बुधवार, 30 अप्रैल 2014

नेता, अफसर जिंदाबाद

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

काला धन-काला धन... बहुत षोर मचा रहे थे। लो, सरकार ने जनभावनाओं के मद्देनजर इन काले चोरों के नाम देष को बता दिए। पहचान लो इनमें से अगर किसी को जानते हो तो। इन्हें देष तो क्या, उनके षहर वाले भी नहीं जानते होंगे।
हां, इससे एक बात जरूर साफ हो गई। देष का एक भी नेता और बड़ा अफसर भ्रष्ट नहीं है। दिल को बड़ा सुकून मिला यह जानकर। मैं तो पहले ही कहता था। जबरन ही बेचारे नेताआंे और अफसरों पर षक की सुई घुमाए जा रहे थे। सत्यानाष तो एनजीओस का हो जो खाते इस देष में हैं, और उल्टियां विदेषों में करते हैं। ऐसे ही लोगों के नाम है इस लिस्ट में। वैसे भाड़ में जाने दो इनको। यह क्या कम हैं कि हमारे नेता और अफसर तो ईमानदार हैं। वे देष चला लेंगे। वे मिल-बांटकर खाने वाली संस्कृति के वाहक हैं। देष का पैसा देष में ही रहे, इस सिद्धांत के पैरोकार हैं। इसी से देष की इकोनाॅमी चलती है। देष सुरक्षित हाथों में हैं। सरकार को बधाई कि उसने हम सबकी आंखें खोलकर दुविधा दूर कर दी। वह आगे भी ऐसा ही करती रहेगी।

सोमवार, 28 अप्रैल 2014

फारुख के बयान से अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंतित

छोटे राष्ट्रों पर डूबने का खतरा मंडराया

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha


केंद्रीय मंत्री फारुख अब्दुल्ला के इस बयान के बाद कि नरेंद्र मोदी को वोट देने वालों को समुद्र में डूब जाना चाहिए, इंटरगवर्नमेंटल पैनल आॅन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने मालदीव, बांग्लादेष, श्रीलंका जैसे देषों के लिए अलर्ट जारी किया है। इसमें इन देषों के बड़े हिस्से के डूबने का खतरा बताया गया है, खासकर तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने की सलाह दी गई है। आषंका यह भी जताई गई है कि 30 अप्रैल को गुजरात में होने वाली वोटिंग के बाद कच्छ की खाड़ी के जल स्तर में भी भारी बढ़ोतरी हो सकती है।
इस बीच, मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और उत्तरप्रदेष के उन क्षेत्रों जहां वोटिंग हो गई है, वहां भारी संख्या में लोग अपने-अपने घरों से निकल गए हैं। आॅफ सीजन होने के कारण सस्ते के चक्कर में अधिकांष लोग गोवा के तटों की ओर जाते दिखाई दिए हैं। इन खबरों के बाद गोवा सरकार भी तत्काल हरकत में आ गई है। अपने यहां कानून एवं व्यवस्था बिगड़ने की आषंका के चलते उसने केंद्र सरकार से अर्द्धसैनिक बलों की 1500 टुकड़ियां मांगी है।
ओबामा ने की मनमोहन से बातचीत: 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी निवर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस पूरे मसले पर बातचीत की है। उन्होंने मनमोहन सिंह के इस तर्क को मानने से इनकार कर दिया कि यह भारत का अंदरूनी मामला है। ओबामा का कहना है कि इतने सारे लोगों के डूबने से समुद्र के जल स्तर में जो बढ़ोतरी होगी, उसका पूरे विष्व पर असर पड़ना लाजिमी है। इस बीच, जापान ने जी-7 देषों की बैठक बुलाने की मांग की है। जापान को सुनामी का डर सता रहा है।
12 मई को क्या होगा?
उप्र प्रषासन को चिंता 12 मई की है, जिस दिन वाराणसी में मतदान होगा। संत-समुदाय के कुछ धड़ों की इस घोषणा के बाद प्रषासन के हाथ-पैर फूल गए हैं कि काषी की जनता समुद्र में नहीं, गंगा में ही डूबकी लगाएगी। अब प्रषासन के सामने चुनौती यह है कि वह गंगा में इतना पानी कहां से लाए।

रविवार, 27 अप्रैल 2014

मनमोहन सिंह के पांच प्रायष्चित

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने भाई दलजीत सिंह के भाजपा में जाने से इतने दुखी हो गए हैं कि उन्होंने प्रायष्चित स्वरूप ये पांच घोषणाएं की हैं-
1. वे तब तब मौन व्रत धारण करके रखेंगे जब तक कि कांग्रेस केंद्र में सत्ता में नहीं आ जाती। (यानी अगले पांच साल तक उन्होंने चुप रहने का इंतजाम कर लिया है।)
2. वे अगले पांच साल तक घर में रखे टीवी के रिमोट कंट्रोल को हाथ तक नहीं लगाएंगे। (यानी टीवी पर अब वे चैनल भी वही देखेंगे जो दूसरे दिखाएंगे।)
3. वे अगले पांच साल तक पीएम नहीं बनेंगे। (यानी अपने सुपर पीएम की तरह बड़ा त्याग करने का फैसला।)
4. यदि पीएम बन जाते हैं तो वे साल में कम से कम एक फैसला स्वयं लेंगे।  (यानी उन्होंने जताने का प्रयास किया है कि उन्हें राजनीति आती है, क्योंकि तब वे तीसरा वादा तोड़ देंगे।)
5. अगर पीएम बनते हैं तो वे ऐसा कोई अध्यादेष लाएंगे ही नहीं, जिसे फाड़ने की नौबत आए। अगर कोई अध्यादेष फाड़ता है तो वे सुपर पीएम से पूछकर इस्तीफा देने पर विचार करने से पीछे नहीं रहेंगे।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

आंधी, सुनामी के बाद अल-नीनो

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

यह बिल्कुल तथ्यात्मक खबर है। इस बार देष को फिर से अल-नीनो प्रभाव का सामना करना पड़ सकता है। एक्पट्र्स के अनुसार अल-नीनो हर सात साल में आता है। हालांकि कई बार यह पांच साल में भी आ जाता है, जैसा पिछली बार हुआ था। उस समय यह 2009 में आया था। इस तरह अल नीनों का भारतीय चुनावों से गहरा नाता रहा है। जब-जब चुनाव, तब-तब अल नीनो। अल-नीनो के पहले या तो आंधी होती है या सुनामी। 2009 में देष में गांधी की आंधी थी। ऐसा कांग्रेसियों का मानना रहा है। इस बार मोदी की सुनामी है। ऐसा मोदीवादियों का मानना है। जो भी हो, देष को चुनाव के बाद पोलिटिकल-इकोनाॅमिकल अल-नीनो इफेक्ट्स को तो झेलना ही होगा।

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

सबसे बड़ी लाइव बहस

This is a satirical comment on TV Discussions which many times prove nonsense. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 


