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शनिवार, 16 जनवरी 2021
Satire & Humour : भारत में कोरोना वैक्सीनेशन शुरू, लेकिन देश में हैं कोरोना से भी भयंकर वायरस, इनसे रहें बचकर
गुरुवार, 14 जनवरी 2021
Satire : करप्शन में 'Skill Development' करेगी सरकार, ढंग से रिश्वत न लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई की भी तैयारी
मप्र के सीधी जिले में एक महिला विकास परियोजना अधिकारी को 10 हजार रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया गया। यहां रिश्वतखोरी पर दो सवाल उठ रहे हैं- हमारे अफसर इतनी छोटी-मोटी रिश्वत क्यों ले रहे हैं? और दूसरा, आखिर ऐसे कैसे रिश्वत ले रहे हैं कि इतनी आसानी से पकड़ में आ रहे हैं? इससे तो पूरे सिस्टम और सरकार पर ही सवालिया निशान लग गए हैं। देखिए, यह व्यंग्य वीडियो...
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मंगलवार, 12 जनवरी 2021
Satire & Humour : विवेकानंद के अनमोल विचारों से हमारे नेताओं ने क्या सीखा?
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By Jayjeet
आज स्वामी विवेकानंद (swami vivekanand) की जयंती है। 12 जनवरी को उनका जन्मदिवस होता है और हर साल इसे ‘युवा दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। विवेकानंद ने अपने भाषणों और लेखों में कई अनमोल और Thought-Provoking विचार दिए हैं। भारतीय नेताओं ने उनके विचारों को कैसे यूज किया, इस पैकेज में देखिए इसका satirical अंदाज :
विवेकानंद का विचार : उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : उठाईगिरी करो, लोगों की नींद हराम करो, कुछ भी करो। तब तक नहीं रुको, जब तक कि कुर्सी प्राप्त न हो जाए।
विवेकानंद का विचार : उस व्यक्ति ने अमरत्त्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी सांसारिक वस्तु से व्याकुल नहीं होता।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : उस नेता ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है, जो किसी नैतिकता जैसी चीज से व्याकुल नहीं होता।
विवेकानंद का विचार : विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : राजनीति एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को बाहुबलि बनाने के लिए आते हैं।
विवेकानंद का विचार : जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो, ठीक उसी समय पर उसे करना ही चाहिए, नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : चुनाव के दौरान आप जो वादे करते हैं, उन्हें समय पर पूरा बिल्कुल नहीं करना चाहिए, नहीं तो आम लोगों का राजनीति पर से विश्वास ही उठ जाता है।
विवेकानंद का विचार : जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएं अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी तरह मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग, चाहे अच्छा हो या बुरा, भगवान तक जाता है।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : जिस तरह से विभिन्न राजनीतिक दलों से उत्पन्न नेता अपनी पूरी नैतिकता को धूल में मिला देते हैं, उसी प्रकार हर नेता द्वारा चुना हुआ मार्ग, जाे हमेशा बुरा होता है, कुर्सी तक ही जाता है।
विवेकानंद का विचार : ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। वे हमीं हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि कितना अंधकार है!
नेताओं ने ऐसे किया यूज : पुलिस से लेकर ब्यूरोक्रेसी तक, सारी शक्तियां पहले से हमारी हैं। हममें से कुछ नादान लोग हैं जो इन शक्तियों का यूज नहीं करते और फिर कहते हैं कि कितना अंधकार है भाई।
विवेकानंद का विचार : अगर धन दूसरों की भलाई करने में मदद करे, तो इसका कुछ मूल्य है। अन्यथा ये सिर्फ बुराई का एक ढेर है और इससे जितना जल्दी छुटकारा मिल जाए, बेहतर है।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : अगर कुर्सी हमारे अपने भाई-भतीजों की भलाई करने में मदद करें तो इसका कुछ मूल्य है। अन्यथा यह सिर्फ बुराई का ढेर है। ऐसी घटिया राजनीति से जितना जल्दी छुटकारा मिल जाए, बेहतर है।
विवेकानंद का विचार : कभी मत सोचिए कि आत्मा के लिए कुछ भी असंभव है। ऐसा सोचना सबसे बड़ा विधर्म है। अगर कोई पाप है, तो यह कहना कि तुम निर्बल हों।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : कभी मत सोचिए कि सत्ता के लिए कुछ भी असंभव है। ऐसा सोचना ही सबसे बड़ी ‘अराजनीति’ है। अगर कोई पाप है तो यह कहना कि तुम बाहुबलि नहीं हों।
स्वामी विवेकानंद का विचार : बस वही जीते हैं ,जो दूसरों के लिए जीते हैं।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : बस वही राजनीति कर पाते हैं, जो अपने लिए राजनीति करते हैं।
विवेकानंद का विचार : यह जीवन अल्पकालीन है। संसार की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो दूसरों के लिए जीते हैं, वे ही वास्तव में जीते हैं।
नेताओं ने ऐसे किया यूज : यह सत्ता अल्पकालीन है। कुर्सी की विलासिता क्षणिक है, लेकिन जो नेता अपने भाई-बंधुओं के लिए काम करते हैं, वे ही वास्तव में राजनीति करते हैं।
(Disclaimer : यहां स्वामी विवेकानंदजी की किसी भी तरह से अवज्ञा नहीं की जा रही। मकसद केवल आज की राजनीति पर कटाक्ष करना है।)
शनिवार, 9 जनवरी 2021
Satire : मंत्री बने हैं तो कोई सम्मानजनक घोटाला कीजिए...आखिर हमने वोट क्यों दिया?
हाल ही में मप्र के एक मंत्री प्रभुराम चौधरी ने अपनी अफसर पत्नी को प्रमोट करने में तमाम नियम-कायदों को ताक पर रख दिया। इस पर कटाक्ष करता हुआ है यह वीडियो...
मंगलवार, 5 जनवरी 2021
Satire & Humour Video : राहुल 51 साल की उम्र में 'शिशु नेता' से बन जाएंगे यंग लीडर! कोरोना कर लेगा सुसाइड
नया साल (New Year) कई तरह की उम्मीदें लेकर आता है। लकिन क्या आम आदमी भी नए साल से कुछ उम्मीदें रख सकता है? नए साल 2021 में हम क्या उम्मीदें रख सकते हैं, देखिए इस satire Video में ...
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020
Satire : पप्पू, मोटा भाई, बाबाजी और सरकार… कैसे सबकी उड़ी धज्जियां
इस वीडियो में बात-बात में राहुल गांधी, अमित शाह, बाबा रामदेव, सरकार की धज्जियां उड़ाई गई है। कुल मिलाकर आज की राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य है यह वीडियो…
In this video, we did satire on Rahul Gandhi, Amit Shah, Baba Ramdev and the government. Overall, this video is a satire on today’s political system …
यह वीडियो भी देखिए... ठंड क्यों हो रही है कांग्रेस?
रविवार, 29 नवंबर 2020
Humour & Satire : वैक्सीन से नहीं, किसी और चीज से होगा कोरोना का इलाज !
