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मंगलवार, 2 अगस्त 2022

चंदन चाचा के बाड़े में, नाग पंचमी की कविता (Nag panchami classic kavita )



नागपंचमी (Nag panchami) से संबंधित कविता चंदन चाचा के बाड़े में ...( chandan chacha ke bade me)। इसे मप्र के जबलपुर के कवि नर्मदा प्रसाद खरे ने लिखा था। इसे सबसे पहले 1960 के दशक में कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। हालांकि कुछ सोर्स इसके कवि सुधीर त्यागी बताते हैें। 

नर्मदा प्रसाद खरे
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

# nag-panchami-kavita  # नागपंचमी की कविता

शुक्रवार, 21 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य – ‘अथ श्री गणेशाय नम:’ यानी देश के चूहों की कहानी

satire of sharad joshi, शरद जोशी के व्यंग्य


शरद जोशी

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी। या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे। या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं। इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता। सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं। आख़िर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।

विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है – ग़रीबी। सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं। कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि ग़रीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग ‘ग़रीबी हटाओ’ के ख़िलाफ़ हैं। तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ।

वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से चालू हुआ है। वे ही उसके आदि देवता हैं। ‘ऋद्धि-सिद्धि’ आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है। चूहा पैरों के पास बैठा रहता है। रचना ख़राब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। ‘निज कवित्त’ के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है। चूहा परेशान रहता है। महाराज, कुछ खाने को दीजिए। गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो। भूखे रहना सीखो। बड़ा ऊँचा मज़ाक-बोध है श्री गणेश जी का। चूहा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भारीपन तो आ ही जाता है।

चूहे को साहित्य से क्या करना। उसे चाहिए अनाज के दाने। कुतरे, खुश रहे। सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए। भूखे भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड में मिल रहा है। जो अफ़सर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं।

राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए। पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है। चूहा शत्रु है। देश के गोदामों में घुसा चोर है। हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है। चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी विचार किया अापने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं।

विचार किया। यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए। समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज़ है। हा-हा-हा, ज़रा सुनिए।

आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। यह बात सिर्फ़ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है। हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का। कुछ देर पहले जो पराठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना। यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं। और किसी के बस का नहीं है यह काम। परिश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है। साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का। बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को। उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर। जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए।

दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेज़ी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं। अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख़्स को मिल जाए। काम जारी है। चूहा नीचे बैठा है। बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कुराते हैं। उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं। वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के। चूहा गोदामों में घुसता है। जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेश-महिमा।

एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते। भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक। घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे।

अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने। चुप रहो, ज़्यादा चूं-चूं मत करो।

नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो। चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया। न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए। नाम लिखने की भी ज़रूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?

प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?

वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है। क्या कीजिएगा!


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शरद जोशी का व्यंग्य - चौथा बंदर

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शरद जोशी

एक बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए।

उनके जाने के बाद गांधी जी का चौथा बंदर आश्रम में आया। वह पास के गांव में भाषण देने गया था। वह बुराई देखता था, बुराई सुनता था, बुराई बोलता था। उसे जब पता चला कि आश्रम में पत्रकार आए थे, फोटोग्राफर आए थे, तो वह बड़ा दु:खी हुआ और धड़धड़ाता हुआ गांधी जी के पास पहुंचा। ‘सुना बापू, यहां पत्रकार और फोटोग्राफर आए थे। बड़ी तस्वीरें ली गईं। आपने मुझे खबर भी न की। यह तो मेरे साथ बड़ा अन्याय किया है बापू।’ गांधी जी ने चरखा चलाते हुआ कहा, ‘जरा देश को आजाद होने दे बेटे! फिर तेरी ही खबरें छपेंगी, तेरी ही फोटो छपेगी। इन तीनों बंदरों के जीवन में तो यह अवसर एक बार ही आया है। तेरे जीवन में तो यह रोज-रोज आएगा।’