हमारे टीवी चैनल कभी-कभार देशहित व जनहित से जुडे़ मुद्दों पर भी चर्चा करते हैं। पेष है इसकी एक झलक:
एंकर: आज हम देष के सामने मौजूद सबसे ज्वलंत और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे हैं। विषय है - आखिर हम गंजे क्यों हो रहे हैं?
अतिथि परिचय के बाद बहस षुरू।
एंकर: पहली प्रतिक्रिया आपसे ही (नेता नंबर वन की ओर इषारा)
नेता नंबर वन ( जो विपक्ष का नेता है): देखिए, जबसे यह सरकार आई है, देष में गंजे लोगों की बाढ़-सी आ गई। पिछले दस साल में इस सरकार ने गंजों के लिए तो कुछ किया नहीं। जिनके थोड़े-बहुत बाल थे, वे भी तराष लिए गए।
नेता नंबर दो (जो सत्तारूढ़ी है): हमारे विपक्षी भाइयों को तो आरोप लगाने की आदत है। हमने तो कोषिष की है कि सबके सिरों को बाल मिले। दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए विषेष योजनाएं चलाई हैं, वे क्यों नहीं दिखतीं? 
एंकर: लेकिन आंकड़े भी तो यही कहते हैं कि आपके राज में गंजे होने वाले लोगों की संख्या में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई है।
सत्तारूढ़ी नेता (हंसते हुए): ये आंकड़े कहां से आए? जिन एजेंसियों ने ये सर्वे किया है, हो सकता है उन्होंने पैसे लेकर बालों में हेर-फेर कर दिया हो। अपनी साम्प्रदायिक नीतियों से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए विपक्षी ऐसी साठगांठ करते हैं।
नेता नंबर तीन (बीच में टपकते हुए): देखिए सरजी, हमारा तो यही कहना है कि ये दोनों पार्टियां तो चाहती हैं कि हमारा देष तेजी से गंजा हो, ताकि गंजेपन से छुटकारा दिलाने की दवाइयां बनाने वाली कंपनियों को फायदा हो। दवा कंपनियों ने इन्हें अपनी जेब में रख रखा है।
पहला विषेषज्ञ: गड़बड़ यह है कि किसी भी पार्टी को बालों की फिक्र नहीं है। हर पार्टी लोगों को टोपी पहनाने की कोषिष करती है, ताकि सिर ढंका रहे तो बालों का इष्यू आए ही नहीं।
दूसरा विषेषज्ञ: समस्या इतनी गंभीर हो गई है कि हमें अब मान लेना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन लोग गंजे होने ही हैं, चाहे फिर किसी की भी सरकार आए।
विपक्षी नेता: लेकिन सवाल यह है कि आखिर कुछ लोगों के सिर भारी क्यों हो रहे हैं? इनके (सत्तारूढ़ पार्टी की ओर इषारा) जीजाजी का सिर तो देखिए। कैसे लहलहा रहा है।
सत्तारूढ़ी नेता (भयंकर गुस्साते हुए): देखिए, जीजाजी पर नहीं आना, कह देते हैं। व्यक्तिगत हमले हम सहन नहीं करेंगे।
फिर सभी पक्षों की ओर से अपषब्दों की धुआंधार बौछार। इतना अहम मुद्दा अब भटक गया है।
एंकर (नकली मुस्कान के साथ): अभी वक्त है एक ब्रक का। ब्रेक के बाद जारी रहेगा तमाम ऐसी ही अहम खबरों का सिलसिला।

कार्टून: संजीब मोइ़त्रा
  

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

यमलोक में नेताजी

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




कई दिनों बाद उनका नंबर आया। वे रिसेप्षन पर पहुंचे, लेकिन रिसेप्षनिस्ट गायब थी। वे अंदर चले गए। वहां एक बड़ा-सा कैबिन बना हुआ था जिसके बाहर लटक रही नेमप्लेट पर लिखा हुआ था- चित्रगुप्त। महाषय सीट पर नहीं थे। अलबत्ता एसी आॅन था। सीटों से और भी कई लोग नदारद थे। किससेे पूछे, सोच ही रहे थे कि सामने से एक सुंदर-सी अप्सरा आती दिखाई दी। मन में कुछ लालसा उठी, लेकिन दबाते हुए पूछा, ‘साहब, कब मिलेंगे?’
‘अभी लंच टाइम चल रहा है, दिखता नहीं है क्या!’ अप्सरा ने रुखा-सा जवाब दिया।
‘दो घंटे से लंच!’ मन ही मन कुड़कुड़ाए।
उन्होंने दायीं तरफ देखा तो एक बड़ा-सा टीवी चलता नजर आया। वहां भी कोई नहीं था। उन्होंने सोचा, चलो कुछ देर टीवी पर टाइम पास करते हैं। लेकिन वह टीवी नहीं था। ऐसा लग रहा था मानो धरती से लाइव टेलीकास्ट हो रहा हो। वे पहचान गए, अरे उनका ही षहर था। वे अपने षहर के नेता हुआ करते थे। लेकिन एक हादसे में उपर पहुंच गए। यमलोक का कैमरा उनके पार्टी दफतर पर फोकस था। उनकी बड़ी-सी फोटो पर फूलमाला लटकी हुई है, अगरबत्तियां जल रही हैं। कोने में उनके दो खास पट्ठे बैठे हुए थे, जिन्होंने राजनीति में निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा की थी। ऐसा नेताजी का मानना था। ‘मेरे जाने के बाद दोनों जरूर मुझे मिस कर रहे होंगे और चुनाव को लेकर चिंतित हो रहे होंगे’, यह सोचते हुए उन्होंने स्पीकर आॅन कर दिया।
‘बुढ़वू के जाते ही हवा अपने पाले में आ गई गुरु! सहानुभूति वोट मिलना तय है।’ पहले वाला बोला।
‘सही टाइम पर खिसक गया, नहीं तो जमानत जब्त होनी तय थी। अपने भी करियर की वाट लग जाती।’ दूसरा बोला।
सुनते ही उनका दिल धक्क रह गया। इस बीच कैमरा उनके बंगले में पहुंच गया था। बंगले में धर्मपत्नी रो रही थी। सालियां पास में ही बैठी हुई थीं, ‘दीदी, बहुत बुरा हुआ, अब आपका क्या होगा!’
दीदी-‘होनी को कौन टाल सकता है भला! वैसे भगवान जो भी करते होंगे, सोच-समझकर ही करते होंगे। उनके साथ मुझे भी सादगी का दिखावा करना पड़ता था। घर में फाॅरेन ब्रांड्स की क्या-क्या चीज नहीं हैं, पर कुछ पहनने-ओढ़ने दे तब ना। विरोधियों की ज्यादा ंिचंता थी। मैं तो तंग आ गई थी।’ और फिर आंसू बह निकले। वैसे ही आंसू, जैसे नेताजी अक्सर बहाते थे।

तभी यमलोक का कैमरा उनके बेटे की तरफ गया। बेटे को टिकट मिल गया था। वह अपने बहुत ही खास मित्र से कुछ कह रहा था। उन्होंने स्पीकर लाउड कर दिया, ‘बप्पा जीते-जी विरासत छोड़ जाते थे तो क्या बिगड़ता! लेकिन कुर्सी से इतना मोह कि क्या बताएं! इसलिए मुझे ही कुछ करना पड़ा।’
‘तो क्या, वह हादसा नहीं था?’ मित्र से अचरज से पूछा।
‘नहीं भाई, राजनीति में सब जायज है।’ बेटा मुस्कुरा दिया।
नारे लग रहे थे ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, बप्पा तेरा नाम रहेगा।’ बेटा भी नारे लगाने वालों में षामिल हो गया था।
उधर, यमलोक में नेताजी को दिल का दौरा पड़ गया था। यमलोककर्मी उन पर पानी के छींटे डाल रहे थे।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

रविवार, 13 अप्रैल 2014

पप्पू एंड मम्मा

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 

पप्पू: मैंने बोल दिया है कि अगर सारे खिलाड़ी चाहेंगे तो मैं कप्तान बनने से पीछे नहीं हटूंगा। क्या वो मुझे सपोर्ट करेंगे?
मम्मा: क्यों नहीं करेंगे! आखिर हमारे नाना-परनाना की टीम है। हमारी ननौती और बपौती दोनों है। झक मारकर करेंगे।
पप्पू: तो क्या मैं कप्तान बन जाऊं?
मम्मा: नहीं, नहीं।
पप्पू: पर मैं कप्तान क्यों नहीं बन सकता?
मम्मा: बोल दिया एक बार नहीं तो नहीं। देख, तू अगर कप्तान बनेगा तो तूझे कुछ करना पड़ेगा। बाॅलिंग आती नहीं। बैटिंग करेगा तो फेंकूं लोग ऐसे-ऐसे बाउंसर फेंकते हैं कि संभालना मुश्किल हो जाएगा।
पप्पू: तो मैं क्या करूं?
मम्मा: नाॅन प्लेइंग कैप्टन।
पप्पू: यह क्या होता है?
मम्मा: मैदान से बाहर रहकर कप्तानी करो। बैटिंग-बाॅलिंग करनी नहीं, बस फील्डिंग जमाते रहो। सामने वाला बाॅल पीटे तो वे जाने जो मैदान में खेल रहे हैं। बाउंसर भी उन्हें ही झेलने हैं। जीते तो कप हमारा, हारे तो हार उनकी।
पप्पू: (ताली बजाते हुए) मम्मा, यू आॅर द ग्रेट।
मम्मा: वो तो हूं ही, इसीलिए तो इतनी ‘असरदार’ हूं।
पप्पू: मम्मा, यह संजय बारू कौन हैं?
मम्मा: जितना बोलूं, उतना ही बोल!
पप्पू: यस माॅम।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

जनमेजय का यज्ञ और अमित-आजम की बदला कथाएं

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

महाभारत नामक महाकाव्य यूं तो बदले की कहानियों से अटा पड़ा है, लेकिन राजा जनमेजय की कथा अद्भुत है। आज के भारत के दो धुरंधर प्रतापी राजकुंवरों अमित षाह और आजम खान की बदला लेने की भभकियों से राजा जनमेजय की वह कथा ताजा हो गई।
पहले कथा सुनते हैं- हुआ यूं कि राजा परीक्षित ने ऋषि षमीक का अपमान कर दिया। इस अपमान से उनके पुत्र षृंगी क्रुद्ध हो गए। उन्होंने पिता के अपमान का बदला लेने की ठानी। उन्होंने नागराज तक्षक को राजा परीक्षित को ठिकाने लगाने की सुपारी दे दी। तक्षक ने कोई कोताही नहीं बरती। परीक्षित की मृत्यु के पष्चात उनके पुत्र जनमेजय गद्दी पर बैठे। पिता की हत्या की कहानी का पता चलने पर जनमेजय इसका बदला लेने पर उतारू हो उठे। उन्होंने तक्षक को मारने के लिए सर्प यज्ञ करवाया। लेकिन मास्टरमाइंड यानी ऋषि षृंगी को छोड़ दिया। अब एक बाबा से पंगा कौन लें! बदला ही तो लेना है तो तक्षक से ही ले लेते हैं (ऐसा उन्होंने विचार किया होगा, लेकिन यह विचार महाभारत का आधिकारिक हिस्सा नहीं है)।
तो सर्पयज्ञ में एक-एक करके सारे सांप भस्म होने लगे। जो बेचारे भस्म हो रहे थे, उन्हें मालूम ही नहीं था कि आखिर हमारा कसूर क्या है? खैर, जब हजारों-लाखों सर्पों के मरने के बाद तक्षक की बारी आई तो उसने पता नहीं किन देवताओं से सेटिंग कर-कराके आस्तीक नामक एक बंदे को भिजवा दिया और सर्प यज्ञ रुकवा दिया। इस तरह तक्षक बच गया। सुना है बाद में जनमेजय और तक्षक सालों जीते रहे। तक्षक की तो इंद्र के महल में अच्छी-खासी पैठ बन गई।
हमारे आज के वीर-प्रतापी षाह और आजम भी क्या ऐसे ही बदला लेंगे? पता नहीं भस्म कौन होगा?

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

हरा-भरा सांसद

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 


हमारा कोई भी पर्व पकवानों के बिना अधूरा है। दिवाली पर गुजिया और ईद पर सैवइयां। तो लोकतंत्र में चुनाव के इस महापर्व के मौके पर पेष है एक विषेष डिष: हरा-भरा सांसद। राजनीतिक दल इस तरह से डिष तैयार करके अपने मतदाताओं का दिल खुष कर सकते हैं।
सामग्री: एक भरा-पूरा नेता। मालदार होगा तो अच्छा रहेगा। ब्लैक मनी जिसका कोई हिसाब-किताब न हो। फर्जी सोषल अकाउंट्स। षोरबे के लिए देसी दारू। खटास के लिए गालियां। सजावट के लिए देसी कट्टे-बंदूकें या ऐसी कोई भी सामग्री। लोकलुभावन वादे। जातिगत जुगाड़ नेता की जाति अनुसार।
विधि: सबसे पहले एक अच्छे से ऐसे नेता का चयन करें जो जीत सकता हो। उसके पास भरपूर पैसा होे, क्षेत्र में जातिगत प्रभाव हो और साथ ही डराने-धमकाने की ताकत भी। उस पर थोड़े-बहुत दाग होंगे तो उससे स्वाद और बढ़ जाएगा। उसे सबसे पहले अच्छे से छील लें, यानी पार्टी फंड के नाम पर जितना हो सके, पैसा कबाड़ लें। अब एक अलग बाॅउल में ब्लैक मनी व देसी दारू को आपस में मिलाकर षोरबा तैयार करें। षोरबे के कालेपन को मिटाने के लिए सोषल वेबसाइट्ृस का तड़का मिला दें। इससे कालापन थोड़ा कम हो जाएगा। थोड़ा-सा रहेगा तो कोई दिक्कत नहीं। स्वाद के षौकीनों को थोड़ा कालापन अच्छा लगता है। अब एक फ्राइंग पैन लें। उसमें नेता को रखें और उस पर ब्लैकमनी-देसी दारू का तैयार षोरबा डाल दें। इतना डालें कि नेता उससे सराबोर हो जाए। अब इस मिश्रण को धर्म की आंच में धीरे-धीरे पकने दें। नेता जितना लिजलिजा होगा, वह उतना ही स्वादिष्ट होगा। जब नेता अच्छी तरह पक जाए तो उसे फिर आंच से उतार लें। धीरे-धीरे ठंडा होने दें ताकि निर्वाचन आयोग को चटका न लगे लेकिन हलका-हलका गरम रहेगा तो स्वाद बना रहेगा। फिर थोड़ी गालियों व अपषब्दों की खटास डालें, और साथ में विरोधी दलों से पाला बदलकर आई थोड़ी षक्कर भी मिला दे। खट-मिट स्वाद आएगा। अब इसे निकालकर तष्तरी में रखें, उसके उपर थोड़े-से लोकलुभावन वादे बुरकें। आपकी यह डिष लगभग तैयार है। लेकिन ध्यान रखें, अच्छी डिष के साथ-साथ उसकी सजावट भी जरूरी है। इसके लिए देसी कट्टों, बंदूकों और चाकुओं की सजावट करना न भूलें। इससे अगर स्वाद में थोड़ी-बहुत कमी भी होगी तो उसकी पूर्ति हो जाएगी। लीजिए हरा-भरा सांसद तैयार।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

जब मुसीबत में पड़ गया हैरी पाॅटर

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

हैरी पाॅटर दिल्ली क्या घूमने आया, उसकी मुसीबत हो गई। अभी वह अपने वाहन से नीचे उतरकर सुस्ता ही रहा था कि टोपी पहने कुछ आम टाइप के नेता आ टपके। उन्होंने सबसे पहले उनके वाहन को प्रणाम किया। फिर उनमें से एक बोला, ‘हैरीजी, हम चाहते हैं कि आप हमारी पार्टी के स्टार प्रचारक बन जाएं।’
‘मैं कुछ समझा नहीं।’ हैरी बोला।
‘आपको यह तो पता ही है कि इस समय भारत में लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व चल रहा है। हमारे एक स्टार प्रचारक खुली जीप में चल रहे हैं। इससे या तो जीप का प्रचार हो रहा है या उस पंजे का जो उन्हें जगह-जगह मिल रहे हैं। ’
‘लेकिन मैं क्या कर लूंगा?’ हैरी बोला।
‘अब आपसे ही उम्मीद बची है। वैसे भी हमने आपसे ही प्रेरणा ली है।’
‘वह कैसे?’
‘एक तो आप झाडू लेकर चलते हैं और दूसरा हमेषा हवा में उड़ते रहते हैं।’
‘अगर मैं ऐसा नहीं करुं तो!’
‘तो हम चुनाव आयोग को षिकायत कर देंगे। आपकी झाडू जब्त करवा देंगे। हमें कोई मना नहीं कर सकता। या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ।’



गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

पांच हजार की घूस और राज्य की नाक

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

सीबीआई उस मामले की जांच कर रही है कि एक बड़ा अफसर पांच हजार रुपए की रिष्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया है। अब मामला इतना बड़ा है तो चर्चा तो होनी ही है। जितने मुंह, उतनी बातें।
- वाकई बड़ी षर्म की बात है, पूरी बिरादरी की नाक कट गई। अच्छा हुआ सरकार ने सीबीआई जांच सौंप दी। ऐसे अफसर तो काम करने के लायक नहीं हैं। सीधे बर्खास्त करना चाहिए।
- लेकिन क्या इतना बड़ा इष्यू था कि सरकार को सीबीआई जांच करवाने की जरूरत पड़ गई?
- आप समझे नहीं, सरकार की भी इज्जत का सवाल है। पूरे राज्य के विकास के दावों की पोल खुल गई। इतना बड़ा अफसर और केवल पांच हजार लेते हुए पकड़ा गया। कोई बाबू-वाबू होता तो भी समझ में आता। टुच्चईपना की भी हद है भई। यह राज्य का अपमान है। दूसरे लोग क्या सोचेंगे भला! विकास के इतने बड़े-बड़े दावे और जमीनी हकीकत कुछ और! इसी कारण केजरीवाल जैसे लोगों को बढ़ावा मिलता है।
- हां, बात तो सही है। समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी थी!
- अब इतनी भी फाका-कषी नहीं थी कि बस पांच हजार के लिए ही बिछ जाओ।
- मेरे ख्याल से पहली कोषिष की होगी। कोई बात नहीं, सबके साथ होता है। अब सर्विस में आए समय ही कितना हुआ है!
- तो क्या जरूरी था? हमसे पूछ लेते। एक तो आता नहीं और एटीट्यूड आसमान पर। अनाड़ीपन की भी हद है। हमने भी ली है। बाएं हाथ से लेते और दाएं हाथ को भी पता नहीं चलता।
- वैसे बाएं हाथ से लेना ठीक नहीं है। हाथ बदल लीजिएगा। षगुन अच्छा नहीं होता। हम लेफटहैंडर हैं, लेकिन हमेषा दाएं से ही लेते हैं।
- हमारा ऐसे अंधविष्वासों में कोई भरोसा नहीं है। प्रगतिषील विचारधारा के हैं हम। वैसे हाथ से लेने का सिस्टम आप भी बदल डालिए। किसी दिन लपेटे में आ जाएंगे, बताए देते हैं। हमने तो बदल लिया है।
- अरे नहीं, हम नौसिखिया है क्या! अब आपको ही हमने सिखाया और आप हमें ही...
- वो ठीक है, पर ऐसे मामलों में ओवर कान्फिडेंस अच्छा नहीं है। जरा ही लापरवाही में पूरे राज्य की नाक कटते देर नहीं लगती।
 कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

बुधवार, 26 मार्च 2014

भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं ...

Satire on those politicians who want to get involved in politics in their 80s or 90s. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 

 

भाईजी 90 साल के हो चुके हैं। दांत अब नहीं रहे, लेकिन हाईकमान की बैठकों में जाते हैं तो नकली दांत लगाकर जाना पड़ता है। खीसें निपोरने में वही काम आते हैं। चूंकि समस्या बड़ी गंभीर है और वक्त हंसने का नहीं है, इसलिए अभी दांत काॅर्नर टेबल पर रखे गुलदस्ते के पीछे पड़े सुस्ता रहे हैं।

वैसे तो भाईजी ने नौ दषक में सब कुछ देख लिया। इसलिए माया से मोह रहा नहीं। लेकिन इच्छा थी कि जब देष ने उन्हें इतनी सेवा का मौका दिया तो आखिरी बार एक और सेवा का मौका दे दें, तो गंगा नहा लें। लेकिन पार्टीवालों ने उन्हें सरेआम धोखा दे दिया। बुजुर्गांें की कोई इज्जत ही नहीं रही। पार्टी हाईकमान को कम से कम देष की भावनाओं की तो कद्र करनी थी। लेकिन नहीं, बोल दिया, दद्दा आराम करो। अरे कभी आराम किया दद्दा ने! गंगा मैया की कसम, हमेषा सेवा में लगे रहे। कभी इस एयरपोर्ट तो कभी उस एयरपोर्ट। कभी पार्टी के काम से तो कभी प्राॅपर्टी के काम से, कहां-कहां नहीं गए!
तो भाईजी पार्टी का टिकट नहीं मिलने से तन्ना रहे हैं। अब आवाज तो मुंह से निकलती नहीं, लेकिन चेहरे के हाव-भाव बता रहे हैं कि वे मन ही मन पार्टी हाईकमान की कितनी ऐसी की तैसी कर रहे हैं। तभी उनके किसी खास चमचे ने सलाह दी, ‘दद्दा, आप तो निर्दलीय चुनाव लड़ लो। पूरी पार्टी आपने खड़ी की है। अपने एरिया के पार्टीवाले तो आपके साथ हैं ही।’ भाईजी को अब दिखता कम है। इसी का फायदा उठाकर कुछ चमचे वहां से खिसक लिए। भैया रिस्क कौन ले! कौन चमचा हाईकमान का जासूस निकल आए, क्या भरोसा। भाईजी बुढ़ा गए हैं, तो क्या हुआ, अभी हमारा तो पूरा बुढ़ापा बाकी है।

इस बीच, दिल्ली से फोन आ गया। पता चला कि हाईकमान उन्हें कहीं एडजस्ट करने की कोषिष कर रहा है। अब भाईजी को सुनाई कम देता है। मषीन ने भी हार मान ली हैं, इसलिए उनके खास चमचे ने ही फोन रिसीव किया। फोन कटते ही इषारों ही इषारों में बताया, ‘दद्दा बधाई हो, पार्टी ने कहा है कि सत्ता में आने के बाद आपको फलाने राज्य के राजभवन की सेवा में लगा दिया जाएगा।’ भाईजी के तन्नाए चेहरे की झुर्रियां नाच उठीं। अब समझ में आया कि पार्टी उन्हें आराम करने को क्यों कह रही थी। इस बीच, भाईजी के निर्दलीय चुनाव लड़ने की आषंका समाप्त होते ही वे चमचे लौट आए हैं, जो खिसक लिए थे। वे अब नारे लगा रहे हैं, भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है। भाईजी का संघर्ष जारी है, व्हील चेहर पर चढ़ने का संघर्ष। वे अब बेडरूम में जा रहे हैं। भाईजी के सोने का समय हो गया है। देष सेवा में लगने से पहले थोड़ा एनर्जेटिक हो जाए!
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

सरकारी फाइल और कछुए में महामुकाबला

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

सरकारी फाइल को शुरू से ही कछुए से काॅम्पलैक्स रहा है। जब-तब उस पर कछुए का टैग लगता रहा है। तो एक दिन उसने ठान लिया कि कछुए को उसकी औकात बतानी ही होगी। उसने कछुए के साथ रेस लगाने का ऐलान कर दिया। और कछुए को तो देखिए, उसने भी हां कर दी। भोला-भंडारी। सोचा ही नहीं कि इज्जत तो उसी की दांव पर लगेगी। सरकारी फाइल का क्या!