Humour Desk. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना की वैक्सीन के विकास की जानकारी हासिल करने के मकसद से तीन लैब्स का दौरा किया, लेकिन वहां वे यह जानकर दंग रह गए कि वैक्सीन तो नहीं बन रही, बल्कि बगैर वैक्सीन के ही कोरोना को ठिकाने लगाने की तैयारी की जा रही है...कैसे, जानने के लिए देखें यह फनी वीडियो।
(Disclaimer : This video is work of fiction and fun. Viewers are advised not to confuse about the content in the video as being true.)
रविवार, 5 जुलाई 2020
शिक्षा विभाग का गुरु वशिष्ठ को नोटिस- हासिल करो बी-एड डिग्री अन्यथा .....
By Jayjeet
नई दिल्ली/देवलोक। सरकार ने गुरु वशिष्ठ, गुरु द्रोणाचार्य और ऋषि सांदीपनी को एक नोटिस जारी कर अगले दो साल के भीतर बी-एड (या समकक्ष डिग्री) करने को कहा है। नोटिस में कहा गया है कि बी-एड न करने की दशा में पाठ्यपुस्तकों में से आप तीनों के नाम विलोपित कर दिए जाएंगे।
इस नोटिस की एक काॅपी hindisatire ने हासिल की है। इस नोटिस में कहा गया है कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून को लागू हुए 10 साल बीत चुके हैं। इस कानून में क्वालिटी एजुकेशन के वास्ते शिक्षकों के लिए बी-एड (या समकक्ष डिग्री) लेना अनिवार्य कर दिया गया है। नोटिस में लिखा गया, “बहुत ही खेद के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि आपको इतने मौके दिए जाने के बाद भी आप अब तक शिक्षण-प्रशिक्षण में कोई औपचारिक डिग्री हासिल नहीं कर सके। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी क्वालिटी एजुकेशन में कोई आस्था नहीं है। फिर भी आपकी पूर्व प्रतिष्ठा के मद्देनजर सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून की धारा 4 (बी) के प्रावधान को शिथिल कर आपको एक और मौका देने का फैसला किया है। आप तीनों को अप्रैल 2022 तक डिग्री हासिल करनी होगी। ऐसा न किए जाने पर आपके गुरु के दर्जे को खत्म कर दिया जाएगा। तदनुसार समस्त पाठ्यपुस्तको में से आपको विलोपित कर दिया जाएगा। इसकी जिम्मेदारी आपकी होगी।”
फालोअप स्टोरी 1
नई दिल्ली/देवलोक। शिक्षा विभाग द्वारा अगले दो साल के भीतर बी-एड या समकक्ष डिग्री अनिवार्य रूप से हासिल करने की सूचना मिलते ही ऋषि वशिष्ठ सक्रिय हो गए। उन्होंने तत्काल शिक्षा विभाग को पत्र लिखकर अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देकर बी-एड डिग्री हासिल करने में असमर्थता जताई थी। सूत्रों के अनुसार केंद्र में अनुकूल सरकार होने के कारण वशिष्ठ को बी-एड या समकक्ष डिग्री हासिल करने की अनिवार्यता से मुक्त कर दिया गया है, लेकिन उन्हें इस संबंध में ऐसा प्रमाण-पत्र पेश करने को कहा गया है जिसमें स्वयं राम इस बात की पुष्टि करते हो कि गुरु वशिष्ठ ने उन्हें क्वालिटी एजुकेशन मुहैया करवाया था। इस प्रमाण-पत्र की तीन सत्यापित प्रतियां पेश करने को कहा गया है। प्रमाण-पत्र सत्यापन नियम- 22 की कंडिका 2 (ए) की उपकंडिका 4 (बी) के तदनुसार सत्यापन संबंधित जिले के कलेक्टर द्वारा अथवा कलेक्टर द्वारा प्राधिकृत अधिकारी के द्वारा ही जारी किया जाना चाहिए। इस प्रमाण पत्र के संदर्भ क्रमांक, जारी करने की तिथि व कार्यालय की सील तथा जारी करने वाले अधिकारी के नाम व पद का स्पष्ट उल्लेख होना आवश्यक है।
फालोअप स्टोरी 2 (लाइव रिपोर्ट)
फैजाबाद (उप्र)। शिक्षा विभाग द्वारा बी-एड या समकक्ष डिग्री की अनिवार्यता से मुक्ति के बाद ऋषि वशिष्ठ अपने शिष्य राम द्वारा प्रस्तुत प्रमाण-पत्र के सत्यापन के लिए फैजाबाद कलेक्टोरेट पहुंचे (अयोध्या का जिला मुख्यालय फैजाबाद है।)
ऋषि वशिष्ठ (एक बाबू से) : भैया, ये राम का प्रमाण-पत्र है। इसे सत्यापित करवाना है।
बाबू : क्या लिखा है।
ऋषि वशिष्ठ : यही कि मैंने उन्हें पढ़ाया, इसे सत्यापित करवाना है एडीएम साहेब से।
बाबू (अपने साथी कर्मचारी से) : देखो, कैसे-कैसे लोग आ जाते हैं। (फिर ऋषि वशिष्ठ से) : राम को साथ लाए क्या?
ऋषि वशिष्ठ : अरे वो कैसे आ सकते हैं? उन पर तो पूरे संसार का भार है। उसे छोड़कर यहां आना तो संभव नहीं है।
बाबू : बाबा, एडीएम साहेब ऐसे तो सत्यापित करेंगे नहीं। नियमानुसार फिजिकल प्रजेंटेशन होना जरूरी है।
ऋषि वशिष्ठ : और कोई रास्ता?
बाबू : पीछे बड़े बाबू बैठे हैं, उनसे मिल लो।
ऋषि वशिष्ठ बड़े बाबू के पास पहुंचे। अपनी पूरी कहानी सुनाई।
बड़े बाबू (कुछ सोचते हुए) : चलो, आप बुजुर्ग हैं और आपकी कहानी पर भरोसा भी कर लेते हैं, लेकिन हमें तो नियम से चलना होगा ना। राम का कोई प्रूफ तो चाहिए ना। कोई आईडी प्रूफ है क्या?
ऋषि वशिष्ठ : ये क्या होता है?
बड़े बाबू : यही कोई आधार कार्ड, पैन कार्ड, वोटर आईडी कार्ड। ड्राइविंग लाइसेंस तो होगा ही?
ऋषि वशिष्ठ : इसमें से कुछ नहीं है।
बड़े बाबू : कमाल है! अच्छा, एक काम करो, बाहर बबलू बैठा है, उससे मिल लो, काम हो जाएगा।
ऋषि वशिष्ठ : ये बबलू कौन है? कहां मिलेगा?
बड़े बाबू : कोई भी बता देगा, पूछ लो। अब मेरा टाइम वेस्ट मत करो, जाओ।
फालोअप स्टोरी 3
फैजाबाद का सबसे फेमस दलाल है बबलू। बाबू से लेकर बड़े बाबू और तमाम अफसराें से बड़े मधुर संबंध हैं।
ऋषि वशिष्ठ : बबलू भैया, हमें राम का ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना है।
बबलू : कहां है राम?
ऋषि वशिष्ठ : वो नहीं है, तभी तो आपके पास भेजा गया है।
बबलू : वो हाेता तो भी मेरे पास ही आना पड़ता। अब नहीं है तो इसके एक्स्ट्रा लगेंगे।
ऋषि वशिष्ठ : क्या एक्स्ट्रा?