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शनिवार, 15 मई 2021

शरद जोशी का व्यंग्य - शेर की गुफा में न्याय

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जंगल में शेर के उत्पात बहुत बढ़ गए थे. जीवन असुरक्षित था और बेहिसाब मौतें हो रही थीं. शेर कहीं भी, किसी पर हमला कर देता था. इससे परेशान हो जंगल के सारे पशु इकट्ठा हो वनराज शेर से मिलने गए. शेर अपनी गुफा से बाहर निकला – कहिए क्या बात है?

उन सबने अपनी परेशानी बताई और शेर के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई. शेर ने अपने भाषण में कहा –

‘प्रशासन की नजर में जो कदम उठाने हमें जरूरी हैं, वे हम उठाएंगे. आप इन लोगों के बहकावे में न आवें जो हमारे खिलाफ हैं. अफवाहों से सावधान रहें, क्योंकि जानवरों की मौत के सही आंकड़े हमारी गुफा में हैं जिन्हें कोई भी जानवर अंदर आकर देख सकता है. फिर भी अगर कोई ऐसा मामला हो तो आप मुझे बता सकते हैं या अदालत में जा सकते हैं.’

चूंकि सारे मामले शेर के खिलाफ थे और शेर से ही उसकी शिकायत करना बेमानी था इसलिए पशुओं ने निश्चय किया कि वे अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे.

जानवरों के इस निर्णय की खबर गीदड़ों द्वारा शेर तक पहुंच गई थी. उस रात शेर ने अदालत का शिकार किया. न्याय के आसन को पंजों से घसीट अपनी गुफा में ले आया.

शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है

जंगल में इमर्जेंसी घोषित कर दी गई. शेर ने अपनी नई घोषणाओं में बताया – जंगल के पशुओं की सुविधा के लिए, गीदड़ मंडली के सुझावों को ध्यान में रखकर हमने अदालत को सचिवालय से जोड़ दिया है, ताकि न्याय की गति बढ़े और व्यर्थ की ढिलाई समाप्त हो. आज से सारे मुकदमों की सुनवाई और फैसले हमारे गुफा में होंगे.

इमर्जेंसी के दौर में जो पशु न्याय की तलाश में शेर की गुफा में घुसा उसका अंतिम फैसला कितनी शीघ्रता से हुआ इसे सब जानते हैं.

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बुधवार, 29 जुलाई 2020

Satire : हरिशंकर परसाई का क्लासिक व्यंग्य : प्रेमचंद के फटे जूते

हरिशंकर परसाई प्रेमचंद harishankar parsai-premchand



प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूं – फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूं। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही क्लिक करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है!
फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूं, मगर तुम्हारी आंखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह?
क्या होरी का गोदान हो गया?
क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
क्या सुजान भगत का लड़का मर गया, क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूं। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा – ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुसकरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूं।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो – मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूं। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं!

#premchand #harishankar_parsai  #satire

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शनिवार, 21 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - रेल यात्रा

