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शनिवार, 16 मार्च 2024

अब गब्बर पूछ रहा है- चुनाव कब है, कब है चुनाव?

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( कुछ घिसे-पिटे सब्जेक्ट वैसे ही चलते रहते हैं, जैसे घिसे-पिटे नेता...। तो इसे वैसे ही पढ़कर भूल जाइए, जैसे वोट देकर आप भूल जाते हैं...)


By Jayjeet Aklecha

गब्बर को गलतफहमी है कि होली होली के बजाय चुनाव चुनाव करने से उसे चुनाव में टिकट मिल जाएगा। टिकट दल बदलने से मिलता है, जुमले बदलने से नहीं।

और उसे इस बात की भी और भी गलतफहमी ही है कि डकैत होना उसकी एडिशनल क्वालिफिकेशन है। छोटा-मोटा डकैत होने भर से टिकट मिल जाएगा क्या!! सोचने वाली बात है।

गब्बर ने अपनी जाति नहीं बताई... डकैत तो डकैत होता है। उसकी क्या जात और क्या पात? लो, नैतिकता का झंझट तो अपन वोटर लोग भी नहीं पालते और ये डकैत होकर पाले हुए हैं।

तो टिकट कैसे मिलेगा, कैसे मिलेगा टिकट?

भाईसाब, रामगढ़... मोबाइल में घुसे पड़े नल्ले साम्भा के मुंह से कुछ फूटा...।

क्या?

'राम-गढ़ का कनेक्शन बताओ।'

साम्भा के मुंह से पहली बार कोई कायदे की बात फूटी है। टीवी चैनलों पर न्यूज देखकर आदमी ज्ञानी हो ही जाता है...

मॉरल ऑफ द स्टोरी फ्रॉम द ग्रेट साम्बा...जिसके पास धेले का भी काम नहीं, वह न्यूज चैनलों की न्यूज जरूर देखें।

न्यूज अपडेट...
कांग्रेस तो दो बोरी गेहूं के बदले ही टिकट देने को तैयार है, मगर साम्भा ने चेताया, भाई साब ले मत लेना, अभी तो आप जमानत पर बाहर है। वह भी जब्त हो जाएगी।

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रविवार, 10 मार्च 2024

कांग्रेस की आत्मा तो अजर-अमर है! बस देह बदलकर भाजपा में प्रवेश कर रही है...!!

 

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By Jayjeet Aklecha

 शुरुआत मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी जी की इन पंक्तियों से... कांग्रेस अमर है, वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएंगे। जब तक पक्षपात, दोमुंहापन, पूर्वग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी।


नित दिन जब खबर आती है कि अमुक कांग्रेसी ने भाजपा ज्वॉइन कर ली है तो यह भाजपा मुक्त भारत की दिशा में एक और ठोस कदम होता है। क्या कांग्रेसियों ने साजिश रच रखी है भाजपा को खत्म करने की? वाकई, राजनीति में कांग्रेसियों का कोई मुकाबला नहीं! ऐसा जाल बिछाया कि कांग्रेस मुक्त भारत करते-करते भाजपाइयों ने अनजाने में देश को भाजपा मुक्त कर दिया।

मैं उस भविष्य की ओर देख रहा हूं, जब देश में केवल दो पार्टियां होंगी - भाजपा () और भाजपा (सी) यानी भाजपा (ओरिजिनल) और भाजपा (कांग्रेस) कई लोगों को आशंका और उम्मीद है कि भविष्य में हमारा भारत महान चीन की तर्ज पर एक पार्टी सिस्टम पर जा सकता है और वह पार्टी होगी भाजपा (सी) यकीन मानिए, इसमें भाजपा की केवल देह होगी, भीतर आत्मा तो कांग्रेस की ही होगी।
 

आजादी के बाद कांग्रेस ने जो संघर्ष किया है, उसे भाजपा कभी नहीं समझ सकती।। शरद जोशी जी द्वारा गिनाए गए नैतिक पतन के तमाम आदर्श उसे स्वयं अपने हाथों से गढ़ने पड़े। भाजपा किस्मतवाली रही कि उसे नैतिक पतन के ये गुण विरासत में मिल गए। उसे आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ा और ऐसे उच्च आदर्शों के लिए। बस, उसे कांग्रेस को अपने भीतर समाने की जरूरत थी। बेशक, यह बेहद मुश्किल था। पर भाजपा को साधुवाद! उसने कांग्रेस के गुणों को अपनाने में 10 साल भी नहीं लगाए।

आज अटल जी जहां कहीं भी होंगे, क्या सोच रहे होंगे? दु:खी हो रहे होंगे या खुश हो रहे होंगे? मुझे लगता है कि वे यह सोच-सोचकर खुद को भाग्यशाली मान रहे होंगे कि वे ' पार्टी विद डिफरंस' की ऐसी मौत अपनी आंखों से देखने से बच गए। आडवाणीजी एक बार फिर से अटलजी की किस्मत पर रश्क कर सकते हैं...!

समापन भी शरद जोशी की पंक्तियों से ही... दाएं, बाएं, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी। इस देश में जो भी होता है, अंततः कांग्रेस होता है। जनता पार्टी (आज पढ़ें भारतीय जनता पार्टी) भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी।

 (Disclaimer : विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

News Satire : भाजपा को नेस्तनाबूद करने के लिए राहुल का आखिरी मास्टरस्ट्रोक!

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By Jayjeet

राहुल गांधी ने अपनी पार्टी कांग्रेस को बचाने के लिए मास्टर स्ट्रोक चलने की तैयारी कर ली है। यह ऐसा मास्टर स्ट्रोक है जिससे ‘भाजपा मुक्त भारत' की स्थिति बन सकती है। इससे भाजपा की सांसें फूल गई हैं। 

राहुल के एक क़रीबी सूत्र के अनुसार अगले कुछ दिनों में राहुलजी ज़बरदस्ती भाजपा में शामिल होंगे। वे उसके पक्ष में जगह-जगह जाकर जमकर प्रचार भी करेंगे।

राहुल के इस मास्टर स्ट्रोक के पीछे आख़िर गणित क्या है? इसको लेकर एक सूत्र ने बताया कि मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की बड़ी-बड़ी बातें करते आए हैं। मोदी के इस घमंड को चूर-चूर करने के लिए ही राहुलजी यह मास्टर स्ट्रोक चलेंगे।

राहुल के इस मास्टर प्लान की जानकारी लीक होते ही बचे-खुचे कांग्रेसियों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई है। कांग्रेस के एक सीनियर लीडर ने अपनी ख़ुशी छिपाते हुए कहा, "गांधी परिवार अपने बलिदान के लिए जाना जाता है। इंदिराजी से लेकर राजीवजी तक ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। अब राहुलजी कांग्रेस को बचाने के लिए पार्टी छोड़कर जाएंगे। इससे बड़ा बलिदान और क्या होगा? हम कांग्रेसी इसे हमेशा याद रखेंगे।'

हालांकि राहुल के भाजपा में शामिल होने की ख़बरों से भाजपा में दहशत का माहौल है। पार्टी के प्रवक्ता सांबित पात्रा ने रूंधे हुए गले से कहा, "अगर ये ख़बरें सच हैं तो दुर्भाग्यपूर्ण है। हमें नहीं पता था कि कांग्रेसी इतना नीचे गिर जाएंगे।' 

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(Disclaimer: यह केवल एक व्यंग्य बतौर लिखा गया है।)


गुरुवार, 29 जुलाई 2021

Satire : संसद ने अपने प्रांगण में लगी बापू की प्रतिमा से क्या कहा?

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-  ए. जयजीत 

अरसा हो गया। इतने वर्षों से बापू को एक ही पोजिशन में बैठे हुए देखते-देखते। झुके हुए से कंधे। बंद आंखें। भावविहीन चेहरा। कहने की जरूरत नहीं, उम्मीद विहीन भी। चेहरा भावविहीन तो उसी दिन से हो गया था, जिस दिन देश को दो टुकड़ों में बांटने का निर्णय लिया गया था। निर्णय गैरों ने लिया था। उस पर कोई रंज नहीं था। पर मोहर तो अपने ही लोगों ने लगाई थी। इतनी जल्दी थी आजाद होने की, बापू के विचारों से आजाद होने की?

संसद अपने ही प्रांगण में लगी गांधी प्रतिमा को देखकर कुछ यूं ही सोच रही है। संसद को वैसे भी अब कुछ काम तो है नहीं। पक्ष-विपक्ष के सभी माननीय हंगामे में व्यस्त हैं तो संसद क्या करे? कुछ तो करे! तो इन दिनों वह वैचारिक चिंतन में लगी है। वैसे भी जब आदमी निठल्ला हो जाता है तो चिंतन में लग जाता है। संसद को तो निठल्ला बना दिया गया।  

तो संसद का चिंतन जारी है। सोच रही है कि सालों पहले जब बापू को यहां बिठाया गया था, तब भी क्या ये ऐसे ही थे? क्या ये प्रतिमा तब भी इतनी ही गुमसुम-सी उदास थी? कंधे ऐसे ही झुके हुए थे? चेहरे पर इतनी ही विरानगी थी? 

"याद क्यों नहीं आ रहा?' संसद खुद पर भिन्ना रही है। अब क्या करें, वह भी बूढ़ी हो चली है। फिर ऊपर से अल्जाइमर का रोग अलग हो चला। भूलने का रोग। कई पुरानी बातें याद ही नहीं रहतीं। 1947 से लेकर अब तक न जाने कितने वादे किए, उनमें से कितने पूरे हुए, कितने अधूर रहे, कुछ याद नहीं। 

हमेशा की तरह संसद आज फिर बेचैन है। जब भी संसद सत्र चलता है, तब वे ऐसे ही बेचैन हो जाया करती है। दुखी भी। तो दो दुखी आत्माएं। एक इस तरफ, दूसरी उस तरफ। एक ही नियति को प्राप्त। दुखी आत्माएं अगर आपस में बात कर लें तो मन हल्का हो जाता है, यही सोचकर संसद ने बापू को धीरे से पुकारा - "बापू, ओ बापू।' 

पर बापू कहां सुनने वाले। संसद से उठने वाले अंतहीन शोर-शराबे, हंगामे, गालियों, प्रतिगालियों को वे सुन न सकें, माइक फेंकने से लेकर कागज फाड़ने जैसी करतूतें नजर न आ सकें, इसलिए उन्होंने सालों पहले से ही अपने कान और आंखें बंद कर रखी हैं। बापू ने जो सबक अपने तीन बंदरों को सिखाया था, उनमें से दो का पालन वे खुद बड़े ही नियम से करते हैं- बुरा ना सुनो, बुरा ना देखो। कहना तो 1947 के बाद तभी से बंद कर दिया था, जब उनकी बातों का बुरा माना जाने लगा था। 

संसद को शायद मालूम है ये बात। तो उसने धीरे से बापू की प्रतिमा को झिंझोड़ा। 

बापू को भी मालूम है कि उन्हें स्पर्श करने का साहस कौन कर सकता है। संसद ही। काजल की कोठरी में रहकर कालिख से कोई नहीं बच सका है, लेकिन माननीयों के साथ रहने के बावजूद संसद स्वयं में पवित्र है। यह छोटी उपलब्धि नहीं है। तो बापू ने आंख बंद किए ही पूछा- "बताओ, आज कैसे याद किया?' सालों बाद वे बोले, मगर इतना धीमे कि जिसे केवल संसद ही सुन सके। 

"बापू बहुत दिनों से बेचैन थी। सोचा आपसे बात करके मन को कुछ हल्का करुं?' 

बापू मन में मुस्कुराए। बस, इसलिए कि बात ही कुछ ऐसी कर दी थी संसद ने। "एक बेचैन आत्मा से बात करके तुम्हें क्या चैन मिलेगा?' बापू ने फिर धीरे से पूछा। 

"आपने तो मुंह, आंख, कान बंद कर लिए। लेकिन मैं क्या करूं? अपने मुंह, आंख, कान बंद कर लूं, तब भी संसद में उठने वाले तूफानी हंगामे से कांप उठती हूं। क्या करुं मैं?'

"अगर इसका जवाब मेरे पास होता तो मैं खुद यहां यूं ना बैठा रहता, मूर्ति बनकर।' बापू ने क्षोभ से कहा। 

"पर बापू, इनमें से कई आपके पुराने अनुयायी हैं। कई नए भक्त भी बने हैं। आए दिन आपका नाम लेकर कसमें खाते हैं। मैं जानती हूं, सब झूठी कसमें हैं। फिर भी उन्हें एक बार तो अपनी कसम याद दिलवाइए। क्या पता, उसी से उनकी अंतरात्माएं जाग उठे।' संसद ने बड़ी ही मासूमियत के साथ यह बात कही। 

"इतनी भोली भी मत बनो। माननीयों को सबसे ज्यादा करीब से तो तुम्हीं ने देखा है। फिर भी ऐसी तर्कहीन बात। असत्य के साथ नित नए-नए प्रयोग करने वाले ये लोग मेरी बात सुनेंगे? इन्होंने तो अपने ही तीन बंदर क्रिएट कर लिए हैं - अच्छा मत सुनो, अच्छा मत देखो, अच्छा मत कहो।'

"बापू अब तो मुझे आत्मग्लानि होने लगी है। खुद पर ही शर्म आने लगी है।'

"ये तो सदा से रीत चली आ रही है?'

"कैसी रीत बापू? '  

"जब घर के बच्चे बेशर्मी पर उतर आते हैं तो शर्म से गढ़ने का काम उस घर की दीवारों के जिम्मे ही आ जाता है। यही जिम्मा तुम निभा रही हो। पर तुम खुद को दोष मत दो।' 

"पर आप भी खुद को ही दोष देते हों? मैं सालों से देख रही हूं कि 15 अगस्त आते ही आपका चेहरा और भी पार्थिव जैसा हो जाता है। ऐसा लगता है मानों पुराने दिन याद करके आपके मन में वितृष्णा-सी भर आई हो।

"अब मैं कुछ कहूंगा तो तुम कहोगी कि फिर वही घिसी-पिटी बात कह दी।'

"कह दो बापू। अब हमारे पास कहने के सिवाय बचा ही क्या है। कह दो, मन हल्का हो जाएगा।'  

"बस, यही कि अगस्त पास आते ही जी घबराने लगता है। आजादी की जो लड़ाई लड़ी थी, वह व्यर्थ लगने लगती है...' कहते कहते बापू का गला थोड़ा भर्राने लगा। कुछ देर मौन। फिर खुद को संभालते हुए बोले, "तुम कहां बैठ गई फालतू बातें लेकर, जाओ तुम यहां से।'  

वे कुछ और फालतू बात कर सकें, इससे पहले ही संसद को कुछ आहट सुनाई दी। संसद ने तुरंत बापू को अलर्ट किया -  "बापू सावधान! कुछ माननीय हाथों मंे तख्ती लिए, नारे लगाते हुए आपकी शरण में आ रहे हैं। लगता है कुछ घंटे आपके साथ ही बैठेंगे।' 

और बापू फिर पहले वाली मुद्रा में आ गए।

संसद के सामने तो फिलहाल कोई रास्ता नहीं है, अपनी किस्मत को कोसने के सिवाय... 

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। संवाद शैली में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

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बुधवार, 7 जुलाई 2021

Satire & Humor : जब राजा के दर्पण ने की दिल की बात, मतलब बड़ी वाली बदतमीजी!!

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By Jayjeet

सुबह नित्य कर्म, योगासन और ध्यान-स्नान से फ्री होते ही वे अपने बालों को संवारने के लिए हमेशा की तरह दर्पण के सामने थे। लेकिन बाल संवारते-संवारते आज उन्हें दर्पण में कुछ हलचल महसूस हुई। शायद दर्पण कुछ कहना चाहता है। हालांकि दर्पण कहना तो काफी दिनों से चाहता था, लेकिन महसूस उन्होंने आज किया। पर उनके सामने कुछ कहने की क्या कोई मजाल कर सकता है? इसलिए उनके ईगो को हलकी-सी ठेस लगी। वे एक कदम पीछे हो गए और फिर दर्पण से मुंह फेर लिया। लेकिन तभी उन्हें आवाज सुनाई दी - राजन ओ राजन...। यह दर्पण से ही आ रही थी।
आवाजों को इग्नोर करना उन्होंने सीख लिया था। राजा चाहे कोई भी हो, किसी भी काल-युग का हो, धीरे-धीरे इग्नोरेंस उसका स्थाई भाव बन जाता है। वे चाहते तो इस आवाज को भी इग्नोर करके अपनी राह पर आगे बढ़ सकते थे। यह उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद ही लगाता। लेकिन फिर अभिमानी मन ही आड़े आ गया। तो दर्पण से दूर होते कदम ठिठक गए और चेहरा फिर से दर्पण की ओर घूम गया, मानो चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि ए तुच्छ दर्पण, बता, क्या है तेरी रज़ा!
दर्पण धीरे से कुछ बुदबुदाया.... लेकिन आवाज साफ नहीं आ पाई। कॉन्फिडेंस का अभाव था।
'क्या तू कुछ कहना चाहता है दर्पण?'
'जी जी, मैं कुछ बातें करना चाहता हूं...।' दर्पण के मुंह से हकलाते हुए कुछ शब्द फूटे।
'अच्छा, अपने मन की बात करना चाहता है?' राजा अपनी चिर-परिचित शैली में मुस्कुराए।
'मन की बात तो राजन आप बहुत कर चुके, मैं तो दिल की बात करना चाहता हूं...'
'अच्छा! तू मेरा दर्पण होकर दिल की बात करना चाहता है? तुझे पता नहीं, राजाओं के महलों में लगे दर्पण कभी अपने दिल की नहीं करते?'
'हां, राजन। अच्छे से पता है। राजाओं के महलों के दर्पण भी बस राजाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं। वे तो केवल राजाओं के मन की बात ही करेंगे। फिर भी आज दिल की कुछ कहना चाहता हूं, मगर ...'
'मगर क्या? '
'बता तो दूं, मगर डरता भी हूं।'
'अरे, तू मेरा दर्पण है, तुझमें मेरा ही प्रतिबिम्ब है। तुझे इस बात का इल्म नहीं कि हमने कभी डरना सीखा नहीं, फिर तू कैसे डर सकता है?' राजाओं का अभिमान पल-पल में जागता रहता है।
'डरता इसलिए हूं क्योंकि दिल, वह भी दर्पण का, कभी झूठ नहीं बोलता। और सच सुनाने की हिम्मत नहीं हो रही।'
'अच्छा, लेकिन ऐसा कौन-सा सच है जो हमसे छुपा हुआ है? मेरे दरबारी मुझे हमेशा सच से बाख़बर रखते हैं।'
'लेकिन दरबारी वही सच सुनाते हैं जो राजा सुनना चाहता है।'
'लेकिन तुम सच ही बोलोगे, इसका क्या भरोसा?'
'क्योंकि कहा ना, दर्पण झूठ नहीं बोलते।'
'इतना अभिमान?'
'सब आपसे ही सीखा, आपके ही महल में रहते-रहते।' शायद ज्यादा बोल गया दर्पण। इस बात का तुरंत एहसास होते ही उसने मिमियाती आवाज में एक ठहाका लगाया। ठहाका लगाने से वातावरण का तनाव दूर हो जाता है। इतने सालों में दर्पण ने यह भी सीखा और देखा है।
'हमसे और क्या-क्या सीखा?' राजा ने भी चुटकी ली।
'खुद को पॉलिश करके रखना। देखो, कितना चकाचक हूं, आपके ही वस्त्रों की तरह।' दर्पण अब थोड़ी सीमा उलांघने की गुस्ताखी करने लगा है।
'मतलब सूटेड-बूटेड होना गलत नहीं है ना!' राजा को अब उसकी बातों में मजा आने लगा है। बातचीत इनफॉर्मल होने लगी है।
'बिल्कुल नहीं। यह तो विकास का एक बड़ा पैमाना है।' राजा का दर्पण है तो बात कुछ-कुछ राजा के मनमाफिक करना भी जरूरी है।
'वाह दर्पण, तू ही है जो मेरे मन की बात अच्छे से समझता है। तू तो विकास का शोकेस बन सकता है, विकास का प्रतिबिम्ब।'
'अभी तो केवल आप मेरे सामने हैं। तो मैं फिलहाल आपका ही प्रतिबिम्ब हूं।' अब दर्पण ने चुटकी ली। अब दर्पण थोड़ा-थोड़ा खुलने लगा है।
'बहुत डिप्लोमैटिक भी हो गया है रे तू।'
'यह भी आपसे ही सीखा है राजन।'
"तूने अच्छा किया जो मुझसे बात कर ली। मैं तो भूल ही गया था कि तेरा भी हम राज्य के हित में बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।' वही राजा कुशल होता है जो हर मौके पर अपने काम की बात निकाल ले।
'वह कैसे भला?' दर्पण चाैंका। राजा की मंशा पर मन की मन शक करने की गुस्ताखी की।
'इन दिनों प्रजा के बीच विश्वास का बड़ा संकट है। राज्य के विकास संबंधित तमाम आंकड़े हम तेरे जरिए ही दिखाएंगे तो लोग सच मान लेंगे। क्योंकि भोली प्रजा भी तो यही मानती है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता।'
'मगर गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई जैसे आंकड़ों का सच मैं कैसे छिपाऊंगा? मैं धोखा तो नहीं दे सकता।' दर्पण ने अचानक अपनी औकात की सीमा के बाहर कदम रख दिया है।
लेकिन दर्पण की इस बात से राजा को गुस्सा नहीं आया, बल्कि उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा भर दिए। राजा चाहते तो हंस भी सकते थे। बात ही इतनी हास्यास्पद थी। फिर भी मुस्कुराए भर।
'राजन, हर आंकड़े का सच प्रजा को मालूम होना ही चाहिए।' दर्पण अब नैतिकता पर उतरने का दुस्साहस करने लगा है।
'तू बहुत छोटा है दर्पण। हर आंकड़ा तुझ में नहीं समा सकता। तो हम वही आंकड़े दिखाएंगे, जो राज्य के विकास का प्रतिबिम्ब दर्शाए।' राजा ने बागी होते जा रहे दर्पण को बहलाने की कोशिश की।
'लेकिन मैं सहमत नहीं हूं।' दर्पण की बदतमीजी बढ़ती गई।
'तू एक राजा के महल का दर्पण है। यह बात कैसे भूल गया?' राजा का धैर्य जवाब दे गया। इसलिए मुट्‌ठी भींचकर राजा चीख पड़े।
दर्पण भी एक पल के लिए कांप उठा, फिर संभलकर बोला, 'गुस्ताखी माफ राजन, दर्पण तो दर्पण होता है, फिर वह गरीब की झोपड़ी में लगा हो या किसी राजा के महल में?'
दर्पण की जबान कड़वी होती जा रही थी। शायद दर्पण थोड़ा-थोड़ा स्वाभिमानी हो रहा था। फिर बात आगे बढ़ी... बढ़ती गई... बढ़ती ही चली गई... फिर इतनी बढ़ी कि दर्पण ने औकात की तमाम सीमाएं पार कर ली।
मगर राजा तो राजा है। गुस्ताख दर्पण के साथ वही होना था जिसके वह लायक था। वह अब जमीन पर था। टुकड़े-टुकड़े। उस गुस्ताख दर्पण को सजा मिल चुकी थी। राजा की सहृदयता पर गुस्ताखी करने का नतीजा क्या होता है, दर्पण के उन टुकड़ों से यही कहने के लिए राजा नीचे की ओर झांके, थोड़ा झुके भी। लेकिन अब वहां एक दर्पण नहीं था। टुकड़े-टुकड़े कई दर्पण थे और सभी गुस्ताखी कर रहे थे। अपने दिल की बात सुना रहे थे। बात एक दर्पण ने शुरू की थी। अब कई दर्पण तक पहुंच गई थी। राजा ने घबराकर अपने हाथों से कान ढंक लिए। आंखें बंद कर ली। मुंह फेर लिया।

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। अपने इंटरव्यू स्टाइल में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)