बबलू (गुस्से में): अरे बाबा, पैसा और क्या?
ऋषि वशिष्ठ : क्या? सरकारी काम के भी यहां पैसे लगते हैं?
बबलू (हंसते हुए) : अरे बाबा, क्या दूसरी दुनिया से आए हों? यहां हर चीज के पैसे लगते हैं।
ऋषि वशिष्ठ : ठीक है, पर काम तो हो जाएगा ना!! मेरे पास कोई और दस्तावेज-वस्तावेज नहीं है।
बबलू : पैसा तो है ना, हो जाएगा।
फालोअप स्टोरी 4
नई दिल्ली/देवलोक। गुरु वशिष्ठ द्वारा वांछित दस्तावेज पेश करने के बाद शिक्षा विभाग ने यह मान लिया है कि वे उतने ही समर्थ शिक्षक हैं, जितने कि बीएड या समकक्ष डिग्री धारक होते हैं। इसलिए अब पाठ्यपुस्तकों से उनका नाम विलोपित करने की जरूरत नहीं है। इस संबंध में जल्दी ही अधिसूचना जारी कर दी जाएगी। इस बीच, शिक्षा विभाग ने गुरु द्रोणाचार्य और ऋषि सांदीपनी को रिमाइंडर भेजकर दो सप्ताह के भीतर संबंधित औपचारिकताएं पूरी करने को कहा है।
(खबरी व्यंग्य पढ़ने के लिए आप हिंदी खबरी व्यंग्यों पर भारत की पहली वेबसाइट http://www.hindisatire.com पर क्लिक कर सकते हैं।)
गुरुवार, 2 जुलाई 2020
Satire & Humour : जब बाबा रामदेव को नोबेल पुरस्कार मिलते-मिलते रह गया! क्यों और कैसे? एक सच्ची कहानी!
By Jayjeet
हिंदी सटायर डेस्क। पतंजलि द्वारा कोराना की दवा ‘कोरोनिल’ बनाने के दावे के बाद सोशल मीडिया पर कई लोग उन्हें नोबेल पुरस्कार देने की वकालत कर रहे हैं, कुछ मजाक में तो कुछ सच्ची में। हिंदी सटायर को मिली एक्सक्लूसिव जानकारी के अनुसार बाबा रामदेव तो पिछली बार ही इस अवार्ड के लिए प्रबल दावेदार थे। लेकिन उन्हें अवार्ड मिलते-मिलते रह गया। दरअसल, इसका खुलासा तब हुआ, जब हमारा उत्साही रिपोर्टर इस संबंध में बात करने के लिए नोबेल कमेटी के पास पहुंच गया। वहां बैठे एक सूत्र से बात की तो उसने तफ्सील से पूरी जानकारी दी।
रिपोर्टर : बाबाजी ने कोरोना की दवा ‘कोरोनिल’ बना ली है। अब तो चिकित्सा का नोबेल उन्हें मिल ही जाना चाहिए।
नोबेल कमेटी का सूत्र : अरे आपको नहीं मालूम, नोबेल तो उन्हें पिछले साल ही मिल जाता, पर एक लोचा हो लिया।
रिपोर्टर : ऐसा कौन-सा लोचा हो लिया?
सूत्र : अब क्या बताएं। बाबा रामदेव जी ने खुद को चार-चार कैटेगरी में नॉमिनेट करवा लिया था।
रिपोर्टर : अरे, कैसे? और ये चार कौन-सी कैटेगरी हैं?
सूत्र : एक, चिकित्सा के लिए।
रिपोर्टर : हां, इसमें तो बहुत टॉप का काम कर रहे हैं अपने बाबाजह। इसमें तो मिलना ही था। पर दूसरी कैटेगरी में और कहां टांग घुसा ली इन्होंने?
सूत्र : यही तो प्रॉब्लम हो गई। उन्हें मुगालता हो गया कि 5 रुपए से कारोबार को बढ़ाकर 5 हजार करोड़ का कर लिया तो इकोनॉमी के लिए अवार्ड मिलना चाहिए।
रिपोर्टर : अच्छा! इसके अलावा?
सूत्र : आपको याद होगा कि बाबाजी ने एक बार ‘ओम शांति ओम’ शो में भी काम किया था। तो उन्होंने पीस के लिए भी अप्लाई कर दिया। इतना ही नहीं, किसी ने बाबा को कह दिया कि आप तो केमिस्ट्री में भी माहिर हैं- योग एंड पॉलिटिक्स की केमिस्ट्री। बस, बाबाजी ने यहां भी टांग घुसेड़ दी।
रिपोर्टर : तो इससे क्या हो गया?
सूत्र : चार-चार नॉमिनेशन से कमेटी वाले चकरा गए। कुछ लोग उन्हें चारों में अवार्ड देने की बात करने लगे कुछ उनका विरोध। बस, कमेटी में इतना कन्फ्यूजन पैदा हो गया कि बाबाजी को नोबेल अवार्ड आगे के लिए टाल दिया गया।
(Disclaimer : यह केवल काल्पनिक इंटरव्यू है। केवल हास्य-व्यंग्य के लिए लिखा गया है। कृपया समर्थक और विरोधी दोनों टेंशन ना लें… )
खबरी व्यंग्य पढ़ने के लिए आप हिंदी खबरी व्यंग्यों पर भारत की पहली वेबसाइट http://www.hindisatire.com पर क्लिक कर सकते हैं।
गुरुवार, 3 जुलाई 2014
अंतरिक्ष में महंगाई और सैटेलाइट की नजर
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
'सालों पहले महंगाई बहुत हुआ तो तीसरे-चौथे माले तक पहुंचती थी। सरकार की जब इच्छा होती, वह हाथ पकड़कर नीचे उतार देती। लेकिन अब तो यह धरती की कक्षा तक पहुंच गई है। अंतरिक्ष में धूमकेतु की तरह घूम रही है और अब उसे पकड़कर नीचे लाना तो दूर, उस पर नजर तक रखना मुश्किल हुआ जा रहा है। सैटेलाइट ही यह काम कर सकता है।' उन्होंने हमें समझाया।
'लेकिन फायदा क्या होगा?' हमने पूछा।
'देखो, महंगाई अंतरिक्ष में जा रही है। यह तो किसी के रोकने से रुकने वाली नहीं। लेकिन सरकार कम से कम उस पर नजर तो रख सकती है। इसके लिए वह इसरो की मदद ले सकती है। सैटेलाइट की आंख से भला कौन बच सका है। सरकार अपने कुछ कारिंदों को बिठा देगी। वे हर समय स्क्रीन पर नजरें गढ़ाए रखेंगे। अब वह चांद पर चली जाए, तब भी सरकार की कड़ी नजर हर समय उस पर रहेगी।'
'लेकिन इसमें तो बहुत खर्च आ जाएगा?'