शरद जोशी/ Sharad Joshi

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रेल विभाग के मंत्री कहते हैं कि भारतीय रेलें तेजी से प्रगति कर रही हैं। ठीक कहते हैं। रेलें हमेशा प्रगति करती हैं। वे बम्‍बई से प्रगति करती हुई दिल्‍ली तक चली जाती हैं और वहाँ से प्रगति करती हुई बम्‍बई तक आ जाती हैं। अब यह दूसरी बात है कि वे बीच में कहीं भी रुक जाती हैं और लेट पहुँचती हैं। आप रेल की प्रगति देखना चाहते हैं तो किसी डिब्‍बे में घुस जाइए। बिना गहराई में घुसे आप सच्‍चाई को महसूस नहीं कर सकते।
जब रेलें नहीं चली थीं, यात्राएँ कितनी कष्‍टप्रद थीं। आज रेलें चल रही हैं, यात्राएँ फिर भी इतनी कष्‍टप्रद हैं। यह कितनी खुशी की बात है कि प्रगति के कारण हमने अपना इतिहास नहीं छोड़ा। दुर्दशा तब भी थी, दुर्दशा आज भी है। ये रेलें, ये हवाई जहाज, यह सब विदेशी हैं। ये न हमारा चरित्र बदल सकती हैं और न भाग्‍य।
भारतीय रेलें चिन्‍तन के विकास में बड़ा योग देती हैं। प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि जीवन की अंतिम यात्रा में मनुष्‍य ख़ाली हाथ रहता है। क्‍यों भैया? पृथ्‍वी से स्‍वर्ग तक या नरक तक भी रेलें चलती हैं। जानेवालों की भीड़ बहुत ज्‍़यादा है। भारतीय रेलें भी हमें यही सिखाती हैं। सामान रख दोगे तो बैठोगे कहाँ? बैठ जाओगे तो सामान कहाँ रखोगे? दोनों कर दोगे तो दूसरा कहाँ बैठेगा? वो बैठ गया तो तुम कहाँ खड़े रहोगे? खड़े हो गये तो सामान कहाँ रहेगा? इसलिए असली यात्री वो जो हो खाली हाथ। टिकिट का वज़न उठाना भी जिसे कुबूल नहीं। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ये स्थिति मरने के बाद बतायी है। भारतीय रेलें चाहती हैं वह जीते-जी आ जाए। चरम स्थिति, परम हल्‍की अवस्‍था, ख़ाली हाथ्‍ा, बिना बिस्‍तर, मिल जा बेटा अनन्‍त में! सारी रेलों को अन्‍तत: ऊपर जाना है।
टिकिट क्‍या है? देह धरे को दण्‍ड है। बम्‍बई की लोकल ट्रेन में, भीड़ से दबे, कोने में सिमटे यात्री को जब अपनी देह तक भारी लगने लगती है, वह सोचता है कि यह शरीर न होता, केवल आत्‍मा होती तो कितने सुख से यात्रा करती। 

 रेल-यात्रा करते हुए अक्‍़सर विचारों में डूब जाते हैं। विचारों के अतिरिक्‍त वहाँ कुछ डूबने को होता भी नहीं। रेल कहीं भी खड़ी हो जाती है। खड़ी है तो बस खड़ी है। जैसे कोई औरत पिया के इंतज़ार में खड़ी हो। उधर प्‍लेटफ़ॉर्म पर यात्री खड़े इसका इंतज़ार कर रहे हैं। यह जंगल में खड़ी पता नहीं किसका इंतजार कर रही है। खिड़की से चेहरा टिकाये हम सोचते रहते हैं। पास बैठा यात्री पूछता है - "कहिए साहब, आपका क्‍या ख़याल है इस कण्‍ट्री का कोई फयूचर है कि नहीं?"
"पता नहीं।" आप कहते हैं, "अभी तो ये सोचिए कि इस ट्रेन का कोई फयूचर है कि नहीं?"
फिर एकाएक रेल को मूड आता है और वह चल पड़ती है। आप हिलते-डुलते, किसी सुंदर स्‍त्री का चेहरा देखते चल पड़ते हैं। फिर किसी स्‍टेशन पर वह सुंदर स्‍त्री भी उतर जाती है। एकाएक लगता है सारी रेल ख़ाली हो गयी। मन करता है हम भी उतर जाएँ। पर भारतीय रेलों में आदमी अपने टिकिट से मजबूर होता है। जिसका जहाँ का टिकिट होगा वह वहीं तो उतरेगा। उस सुन्‍दर स्‍त्री का यहाँ का टिकिट था, वह यहाँ उतर गयी। हमारा आगे का टिकिट है, हम वहाँ उतरेंगे।
भारतीय रेलें कहीं-न-कहीं हमारे मन को छूती हैं। वह मनुष्‍य को मनुष्‍य के क़रीब लाती हैं। एक ऊँघता हुआ यात्री दूसरे ऊँघते हुए यात्री के कन्‍धे पर टिकने लगता है। बताइए ऐसी निकटता भारतीय रेलों के अतिरिक्‍त कहाँ देखने को मिलेगी? आधी रात को ऊपर की बर्थ पर लेटा यात्री नीचे की बर्थ पर लेटे इस यात्री से पूछता है - यह कौन-सा स्‍टेशन है? तबीयत होती है कहूँ - अबे चुपचाप सो, क्‍यों डिस्‍टर्ब करता है? मगर नहीं, वह भारतीय रेल का यात्री है और भारतभूमि पर यात्रा कर रहा है। वह जानना चाहता है कि इस समय एक भारतीय रेल ने कहाँ तक प्रगति कर ली है?
आधी रात के घुप्‍प अँधेरे में मैं भारतभूमि को पहचानने का प्रयत्‍न करता हूँ। पता नहीं किस अनजाने स्‍टेशन के अनचाहे सिग्‍नल पर भाग्‍य की रेल रुकी खड़ी है। ऊपर की बर्थवाला अपने प्रश्‍न को दोहराता है। मैं अपनी ख़ामोशी को दोहराता हूँ। भारतीय रेलें हमें सहिष्‍णु बनाती हैं। उत्तेजना के क्षणों में शांत रहना सिखाती हैं। मनुष्‍य की यही प्रगति है।
Short version of रेल यात्रा 


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शुक्रवार, 20 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र

शरद जोशी/ Sharad Joshi

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देवी, माता या बहन,
अब मात्र यही संबोधन बचे हैं, जिनसे इस देश में एक पुराना प्रेमी अपनी अतीत की प्रेमिकाओं को पुकार सकता है। वे सब कोमल मीठे शब्द, जिनका उपयोग मैं प्रति मिनट दस की रफ्तार से नदी किनारों और पार्क की बेंचों पर तुम्हारे लिए करता था, तुम्हारे विवाह की शहनाइयों के साथ हवा हो गए। अब मैं तुम्हें भाषण देने वाले की दूरी से माता और बहन कहकर आवाज दे सकता हूं। वक्त के गोरखनाथ ने मुझे भरथरी बना दिया और तुम्हें माता पिंगला। मैं अपनी राह लगा और तुम अपनी। आत्महत्या ना तुमने की, ना मैंने। मेरे प्रेमपत्रों को चूल्हे में झोंक तुमने अपने पति के लिए चाय बनाई और मैंने पत्रों की इबारतें कहानियों में उपयोग कर पारिश्रमिक लूटा। 'साथ मरेंगे, साथ जिएंगे' के वे वचन जो हमने एक दूसरे को दिए थे, किसी राजनीतिक पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में किए गए वायदों की तरह खुद हमने भुला दिए। वे तीर जिनसे दिल बिंधे थे, वक्त के सर्जन ने निहायत खूबसूरती से ऑपरेशन कर निकाल दिए और तुम्हारी आंखें, जो अपने जमाने में तीरों का कारखाना रही थीं, अब शान्त और बुझी हुई रहने लगीं, मानो उनका लाइसेंस छिन गया।
मेरी एक्स-प्राणेश्वरी कुन्तला (मैं तुम्हारा वास्तविक नाम शकुन्तला नहीं लिखता क्योंकि तुम्हारे उस झक्की पति को पता लग जाएगा), तुम मेरी जिंदगी में तब आई थी, जब मुझे 'प्रेम' शब्द समझने के लिए डिक्शनरी टटोलनी पड़ती थी। पत्र लेखन में बतौर एक्सरसाइज किया करता था। घर की देहरी पर बैठा मैं मुगल साम्राज्य के पतन के कारण रटता और तुम सामने नल पर घड़े भरतीं या रस्सिया कूदतीं। मानती हो कि मैंने अपनी प्रतिभा के बल पर तुम्हें आखें मिलाना और लजाना सिखाया। मैंने तुम्हें ज्योमैट्री सिखाते वक्त बताया था कि यदि दो त्रिभुजों की भुजाएं बराबर हों तो कोण भी बराबर रहते हैं और सिद्ध भी कर दिखाया था। पर वह गलत था। बाद में तुम्हारे पिताजी ने मुझे समझाया कि अगर दहेज बराबर हो तो कोण भी बराबर हो जाते हैं और भुजाएं भी बराबर हो जाती हैं। मैं अपने बिन्दु पर परपेण्डिकुलर खड़ा तुम्हें ताकता रहा और तुम आग के आसपास गोला बना चजुर्भज हो गईं।
कुन्तला, मुझे तुम अपने बच्चों की ट्यूशन पर क्यों नहीं लगा लेतीं? तुम तीनों बच्चों के लिए अस्सी रुपए उस मास्टर को देती हो। मैं तुम्हारे बच्चे पढ़ा दूंगा, मुझे दिया करो वे रुपए। सच कहता हूं कि एक शान्त मास्टर की तरह घर आऊंगा। प्रेम की तीव्रता से अधिक जरूरी है अस्सी की आमदनी निरंतर बनी रहे। तुम मेरी प्रेम की पीड़ा दूर नहीं कर सकीं, तुम मेरी गरीबी की पीड़ा दूर कर सकती हो।