नियत समय पर रेस शुरू हुई। कछुआ तेजी से आगे बढ़ा। लेकिन सरकारी फाइल टस से मस नहीं हुई। दरअसल, उसने खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। उसने सुना था कि खरगोश तेजी से आगे चला था। इसलिए हार गया। फाइल ने सरकारी निष्कर्ष निकाला- जो आगे चलेगा, वह हारेगा। इस बार कछुआ आगे चला है तो वह हारेगा ही। जबरदस्त काॅन्फिडेंस। और फिर इसी काॅन्फिडेंस में सरकारी फाइल किसी सरकारी दफतर में जाकर सो गई।

उधर, कछुआ तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था। उसने भी अपने पुरखों से खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। इस कहानी के आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला- जिस रेस में भी कछुआ शामिल होगा, उसे कछुआ ही जीतेगा। फिर उसने सरकारी फाइलों की महानता के किस्से भी सुन रखे थे। इसी काॅन्फिडेंस में वह भी सो गया।

वर्षों बीत गए। दोनों अपने-अपने काॅन्फिडेंस में सोते रहे। फिर एक दिन अचानक सरकारी फाइल की नींद खुल गई। खुल क्या गई, उसे झिंझोड़कर जगाया गया था। वह पेंशन की फाइल थी। जिसका केस था, वे बड़े आदर्षवादी और आशावादी किस्म के इंसान थे। उन्हें उम्मीद थी कि कभी तो फाइल जागेगी और आगे बढ़ेगी। लेकिन जीते-जी उनकी यह तमन्ना पूरी नहीं हो पाई और वे पीछे छोड़ गए 85 साल की बुढ़िया, अपनी पत्नी। इस बीच, उनका पोता समझदार हो गया। नई पीढ़ी का बंदा है। प्रैक्टिकल है। उसे पता है कि फाइल को जगाना होता है, अपने आप नहीं जागती है और न ही आगे बढ़ती है। वजनदार ठोकर मारो तो जागती है। बड़ी उल्टी चीज है कमबख्त। पीठ पर जितना वजन होगा, उतनी तेजी से आगे बढ़ेगी।

तो पोता समझदार था, नया अफसर उससे भी ज्यादा समझदार था। अफसर ने फाइल को जोरदार लताड़ लगाई, ‘तुम यहां सोने आई हो? ऐसे तो काम हो लिया।’

‘लेकिन सर, पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे।’ फाइल बोेली। फाइलें भी समझदार होती हैं। जो बात अफसर अपने मुंह से नहीं कह सकता, उसे फाइल कह देती है। चूंकि पोता बहुत ज्यादा ही समझदार है। इसलिए उसने फाइल के उपर वजन रखा। अब फाइल फर्राटे से आगे बढी।

और अब क्लाइमेक्स देखिए... रास्ते में उसे एक कछुआ मिला। उसे वह कछुआ याद आ गया। इस कछुए के नाक-नक्ष वैसे ही थे, जैसे उस कछुए के थे, लेकिन यह वह नहीं था। पता चला कि यह उस कछुए का पोता है व किसी और सरकारी फाइल के साथ रेस लगा रहा है।

चट भी अपनी, पट भी अपनी

I wrote this Satire when Telangana issue was on fire. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




समस्या बड़ी गंभीर है। इसलिए उनके माथे पर चिंता की लकीर भी उसी अनुपात में गहरी है। आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक कई मौके आए होंगे, लेकिन माथेे की लकीर इतनी गहरी कभी नहीं हुई। जब मंत्री थे तो कई काम चुटकियों में हल कर देते थे। दो-चार लाख के लिए कभी झिक-झिक नहीं की। बड़ा दिल। थोड़ा कम ज्यादा होने पर भी माथे पर कभी बल नहीं पड़ा। कोई आज के नेता हैं भला! आजादी की लड़ाई के समय के नेता हैं। जेल भी गए थे। ऐसा वे खुद कहते आए हैं और अब सबने मान भी लिया है। उसका ताम्रप़त्र भी है, और क्या सबूत चाहिए? हां, देष हित में पेंषन का त्याग कर रखा है। वैसे देष ने उन्हें बहुत कुछ दिया है, ऐसे में वे पेंषन तो छोड़ ही सकते हैं। रिष्तेदारों के नाम पर पांच पेट्रोल पम्प, गैस की दो एजेंसियां हंै। कुछ साल पहले बडे बेटे के नाम पर माइन भी लीज पर मिल गई थी। चार-पांच कोठियां है। देष ने जब उन्हें इतना दिया, तो वे भी कहां पीछे रहे हैं। सूद सहित लौटा रहे हैं। पहले खुद को समर्पित कर दिया। फिर दोनों बेटों को देषसेवा में झोंक दिया। आज दोनों एमएलए हैं। दामाद भी बड़ा सेवाभावी मिला। नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है। तीन पोते अलग-अलग पार्टियों की युवा षाखाओं का दायित्व संभाले हुए हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि पूरा परिवार ही राष्ट को समर्पित है।
‘आप बताइए, क्या करें!’ बड़े एमएलए बेटे ने पूछा।
‘तुम दोनों में से एक को इस्तीफा देना होगा। तुम तय कर लो कि किसे देना है इस्तीफा।’
‘लेकिन इस्तीफा देने की जरूरत क्या है?’ छोटे एमएलए बेटे ने पूछा।
‘बिल्कुल मूरख हो, बाप को लजाओगे। लोग कहेंगे, चाणक्य के घर कैसे मूढ़ पैदा हुए।’
‘लेकिन ऐसा करने से क्या अपने स्टेट को बंटने से बचाया जा सकेगा?’
‘भाड़ में जाए स्टेट, राजनीति को समझो मूरखों। एक को अलग राज्य की मांग करने वालों के पक्ष दिखना होगा और वह इस्तीफा नहीं देगा। दूसरा अलग राज्य की मांग के विरोध में इस्तीफा देगा। अब भविष्य में जो होगा, वह होगा, लेकिन एक का तो मंत्री बनना तय हो जाएगा ना। मैं पूरे परिवार के भविष्य की सोचकर चल रहा हूं। अब राजू, गणेष, सुरेष - तीनों पोते- को अलग-अलग पार्टियां पकड़ने को क्यों कहा? इसीलिए ना कि षासन किसी भी पार्टी का हो, परिवार का दाना-पानी चलता रहे, रूखी-सूखी रोटी मिलती रहे।’
‘लेकिन इस्तीफा देना क्या इतना ही जरूरी है?’ छोटा अब भी अड़ा हुआ है।
‘देखो, राजनीति का 60 साल का अनुभव है, आज तक मैं ने कई बार इस्तीफे दिए, लेकिन स्वीकार कभी नहीं हुआ। यह पूरा देष नाटक नौटंकी में बड़ा विष्वास करता है और उसे ही सही मानता है। इसलिए बेटों, राजनीति में टिकना हो, तो ऐसी नौटंकियों में माहिर होना पड़ेगा। देषसेवा यूं ही नहीं होती, समझें। जयहिंद!’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नेताजी चले रीढ़ निकलवाने

Comment on our political leaders.  
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

 पिछले कई दिनों से नेताजी की रीढ़ की हड्डी चटख रही थी, बहुत दर्द हो रहा था। राजनीति में इतने साल हो गए है तो अब दर्द तो उठना ही था। वार्ड से षुरुआत की थी, तब पहली बार अपनी पार्टी के वार्ड प्रमुख के सामने रीढ़ झुकी थी। इसके बाद रीढ़ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। झुकना-उठना चलता ही रहा। कई बार तो ऐसे भी मौके आए कि महीनों तक यूं झुकाकर ही रहना पड़ा। रीढ़ दिल की बहुत दिलदार थी। इसलिए झुक गई, लेकिन टूटी नहीं। फिर नेताजी भी पक्के देषभक्त और ईमानदार। सत्ता में जो भी आता, उसके प्रति पूरी निष्ठा दिखाते और जब-जब भी अवसर आता या नहीं भी आता, तब-तब पूरी ईमानदारी के साथ रीढ़ झुकाने को तत्पर रखते। कहीं कोई ना-नुकुर नहीं।

लेकिन अब तो इंतहा हो गई। दर्द है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है। डाॅक्टर के पास गए तो डाॅक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए। झुक-झुककर कलपुर्जे ढीले पड़ गए हैं। डाॅक्टर भी क्या करे! अब उनके ही किसी पट्ठे ने सुझाव दिया, ‘नेताजी, आप तो रीढ़ ही निकलवा दीजिए।’
‘अबे क्या बकता है, रीढ़ ही नहीं रही तो फिर झुकूंगा उठूगा कैसे?’
‘अब उठना क्या, झुके रहो हरदम। कोई मना करता है क्या? राजनीति में रीढ़ ताने खड़े रहने का भी कोई मतलब है क्या! ऐसे कितने ही लोगों की रीढ़ टूट गई। आप ही तो कहा करते थे कि राजनीति में रीढ़ होती ही है झुकाने के लिए।’
लेकिन नेताजी अब भी कन्फ्यूज हंै। बार-बार रीढ़ पर हाथ फेर रहे हैं, थोड़ी-सी भी सीधी करते तो कड़-कड़ सी आवाज होती। पता नहीं लचक कहां चली गई।
‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं तो फिर कहता हूं निकलवा ही लीजिए। जो थोड़ा बहुत दर्द आपको उठता भी है, वह भी गायब हो जाएगा, रीढ़ ही नहीं रहेगी तो काहें का दर्द। मुंषीजी को देख लो, जबसे रीढ़ हटवाई है, ताजगी महसूस कर रहे हैं। और मुझे तो लगता है, वह रीढ़ ही थी जो सालों से उन्हें मंत्री नहीं बनने दे रही थी।’
नेताजी पचास साल से राजनीति में हैं और अपनी रीढ़ को ढोए जा रहे हैं। जिस पार्टी में गए, रीढ़ को साथ ले गए। उनका मानना है कि अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए रीढ़ का होना जरूरी है, क्योंकि यही तो एक पैमाना होगा कि मेरी रीढ़ उसकी रीढ़ से कितनी ज्यादा झुकी। लेकिन फिर उनके सामने ऐसे कई लोगों के चेहरे घूम गए जिन्होंने राजनीति में आने से पहले ही रीढ़ निकलवाकर अपने-अपने घरों के तहखानों में रखवा दी थी। अब वे सभी उंचे ओहदों पर हैं। अपने पट्ठे की बात उन्हें भी जंच गई और वे अस्पताल की ओर चल पड़े, रीढ़ निकलवाने।

सरकार के क्रमिक विकास का सिद्धांत

A satire how government/administration works in our country 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। सुनिए...
बहुत पुरानी बात है। एक दिन ईष्वर को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ करते-धरते नहीं। क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने की सोची (इसी का नाम बाद में सरकार पड़ा)। इसके लिए उसने कुछ लोगों की भर्तियां की। लेकिन बाद में वे भूल गए। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते (यही लोग बाद में सरकारी कर्मचारी कहलाए)। महीनों बीत गए। फिर कुछ ने सोचा कि चलो, कोई ठिकाना ढूंढ लेते हैं (यही ठिकाने बाद में दफतर के नाम से गौरवान्वित हुए)। दफतर मिल गया। सब लोग खुष हुए। सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।
अब लोग थे। दफतर भी थे, मगर खाली-खाली। महसूस हुआ कि दफतर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ ने कहा, चलो बाजार से खरीद लेते हैं। लेकिन कुछ समझदारों ने कहा, नहीं सब कुछ सिस्टमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं उंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यहीं से टेंडर अस्तित्व में आए। टेंडर बुलाए गए। कुछ लोग टेंडर के काम में लग गए। टेंडर के कार्य के लिए पिछले दरवाजे से कुछ टेबलें बुला ली गई। कुर्सियां बुलाना भुल गए, लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। कुछ लोग टेबलों के उपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट हो गया। यहीं से लोगों को ज्ञान हुआ कि जो काम टेबलों के नीचे से आसानी से हो सकता है, वह उपर से नहीं हो सकता। खैर, पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए। सरकार और आगे बढ़ी।
इतने में ईष्वर को सरकार वाली बात याद आ गई। इंसानों द्वारा अब तक की गई प्रगति को देखकर ईष्वर खुष हुआ। उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों को मुखिया बना दिया। लेकिन अब वे सब मुखिया क्या करते? बैठे रहते। फिर सरकार के मुखिया को याद आई वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थी। वे धूल खा रही थी। उसने विभागीय मुखियाओ को आदेष दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के मुखियाओं के दिन फिरे। उन्हें काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्ष करें। बचे-खुचे लोगों को भी काम मिल गया। वे अब चर्चा और परामर्ष करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलांे को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। कभी अटक भी जातीं तो कोई समझदार उन पर वजन रख देता। वे फिर चलने लगती। सरकार अब दौड़ने लगी थी।
इस बीच राज्य में कुछ ऐसे समाज विरोधी तत्व पैदा हो गए थे, जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने षुरू कर दिए थे। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए! लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया (यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की षुरुआत हुई)। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता तो पहले से ही चुप थी। चुप रहना मानो उसका आनुवांषिक गुण हो। इसीलिए वह आज भी चुप रहती है और युगों-युगों तक चुप रहेगी। भला उसका ऐसे सवालों से क्या लेना-देना?
सरकार चलती रही। सालों बीत गए। फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने केलिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला तो फाइलें पुट-अप करते-करते बुढ़े हो गए थे। कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही। आज भी चल रही है, बिंदास। इति दंतकथा।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती
 




लाखों हाथ से निकल गए

Funny satire on Dahej Greedy but hypocrites... 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
वे बड़े परेषान थे। एक तो जन्म कुंडली नहीं मिल रही थी और उपर से लड़के को मंगल अलग था। प्रस्ताव पर प्रस्ताव आ रहे हैं, 50 तोले सोने से लेकर लक्जरी कार तक। लेकिन मुई कुंडली मिले तो बात आगे बढ़े ना!
हमारे पड़ोस में ही एक पंडितजी रहते हैं। बड़े सेवाभावी हैं और चमत्कारी भी। ऐसा चमत्कार दिखाते कि एक झटके में मंगल को षुक्र में बदल देते। हमने उनसे कहा भी कि चलो पंडितजी से कुछ बात कर लेते हैं। कोई न कोई पारस्परिक हित का रास्ता निकल ही आएगा। लेकिन इस मामले में वे बड़े ईमानदार और भगवान से डरने वाले। उन्होंने कहा, ‘षरम करो जी, उपर वाले से कुछ तो डरो। हर मामले में लेन-देन ठीक नहीं।’ इसलिए पंडितजी से झूठी कंुडली बनवाने का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया। रोज घंटों पूजा-पाठ करने वाले। भला ऐसा अनाचार कर सकते हैं क्या!
इस बीच, दो-चार कुंडलियां मिल भी गईं, लेकिन किस्मत खराब। कोई 20 तोले से आगे बढ़ा ही नहीं। वाह भाई, ऐसे कैसे लड़का दे दें! एमबीए हैं, अच्छी-भली कंपनी मंे नौकरी करता है। ऐसा अन्याय नहीं कर सकते। सिद्धांत के पक्के हैं वे। कोई समझौता नहीं। लेकिन वे अब भी परेषान हैं। दमदार पार्टियां मिलतीं तो कुंडली नहीं मिलतीं और कुंडलियां मिलती तो पार्टियां पोची निकलतीं।
हमने सलाह दी किसी मेट्रामोनियल में विज्ञापन दे डालो। वे मान गए। विज्ञापन छपा, ‘30 वर्षीय सुंदर कंुंवारे लड़के के लिए वधु चाहिए। लड़का मांगलिक, लेकिन एमबीए हैं। कृपया सक्षम पार्टियां ही संपर्क करें। कंडीषन अप्लाई।’
विज्ञापन का जबरदस्त असर दिखा। कई पार्टियों ने संपर्क किया। कुछ इसलिए खारिज कर दी गईं क्योंकि गुण और ग्रह नहीं मिल रहे थे और जबरदस्ती मिलवाकर पाप तो अपने सिर पर ले नहीं सकते थे। कुछ पार्टियां इसलिए खारिज हो गई, क्योंकि उन पर कंडीषन अप्लाई नहीं हो रही थीं।
लेकिन भगवान इतना भी कठोर नहीं। एक रिष्ता आ ही गया। लड़की मांगलिक थी। कुंडली भी मिल रही थी और सबसे बड़ी बात कंडीषन भी अप्लाई हो रही थी। लड़की वाले सैद्धांतिक तौर पर 30 तोला सोना, दस लाख कैष और कार देने को राजी हो गए थे।
नियत समय पर मिलना तय हुआ ताकि आगे की बातें की जा सकें। वे डाइंग रूम में सपत्निक बैठे इंतजार कर रहे थे। घर की घंटी बजी। उनके चेहरे पर प्रसन्नता तैर गई। उन्हें लगा कि वे आ गए। उठकर दरवाजा खोला। यह क्या! सामने अपना ही सपूत खड़ा था, पीछे एक सुंदर सी कन्या। ‘पापा आषीर्वाद दीजिए, हमने षादी कर ली है, कोर्ट में!’
सपूत कपूत निकल गया था! अब भगवान को क्या जवाब देंगे। न कुंडली मिली, न ग्रह!... और लाखों हाथ से निकल गए सो अलग!

महंगाई के नाम एक खत

Recently govt announced inflation eases to 9 month low...The satire is based on this development. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



प्रिय महंगाई बहन,
सादर प्रणाम।
जबसे यह खबर सुनी कि आप गिर गई है, तभी से मन बड़ा बेचैन था। सोचा आपसे मोबाइल पर बात कर लें, दिल हलका हो जाएगा। फिर सोचा कि नहीं, खत से ही कुषलक्षेम पूछेंगे तो आपको भी अच्छा लगेगा। अब लिखने की आदत तो रही नहीं, इसलिए विलंब हो गया। इसके लिए क्षमाप्रार्थी।
सरकार ने बताया है कि पिछले 25 सप्ताह में आप इस बार सबसे ज्यादा गिरी है। एक बार तो विष्वास ही नहीं हुआ यह जानकर। सालों से आप गिरी नहीं, फिर एकाएक यह कैसे हो गया! पर सरकार ने बताया तो सच ही होगा। सरकार झूठ कहां बोलती है! पर सच कहूं बहन, जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। क्या चरित्र में गिरावट कम थी जो आपको गिरा दिया? इन दिनों नेता भी एक-दूसरे को टंगड़ी मारकर गिरा रहे हैं। वह तो उनकी आदत है। वे नहीं गिरेंगे तो देष उपर कैसे उठेगा। पर आपका यह गिरना, कुछ ठीक नहीं हुआ।
माफ करना बहन, छोटी मुंह बड़ी बात, लेकिन आपने यूं गिरकर हम सबके लिए मुसीबत अलग बढ़ा दी है। अब आपसे क्या छिपा! बड़ी मुष्किल से आदत डली है। आपकी जो भाभी है न, उसे भी पड़ोसनों ने बताया कि महंगाई गिर गई है। तभी से वह षुद्ध घी मांग रही है। बौरा गई है। समझा रहा हूं, पर समझे तब ना। सालों से नहीं खाया, पचेगा क्या! अब भले ही आप गिर रही हो, लेकिन डाॅक्टर थोड़े इतने गिरे हुए हैं। उनकी फीस तो सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है।
मुन्नी को भी लग रहा है कि अब उसे खूब चाॅकलेटृस मिलेगी। पहले मांगती थी तो  उसे आपका खौफ दिखा देते थे- देखो, महंगाई बुआ डांटेगी। बेचारी मान जाती थी। पर अब क्या करें। आप तो फिर उठ जाएगी, पर एक बार मुन्नी की आदत बिगड़ गई तो मेेरे बजट का तो तिया-पाचा हो जाएगा ना।
और बाबूजी की भी सुन लो। नया चष्मा बनवाने की सोच रहे थे। लेकिन आपकी तस्वीर और मेरा पर्स दिमाग में आते ही वे एडजस्ट कर रहे थे। अब खबर सुनते ही वे भी जिद करने लगे हैं।
मैं जानता हूं कि आप भी मजबूर है। अब बढ़ना-घटना आपके हाथ में तो है नहीं। वैसे जानकारों से पूछवाया है। उनका कहना है कि चुनाव के बाद आप फिर बढ़ने लगेगी। थोड़ी राहत मिली, लेकिन तब तक क्या होगा, भगवान ही जानें। अब तो सब उपर वाले पर छोड़ दिया है। अब उसकी मर्जी के बगैर तो कुछ होता नहीं।
और बताओ, मुनाफाखोर भाईसाहब कैसे है? उन्हें मेरा प्रणाम कहना। वायदा बाजार भाई भी आजकल खूब प्रगति कर रहा है। कसम से, आगे चलकर बड़ा नाम कमाएगा। पुत के पांव पालने में दिख जाते हैं। ब्लैक स्टाकिस्ट चाचाजी की भी खूब याद आती है। उन्हें हमारा चरण स्पर्ष। बाकी को यथायोग्य।

आपका ही
आम भारतवासी 

ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

रविवार, 23 मार्च 2014

चंदा वसूली की फ्रेंचाइजी मिल रही है, खरीदोगे क्या!

The satire is based on Donation Business...
 जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



उनका बड़ा विचित्र बिजनेस है। वे उसे सेवा कहते हैं। बहुत पुराना अनुभव है। कारगिल यु़द्ध से षुरुआत की थी। तब षहीद सैनिकों और उनके परिजनों के लिए जान लगा दी थी। फिर माताजी के जगरात्रे के कई कार्यक्रम करवाए। सेवा का फल तो मिलता ही है। माता के आषीर्वाद से आज उनका तीन मंजिला भवन है।
कुछ दिन पहले ही वे किसी सम्मान समारोह के नाम पर पांच सौ एक रुपए की रसीद काट गए थे। होली नजदीक ही है। तो उनके आने की आषंका थी ही। वे आ भी गए। लेकिन आषंका के विपरीत रसीद नहीं काटी। फार्म आगे बढ़ा लिया।
‘यह क्या है!’ हमने पूछा।
‘प्रपोजल फार्म है। भर दीजिए।’ गंभीरता के साथ वे बोले।
‘ किसी बीमा कंपनी की एजेंसी-वेसेंजी ले ली है क्या? वो बिजनेस भी तो कोई बुरा नहीं था!’ हमने दिल्लगी की।
‘आप गलत समझ रहे हैं। हम चंदा वसूली के लिए फ्रेंचाइजी दे रहे हैं। सोचा आप पुराने कस्टमर हैं। तो आपको ही प्रायोरिटी दे दें।’
‘हमें तो बख्ष दीजिए। ये हमसे नहीं होगा।’ हमने हाथ जोड़ लिए।
‘मौका अच्छा है। चुनाव सिर पर है। षुरुआत अच्छी हो गई तो कोई दिक्कत नहीं होगी। निर्दलीय से लेकर पार्टियों तक के लिए हम चंदा वसूली करेंगे। कई लोगों से बातचीत भी हो गई है। रेट भी फिक्स है। पूरा 30 फीसदी वे हमें देंगे। कट-पिटकर आपको 12 से 15 फीसदी तक मिल ही जाएगा।’ उन्होंने दलील दी।
‘अरे, हमें क्यों फंसाते हो। हमें क्या पता कि कैसे वसूली करनी है?’ हम अब भी सकुचा रहे हैं।
‘वह हमारी चिंता। आप तो हां बोल दो। हमारी पूरी टीम है जो आपको बताएगी कि वसूली कैसे की जाती है।’
फिर उन्होंने वे सारे नाम गिना दिए, जो उनकी टीम में षामिल थे। धुरंधर अनुभवी लोगों की फौज थी उनकी टीम में। आरटीओ का रिटायर्ड अफसर, बर्खास्त थानेदार, प्राइवेट क्लिनिक चलाने वाला एक डाॅक्टर, फाॅरेस्ट का नाकेदार, रेलवे का टीसी आदि-आदि। सलाहकार के तौर पर उन्होंने एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी को रख रखा था। ये अफसर माइनिंग से लेकर पोषाहार जैसे विभागों की कमान संभाल चुके थे। वे हमें इम्प्रेस करने का कोई मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहते थे। उन्होंने बताया कि हमारे ही वार्ड पार्षद ने तो फ्रेंचाइजी लेकर काम भी षुरू कर दिया है।
हम सोच में पड़ गए। कमीषन तो तगड़ा था ही, ट्रेनर्स भी इतने जबरदस्त थे। घाटे का सौदा तो कहीं से नहीं लग रहा था।
‘अब ज्यादा तो न सोचिए। नेक काम में देरी ठीक नहीं।’
हमने भी ज्यादा नहीं सोचा। फार्म भर दिया। पांच हजार रुपए ले गए फ्रेंचाइसी फीस के रूप में। आष्वासन दे गए। पांच के पूरे पचास कमाओगे। कल से षुरुआत कर दो। ओला पीड़ित किसानों के लिए षिविर लगा रहे हैं।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नेताजी का यूं दुखी होना

Satire on the "Black day" in the history of parliament when lower house erupted in chaos over the bill to form Telangana state.

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

आज वे बहुत ही दुखी है। इतने दुखी कि सोफा भी उनके दुख में बड़ा भावुक है। वे जब-जब दुखी होते हैं, सोफा भी तब-तब दुखी हो जाता है। यह सोफा तबका है जब वे मंत्री हुआ करते थे और किसी विदेषी मेहमान ने उस समय उन्हें गिफट किया था।
सोफे का नेताजी से और नेताजी का सोफे से बड़ा आत्मीय लगाव रहा है। नेताजी देषहित में जब-जब भी दुखी होते हैं, इसी सोफे में धंसते हैं। और तब सोफा भी इतना दुखी हो जाता है कि नेताजी को पुचकारकर कहना पड़ता है- अब रुलाएगा क्या! आज फिर नेताजी दुखी है। पूरे लोकतंत्र पर कालिख पुत गई है। उन्होंने तय कर लिया है कि वे दो दिन तक सोफे पर बैठकर ही षोक मनाएंगे। वे सोफे से तभी उठते, जब कोई टीवी चैनल वाला आता या कोई प्राकृतिक आपदा आती, अन्यथा सारे काम वहीं से निपटा रहे हैं। आज उन्होंने मिर्च का भी बहिष्कार कर दिया है। इसलिए सुबह से उन्होंने सात-आठ बार केवल फलों का ज्यूस ही लिया है। बीच-बीच में थोड़े बहुत ड्राय फ्रूटृस जरूर ले लेते हैं। सेहत के लिए जरूरी है, क्योंकि कोई दुखी एक बार तो होना नही है। सेहत अच्छी होगी तो ही देषहित के मुद्दों पर दुख जता सकेंगे। खैर लंच तक आते-आते वे इस बात राजी हो गए कि केवल चिकन कबाब के उपर थोडी सी मिर्च बुरक लेंगे। आखिर, जो हुआ उसमें मिर्च का क्या दोष। नेताजी ऐसे ही रहमदिल हैं।
षाम हो गई है और नेताजी ऐसे ही दुख में गढ़े हुए हैं। दुख में ही उन्होंने लंच के बाद सोफे पर झपकी भी निकाल ली। नेताजी को इतना दुखी देखकर हमसे रहा नहीं गया। हम उनके बंगले पहंुचे और दो-टुक कह दिया, बहुत दुखी हो लिए। बयान जारी हो गया। टीवी पर बाइट चल गई। और कितना दुखी होंगे। दूसरों को भी दुखी होने का मौका दीजिए। आप ही दुखी होते रहेंगे तो बेचारे आपकी ही पार्टी के रामलालजी, ष्यामलालजी जैसे युवा नेता क्या करेंगे। इनकी हमेषा षिकायत रहती है कि आप इन्हें दुखी होने नहीं देते। खुद ही दुखी हो होते।
‘अरे, हमें तो कभी बताया नहीं इन लोगों ने।’ नेताजी ने आष्चर्यमिश्रित दुख जताया।
‘अब आपका लिहाज रखकर कुछ बोलते नहीं बेचारे।’
‘अरे, यह तो हमारी गलती है। हमें दूसरों का भी कुछ सोचना चाहिए था।’ नेताजी के कई दुख एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो रहे हैंे।
‘खैर, उन्हें कह दो कि आज रात आठ बजे बाद से वे दुखी हो लें। हम पर्याप्त दुखी हो लिए हैं।’
हमने मन ही मन सोचा। नेताजी धन्य है। दुख की घड़ी में दूसरों का कितना ख्याल रखते हैं। एकदम त्याग की मूर्ति।
अपने वादे के अनुसार आठ बजते ही नेताजी सोफे से उठ गए। अपने दुख को भुलाने वे चैथे माले पर बने विषेष कक्ष में चले गए हैं। कोई कांच का गिलास टूटा है। नीचे तक आवाज आई है।