पहले तो हमारे ये अफसर मित्र इस मिडिलक्लास टाइप आइडिया पर मुस्कुराए। फिर बोले, 'चल तो सकता है, लेकिन एक दिक्कत हो सकती है', कुछ दार्शनिक अंदाज में उन्होंने कहा। समस्याओं के समय बड़े सरकारी अफसर दार्शनिक हो जाते हैं। यही उन्हें शोभा भी देता है। 'दिक्कत यह कि सरकार के पास आते ही दूरबीनें अपना स्वाभिमान ताक पर रख देती हैं। बस सरकार की ही जी-हुजूरी में लग जाती हैं। अब वे वह नहीं दिखाती जो दिख रहा है, बल्कि वह दिखाती है जो सरकार देखना चाहती है।' मित्र अफसर अपने अनुभव के आधार पर बोले। दूरबीन बनने का उनका सालों का अनुभव रहा है।
'ओह, यह तो गंभीर बात है। वैसे हमारे पास एक और आइडिया है।' उन्होंने जिज्ञासावश हमारी ओर देखा।
'सबसे अच्छा आइडिया तो यह है कि सरकार आंखें ही बंद कर लें। इससे न उसे सैटेलाइट छोडऩा पड़ेगा, न दूरबीनों की सेवाएं लेनी होगी।'
'वाह! क्या आइडिया है।' सुनकर ही वे गदगद हो गए। वैसे भी सरकार को और भी कई जरूरी काम हैं। महंगाई का क्या! वे इस आइडिए को सरकार के साथ शेअर करने अपने दफ्तर की ओर चल दिए।
रविवार, 29 जून 2014
मनुष्यों की अमरता और देवताओं की चिंता
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
‘क्या यह सच है कि मानव अगले 40 सालों में अमर हो जाएगा?’ नारदजी से पूछा गया।
‘देखिए, खबर की पुष्टि तो आप लोग कीजिए। इतना भी नहीं कर सकते तो काहे के भगवान! मुझे किसी ने बताया तो मैंने आपको बता दिया।’ नारदजी बेफ्रिकी वाले अंदाज में बोले।
‘नारदजी कोई खबर लाए हैं तो कहीं न कहीं तो सच्चाई होगी ही।’ समिति के एक सदस्य बोले।
‘हमें किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में इतनी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। क्यों न इस मामले में एक उपसमिति गठित कर दी जाए।’ एक अन्य सदस्य बोले। इनकी नारदजी से कभी नहीं बनी। इसलिए उन्होंने मौका देखकर चौका जड़ दिया।
‘यदि हम इसी बात पर उलझे रहे कि क्या सच है और क्या झूठ तो मूल मुद्दे से भटक जाएंगे।’ समिति के अध्यक्ष ने कहा। उन पर हुई पुष्पवर्षा इस बात का संकेत थी कि अध्यक्ष की बातों से अधिकांश देवता सहमत हैं। इसलिए बैठक की कार्यवाही आगे बढ़ी। एक अन्य सम्मानित सदस्य ने चर्चा के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘यदि मनुष्य अमर हो गया तो इससे हमारा महत्व कम हो जाएगा। आखिर मनुष्य का सबसे बड़ा कंसर्न तो उसकी जिंदगी ही होती है। उसी की खातिर वह हमारी शरण में आता है।’
‘देखिए, हमें चिंता अपने महत्व की नहीं करनी चाहिए। जिसको मानना है वह तो हमें मानेगा ही। मुद्दे की बात यह है कि यदि सभी लोग अमर होने लग गए तो धरती का क्या होगा?’ अध्यक्ष ने चिंता जताई।
‘धरती को गोली मारो। मेरा और मेरे यमदूतों का क्या होगा?’ यह यमराज की आवाज थी। हालांकि वे समिति के सदस्य नहीं थे, लेकिन स्थिति की गंभीरता को देखते हुए स्वयं ही बिन-बुलाए मीटिंग में चले आए थे। उन्हें अपने और यमदूतों के बेरोजगार होने की चिंता सता रही थी।
‘मैं यमजी की बातों से सहमत हूं। हमें पहले अपना घर देखना चाहिए, फिर धरती।’ ये चित्रगुप्तजी थे। दरअसल, उनकी चिंता की एक बड़ी वजह यमदूतों की यूनियन भी थी। ये झंडा-बैनर लेकर आकाश में उतर आए तो उन्हें संभालेगा कौन?
तभी बातचीत के सिलसिले को ब्रेक करते हुए एक तेजस्वी किस्म के देवता उठे, ‘आप लोग नाहक ही परेशान हो रहे हैं। हमें अमृत कलश पाने के लिए असुरों से लड़ना पड़ा था। मनुष्य के असुर तो उसके अंदर ही हैं। उसे अमर होने के लिए अपने अंदर वाले असुरों से लड़ना होगा जो और भी मुश्किल है। एक मरेगा तो दूसरा पैदा हो जाएगा। इसलिए यकीन मानिए, मनुष्य अमर नहीं होने वाला।’
बुधवार, 25 जून 2014
मान्यता प्राप्त भगवान!
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

'भगवान' की मान्यता के लिए फार्म जमा करते संतनुमा लोग।

‘जी, क्या नाम है आपका?’ खिड़की के भीतर बैठे बाबू ने पान की पीक पास में ही डस्टबीन की तरफ उछालने के बाद पूछा।
‘संत हरिप्रसाद पिता महासंत रामप्रसाद कावड़िया।’ एक मैले से पीले-चितकबरे कपड़े पहना व्यक्ति बोला।
‘इसीलिए...इसीलिए मैं कंफर्म कर रहा था। यहां हरप्रसाद लिख रखा है। महाराज, भगवान बनकर भक्तों को क्या ऐसी ही उल-जुलूल बातें बताओंगे।’ बाबू ने उसे हल्की से झिड़की दी।
‘जी, लाओ फार्म, मैं ठीक कर लूंगा।’
‘नेक्स्ट’ बाबू ने जोरदार आवाज लगाई। एक लंबा-चौड़ा मोटा-ताजा किस्म का बंदा आगे आया। नाम फकीरचंद। हालांकि उनकी तोंद से वे कहीं भी फकीर नजर नहीं आ रहे थे।
‘यह चिलम यहां तो फेेंक दो। आपको पता नहीं है कि सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करना प्रतिबंधित है।’ बाबू ने अपना रुतबा झाड़ा।
‘नादान बालक, मुझे रोकता है! भगवान बनते ही सबसे पहले मैं तुझे ही श्राप दूंगा।’
‘महाराज आवाज नीची, अभी आप मान्यता प्राप्त भगवान नहीं बने हैं। फाइल मेरे पास से ही ऊपर
जाएगी, जान लीजिए।’
‘ओ, मैं तो मजाक कर रहा था बालक। इतनी जल्दी आपा खोना अच्छी बात नहीं है... काम तो हो जाएगा ना?’
‘हूम, नेक्स्ट।’ बाबू जरा जल्दी में है।
अंदर अफसर के पास फाइलों का ढेर लगा है। यहां का सिस्टम बहुत ही क्लियर है। जिसकी जितनी कृपा आएगी, भगवान बनने के उसके चांस उतने ही बढ़ जाएंगे। कई अनुभवी संतनुमा लोग इस सिस्टम का पूरा सम्मान करते हैं। वे तो लाइन में भी नहीं लगते। उन्हें मालूम है कि किस दलाल के माध्यम से वे आसानी से भगवान बन सकते हैं। अफसर भी ऐसे भावी भगवानों की पूरी इज्जत करते हैं। जरूरी है!