Short version of भूतपूर्व प्रेमिकाओं को पत्र 

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शरद जोशी का व्यंग्य - नेतृत्व की ताकत

 शरद जोशी/ Sharad Joshi

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नेता शब्द दो अक्षरों से बना है। ‘ने’ और ‘ता’। इनमें एक भी अक्षर कम हो, तो कोई नेता नहीं बन सकता। मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ अजीब ट्रेजडी हुई। एक दिन यह हुआ कि उनका ‘ता’ खो गया। सिर्फ ‘ने’ रह गया। इतने बड़े नेता और ‘ता’ गायब। उन्हें सेक्रेटरी ने बताया कि सर आपका ‘ता’ नहीं मिल रहा। आप सिर्फ ‘ने’ से काम चला रहे हैं। नेता बड़े परेशान। नेता का मतलब होता है, नेतृत्व करने की ताकत। ताकत चली गई, सिर्फ नेतृत्व रह गया। ‘ता’ के साथ ताकत गई। तालियां गईं, जो ‘ता’ के कारण बजती थीं। नेता बहुत चीखे। पर जिसका ‘ता’ चला गया, उस नेता की सुनता कौन है? खूब जांच हुई पर ‘ता’ नहीं मिला। नेता ने एक सेठ से कहा, ‘यार हमारा ‘ता’ गायब है। अपने ताले में से ‘ता’ हमें दे दो।’ सेठ बोला, ‘यह सच है कि ‘ले’ की मुझे जरूरत रहती है, क्योंकि ‘दे’ का तो काम नहीं पड़ता, मगर ताले का ‘ता’ चला जाएगा तो लेकर रखेंगे कहां? सब इनकम टैक्स वाले ले जाएंगे। कभी तालाबंदी करनी पड़ी तो? ऐसे वक्त तू तो मजदूरों का साथ देगा। मुझे ‘ता’ थोड़े देगा।’ सेठ को नेता ने बहुत समझाया। जब तक नेता रहूंगा, मेरा ‘ता’ आपके ताले का समर्थन करेगा। आप ‘ता’ मुझे दे दें और फिर ‘ले’ आपका। लेते रहिए, मैं कुछ नहीं कहूंगा। सेठ जी नहीं माने। विरोधी मजाक बनाने लगे। अखबारों में खबर उछली कि नेता का ‘ता’ नहीं रहा। अगर ‘ने’ भी चला गया तो यह कहीं का नहीं रहेगा। खुद नेता के दल के लोगों ने दिल्ली जाकर शिकायत की। आपने एक ऐसा नेता हमारे सिर थोप रखा है, जिसके पास ‘ता’ नहीं है।
नेता दुखी था पर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जनता के पास जाए और कबूल करे कि उसमें ‘ता’ नहीं है। एक दिन उसने अजीब काम किया। कमरा बंद कर जूता में से ‘ता’ निकाला और ‘ने’ से चिपकाकर फिर नेता बन गया। यद्यपि उसके व्यक्तित्व से दुर्गन्ध आ रही थी। मगर वह खुश था कि चलो नेता तो हूं। पार्टी ने भी कहा, जो भी नेता है, ठीक है। समस्या सिर्फ यह रह गई कि लोगों को पता चल गया। आज स्थिति यह है कि लोग नेता को देखते हैं और अपना जूता हाथ में उठा लेते हैं। उन्हें डर है कि कहीं वह इनके जूतों में से ‘ता’ ना चुरा ले। पत्रकार पूछते हैं, ‘सुना आपका ‘ता’ गायब हो गया था?’ वह धीरे से कहते हैं, ‘गायब नहीं हुआ था। माताजी को चाहिए था तो मैंने दे दिया। आज मैं जो भी हूं, उनके ही कारण हूं। वह ‘ता’ क्या मेरा ‘ने’ भी ले लें तो मैं इनकार नहीं करूंगा।’ नेता की नम्रता देखते ही बनती है। लेकिन मेरा विश्वास है मित्रो जब भी संकट आएगा, नेता का ‘ता’ नहीं रहेगा, लोग निश्चित ही जूता हाथ में ले बढ़ेंगे और प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योगदान देंगे।

Short version of  नेतृत्व की ताकत

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मंगलवार, 17 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - अतिथि! तुम कब जाओगे

शरद जोशी/ Sharad Joshi
sharad joshi vyang , शरद जोशी के व्यंग्य, शरद जोशी की रचनाएं, शरद जोशी के लघु व्यंग्य, भारत के महान व्यंग्यकार, शरद जोशी किताबेंतुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम जिस सोफे पर टांगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर लगा है, जिसकी फड़फड़ाती तारीखें मैं तुम्हें रोज दिखाकर बदल रहा हूं। मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नजर नहीं आती। लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रोनॉट्स भी चांद पर इतने नहीं रुके, जितने तुम रुके। क्या तुम्हें तु्म्हारी मिट्टी नहीं पुकारती? जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ कांप उठा था। फिर भी मैं मुस्कुराता हुआ उठा और तुम्हारे गले मिला। तुम्हारी शान में ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला और रात के खाने को डिनर में। हमने तुम्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाइयां बुलवाईं। इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमान नवाजी की छाप लिए तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे। मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो। कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो। तुम्हारी उपस्थिति यूं रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी नहीं सोचा था। सुबह तुम आए और बोले, ‘लॉन्ड्री में कपड़े देने हैं।’ मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुलकर नहीं आएंगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था। मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता। वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है। यह देख मेरी पत्नी की आंखें बड़ी-बड़ी हो गईं। तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आंखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है। कपड़े धुलकर आ गए और तुम यहीं हो। तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमभावना गाली में बदल रही है। मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है। सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है। यदि लोगों का बस चलता तो वे किसी और के ही घर में रहते। किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते। मगर घर को सुंदर और होम को स्वीट होम इसलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर वापिस भी लौट जाएं। देखो, शराफत की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है, जो बोला जा सकता है। कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा। और वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊंगा। यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आखिर मनुष्य हूं। एक मनुष्य ज्यादा दिनों तक देवता के साथ नहीं रह सकता। देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए। तुम लौट जाओ अतिथि। इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूं तुम लौट जाओ।

Short version of अतिथि! तुम कब जाओगे 

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