं रहेगा कि हमने जिन हाथों में मेडल देखे हैं, आखिर सिस्टम के सामने में वे हाथ जुड़ने को मजबूर क्यों हो गए?

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

बोर्नविटा के बहाने आइए कुछ असल सवाल उठाएं…


By Jayjeet Aklecha

हमारे देश की बुनियादी समस्या यह है कि हम बुनियादी मुद्दों पर काम करने के बजाय दिखावे पर ज्यादा भरोसा करते हैं। और यह बीमारी आम लोगों से लेकर सरकारों तक में व्याप्त है। शायद इसीलिए सालों पहले ही लोहियाजी कह गए थे कि दुनिया की सबसे ढोंगी कौम अगर कोई है तो वह भारतीय है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। मामला बोर्नविटा का है। मिडिल क्लास से लेकर हायर क्लास परिवारों में इस्तेमाल होने वाला या कभी ना कभी इस्तेमाल हुआ हेल्थ ड्रिंक पाउडर। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इस पाउडर को बनाने वाली कंपनी से जवाब मांगा है। जवाब भी बस इस बात को लेकर कि उसने अपने प्रोडक्ट में चीनी व कुछ अन्य नुकसानदायक तत्वों की मात्रा को लेकर सही जानकारी क्यों नहीं दी। आप यकीन नहीं करेंगे, लेकिन दुखद सच यही है कि आयोग की आपत्ति केवल इस बात पर है कि कंपनी के विज्ञापन भ्रामक हैं। बस, विज्ञापन हटा दें, तो बाकी वह जो करें, सब ठीक है।
आयोग के अफसरों ने तो अपनी नौकरी कर ली है। बढ़िया है। आइए, हम कुछ काम करें, कुछ सवाल उठाएं। मेरा बुनियादी सवाल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से ही है। सीधा-सा सवाल यह है कि आज मैंने सुबह नाश्ते में अपने बच्चे को जो फल खाने को दिया या आज दोपहर में जो सब्जी खाने को दूंगा, उसमें चीनी से भी कई गुना घातक केमिकल्स से मैं अपने बच्चे को कैसे बचाऊं? या तमाम अभिभावक अपने-अपने बच्चों को कैसे बचाएं?
हम सब जानते हैं कि बाजार में कदम-कदम पर बिकने वाली तमाम सब्जियां-फल केमिकल्स से सने हुए हैं और इन्हें बच्चे ही नहीं, हम सब खा रहे हैं। हमारे घरों में, आस-पड़ोस में, ऑफिसों में नित बढ़ते कैंसर के मामले चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पानी सिर से कितना ऊपर जा चुका है। लेकिन फिर भी हम सतही चिंताओं में दुबले हुए जा रहे हैं। हमें चिंता इस बात की है कि ज्यादा बोर्नविटा पीने से बच्चे डायबिटीज के शिकार हो जाएंगे, लेकिन वे जिस दूध में इसे मिलाकर पी रहे हैं, उसमें कितने केमिकल्स बच्चों और बड़ों को कैंसर के करीब ले जा सकते हैं, इसकी किसी को चिंता है?
हम समझते हैं कि किसान आपका वोट बैंक है। ठीक है, उसे परेशान मत कीजिए। लेकिन फल-सब्जियों में घातक रसायन केवल किसान के खेत तक सीमित नहीं रह गए हैं। फलों-सब्जियों को पकाने, उसे अधिक चमकदार बनाने, कथित तौर पर मीठा बनाने का जो गोरखधंधा फसल के खेत से आने के बाद हो रहा है, हमें अपनी संस्थाओं व सरकारों से इस पर जवाब चाहिए। जवाब चाहिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियों पर प्राणघातक बीमारियों का जो खतरा मंडरा रहा है, आखिर इसको लेकर वे क्या कर रही हैं? प्राकृतिक खेती का एक अव्यावहारिक जुमला उछाल भर देना काफी नहीं है, क्योंकि यह मामला केवल खेती तक सीमित नहीं रह गया है।
यह मुद्दा एक ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के बोर्नविटा में अधिक चीनी होने के आरोप के मद्देनजर उठा है। काश, कम से कम हमारे तथाकथित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर असली मुद्दों पर काम करते। बोर्नविटा जैसे सतही मुद्दों से देश के बच्चों का स्वास्थ्य सुधरने वाला नहीं है। हां, ऐसे मुद्दों से ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के फॉलोवर्स की संख्या जरूर बढ़ जाएगी, क्योंकि आखिर ढोंग तो हम सबमें उसी तरह रचा-बचा है, जैसे फलों-सब्जियों में केमिकल्स।
लोहियाजी को गलत साबित करने का वक्त आ चुका है। खुद को गलत साबित होने में उनकी आत्मा प्रसन्न ही होगी। लेकिन बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसी हमारी संस्थाओं, हमारी सरकारों और हम सभी को सतही मुद्दों से फुर्सत मिले, तभी तो।

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

मेरी रेवड़ी अच्छी, तुम्हारी खराब!!!

 



By Jayjeet Aklecha

एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में एक बेहद रोचक आंकड़ा सामने आया है। इसके अनुसार 90 फीसदी सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को गलत ठहराया है। फ्रीबीज का मतलब मुफ्त अनाज, लाड़ली बहना टाइप की योजनाएं, बिजली बिलों में छूट, गरीबों को गैस सिलिंडर में सब्सिडी आदि।

यहां वह 10 प्रतिशत का डेटा काफी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने फ्रीबीज का विरोध नहीं किया है। इनके नैतिक साहस की सराहना की जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिन सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज को गलत बताया है, क्या वे इसका विरोध करने का कोई नैतिक आधार भी रखते हैं? आइए कुछ तथ्यों के साथ ही बात करते हैं।

- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर हर साल 4,100 अरब रुपए पेंशन पर खर्च किए जाते हैं। नौकरी खत्म करने के बाद यानी बगैर काम किए यह पैसा फ्रीबीज ही है। हालांकि मैं यह कतई नहीं कर रहा हूं कि यह फ्रीबीज अनुचित है।

- नई पेंशन योजना के तहत अधिकांश सरकारें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी की कुल सेलरी का 14 फीसदी अपनी तरफ से योगदान दे रही है। यानी 5 लाख सालाना वेतन पाने वाले कर्मचारी को हर साल औसतन 70 हजार रुपए सरकार दे रही है (वेतन के हिसाब से यह राशि कम-ज्यादा होगी)। यहां भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह गलत है। पर कमजोर वर्गों को मिलने वाली फ्रीबीज को अनुचित बताने वाले कृपया वह डेटा लेकर आएं, जिसमें लोगों को हर साल कम से कम 70 हजार रुपए सरकार अपनी ओर से दे रही है और आने वाले कई सालों तक देगी।

अब इनमें हर साल मिलने वाले ढेरों अवकाश को भी जोड़ लेते हैं। 100 से 150 तक अवकाश तो होंगे ही। जिन्हें मुफ्त योजनाओं यानी फ्रीबीज का फायदा मिलता है, उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले वे लोग हैं, जिनकी एक दिन की छुट्टी का मतलब एक दिन की कमाई से वंचित होना होता है।

खैर, यह पेंशन-अवकाश के दिन वेतन वाली फ्रीबीज तो उनके लिए हैं, जो जीवन भर ईमानदारी से काम करते हैं। फिर दोहरा रहा हूं कि यह फ्रीबीज पूरी तरह से गलत नहीं है।

अब जरा उस फ्रीबीज की बात कर लेते हैं जो सब कर्मचारियों को नसीब नहीं होती, लेकिन गरीबों को मिलने वाली फ्रीबीज का विरोध करने वाले 90 प्रतिशत में ये भी अवश्य शामिल रहे होंगे। विश्व बैंक के 2019 के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में रिश्वत से सिस्टम को 3,600 अरब रुपए का नुकसान हुआ। यह वह राशि है, जो काउंटेबल थी (व्यावहारिक समझ से हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह बहुत छोटा आंकड़ा है )। रिश्वत में बड़ी राशि काउंटेबल नहीं होती है। भारत का अलग से आंकड़ा नहीं है, लेकिन कुछ सौ अरब रुपए तो मान लीजिए। नेताओं के बाद रिश्वत के ज्यादातर मामलों में सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। तो सरकारी कर्मचारी इस फ्रीबीज के बारे में क्या कहेंगे? अगर देश की सभी लाड़ली बहनों को भी हर माह हजार-हजार रुपए दे दिए जाएं, तब भी वह राशि रिश्वत के बतौर सरकार को होने वाले नुकसान के बराबर नहीं पहुंच पाएगी।

बेशक, वृद्धावस्था में सरकारी कर्मचारियों का ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदार है। निम्न वर्ग को भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता पहुंचाकर उसके आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। और खुले मन से यह स्वीकार करना सम्पन्न समाज की भी जिम्मेदारी है कि कमजोरों को हमेशा मदद की दरकार रहेगी।

हां, फ्रीबीज या रेवड़ियों के पीछे निश्चत तौर पर राजनीतिक मकसद होते हैं। हर रेवड़ी अच्छी नहीं हो सकती। उसी तरह से हर रेवड़ी खराब भी नहीं होती। और अगर खराब होगी तो सभी की होगी। मेरी रेवड़ी अच्छी, दूसरों की खराब, यह न्यायसंगत नहीं!

#freebies #Jayjeet #रेवड़ियां



रविवार, 9 अप्रैल 2023

पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...

 पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...



'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो


 'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा


मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!

 



(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।)

By Jayjeet Aklecha

हां, आप चाहें तो इसे राजनीतिक स्टंट बताकर खारिज सकते हैं।
अगर आप टैक्स पैयर्स हैं तो हमेशा की तरह इस बात की दुहाई देकर रोना-गाना कर सकते हैं कि मेरे टैक्स की राशि फिर किसी अपात्र को दी जा रही है...
लेकिन जो भी हो, यह है तो सामाजिक बदलाव की एक क्रांतिकारी योजना। ‘क्रांति’ अपने आप में एक बड़ा शब्द है, फिर भी यहां इस्तेमाल करने का दुस्साहस कर रहा हूं।
कभी-कभी राजनेता भी राजनीति के फेर में अच्छे सामाजिक कार्य कर बैठते हैं। ‘लाड़ली बहना योजना’ ऐसा ही वह राजनीतिक शिगूफा है, जो महिला सशक्तिकरण के तौर पर उतनी बड़ी सामाजिक क्रांति का जरिया बनने जा रही है, जिसका अंदाजा उन नेताओं को भी नहीं है, जिन्होंने महज वोट बटोरने के लिए आनन-फानन में इस योजना को शुरू किया है।
यह योजना क्रांतिकारी कैसे हो सकती है, इसके लिए पहले दो उदाहरण लेते हैं:
हाल ही में देश के एक जाने-माने लेखक से मेरी मुलाकात हुई। महिला सशक्तिकरण की बात चली तो बातों-बातों में उन्होंने अपनी बहन का किस्सा बताया। उनके मुताबिक उनकी बहन की शादी एक सम्पन्न लेकिन पारंपरिक परिवार में हुई, लेकिन आश्चर्य की बात थी कि वहां उनकी बहन का अपना कोई बैंक अकाउंट नहीं था। उसके बजाय उनके पति ने अपना एक डेबिट कार्ड दे रखा था और साथ ही उससे खर्च करने की अनलिमिटेड सुविधा भी। फिर भी वे खुश नहीं थीं। अंतत: लेखक ने उनके पति को बताए बगैर उनका खाता खुलवाकर उसमें एक छोटी-सी राशि डालनी शुरू की। एक लिमिटेड राशि। लेकिन अब उनकी बहन के पास अनलिमिटेड आर्थिक स्वायत्तता का एहसास है, जहां उनके खर्च पर किसी की निगाह नहीं है, अपने पति की निगाह भी नहीं।
दूसरा उदाहरण मेरे अपने घर का ही है। मेरी बेटी अभी-अभी 18 साल की हुई है। 18 साल की होते ही उसकी पहली डिमांड थी- मेरा बैंक अकाउंट हो। हर माह केवल 500 रुपए की राशि का ही वादा है मेरी तरफ से, लेकिन फिर भी खुशियां अनलिमिटेड हैं, क्योंकि अब उसके पास होगी 500 रुपए खर्च करने की आर्थिक स्वायत्तता।
तो विचार कीजिए उन लाखों गरीब-वंचित तबकों की महिलाओं के बारे में, जिनका पहली बार किसी बैंक में खाता खुलने जा रहा है या जिन्हें पहली बार एक निश्चित धनराशि अपने खाते में मिलने जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का यह एहसास इतना बड़ा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हां, बैंकों में ऐसी महिलाओं की भारी भीड़ को देखकर यह महसूस जरूर कर सकते हैं कि सामूहिक तौर पर कुछ तो बदल रहा है।
अब कुछ बातें उनकी जो इसे मुफ्तखोरी बताकर इस पर सवाल उठा रहे हैं।
सवाल उठाना बुरी बात नहीं है। लेकिन कम से कम इस योजना पर तो केवल उसे ही सवाल उठाने का नैतिक अधिकार है, जिसने भ्रष्टाचार की गंगौत्री में बहने वाले अरबों रुपए पर कभी सवाल उठाया हो (और जिसमें समय-समय पर बैंकों में फंसी करोड़ों-अरबों रुपए की राशि को बट्टे-खातों में डालना भी शामिल है)।
अगर नहीं उठाया है तो फिर सामाजिक बदलाव की इस गंगौत्री को बहते देखिए।
फिर याद रखें, गरीब महिलाओं को दिया गया हजार रुपया अंतत: बाजार में ही आना है। और जब बाजार में पैसा घूमता है तो अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है। इसका फायदा ज्यादातर उसी वर्ग को होता है, जो अक्सर अपने टैक्स की दुहाई देता है।

सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?

 


By जयजीत अकलेचा
कांग्रेस जैसी विचारशून्य हो चुकी पार्टी के पास तो सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन को बहाल करने के अलावा कोई इश्यू था नहीं। तो उसने वही किया, जहां तक उसकी सोच जा सकती थी: जिन-जिन राज्यों में उसने चुनाव जीते, वहां फौरन इकोनॉमी का सत्यानाश करने वाले निर्णयों की घोषणा कर दी। लेकिन तमाम पुरातनपंथी सोच के बावजूद मुझे लगता था कि भाजपा कम से कम अपने शीर्ष पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी की उस पहल व इच्छा का सम्मान करना जारी रहेगी, जिसके तहत उन्होंने पेंशन जैसे भारी-भरकम अनुत्पादक खर्च को धीरे-धीरे कम करने का आइडिया दिया था। लेकिन राजनीति के इस दौर में जब चुनाव जीतना ही एकमात्र मकसद बन जाए तो बेचारे राजनीतिक दल भी क्या करें? पुरानी पेंशन स्कीमों को बहाल करने जैसे विकास विरोधी काम करना लाजिमी है। जैसी की खबरें आ रही हैं, अब कनार्टक के साथ-साथ मप्र की भाजपा सरकार भी पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की तरफ आगे बढ़ गई है और इस तरह देश को भाजपामुक्त बनाने की दिशा में भी एक और सशक्त कदम बढ़ा लिया गया है। कांग्रेस को भावभीनी
बधाई
!
खैर, नेताओं से कोई शिकायत नहीं। उनके 1,000 पाप माफ। लेकिन फिर वही बुनियादी सवाल- आखिर बाकी लोग सवाल क्यों नहीं उठाते? चलिए उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों को भी छोड़ दीजिए, जिनके वोटों के लिए सरकारें/पार्टियां मरी जा रही हैं। लेकिन बचे हुए वे 94 फीसदी लोग क्या कर रहे हैं, जो इस भारी-भरकम सरकारी मुफ्तखोरी की योजना के दायरे से बाहर हैं? वे क्यों यह एक अदद सवाल नहीं उठाते कि आखिर कुछ सालों के बाद इस पेंशन के लिए पैसा कहां से आएगा?
चलिए, पहले एक छोटा-सा भयावह आंकड़ा ले लेते हैं। हो सकता है, तब सवाल उठाने में आसानी हो: साल 2019-20 में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पेंशन और अन्य रिटायरमेंट लाभों पर पर कुल व्यय राशि सालाना 4,134 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। यह राशि 30 साल पहले की तुलना में 80 गुना ज्यादा थी। अब 30 साल बाद का अनुमान लगा लीजिए। शायद आपका कैल्युलेटर तो इसकी गणना करते समय माफी मांग लेगा। अब वापस से सवालों के सिलसिले पर आते हैं: आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? राज्य कर्ज लेंगे, तो कर्ज चुकाएगा कौन? केवल सरकारी कर्मचारी तो नहीं चुकाएंगे। चुकाना तो उन 94 फीसदी को भी पड़ेगा, जो असेट्स क्रिएट करने में सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं। क्या यह उन सरकारी लोगों की ‘सेवा’ की भारी कीमत नहीं है, जिन्हें ‘सेवा’ करने के लिए पीले चावल तो कतई नहीं दिए गए थे?
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मोहन भागवत साहब ने एक परम ज्ञान दिया था कि युवा सरकारी नौकरी के पीछे ना भागें। पर अब भागवत जी मेरा उलट सवाल- क्यों न भागें? मैं ही बताता हूं। इसमें दो सुभीते हैं- एक तो नौकरी की पक्की गारंटी (जो कोविड जैसे संकट के समय काम आती है) और दूसरा, सरकारों पर पेंशन टाइप की योजनाएं बहाल करने के लिए संगठित तौर ब्लैकमेलिंग करने का सुभीता। सरकारी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए जुट सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं। और बेचारी मासूम सरकारें, चूं तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें तो थोक में सरकारी कर्मचारियों के वोट चाहिए, नहीं तो दूसरी पार्टियां लार टपकाए बैठी ही हैं।
मान लेते हैं कि सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण केवल 6 परसेंट सरकारी कर्मचारी ही हैं। तो सत्तासीन और सत्ता में आने को आतुर पार्टियों से कम से कम 94 फीसदी लोग तो अब यह पूछें- क्या सरकारें हमें अपने 6 परसेंट लाड़लों की पेंशन के बदले में प्रोडक्टिविटी से भरपूर भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की गारंटी दे सकती है? हंड्रेड परसेंट नहीं। तो हमसे यह उम्मीद क्यों कि हम वोट देने भी अपने घरों से निकलें?
(पुनश्च: 30 साल के बाद आज के हालात को देखते हुए जैसी की आशंका है कि देश दिवालिया हो चुका होगा (और जैसा कि तय है कि नरक में बैठे हमारे आज के अधिकांश नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकसाथ बैठकर हमारी मूर्खता पर हंस रहे होंगे), उस समय उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नई पीढ़ी को भी शायद उतना ही खामियाजा भुगतना होगा, जितना की शेष 94 फीसदी लोगों की भावी पीढ़ियों को…।)

जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... ‌‌‌!!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!

 


By जयजीत अकलेचा
पहली तस्वीर को सब जानते ही हैं। एक लोकप्रिय कथावाचक। और दूसरी तस्वीर से भी सब परिचित होंगे ही। एक निरीह-सा पौधा। इस दूसरी तस्वीर की चर्चा बाद में करुंगा। शुरुआत पहली तस्वीर के प्रसंग से ...
जो लोग स्वयं के सनातनी हिंदू होने का दावा करते हैं, उन्हें यह अवश्य पता होगा कि हमारे इस संसार का अस्तित्व प्रकृति के बगैर असंभव है। हिंदू मायथोलॉजी में देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी को ‘प्रकृति’ माना गया है। पूरे ब्रह्मांड के संतुलन के लिए इन दोनों का साथ जरूरी है... पर सबसे बड़ा सवाल- आज ‘प्रकृति’ कहां हैं? हम शिव को जरूर पूज रहे हैं, लेकिन उनकी अर्धांगिनी के इस स्वरूप के बगैर, प्रकृति के बगैर।
आइए, इस पूरे ज्ञान को थोड़ा आज के संदर्भ में और विस्तार देते हैं। मौसम वैज्ञानिकों ने एक बार फिर चेताया है कि इस साल भयंकर गर्मी पड़ने वाली है। और इस साल तो क्या, यह हर साल की बात हो गई है। गर्मी पड़ने वाली है, बढ़ने वाली है... लगातार। हो सकता है हमें विज्ञान और वैज्ञानिकों से भारी नफ़रत हो, तब भी हम इस कड़वी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अगली पीढ़ी का तो छोड़िए, आने वाले सालों में स्वयं हमें अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए जूझना पड़ सकता है। और यह भी कटु सत्य है कि अगर हम प्रकृति की ओर नहीं लौटें तो किसी भी बाबाजी-शास्त्रीजी का कोई चमत्कार हमें बचा नहीं पाएगा।
मैं कथावाचक बाबाओं/पंडितों/शास्त्रियों की भीड़ को खींचने की अ्दभुत क्षमता का वास्तव में कायल हूं। यह एक बड़ा टैलेंट है, इसमें कोई शक नहीं। इसके लिए उन्हें दिल से साधुवाद। मैं किसी भी बाबा को फॉलो नहीं करता हूं, इसलिए मुझे यह जानकारी कतई नहीं है कि कोई भी प्रकृति और प्रकृति के संरक्षण की बात भी करता है या नहीं (अगर की है तो कृपया मुझे करेक्ट करें। हां, केवल तुलसी, शमी, पीपल का महत्व बताने तक सीमित न हो। यह हमें पता है)। अगर नहीं की है, तो बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि ये सारे सनातनी होने के नाम पर हमें केवल हमारी सनातनी परंपरा की सतही बातों तक सीमित रखना चाह रहे हैं और कोई यह नहीं बता रहा कि सनातन काल में तो हम सभी केवल प्रकृति पूजक थे। पेड़-पौधे, जंगल, नदियां, पहाड़… ये ही हमारे आदिम देवी-देवता थे। मूर्तियां और मंदिर तो बाद में आए। एक यंत्र के तौर पर रुद्राक्ष तो और बाद में...
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, लोगों को प्रभावित करने की हमारे आज के बाबाओं-पंडितों में अद्भुत कला व क्षमता है। क्या ये अपनी इस कला का सही इस्तेमाल करते हुए लोगों को प्रकृति से नहीं जोड़ सकते? हां, वहीं ‘प्रकृति’ जो शिव के लिए सर्वोपरि हैं। मानव कल्याण की खातिर अगर शिवजी वैरागी होकर भी प्रकृति से जुड़े सकते हैं तो शिव का नाम जपने वाले हम सभी लोग दुनियादार होकर भी प्रकृति की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं?
आने वाले दिनों में देशभर में 48 लाख रुद्राक्ष बांटे जाएंगे। शिव भक्त दीवाने हुए जा रहे हैं। सब अच्छा है। पर काश, ये पंडितजी एक रुद्राक्ष के साथ एक-एक पौधा भी दें और कहें कि हे शिव के सच्चे भक्त, इसे रोपें और इसका मरते दम तक ख्याल रखें क्योंकि इसी में शिव की आत्मा बसती है। तो क्या असल चमत्कार नहीं होगा? क्या अपनी प्रकृति को लहलहाता देख शिव मुस्कराएंगे नहीं? शिव के मुस्कराने का मतलब है महाकल्याण और कुपित होने का मतलब, आप सब जानते ही हैं!!
अब, जरा दायीं वाली तस्वीर की बात ...यह मेरे द्वारा लगाए गए करीब डेढ़ दर्जन पौधों में से एक है। अब धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं। मैं नियमित तौर पर न रुद्राक्ष की पूजा करता हूं, न शिवजी की...शायद किसी की भी नहीं। मुझे तो शिवजी की अर्धांगनी का यह रूप पसंद है। लोग मूर्तियों को देखकर मुस्कराते हैं। मैं सुबह-सुबह इन डेढ़ दर्जन सजीव मूर्तियों को देखकर मुस्कराता हूं। यह मुंह मिया मिट्ठू वाली बात सिर्फ इसलिए, ताकि मेरा ज्ञान केवल थोथा ज्ञान न लगे। थोथा ज्ञान केवल मंचों और पंडालों से ही अच्छा लगता है...
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
अगर हम वाकई सनातनी हिंदू हैं, तो अपनी प्रकृति को बचाएं। वह हमें बचा लेगी। और केवल एक पौधा हमें सच्चे सनातनी हिंदू होने का गर्व दे सकता है। शिवजी कुपित हो जाए, उससे पहले ही हम उनके मुस्कराने का जतन करें, इसी में सबकी भलाई है.... नहीं तो बाकी तो बातें हैं… करते रहिए और विनाश की ओर बढ़ते रहिए।
(Disclaimer: एक आम इंसान की तरह मैं भी बेहद स्वार्थी हूं और मुझे केवल मेरे घर की चिंता है... इसलिए मैं केवल अपने धर्म, अपनी संस्कृति की बात कर रहा हूं। कोई यह ज्ञान न दें कि दूसरे धर्म की बात क्यों नहीं...! दूसरे धर्म के बारे में दूसरे सोचें, अगर सोच सकें... )