और ऊपर देवलोक में नारदजी यह देख-देखकर मुस्कुरा रहे हैं। वैसे तो वे हमेशा ही मुस्कुराते नजर आते हैं, लेकिन ऐसे मौकों पर उनकी मुस्कान कुछ ज्यादा ही चौड़ी हो जाती है। उन्होंने अपनी चिरपरिचित कुटील मुस्कान के साथ पास ही खड़े एक संत से पूछा, ‘महाराज, आपने भी क्या शिरडी में यही सब किया था!’
‘नारदजी, कैसी बात करते हो? मेरे दिल को जो अच्छा लगा, मैंने वह किया, गरीबों को भगवान समझकर उनकी सेवा की। पर देखते ही देखते लोगों ने मुझे भगवान बना दिया। अब इसमें मेरा क्या दोष?’
‘मतलब, आपके पास भगवान का एक्रीडिएशन कार्ड ही नहीं है?’ नारदजी ने हंसते हुए पूछा।
‘मुझे तो यही नहीं मालूम कि यह एक्रीडिएशन कार्ड होता क्या है?’
‘वाह, हमसे ही दिल्लगी कर रहे हो। सोने के सिंहासन पर बैठते हो और कहते हो कि आप भगवान ही नहीं हो।’ नारदजी बोले।
‘इसी बात का तो अफसोस है नारदजी। जिंदगी भर मैं पत्थरों पर सोया लेकिन अब मुझे सोने के सिंहासन पर बैठाया जा रहा है।’
‘तो आपका कहना है कि आपके भक्तों ने आपको तो स्वर्ण सिंहासन पर बैठा दिया और सादगी, गरीबों की सेवा जैसे आपके आदर्श विचारों को सिंहासन के नीचे खिसका दिया?’
‘मैं इस पर कोई कमेंट नहीं करुंगा, चाहे आप मुझे कितना भी उकसा लें। मैं आप जैसे पत्रकारों का मंतव्य खूब समझ रहा हूं। आप तो चाहते ही हैं कि कोई कंट्रोवर्सी पैदा हो। आजकल लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने में वक्त नहीं लगता। मैं चलता हूं राम-राम।’
गुरुवार, 19 जून 2014
वाॅव, मैं शर्मिंदा हूं! अमेजिंग!!
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
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कार्टून: गौतम चक्रवर्ती |
हैलो मिस्टर जाॅन,
आपके लिए यह बड़े गर्व की बात है कि आपको हिंदी आती है। मुझे अंग्रेजी नहीं आती है और इसके लिए वाकई मैं शर्मिंदा हूं। हिंदी में लिखते हुए मैं जो शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं, उसकी अनुभूति ही अलग है। वैसे मुझे इस बात का गर्व है कि यहां रोजाना शर्मसार होने की कोई न कोई वजह मिल ही जाती है। वाव! शर्मिंदा होने की भी क्या फीलिंग होती है। मैं फेसबुक पर नहीं हूं, न ही ट्विटर पर हूं। मैं तो शर्म से गड़ा जा रहा हूं। वाॅव! शर्मिंदा होने से आगे की स्टेज है शर्म से गड़ा जाना। इसका एहसास ही खूबसूरत है। आप तो फील ही नहीं कर सकते। मेरे पास स्मार्टफोन भी नहीं, वो क्या बोलते है वाॅट्सअप! उसका तो सवाल ही नहीं। अगेन वाॅव! वाॅट ए शर्मिंदगी।
और ताजा शर्मिंदगी हाॅकी में उठानी पड़ी है। हाॅकी वल्र्डकप में हम नौवें स्थान पर रहे। नेशनल शेमनेस। मैं तो शर्मसार हूं ही, हाॅकी के कर्णधारों के चेहरों को तो देखो। शर्म से फूलकर कुप्पा हो रहे हैं। शर्मिंदगी के इस भाव पर कोई भी वारा जाए। अमेजिंग!! पर हाय फुटबाॅल। काश, हमें भी वल्र्ड कप में खेलने का मौका मिलता। हम आठ-आठ दस-दस गोल से हारते। कितने मस्त शर्मसार होते।
पत्र बड़ा हो रहा है, इसलिए मैं सीधे मुद्दे की शर्म पर आता हूं। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं पाॅलिटिकल शेम की बात क्यों नहीं कर रहा हूं। दरअसल, मैं बच रहा था। कहीं आपको काॅम्लैक्स नहीं आ जाए। लेकिन यह सच है कि पाॅलिटिकल शेम के बगैर बात अधूरी ही रह जाएगी। यहां पाॅलिटिकल करप्शन, भाई-भतीजावाद, एक-दूसरे की टांग खिंचाई... सब अद्भुत है। यह सब हमको इतना शर्मसार करते हैं कि लगता है अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है। आपको इस बात पर बेहद गुस्सा आएगा कि हमारे (आपके) यहां ऐसा क्यों नहीं है! हमने ऐसा क्या बिगाड़ा था! सही बात है भाई, यह इनजस्टिस है। भगवान सब को शर्मिंदा होने का मौका दें। हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं, और क्या!
खैर, आप चाहें तो हमारे यहां के सबसे बड़े स्टेट में आकर भरपूर शर्मिंदा हो सकते हैं। आप जैसे फाॅरेनर टूरिस्टों के लिए यहां की सरकार ने जंगल टूरिज्म डिपार्टमेंट ही खोल दिया है। आप वहां के कुछ पेड़ों से लटककर शर्म की फीलिंग कर सकते हैं। उम्मीद है कि जब आप यहां आओगे तो शर्मसार होने के दो-चार मौके आपके सामने भी आ जाएंगे। खुद लाइव शर्मसार हो जाना।
तो देर मत करो। गारंटी है, आपको शर्मिंदा करने की हम भरपूर कोशिश करेंगे। सड़क पर पहली पीक मैं ही मारुंगा। डन रहा!
आपका ही
एक भारतीय दोस्त
शनिवार, 14 जून 2014
सपने रिकाॅर्ड करने वाली मशीन
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
बसेसरजी भी बहुत खुश हैं। उन्होंने तो दर्जन भर मशीनें खरीदने का अग्रिम आर्डर भी दे डाला है। उनकी योजना इन मशीनों को चुपके से अपनी ही पार्टी के उन लोगों के कमरों में रखवाने की है जिनके बारे में उन्हें आशंका है कि वे तभी से सपने देख रहे हैं, जबसे बसेसरजी कुर्सी पर बिराजे हैं। कुर्सी खींचने को आतुर लोग हमेशा सपने देखा करते हैं। वैसे सपने देखना बुरी बात तो हैं नहीं। कभी बसेसरजी ने भी ऐसा ही सपना देखा था और देखते-देखते अपना सपना सच कर दिखाया था। जिस कुर्सी पर रामखिलावनजी बैठते थे, उसे लात मारकर स्वयं कुर्सी पर बैठ गए। लेकिन जबसे यह नई खबर सुनी है, वे कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं हैं। किसी ने सपना देखा नहीं कि तुरंत मशीन को खबर हो जाएगी। बस, फिर क्या, तत्काल पार्टी विरोधी गतिविधियों के नाम पर अनुशासन का चाबुक फटकार देंगे। वाह क्या खूब मशीन आई है, सोचकर बसेसरजी मुस्कुरा रहे हैं।
लेकिन यही सुनकर सरकारी अफसर परेशान हैं। वर्माजी ने शर्माजी से अपनी चिंता जाहिर भी कर दी, ‘यह तो गजब हो जाएगा, अफसर ने छोटा-सा सपना देखा नहीं कि सरकार उसके कान खींच लेगी। हमें तो चिंता होने लगी है। कनाट प्लेस पर प्लाॅट तो पहली फुर्सत में ले लिया था। तीन करोड़ का तो वही हो गया है। सोच रहा हूं कि दो-एक करोड़ और लगाकर बच्चे के लिए छोटा-मोटा कोई रेस्टाॅरेंट ही खुलवा दूं। लेकिन सरकार इस नेक काम को भी सपना मान लें तो अपन तो फंस गए ना!’
‘बिल्कुल सही बोले आप’, वर्माजी की चिंता पर मोहर लगाते हुए शर्माजी बोले, ‘अब मैंने भी मझले के लिए किसी मेडिकल काॅलेज में प्रवेश के लिए सपना देख रखा है। दो-तीन बढ़िया असामी पटे हैं, तीन-चार करोड़ कहीं नहीं गए। डोनेशन के लिए पक्का इंतजाम हो ही जाएगा, लेकिन मेरी और आपकी एक ही चिंता, कहीं मशीन से हमारे सपने कोई रिकाॅर्ड नहीं कर लें। यह भी कोई बात हुई भला! हम जैसे लोग क्या सपने देखना ही छोड़ दें?’
इधर, अभी आविष्कार की केवल बात भर हुई है और ज्ञानी लोगों का एक सुझाव आ गया है। उनका कहना है कि सारी रिकाॅर्डिंग म्यूट होनी चाहिए ताकि हमारे कर्णधारों को दिक्कत नहीं हो। आम लोगों के सपने टूटने में वक्त नहीं लगता। आखिर रोजाना लाखों-करोड़ों सपनों के टूटने की आवाजों को हमारे कर्णधार भला कैसे सहन कर पाएंगे! वे तो बहरे ही हो जाएंगे। कौन चाहेगा कि हमारे कर्णधार बिल्कुल ही बहरे हो जाएं!
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
गुरुवार, 5 जून 2014
इंसानी प्रलय और प्रभु की चिंता
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
‘इंसान ने खुश रहने का कारण छोड़ा ही कहां है? लेकिन आपने ऐसा क्यों कहा?’ भगवान ने विस्मित भाव से पूछा।
‘वो इसलिए कि नीचे जमीन पर आपका भव्य मंदिर बन रहा है, उससे आपकी जय-जयकार होगी, आपकी प्रतिष्ठा चहुं दिशाओं में फैलेगी, और क्या।’
‘आप किसकी बात कर रहे हैं देवर्षि ?
‘रामपुर नगर के बगीचे में बन रहे विशालकाय मंदिर की।’
‘लेकिन वह बगीचा तो बच्चों के लिए है, वहां हमारा क्या काम?’
‘अब इसमें इतना भी अचरज न करें। यह कोई पहली बार तो हो नहीं रहा। कहां-कहां के नाम गिनाऊं, हर काॅलोनी के बगीचों में आपके नाम पर मंदिर मिल जाएंगे।’
‘लेकिन बच्चे खेलेंगे कहां?’ भगवान ने नारदजी की ओर सवाल उछाला।
‘वाह, आपने भी क्या बात कह दी प्रभु! क्या बच्चे आजकल खेलते भी हैं? स्कूल, ट्यूशन, कार्टून चैनल, वीडियो गैम्स से फुरसत मिले तो बच्चे खेलेंगे ना? हमारा-आपका जमाना गया प्रभु।’
भगवान की चिंता बढ़ती जा रही थी। उन्हें गुस्सा भी आने लगा था। उन्होंने पूछा, ‘जो हमने बनाया है, फूल-पत्ती, घास-फूस, उसे खत्म करके कांक्रीट के ढांचे क्यों बना रहा है इंसान, वह भी हमारे नाम पर? क्या अब उसे हरियाली पसंद नहीं है?’
‘पसंद है, खूब पसंद है, लेकिन जरा दूसरे टाइप की।’
‘मैं समझा नहीं देवर्षि।’
‘इंसान अब कांक्रीट के जंगलों में हरियाली ढूंढ़ता है। अब उसे हरे-भरे पेड़-पौधे नहीं, हर-हरे नोट पसंद है। आज वही उसकी हरियाली है।’ नारदजी ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा। फिर उन्होंने भ्रष्ट उद्योगपतियों, नेताओं, अफसरों सहित न जाने कितने लोगों के नाम गिना दिए। नारदजी ने प्रभु को समझाया कि कैसे ये सारे लोग नई हरित क्रांति के जनक बन गए हैं। अन्य कई लोग इनके नक्शेकदम पर चलने को आतुर हैं। कई तो चलने भी लगे हैं।
‘बस-बस, और नहीं...’ प्रभु ने नारदजी को रोक लिया। फिर मासूमियत के साथ बोले, ‘उम्मीद बाकी है, आज विश्व पर्यावरण दिवस है। कई लोग ऐसे अवसरों पर जुटेंगे और पर्यावरण को बचाने की कसम खाएंगे। लगता है लोगों को कुछ तो सुध आई है।’
‘प्रभु, इसमें इतना भी खुश होने की जरूरत नहीं है। अपनी हरियाली के चक्कर में इंसान ने पहले ही इतना विनाश कर लिया है कि अब उसके पास ऐसे दिवस मनाने के अलावा और कोई चारा ही कहां बचा है!’ इतना कहकर नारदजी वहां से चलने को तत्पर हुए।
‘कहां के लिए रवानगी?’ भगवान ने पूछा।
‘ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे भी विशेष अतिथि बनाया गया है। औपचारिकता तो निभानी होगी।’ नारायण-नारायण कहते हुए देवर्षि वहां से निकल पड़े।
प्रभु गंभीर चिंता में हैं - ‘प्रलय लाने का अधिकार तो मेरा है। लेकिन यह इंसान खुद क्यों प्रलय लाने पर तुला हुआ है! और क्या मैं इसे रोक पाउंगा! हे भगवान!‘
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
शनिवार, 31 मई 2014
पिज्जा और मंगू के हवाई सपने
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
इस खबर के बाद से ही मंगू की उम्मीदों को पर लग गए। वह रोज सुबह काम पर निकलने से पहले एक नजर आसमान पर जरूर दौड़ा लेता। क्या पता, कब वह छोटा-सा हवाई जहाज उसकी झोपड़ी पर रोटी टपका दे। जब आसमान पर टकटकी कुछ ज्यादा ही हो जाती तो घरवाली से रहा नहीं जाता। वह उसे झिड़कती, ‘अब ऐसे दिन भी नहीं आने वाले कि आसमान से ही रोटियां टपकने लगे।‘ फिर मंगू मन मारकर रात की बासी मोटी रोटी बांधकर काम पर निकल जाता। कभी काम मिलता, कभी नहीं मिलता। नहीं मिलता तो रोटी का संकट। जब आसमान में रोटियां लेकर हवाई जहाज घूमेंगे तो गलती से ही सही, उस जैसे गरीबों के यहां भी महीने में दो-चार बात तो रोटियां टपक ही जाएंगी। ऐसी हवाई कल्पना वह किया करता।
कुछ दिन पहले ही की तो बात है। एक नेताजी उसकी झोपड़ी में आए थे। उन्होंने बोतल पकड़ाते हुए कहा था- देख, यह बोतल रख लें। तेरे जल्दी ही अच्छे दिन आने वाले हैं। फिर रोज काम भी मिलेगा और रोटियां भी। दूसरे दिन दूसरे नेता आए। उन्होंने भी बोतल देकर कहा था- अभी इससे काम चला। हमारे निशान पर बटन दबा आना। फिर होगी- हर हाथ शाक्ति, हर हाथ रोटी। लेकिन मंगू तो सालों से इसका आदी था। यह हर पांच साल का नाटक था। सब उसे बोतल पकड़ाते, रोटी नहीं। लेकिन उसे विश्वास था कि जिसका कोई नही होता, उसका ऊपरवाला तो होता ही है। तभी तो उसे आसमान से रोटियां मिलने वाली हैं। वह अपनी इन्हीं हवाई कल्पनाओं में खोया रहता। उसने काम पर जाना भी छोड़ दिया। घरवाली बेचारी कुछ घरों में बर्तन-चैका करके रोटी की व्यवस्था करती। लेकिन एक दिन अचानक मंगू ने देखा कि बड़ी-बड़ी मशीनें उसकी झोपड़ी की तरफ आ रही हैं। जमीन पर उसने हवाई जहाज तो कभी देखा नहीं था। उसे लगा हवाई जहाज वाकई जमीन पर उतर आया है। इसमें रोटियां ही होंगी। वह खुशी से पागल हो उठा।
और अब क्लाइमेक्स... मंगू खुले आसमान के नीचे बैठा हुआ है। उपर सूरज तमतमा रहा है। उसकी झोपड़ी के टिन-टप्पड़ भी वे लोग ले गए। घरवाली बैठी रो रही हैं। बच्चे सुबक रहे हैं। मंगू चिंतित है- अब वे रोटियां कहां टपकाएंगे! अब तो झोपड़ी ही नहीं रही। तभी एक हवाई जहाज तेजी से उसके सिर से ऊपर से गुजरा। फिर वह शहर की आलीशान उंची इमारतों पीछे ओझल हो गया।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
गुरुवार, 22 मई 2014
रिमोट कंट्रोल का आत्मकथ्य
जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
और पिछले दस साल के बारे में तो मैं क्या बताउं! सोचकर ही खुषी से आंखों में आंसू आ जाते हैं। भारतीय राजनीति में यह मेरा स्वर्णिम काल रहा है। इतना असरदार इससे पहले मैं कभी नहीं रहा। मुझे बताते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि यह मैं ही था जिसके जरिए पूरा देष कंट्रोल होता रहा। कोई भी काम मेरे बगैर संभव ही नहीं था। अब दिल्ली में नई सरकार आई है। पता नहीं मेरा क्या होगा! माना पार्टियों में मुझे महत्व मिलता रहेगा, लेकिन जो बात सत्ता में है, वह और कहां।
पुनष्चः - इस बीच मेरे लिए एक राहत की खबर आई है। खबर है कि बिहार में सीएम बदल गया है। मुझे उम्मीद है कि नई दिल्ली की भरपाई पटना से हो जाएगी।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
गुरुवार, 15 मई 2014
छह अंधे और सत्ता का हाथी
जयजीत अकलेचा
छह अंधे बहुत दिनों से बेकार बैठे हुए थे। एक दिन उन्हें पता चला कि लोकतंत्र के जंगल में सत्ता का हाथी भटक रहा है। पहले वे एक हाथी को छूकर ज्ञानी हो चुके थे। उन्होंने सोचा, चलो इस बार सत्ता के इस हाथी का परीक्षण करते हैं। सभी उसके पास पहुंचे। पहले अंधे ने हाथी के पेट को हाथ लगाया तो वह बोला- अरे यह तो दीवार है। यानी सत्ता दीवार होती है। बाकी अंधे बोले, एक्सप्लेन इट। पहला अंधा- ‘दीवार और सत्ता का निकट संबंध है। पहले वोटों के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय की दीवारें खड़ी कर दो और फिर कुर्सी के लिए विचारधारा की दीवारों को गिरा दो। देखना, एक-दो दिन में यही होने वाला है।‘अब दूसरा अंधा हाथी के मुंह की तरफ बढ़ा। उसने सूंड को हाथ लगाया तो बोल उठा- ‘यह दीवार नहीं, सर्प है, घातक जहरीला सांप।’ उसने टीवी पर किसी के मुंह से सुन रखा था कि सत्ता जहर के समान होती है। तो उसने अपना फैसला सुना दिया कि सत्ता या तो सांपनाथ होती होगी या नागनाथ। वैसे भी पिछले डेढ़-दो महीनों के दौरान लोकतंत्र के जंगल में इतना विष वमन हो चुका था कि उसे यह फैसला करने में देर नहीं लगी।
तीसरा अंधा हाथी की पूंछ के पास पहुंचा। उसे छूकर बोला, ‘सत्ता रस्सी होती है, रस्सी। इसके सहारे खुद उपर चढ़ते जाओ। फिर अपने सगे-संबंधियों को भी चढ़ा लो। सुना है कि कोई जीजाश्री सत्ता की ऐसी ही रस्सी के सहारे काफी उपर पहुंच गए हैं।’
अब चैथे की बारी थी। उसने हाथी के पैर को छूआ तो ऐसा उत्साह से भर गया मानो सत्ता का रहस्य उसी ने ढूंढ़ लिया हो। चिल्लाकर बोला, ‘सत्ता और कुछ नहीं, पेड़ का तना है। आंधी चल रही हो तो इससे चिपक जाओ। उड़ोगो नहीं और फिर लता की तरह उस पर रेंगते रहो। देखना, ऐसी ही कई लताएं फलती-फूलती नजर आएंगी।’
पांचवें अंधे ने हाथी के कानों को छूआ तो बोला, ‘ तुम सब गलत हो। सत्ता तो सूपड़ा है। सूपड़े का तो नेचर ही होता है कि जो काम के नहीं हैं, हल्के हैं, उन्हें झटक दो। भारी वहीं बने रहते हैं। पिछले 60 साल से सत्ता का यह हाथी ऐसे ही काम करते आया है।’
छठे ने सोचा, बहुत बकवास हो गई। मैं देखता हूं। वह हाथी के दांतों के पास पहुंचा और उन्हें छूकर बोलो, ‘अरे मूर्खो, सत्ता तो तलवार है, दोधारी तलवार। सही इस्तेमाल करोगे तो यह आपकी जीत का मार्ग प्रषस्त करेगी, लेकिन जरा-सी लापरवाही आपको ही काट देगी। सुना है कोई नया आदमी अब तलवार घुमाने आने वाला है।’
तो छह अंधे, छह बातें। यानी कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन। इतने में पास से एक समझदार किस्म का बंदा गुजरा। षायद वह कोई विष्लेषक था और पिछले डेढ़ महीने से टीवी पर आ-आकर और भी समझदार बन गया था। अब अंधों ने उसे ही फैसला करने को कहा। उसने कहा- ‘तुम सब सही हो। सत्ता का हाथी ऐसा ही होता है। अच्छी बात यह है कि तुम लोगों ने अंधे होकर भी सत्ता के इस हाथी को पहचान लिया, जबकि अनेक आंखवाले देखकर भी अंधे बने रहते हैं। इसीलिए सत्ता का यह हाथी अपनी चाल चलता रहता है।’
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
शुक्रवार, 9 मई 2014
व्यवस्था के ये टाॅमी
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
कल की ही बात है। सुबह-सुबह रामकृपालजी पार्क में दिखाई दिए। बड़े ठेकेदार हैं, दिनभर में हजारों लाखों का वारा-न्यारा करते हैं और देर रात थकान मिटाते हैं। उस सुबह वे स्पेषियल ट्रैक सूट पहनकर पार्क में निकल पड़े थे। उन्हें साहब से मिलना जो था, लेकिन अब ऐसे भी कैसे मिल लें। इसीलिए ट्रैक सूट की दोनों जेबों में हड्डियां डाल रखी थीं। आंखें टाॅमी को ही ढूंढ़ रही थीं। और जैसे ही टाॅमी को देखा, आंखों के लाल डोरों में उम्मीदें उतर आई। जाॅगिंग करते हुए उसके पास चल आए। जेब से हड्डी निकाली और आगे बढ़ा दी, ‘ले बेटा टाॅमी, ले लें’।
साहब जानते हैं कि आज रामकृपालजी को टाॅमी पर इतना प्यार क्यों आ रहा है। बड़े एक्सपर्ट हैं। सड़क को उपर से देखकर ही पता लगा लेते हैं कि नीचे क्या घालमेल हुआ है। यह अलग बात है कि ठेकेदारों को ज्यादा परेषान नहीं करते। दिल के उदार है। इसलिए एडजस्ट कर लेते हैं। सुबह-सुबह पार्क में रामकृपालजी को देखकर ही समझ गए थे कि माजरा क्या है। उनके ठेेके का पुराना पैसा अटका है। फाइल साहब के पास ही पड़ी है। रामकृपालजी भी जानते हैं कि फाइल कहां अटकी है, लेकिन इसी उधेड़बुन में हैं कि साहब को कैसे व कितनी हड्डियां आॅफर करें!
षुरुआत रामकृपालजी ने ही की, ‘बड़ा प्यारा कुत्ता है, देखिए कितने प्यार से हड्डी ले ली।’
‘भाईसाहब, हड्डी खिलाने का भी एक तरीका होता है, बस वही आना चाहिए। वह आ गया तो एक टाॅमी तो क्या, कई टाॅमी आपके कंट्रोल में आ जाते हैं।’
रामकृपालजी इषारा समझ गए। एक और हड्डी टाॅमी की ओर फेंकते हुए वे अब सीधे काम की बात पर आ गए, ‘आपके आॅफिस में मेरी फाइल अटकी पडी है। कुछ करवाइए ना?’
‘अब आप जानते ही हैं, आॅफिस में कोई एक टाॅमी तो है नहीं। उपर से नीचे तक कई हड्डियां फेंकनी पड़ती है, तब जाकर बात बनती है।’ साहब बोले।
‘तो इससे हमें कहां इनकार है? कल आॅफिस आ जाउ क्या?’ रामकृपालजी बोले।
‘हां, लेकिन हड्डियों के जरा थोड़े बहुत नमूने लाना मत भूलना। बड़े साहब पहले थोड़ी सी चखकर देखते हैं, फिर आगे की बात करते हैं।’
‘जैसा आप कहें, चलता हूं मैं, राम-रामजी।’ रामकृपालजी वहां से निकल लिए, लेकिन टाॅमी को बाय करना भूल गए।
रविवार, 4 मई 2014
एक ‘आम’ बहस
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
तोतापरी: अब अकल ठिकाने आई होगी बच्चू की। बड़ा होषियार बनता था। सीधे मुंह बात ही नहीं करता था।
बादामी: तू किसकी बात कर रही है? अल्फांसो की?
तोतापरी: और किसकी? कितना एटीट्यूड था उसमें! बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बंगले... बड़े लोगों के दम पर कितना उछलता था।
बादामी: अब यह तो उसकी किस्मत है। कौन कहां पैदा होता है, इसमें क्या किसी का बस चलता है! असली राजा तो वही है। चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है। हम तो उसके दरबारी। इस गलतफहमी में गरीब इंसान हमें भी राजा मान लेते हैं।
तोतापरी: ईयू के बैन के बाद दो दिन में ही भाव जमीन पर आ गए।
बादामी: लेकिन अब भी 200 से कम नहीं होंगे। आम आदमी की औकात नहीं कि उसे हाथ भी लगा ले। मैं अब भी कह रहा हू, अल्फांसो इस द किंग।
‘अरे भाई, हम आमों के बीच यह आम आदमी कौन है? उसे अपने बीच क्यों ले आते हो यार। उसे चुनावों में ही रहने दो, वहीं उसकी इज्जत है।’ यह लंगड़ा था। बैसाखियां साइड में रखकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया।
बादामी: सही समय पर आए लंगड़ा भाई। अब आप ही समझाओ तोतापरी को।
सफेदा (बीच में टपकते हुए): वैसे इस साल तो हम भी बड़े घरों में ही जा रहे हैं तोतापरी! परेषान क्यों हो रही हो!
बादामी: सफेदा, यह दिल्लगी हर जगह ठीक नहीं। हम गंभीर मुद्दों पर बात कर रहे हैं।
लंगड़ा: देखा जाए तो ईयू का प्रतिबंध है तो सही। क्यों हम पर कीटनाषक छिड़क रहे हो, क्यों हमें केमिकल में पका रहे हो? क्या हमारे बच्चों को नेचुरली आगे बढ़ने का हक नहीं है? हो सकता है कि ईयू के इस कदम से हमारी सरकार को कुछ अकल आए।
तोतापरी: पर इससे होगा क्या? हो सकता है कि अल्फांसो को सरकार ठील दे दे, लेकिन हमारा कुछ नहीं होने वाला। हम तो पब्लिक आम है। हमें तो उसी केमिकल में मरना और जीना है।
इतने में एक दद्दा का प्रवेष। मुरझाई-सी काया। षरीर में मानो कोई रस ही नहीं।
‘आओ देसी दादा, विराजो’ बादामी ने उन्हें कुर्सी दी।
‘वह भी क्या जमाना था, जब अमीर से लेकर गरीब तक सब हमें समान भाव से खाते थे। सबकी पहुंच में थे हम। न कीट का लफड़ा न केमिकम का झंझट। लेकिन इंसानों ने मुझे तो साइड में पटक दिया और आमों की नई जनरेषन को भी केमिकल खिला-खिलाकर बर्बाद किए जा रहे हैं।’ देसी दादा पुरानी यादों में खो गए। सभी आम भी यह सोचकर जल्दी ही वहां से खिसक लिए कि दादा के पुराने किस्से षुरू हो गए तो सब बैठे-बैठे यही सड़ जाएंगे। आम बहस अधूरी ही रह गई।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती