रविवार, 30 अप्रैल 2023

राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!


By Jayjeet Aklecha

यौन शोषण के आरोपों पर एफआईआर दायर होने के बाद भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह की पहली प्रतिक्रिया थी कि वह पूरी तरह मजे में है। जिस व्यक्ति पर हत्या के प्रयास करने सहित पहले से ही अनगिनत मामले दर्ज हों (ADR के अनुसार चार और याचिकताकर्ताओं के वकील के अनुसार 40), जिस पर कभी दाऊद इब्राहिम के साथियों को शरण देने का संगीन आरोप भी लग चुका हो, वाकई उसे इन 'छोटे-मोटे' आरोपों से क्या फर्क पड़ेगा?
लेकिन आरोपी के मजे में होने, उसकी नजर में 'छोटे-मोटे' आरोप होने के बावजूद ये आरोप इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि ये उन बेटियों ने लगाए हैं, जिनकी उपलब्धियों पर पूरा देश पार्टी लाइन से ऊपर उठकर गर्व करता है। ये आरोप गंभीर इसलिए भी हैं, क्योंकि बेटियों की उपलब्धियों की बात करते समय हमारे देश के प्रधानमंत्री की आंखें भी हमेशा गर्व से चमक उठती हैं। और ये आरोप इसलिए और भी गंभीर हैं, क्योंकि यह बृजभूषण उसी पार्टी से सांसद है, जो अक्सर उस सनातन संस्कृति की बात करती है, जहां 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' श्लोक दोहराने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती है।
पर दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि इस पूरे मसले का भी राजनीतिकरण हो गया है। हमारे यहां समस्या ही यह है कि हर मामले का राजनीतिकरण हो जाता है और भोली जनता उसकी बात को ही सच मानने लगती है, जिसकी राजनीति में ज्यादा दम होता है। अब देखिए ना, खबरें आ रही हैं कि यूपी के कुछ संतों ने भी भोलेपन में कह दिया है कि वे यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में जंतर-मंतर पर जाकर पहलवानों के खिलाफ धरना देंगे।
पर एक चिंता यह भी है। अगर भविष्य में इनमें से कोई महिला पहलवान कभी पदक जीतकर लाती है तो हमारे देश के सर्वोच्च कर्णधाता की आंखों में उसकी उपलब्धि का बखान करते समय क्या वैसी ही चमक होगी? या उस चमक पर बृजभूषण जैसे लोगों की कालिमा का ग्रहण रहेगा?
वैसे यह केवल एक नैतिक सवाल है, जिसका आज के राजनैतिक माहौल में कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन यह सवाल तो हमेशा मौजूं रहेगा कि हमने जिन हाथों में मेडल देखे हैं, आखिर सिस्टम के सामने में वे हाथ जुड़ने को मजबूर क्यों हो गए?

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

बोर्नविटा के बहाने आइए कुछ असल सवाल उठाएं…


By Jayjeet Aklecha

हमारे देश की बुनियादी समस्या यह है कि हम बुनियादी मुद्दों पर काम करने के बजाय दिखावे पर ज्यादा भरोसा करते हैं। और यह बीमारी आम लोगों से लेकर सरकारों तक में व्याप्त है। शायद इसीलिए सालों पहले ही लोहियाजी कह गए थे कि दुनिया की सबसे ढोंगी कौम अगर कोई है तो वह भारतीय है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। मामला बोर्नविटा का है। मिडिल क्लास से लेकर हायर क्लास परिवारों में इस्तेमाल होने वाला या कभी ना कभी इस्तेमाल हुआ हेल्थ ड्रिंक पाउडर। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इस पाउडर को बनाने वाली कंपनी से जवाब मांगा है। जवाब भी बस इस बात को लेकर कि उसने अपने प्रोडक्ट में चीनी व कुछ अन्य नुकसानदायक तत्वों की मात्रा को लेकर सही जानकारी क्यों नहीं दी। आप यकीन नहीं करेंगे, लेकिन दुखद सच यही है कि आयोग की आपत्ति केवल इस बात पर है कि कंपनी के विज्ञापन भ्रामक हैं। बस, विज्ञापन हटा दें, तो बाकी वह जो करें, सब ठीक है।
आयोग के अफसरों ने तो अपनी नौकरी कर ली है। बढ़िया है। आइए, हम कुछ काम करें, कुछ सवाल उठाएं। मेरा बुनियादी सवाल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से ही है। सीधा-सा सवाल यह है कि आज मैंने सुबह नाश्ते में अपने बच्चे को जो फल खाने को दिया या आज दोपहर में जो सब्जी खाने को दूंगा, उसमें चीनी से भी कई गुना घातक केमिकल्स से मैं अपने बच्चे को कैसे बचाऊं? या तमाम अभिभावक अपने-अपने बच्चों को कैसे बचाएं?
हम सब जानते हैं कि बाजार में कदम-कदम पर बिकने वाली तमाम सब्जियां-फल केमिकल्स से सने हुए हैं और इन्हें बच्चे ही नहीं, हम सब खा रहे हैं। हमारे घरों में, आस-पड़ोस में, ऑफिसों में नित बढ़ते कैंसर के मामले चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पानी सिर से कितना ऊपर जा चुका है। लेकिन फिर भी हम सतही चिंताओं में दुबले हुए जा रहे हैं। हमें चिंता इस बात की है कि ज्यादा बोर्नविटा पीने से बच्चे डायबिटीज के शिकार हो जाएंगे, लेकिन वे जिस दूध में इसे मिलाकर पी रहे हैं, उसमें कितने केमिकल्स बच्चों और बड़ों को कैंसर के करीब ले जा सकते हैं, इसकी किसी को चिंता है?
हम समझते हैं कि किसान आपका वोट बैंक है। ठीक है, उसे परेशान मत कीजिए। लेकिन फल-सब्जियों में घातक रसायन केवल किसान के खेत तक सीमित नहीं रह गए हैं। फलों-सब्जियों को पकाने, उसे अधिक चमकदार बनाने, कथित तौर पर मीठा बनाने का जो गोरखधंधा फसल के खेत से आने के बाद हो रहा है, हमें अपनी संस्थाओं व सरकारों से इस पर जवाब चाहिए। जवाब चाहिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियों पर प्राणघातक बीमारियों का जो खतरा मंडरा रहा है, आखिर इसको लेकर वे क्या कर रही हैं? प्राकृतिक खेती का एक अव्यावहारिक जुमला उछाल भर देना काफी नहीं है, क्योंकि यह मामला केवल खेती तक सीमित नहीं रह गया है।
यह मुद्दा एक ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के बोर्नविटा में अधिक चीनी होने के आरोप के मद्देनजर उठा है। काश, कम से कम हमारे तथाकथित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर असली मुद्दों पर काम करते। बोर्नविटा जैसे सतही मुद्दों से देश के बच्चों का स्वास्थ्य सुधरने वाला नहीं है। हां, ऐसे मुद्दों से ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के फॉलोवर्स की संख्या जरूर बढ़ जाएगी, क्योंकि आखिर ढोंग तो हम सबमें उसी तरह रचा-बचा है, जैसे फलों-सब्जियों में केमिकल्स।
लोहियाजी को गलत साबित करने का वक्त आ चुका है। खुद को गलत साबित होने में उनकी आत्मा प्रसन्न ही होगी। लेकिन बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसी हमारी संस्थाओं, हमारी सरकारों और हम सभी को सतही मुद्दों से फुर्सत मिले, तभी तो।

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

मेरी रेवड़ी अच्छी, तुम्हारी खराब!!!

 



By Jayjeet Aklecha

एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में एक बेहद रोचक आंकड़ा सामने आया है। इसके अनुसार 90 फीसदी सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को गलत ठहराया है। फ्रीबीज का मतलब मुफ्त अनाज, लाड़ली बहना टाइप की योजनाएं, बिजली बिलों में छूट, गरीबों को गैस सिलिंडर में सब्सिडी आदि।

यहां वह 10 प्रतिशत का डेटा काफी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने फ्रीबीज का विरोध नहीं किया है। इनके नैतिक साहस की सराहना की जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिन सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज को गलत बताया है, क्या वे इसका विरोध करने का कोई नैतिक आधार भी रखते हैं? आइए कुछ तथ्यों के साथ ही बात करते हैं।

- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर हर साल 4,100 अरब रुपए पेंशन पर खर्च किए जाते हैं। नौकरी खत्म करने के बाद यानी बगैर काम किए यह पैसा फ्रीबीज ही है। हालांकि मैं यह कतई नहीं कर रहा हूं कि यह फ्रीबीज अनुचित है।

- नई पेंशन योजना के तहत अधिकांश सरकारें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी की कुल सेलरी का 14 फीसदी अपनी तरफ से योगदान दे रही है। यानी 5 लाख सालाना वेतन पाने वाले कर्मचारी को हर साल औसतन 70 हजार रुपए सरकार दे रही है (वेतन के हिसाब से यह राशि कम-ज्यादा होगी)। यहां भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह गलत है। पर कमजोर वर्गों को मिलने वाली फ्रीबीज को अनुचित बताने वाले कृपया वह डेटा लेकर आएं, जिसमें लोगों को हर साल कम से कम 70 हजार रुपए सरकार अपनी ओर से दे रही है और आने वाले कई सालों तक देगी।

अब इनमें हर साल मिलने वाले ढेरों अवकाश को भी जोड़ लेते हैं। 100 से 150 तक अवकाश तो होंगे ही। जिन्हें मुफ्त योजनाओं यानी फ्रीबीज का फायदा मिलता है, उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले वे लोग हैं, जिनकी एक दिन की छुट्टी का मतलब एक दिन की कमाई से वंचित होना होता है।

खैर, यह पेंशन-अवकाश के दिन वेतन वाली फ्रीबीज तो उनके लिए हैं, जो जीवन भर ईमानदारी से काम करते हैं। फिर दोहरा रहा हूं कि यह फ्रीबीज पूरी तरह से गलत नहीं है।

अब जरा उस फ्रीबीज की बात कर लेते हैं जो सब कर्मचारियों को नसीब नहीं होती, लेकिन गरीबों को मिलने वाली फ्रीबीज का विरोध करने वाले 90 प्रतिशत में ये भी अवश्य शामिल रहे होंगे। विश्व बैंक के 2019 के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में रिश्वत से सिस्टम को 3,600 अरब रुपए का नुकसान हुआ। यह वह राशि है, जो काउंटेबल थी (व्यावहारिक समझ से हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह बहुत छोटा आंकड़ा है )। रिश्वत में बड़ी राशि काउंटेबल नहीं होती है। भारत का अलग से आंकड़ा नहीं है, लेकिन कुछ सौ अरब रुपए तो मान लीजिए। नेताओं के बाद रिश्वत के ज्यादातर मामलों में सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। तो सरकारी कर्मचारी इस फ्रीबीज के बारे में क्या कहेंगे? अगर देश की सभी लाड़ली बहनों को भी हर माह हजार-हजार रुपए दे दिए जाएं, तब भी वह राशि रिश्वत के बतौर सरकार को होने वाले नुकसान के बराबर नहीं पहुंच पाएगी।

बेशक, वृद्धावस्था में सरकारी कर्मचारियों का ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदार है। निम्न वर्ग को भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता पहुंचाकर उसके आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। और खुले मन से यह स्वीकार करना सम्पन्न समाज की भी जिम्मेदारी है कि कमजोरों को हमेशा मदद की दरकार रहेगी।

हां, फ्रीबीज या रेवड़ियों के पीछे निश्चत तौर पर राजनीतिक मकसद होते हैं। हर रेवड़ी अच्छी नहीं हो सकती। उसी तरह से हर रेवड़ी खराब भी नहीं होती। और अगर खराब होगी तो सभी की होगी। मेरी रेवड़ी अच्छी, दूसरों की खराब, यह न्यायसंगत नहीं!

#freebies #Jayjeet #रेवड़ियां



रविवार, 9 अप्रैल 2023

पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...

 पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...



'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो


 'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा


मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!

 



(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।)

By Jayjeet Aklecha

हां, आप चाहें तो इसे राजनीतिक स्टंट बताकर खारिज सकते हैं।
अगर आप टैक्स पैयर्स हैं तो हमेशा की तरह इस बात की दुहाई देकर रोना-गाना कर सकते हैं कि मेरे टैक्स की राशि फिर किसी अपात्र को दी जा रही है...
लेकिन जो भी हो, यह है तो सामाजिक बदलाव की एक क्रांतिकारी योजना। ‘क्रांति’ अपने आप में एक बड़ा शब्द है, फिर भी यहां इस्तेमाल करने का दुस्साहस कर रहा हूं।
कभी-कभी राजनेता भी राजनीति के फेर में अच्छे सामाजिक कार्य कर बैठते हैं। ‘लाड़ली बहना योजना’ ऐसा ही वह राजनीतिक शिगूफा है, जो महिला सशक्तिकरण के तौर पर उतनी बड़ी सामाजिक क्रांति का जरिया बनने जा रही है, जिसका अंदाजा उन नेताओं को भी नहीं है, जिन्होंने महज वोट बटोरने के लिए आनन-फानन में इस योजना को शुरू किया है।
यह योजना क्रांतिकारी कैसे हो सकती है, इसके लिए पहले दो उदाहरण लेते हैं:
हाल ही में देश के एक जाने-माने लेखक से मेरी मुलाकात हुई। महिला सशक्तिकरण की बात चली तो बातों-बातों में उन्होंने अपनी बहन का किस्सा बताया। उनके मुताबिक उनकी बहन की शादी एक सम्पन्न लेकिन पारंपरिक परिवार में हुई, लेकिन आश्चर्य की बात थी कि वहां उनकी बहन का अपना कोई बैंक अकाउंट नहीं था। उसके बजाय उनके पति ने अपना एक डेबिट कार्ड दे रखा था और साथ ही उससे खर्च करने की अनलिमिटेड सुविधा भी। फिर भी वे खुश नहीं थीं। अंतत: लेखक ने उनके पति को बताए बगैर उनका खाता खुलवाकर उसमें एक छोटी-सी राशि डालनी शुरू की। एक लिमिटेड राशि। लेकिन अब उनकी बहन के पास अनलिमिटेड आर्थिक स्वायत्तता का एहसास है, जहां उनके खर्च पर किसी की निगाह नहीं है, अपने पति की निगाह भी नहीं।
दूसरा उदाहरण मेरे अपने घर का ही है। मेरी बेटी अभी-अभी 18 साल की हुई है। 18 साल की होते ही उसकी पहली डिमांड थी- मेरा बैंक अकाउंट हो। हर माह केवल 500 रुपए की राशि का ही वादा है मेरी तरफ से, लेकिन फिर भी खुशियां अनलिमिटेड हैं, क्योंकि अब उसके पास होगी 500 रुपए खर्च करने की आर्थिक स्वायत्तता।
तो विचार कीजिए उन लाखों गरीब-वंचित तबकों की महिलाओं के बारे में, जिनका पहली बार किसी बैंक में खाता खुलने जा रहा है या जिन्हें पहली बार एक निश्चित धनराशि अपने खाते में मिलने जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का यह एहसास इतना बड़ा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हां, बैंकों में ऐसी महिलाओं की भारी भीड़ को देखकर यह महसूस जरूर कर सकते हैं कि सामूहिक तौर पर कुछ तो बदल रहा है।
अब कुछ बातें उनकी जो इसे मुफ्तखोरी बताकर इस पर सवाल उठा रहे हैं।
सवाल उठाना बुरी बात नहीं है। लेकिन कम से कम इस योजना पर तो केवल उसे ही सवाल उठाने का नैतिक अधिकार है, जिसने भ्रष्टाचार की गंगौत्री में बहने वाले अरबों रुपए पर कभी सवाल उठाया हो (और जिसमें समय-समय पर बैंकों में फंसी करोड़ों-अरबों रुपए की राशि को बट्टे-खातों में डालना भी शामिल है)।
अगर नहीं उठाया है तो फिर सामाजिक बदलाव की इस गंगौत्री को बहते देखिए।
फिर याद रखें, गरीब महिलाओं को दिया गया हजार रुपया अंतत: बाजार में ही आना है। और जब बाजार में पैसा घूमता है तो अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है। इसका फायदा ज्यादातर उसी वर्ग को होता है, जो अक्सर अपने टैक्स की दुहाई देता है।

सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?

 


By जयजीत अकलेचा
कांग्रेस जैसी विचारशून्य हो चुकी पार्टी के पास तो सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन को बहाल करने के अलावा कोई इश्यू था नहीं। तो उसने वही किया, जहां तक उसकी सोच जा सकती थी: जिन-जिन राज्यों में उसने चुनाव जीते, वहां फौरन इकोनॉमी का सत्यानाश करने वाले निर्णयों की घोषणा कर दी। लेकिन तमाम पुरातनपंथी सोच के बावजूद मुझे लगता था कि भाजपा कम से कम अपने शीर्ष पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी की उस पहल व इच्छा का सम्मान करना जारी रहेगी, जिसके तहत उन्होंने पेंशन जैसे भारी-भरकम अनुत्पादक खर्च को धीरे-धीरे कम करने का आइडिया दिया था। लेकिन राजनीति के इस दौर में जब चुनाव जीतना ही एकमात्र मकसद बन जाए तो बेचारे राजनीतिक दल भी क्या करें? पुरानी पेंशन स्कीमों को बहाल करने जैसे विकास विरोधी काम करना लाजिमी है। जैसी की खबरें आ रही हैं, अब कनार्टक के साथ-साथ मप्र की भाजपा सरकार भी पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की तरफ आगे बढ़ गई है और इस तरह देश को भाजपामुक्त बनाने की दिशा में भी एक और सशक्त कदम बढ़ा लिया गया है। कांग्रेस को भावभीनी
बधाई
!
खैर, नेताओं से कोई शिकायत नहीं। उनके 1,000 पाप माफ। लेकिन फिर वही बुनियादी सवाल- आखिर बाकी लोग सवाल क्यों नहीं उठाते? चलिए उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों को भी छोड़ दीजिए, जिनके वोटों के लिए सरकारें/पार्टियां मरी जा रही हैं। लेकिन बचे हुए वे 94 फीसदी लोग क्या कर रहे हैं, जो इस भारी-भरकम सरकारी मुफ्तखोरी की योजना के दायरे से बाहर हैं? वे क्यों यह एक अदद सवाल नहीं उठाते कि आखिर कुछ सालों के बाद इस पेंशन के लिए पैसा कहां से आएगा?
चलिए, पहले एक छोटा-सा भयावह आंकड़ा ले लेते हैं। हो सकता है, तब सवाल उठाने में आसानी हो: साल 2019-20 में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पेंशन और अन्य रिटायरमेंट लाभों पर पर कुल व्यय राशि सालाना 4,134 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। यह राशि 30 साल पहले की तुलना में 80 गुना ज्यादा थी। अब 30 साल बाद का अनुमान लगा लीजिए। शायद आपका कैल्युलेटर तो इसकी गणना करते समय माफी मांग लेगा। अब वापस से सवालों के सिलसिले पर आते हैं: आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? राज्य कर्ज लेंगे, तो कर्ज चुकाएगा कौन? केवल सरकारी कर्मचारी तो नहीं चुकाएंगे। चुकाना तो उन 94 फीसदी को भी पड़ेगा, जो असेट्स क्रिएट करने में सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं। क्या यह उन सरकारी लोगों की ‘सेवा’ की भारी कीमत नहीं है, जिन्हें ‘सेवा’ करने के लिए पीले चावल तो कतई नहीं दिए गए थे?
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मोहन भागवत साहब ने एक परम ज्ञान दिया था कि युवा सरकारी नौकरी के पीछे ना भागें। पर अब भागवत जी मेरा उलट सवाल- क्यों न भागें? मैं ही बताता हूं। इसमें दो सुभीते हैं- एक तो नौकरी की पक्की गारंटी (जो कोविड जैसे संकट के समय काम आती है) और दूसरा, सरकारों पर पेंशन टाइप की योजनाएं बहाल करने के लिए संगठित तौर ब्लैकमेलिंग करने का सुभीता। सरकारी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए जुट सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं। और बेचारी मासूम सरकारें, चूं तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें तो थोक में सरकारी कर्मचारियों के वोट चाहिए, नहीं तो दूसरी पार्टियां लार टपकाए बैठी ही हैं।
मान लेते हैं कि सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण केवल 6 परसेंट सरकारी कर्मचारी ही हैं। तो सत्तासीन और सत्ता में आने को आतुर पार्टियों से कम से कम 94 फीसदी लोग तो अब यह पूछें- क्या सरकारें हमें अपने 6 परसेंट लाड़लों की पेंशन के बदले में प्रोडक्टिविटी से भरपूर भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की गारंटी दे सकती है? हंड्रेड परसेंट नहीं। तो हमसे यह उम्मीद क्यों कि हम वोट देने भी अपने घरों से निकलें?
(पुनश्च: 30 साल के बाद आज के हालात को देखते हुए जैसी की आशंका है कि देश दिवालिया हो चुका होगा (और जैसा कि तय है कि नरक में बैठे हमारे आज के अधिकांश नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकसाथ बैठकर हमारी मूर्खता पर हंस रहे होंगे), उस समय उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नई पीढ़ी को भी शायद उतना ही खामियाजा भुगतना होगा, जितना की शेष 94 फीसदी लोगों की भावी पीढ़ियों को…।)

जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... ‌‌‌!!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!

 


By जयजीत अकलेचा
पहली तस्वीर को सब जानते ही हैं। एक लोकप्रिय कथावाचक। और दूसरी तस्वीर से भी सब परिचित होंगे ही। एक निरीह-सा पौधा। इस दूसरी तस्वीर की चर्चा बाद में करुंगा। शुरुआत पहली तस्वीर के प्रसंग से ...
जो लोग स्वयं के सनातनी हिंदू होने का दावा करते हैं, उन्हें यह अवश्य पता होगा कि हमारे इस संसार का अस्तित्व प्रकृति के बगैर असंभव है। हिंदू मायथोलॉजी में देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी को ‘प्रकृति’ माना गया है। पूरे ब्रह्मांड के संतुलन के लिए इन दोनों का साथ जरूरी है... पर सबसे बड़ा सवाल- आज ‘प्रकृति’ कहां हैं? हम शिव को जरूर पूज रहे हैं, लेकिन उनकी अर्धांगिनी के इस स्वरूप के बगैर, प्रकृति के बगैर।
आइए, इस पूरे ज्ञान को थोड़ा आज के संदर्भ में और विस्तार देते हैं। मौसम वैज्ञानिकों ने एक बार फिर चेताया है कि इस साल भयंकर गर्मी पड़ने वाली है। और इस साल तो क्या, यह हर साल की बात हो गई है। गर्मी पड़ने वाली है, बढ़ने वाली है... लगातार। हो सकता है हमें विज्ञान और वैज्ञानिकों से भारी नफ़रत हो, तब भी हम इस कड़वी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अगली पीढ़ी का तो छोड़िए, आने वाले सालों में स्वयं हमें अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए जूझना पड़ सकता है। और यह भी कटु सत्य है कि अगर हम प्रकृति की ओर नहीं लौटें तो किसी भी बाबाजी-शास्त्रीजी का कोई चमत्कार हमें बचा नहीं पाएगा।
मैं कथावाचक बाबाओं/पंडितों/शास्त्रियों की भीड़ को खींचने की अ्दभुत क्षमता का वास्तव में कायल हूं। यह एक बड़ा टैलेंट है, इसमें कोई शक नहीं। इसके लिए उन्हें दिल से साधुवाद। मैं किसी भी बाबा को फॉलो नहीं करता हूं, इसलिए मुझे यह जानकारी कतई नहीं है कि कोई भी प्रकृति और प्रकृति के संरक्षण की बात भी करता है या नहीं (अगर की है तो कृपया मुझे करेक्ट करें। हां, केवल तुलसी, शमी, पीपल का महत्व बताने तक सीमित न हो। यह हमें पता है)। अगर नहीं की है, तो बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि ये सारे सनातनी होने के नाम पर हमें केवल हमारी सनातनी परंपरा की सतही बातों तक सीमित रखना चाह रहे हैं और कोई यह नहीं बता रहा कि सनातन काल में तो हम सभी केवल प्रकृति पूजक थे। पेड़-पौधे, जंगल, नदियां, पहाड़… ये ही हमारे आदिम देवी-देवता थे। मूर्तियां और मंदिर तो बाद में आए। एक यंत्र के तौर पर रुद्राक्ष तो और बाद में...
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, लोगों को प्रभावित करने की हमारे आज के बाबाओं-पंडितों में अद्भुत कला व क्षमता है। क्या ये अपनी इस कला का सही इस्तेमाल करते हुए लोगों को प्रकृति से नहीं जोड़ सकते? हां, वहीं ‘प्रकृति’ जो शिव के लिए सर्वोपरि हैं। मानव कल्याण की खातिर अगर शिवजी वैरागी होकर भी प्रकृति से जुड़े सकते हैं तो शिव का नाम जपने वाले हम सभी लोग दुनियादार होकर भी प्रकृति की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं?
आने वाले दिनों में देशभर में 48 लाख रुद्राक्ष बांटे जाएंगे। शिव भक्त दीवाने हुए जा रहे हैं। सब अच्छा है। पर काश, ये पंडितजी एक रुद्राक्ष के साथ एक-एक पौधा भी दें और कहें कि हे शिव के सच्चे भक्त, इसे रोपें और इसका मरते दम तक ख्याल रखें क्योंकि इसी में शिव की आत्मा बसती है। तो क्या असल चमत्कार नहीं होगा? क्या अपनी प्रकृति को लहलहाता देख शिव मुस्कराएंगे नहीं? शिव के मुस्कराने का मतलब है महाकल्याण और कुपित होने का मतलब, आप सब जानते ही हैं!!
अब, जरा दायीं वाली तस्वीर की बात ...यह मेरे द्वारा लगाए गए करीब डेढ़ दर्जन पौधों में से एक है। अब धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं। मैं नियमित तौर पर न रुद्राक्ष की पूजा करता हूं, न शिवजी की...शायद किसी की भी नहीं। मुझे तो शिवजी की अर्धांगनी का यह रूप पसंद है। लोग मूर्तियों को देखकर मुस्कराते हैं। मैं सुबह-सुबह इन डेढ़ दर्जन सजीव मूर्तियों को देखकर मुस्कराता हूं। यह मुंह मिया मिट्ठू वाली बात सिर्फ इसलिए, ताकि मेरा ज्ञान केवल थोथा ज्ञान न लगे। थोथा ज्ञान केवल मंचों और पंडालों से ही अच्छा लगता है...
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
अगर हम वाकई सनातनी हिंदू हैं, तो अपनी प्रकृति को बचाएं। वह हमें बचा लेगी। और केवल एक पौधा हमें सच्चे सनातनी हिंदू होने का गर्व दे सकता है। शिवजी कुपित हो जाए, उससे पहले ही हम उनके मुस्कराने का जतन करें, इसी में सबकी भलाई है.... नहीं तो बाकी तो बातें हैं… करते रहिए और विनाश की ओर बढ़ते रहिए।
(Disclaimer: एक आम इंसान की तरह मैं भी बेहद स्वार्थी हूं और मुझे केवल मेरे घर की चिंता है... इसलिए मैं केवल अपने धर्म, अपनी संस्कृति की बात कर रहा हूं। कोई यह ज्ञान न दें कि दूसरे धर्म की बात क्यों नहीं...! दूसरे धर्म के बारे में दूसरे सोचें, अगर सोच सकें... )

शनिवार, 5 नवंबर 2022

उफ!!! ये तो भारी सदमे वाली खबर है...!!





By Jayjeet
यह ऐसी सदमा पहुंचाने वाली खबर है, जिसने मुझे लिखने को मजबूर कर दिया। दो कर्मचारियों ने 1500 रुपए की रिश्वत ली। लोकायुक्त संगठन ने योजना बनाकर उन्हें पकड़ा, आठ साल तक कमरतोड़ मेहनत की और अंतत: सजा दिलवाकर ही चैन लिया। आखिर इन कर्मचारियों ने ऐसे क्या पाप किए थे, जो वे इस सजा की पात्र थीं? मेरी नजर में उनके ये तीन महापाप हैं :
1. रिश्वत ली भी तो कितनी? महज 1500 रुपए की। अगर आप इतनी टूच्ची-सी रिश्वत मांगोगे या लोगे तो क्या संदेश जाएगा? यही ना कि कितनी छोटी औकात है? आपकी छोटी औकात ही हमारी सरकारी जांच एजेंसियों की हिम्मत देती है, और इतनी हिम्मत देती है कि केस को मुकाम तक पहुंचाकर ही दम लेती है।
2. ठीक है, आपने रिश्वत ली। पर पकड़ में क्यों आ गई? इन दोनों अनाड़ियों को इतना भी पता नहीं था कि रिश्वत लेना जुर्म नहीं है, पकड़ में आना जुर्म है। अगर रिश्वत लेना नहीं आता था कि तो अपने वरिष्ठ अफसरों से सीख लेतीं। वरिष्ठ अफसर आखिर होते किसलिए हैं! शायद इन दोनों ने अपने अफसरों को कॉन्फिडेंस में ही नहीं लिया होगा। इतना सेल्फ कॉन्फिडेंस ठीक नहीं।
3. चलिए, ढंग से रिश्वत लेना नहीं सीखा, पर देना भी नहीं सीखा? क्या ये खुद को आम लोगों से ऊपर समझती थीं? खुद को आम लोग समझतीं तो शायद रिश्वत देने में भी भरोसा करतीं। पकड़ में आ जाने भर को इन्होंने अपना खेल खत्म समझ लिया होगा, जबकि पकड़ में आ जाने के बाद ही असली खेल शुरू होता है (अब क्या कहें, ये देश के सिस्टम को भी नहीं जानती, चली रिश्वत लेने!)। तो बेचारे लोग टापते रहे। और फिर क्या करते! खीजकर सजा दिलवाने में जुट गए। इसीलिए ऊपर लिखा, अपने अफसरों से सीखतीं। बड़े अफसर आखिर होते ही इसलिए हैं।
तीन-तीन बड़ी-बड़ी गलतियां कीं और सजा केवल चार साल? ये तो सिस्टम के साथ बहुत नाइंसाफी है। इसलिए मुझे ज्यादा सदमा लगा। मैंने पिक्चरों में देखा है (पता नहीं क्या सच है) कि कई बार जज साहब सबसे बड़ी सजा देते हुए अपने पेन की निब तोड़ देते हैं। इन दोनों को वैसी ही निब-तोड़ सजा मिलनी चाहिए थी...इसी लायक थी। अगर ऐसी सजा मिलती तो बाकी टुच्चे रिश्वतियों के लिए मिसाल बनती।
(सीखिए, सीखने के लिए कोई रिश्वत ना देनी पड़ती। परसों की ही खबर है। यूपी में 5 लाख रुपए की रिश्वत के दोषी पाए गए DSP को डिमोट करके इंस्पैक्टर बनाया गया है। केवल डिमोट किया गया, 1500 रुपए की टुच्ची रिश्वतखोरों की तरह जेल ना भेजा गया क्योंकि रिश्वत की रकम देखिए। अगर 5 के आगे एक-आध जीरो और लग जाता तो हो सकता, SP पद पर प्रमोट कर दिए जाते!)

ऐसे और भी व्यंग्य आपको मिलेंगे पांचवां स्तंभ में :  (https://amzn.to/3z543lm)

सोमवार, 3 अक्तूबर 2022

जयजीत अकलेचा की व्यंग्य पुस्तक पांचवां स्तम्भ : व्यंग्य विधा में अनुपम प्रयोग

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By ब्रजेश कानूनगो

हिंदी साहित्य में इन दिनों कुछ विधाओं में रचनाओं में एक तरह का उछाल सा महसूस किया जा रहा है। साहित्य की विशिष्ट पत्रिकाओं को छोड़कर खासतौर पर लोकप्रिय पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित रचनाओं की बात करें तो लघुकथा और व्यंग्य विधा के जरिए साहित्य संसार में प्रवेश के बड़े द्वार खुल गए हैं।

आधुनिक टेक्नोलॉजी से सम्पन्न और अभ्यस्त अनेक नए लेखक बारास्ता सोशल मीडिया भी कविता के बाद व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में ही अधिक सक्रिय नजर आ रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य विधा में जो बहुतायत से लिखा हुआ आ रहा है उस पर कई सवाल भी खड़े किए जाते रहे हैं। विधा की लोकप्रियता और लेखकों की भीड़ के बीच रचनाओं की गुणवत्ता के पतन की बात भी उठती रही है।

व्यंग्य विधा के मानक सौंदर्यशास्त्र के अभाव में परसाई जी और शरद जोशी या अन्य विशिष्ठ व्यंग्यकारों द्वारा स्थापित व्यंग्य के मानकों पर आज भी नई रचनाओं को परखने की विवशता दिखाई देती है। प्रेमचंद के बाद कहानी और परसाई के बाद हिंदी गद्य व्यंग्य की कई पीढ़ियाँ तो निर्धारित की गईं किन्तु रचना की श्रेष्ठता का कोई मानक पैमाना तय नहीं है और न ही हो सकता है। यह अवश्य है कि रचना की विषय वस्तु के निर्वाह में किसी लेखक के जो विचार व  सरोकार दिखाई देते हैं वे निश्चित ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसके बाद भाषा,शैली और व्यंग्य रचना के प्रारूप पर भी ध्यान जाता है।

युवा पत्रकार और व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा की पहली किताब 'पांचवा स्तम्भ' पर बात करने से पहले मुझे उपर्युक्त चर्चा जरूरी इसलिए भी लगती है कि जयजीत ने व्यंग्य विधा की अब तक कि परंपराओं को नए और अपने  तौर तरीकों से आगे बढ़ाने का साहस किया है। यद्यपि कई बार अखबारी लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता भी कहा गया है। मुझे याद आता है शरदजी के कॉलम लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता कहा गया था और उन्हें पद्मश्री भी पत्रकारिता वर्ग में प्रदान किया गया। खबरों और अखबारों की सुर्खियों पर ही ज्यादातर कॉलमी व्यंग्य रचनाएं आ रही हैं जो तात्कालिक संदर्भों के होने से पाठकों को आकर्षित तो करती ही हैं पर संपादकों को भी उन्हें प्रकाशित करने में सुविधा हो जाती है।

थोक में लिखी जा रही ऐसी रचनाओं से इतर जयजीत अकलेचा की रचनाएं इसलिए अलग हो जाती हैं कि पत्रकार होने के कारण खबरों और सुर्खियों के भीतर उतरकर उसकी आत्मा तक पहुंच जाने की योग्यता उनमें पेशागत रूप से है। दूसरे वे जोखिम लेकर अपनी रचनाओं का प्रारूप बदलकर विधा के विकास में अगला महत्वपूर्ण कदम बढ़ा देते हैं।

जयजीत की किताब 'पांचवां स्तम्भ' की सबसे बड़ी खूबी यही है जैसा कि ब्लर्ब में चर्चित व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने कहा भी है, इनमें व्यंग्य विधा में नए प्रयोगों का साहस सचमुच स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आवरण पर इसे व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब कहा गया है। निसंदेह व्यंग्य रिपोर्टिंग पहले भी इक्का दुक्का देखने पढ़ने को मिलती रही है। जयजीत के अलावा भी कई पूर्ववर्ती लेखको नें इस प्रारूप को आजमाया है। जयजीत स्वयं 'हिंदी सेटायर' जैसे डिजिटल मंच पर इस तरह लिखते रहे हैं। पुस्तक में ज्यादातर तात्कालिक खबरों और प्रसंगों पर लेख, रिपोर्टिंग किस्से तो हैं हीं साथ ही 'इंटरव्यू' प्रारूप में भी बड़ी दिलचस्प रचनाएं देनें में वे सफल हुए हैं।

मैं इस पुस्तक की हर पंक्ति से ध्यानपूर्वक गुजरा हूँ और कह सकता हूँ कि हर शब्द और वाक्य पाठक को रोमांचित करता है और बहुत प्रभावी रूप से बांधे रखता है। पहले सोच रहा था कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर अपनी बात को पुष्टि दूँ किन्तु यह बिल्कुल भी सम्भव नहीं। हर पंक्ति देकर समीक्षा को लंबा खींचना न सिर्फ लेखक की प्रतिभा के प्रति बल्कि संभावित पाठकों की जिज्ञासा के प्रति भी गलत होगा। पाठक इस किताब को मंगवाकर अवश्य पढ़ें। लेखक की गहरी व्यंग्य समझ और रोचक, मारक प्रस्तुति के कायल हुए बगैर नहीं रहेंगे।

यद्यपि लेखक बड़ी विनम्रता से इब्ने इंशा के कथन को उद्धरित कर कहते हैं, हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है,वैसे भी आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है। परंतु मेरा मानना है नया और मौलिक तो कुछ दुनिया में होता ही नही है, हर नई बात एक लंबी परंपरा का नए तरीके से विकास होता है। जयजीत इस किताब में विधा के विकास में एक नया और सार्थक प्रयोग करते हैं। हिंदी व्यंग्य शैली में इन दिनों आई बोझिलता और एकरसता को तोड़ते हैं।

देश दुनिया में प्रजातंत्र के चार स्तंभों की स्थिति कुछ भी चल रही हो, जयजीत अकलेचा का 'पांचवां स्तम्भ' निसंदेह व्यंग्य विधा का ध्वज फहराने योग्य है। बहुत बधाई।

(पुस्तक: पांचवां स्तम्भ, लेखक :जयजीत ज्योति अकलेचा, प्रकाशक : मेंड्रेक पब्लिकेशन भोपाल, कीमत : 199 रुपये)

यह किताब अमेजन पर उपलब्ध हैhttps://amzn.to/3z543lm

(ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्यकार हैं।)


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मंगलवार, 2 अगस्त 2022

चंदन चाचा के बाड़े में, नाग पंचमी की कविता (Nag panchami classic kavita )



नागपंचमी (Nag panchami) से संबंधित कविता चंदन चाचा के बाड़े में ...( chandan chacha ke bade me)। इसे मप्र के जबलपुर के कवि नर्मदा प्रसाद खरे ने लिखा था। इसे सबसे पहले 1960 के दशक में कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। हालांकि कुछ सोर्स इसके कवि सुधीर त्यागी बताते हैें। 

नर्मदा प्रसाद खरे
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

# nag-panchami-kavita  # नागपंचमी की कविता

गुरुवार, 9 जून 2022

शरद जोशी का व्यंग्य... कांग्रेस के 30 साल

(कांग्रेस के शासनकान के 30 साल पूरे होने पर लिखा गया व्यंग्य...)

शरद जोशी

कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए। कुछ कहते हैं, तीन सौ साल बीत गए। गलत है! सिर्फ तीस साल बीते। इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा, कभी कांग्रेस आगे बढ़ी। कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई। तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है। वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई।


पूरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही। पुरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा। पोस्टरों, किताबों, सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा।


रेडियो, टीवी डाक्यूमेंट्री, सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी! कांग्रेस हमारी आदत बन गई, कभी न छुटने वाली बुरी आदत। हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे। इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समां गई!


जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है। इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए।


अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था। उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था। अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए। और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे।


देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे।समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी। एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई। दोनों बढ़ने लगे।


पूरे तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा। जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है। जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है। जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है।


मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है। कांग्रेस सर्वत्र है। हर कुर्सी पर है। हर कुर्सी के पीछे है। हर कुर्सी के सामने खड़ी है। हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है। इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही।


तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा। जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं, जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था।


अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से। सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही। पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए। राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए। शराब के ठेके दिए, दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही। हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा। योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी। लागू की तो रोक दिया। रोक दिया तो चालू नहीं की। समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं।


कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है। समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया। नारा दिया तो पूरा नहीं किया। प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को। दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई । तीस साल तक खड़ी रही। एक को बढ़ने नहीं दिया। दूसरे को घटने नहीं दिया।


आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे। ‘यूथ’ को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकट दिया। जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया। जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए। जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया। वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा।


एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे। जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा। प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए। आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं। जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए। मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे। जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे। शांति की अपील की, भाषण देते रहे।


खुद कुछ किया नहीं दूसरे का होने नहीं दिया। संतुलन की इन्तहां यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे। दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए। तीस साल तक पूरे, पूरे तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था। संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही,गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पुरे तीस साल तक।


कांग्रेस अमर है वह मर नहीं सकती। उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे। जब तक पक्षपात, निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह, ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता। कांग्रेस कायम रहेगी।


दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी। इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है। जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी। जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है। तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

बुलडोज़र क्रांति के नायक यानी स्वयं 'बुलडोज़र महाराज' से बातचीत

 

Bulldozer


 By Jayjeet

इस समय सवाल, वह भी बुलडोज़र से, पूछने की हिम्मत भला किसमें होगी? Bulldoze का एक अर्थ 'डराना' भी होता है। रिपोर्टर को यह सब मालूम है, फिर भी उसने थोड़ी हिम्मत की और सुस्ताते हुए बुलडोज़र के सामने खड़ा हो गया कुछ सवाल लेकर... 

रिपोर्टर : इस समय तो बड़े जलवे हैं? ख़ूब नेम-फ़ेम मिल रहा है।

बुलडोज़र : ले लो मज़े। भर गर्मी में इतना घूमना पड़ रहा है। खुद घूमो तो पता चले। कितनी आसानी से कह दिया- जलवे हैं...!

रिपोर्टर : अच्छा, एक दौर वह भी था, जब लोग आपको खुदाई करते हुए घंटों बड़े ही प्यार से निहारा करते थे और ख़ुश होते थे। आज आपको देखकर आदमी डर रहा है। इस बदलाव पर क्या कहेंगे? 

बुलडोज़र : कहीं तो लोग डरें? लोकतंत्र का मज़ाक़ बना रखा है लोगों ने।

रिपोर्टर : लेकिन लोकतंत्र में तो डर नहीं, विश्वास होना चाहिए। विश्वास से चलता है लोकतंत्र, डर से नहीं। किसी ने ख़ूब कहा भी है - सबका साथ सबका विश्वास...

बुलडोज़र : नो कमेंट।

रिपोर्टर : आप पर आरोप है कि आप डर भी एक वर्ग विशेष में ही पैदा कर रहे हैं। क्या आप हरे-केसरिया रंग के आधार पर फैसले नहीं कर रहे हैं?

बुलडोज़र : नो कमेंट।

रिपोर्टर : आरोप यह भी है कि आपको बड़े लोगों के बड़े-बड़े अतिक्रमणों को ढहाने के बजाय ग़रीबों की छोटी-छोटी गुमठियाँ, दुकानें, झोपड़ियाँ ढहाने में ज्यादा आनंद आ रहा है। भारी-भरकम से कौन भिड़े, हल्के-फुल्कों को हटा दो। क्या यह कामचोरी नहीं है?

बुलडोज़र : नो कमेंट।

रिपोर्टर : दिल्ली के ज़हाँगीरपुरी में सुप्रीम कोर्ट ने भी आपको तुरंत रुकने को कहा था, लेकिन आप दो घंटे तक मनमानी करते रहे। क्या यह अधिनायकवाद नहीं है? अपने आप को सर्वोच्च समझने का अहंकार कि कुछ भी हो जाए, मैं रुकेगा नहीं स्साला!

बुलडोज़र : नो कमेंट।

रिपोर्टर : अगर जवाब ही नहीं देना चाहते तो चुनाव ही लड़ लो भाई? नेताओं की जी-हुज़ूरी करते-करते अच्छी नेतागीरी आ गई है आपको भी।

बुलडोज़र : क्या यह भी आरोप है?

रिपोर्टर : आरोप नहीं, सच्चाई है, सौ टका।

बुलडोज़र : सर, ज्यादा हो गया। आप रिपोर्टर हो तो इसका मतलब यह नहीं कि आय-बाय-शाय कुछ भी बके जाओ। सारे आरोप झेल लिए हैं। ये ना सहन करुँगा कि कोई मुझे नेता कहें और चुनाव लड़ने का ज्ञान दें...

रिपोर्टर : तो आप जवाब क्यों नहीं दे रहें?

बुलडोज़र : जवाब हो तो दूँ? और झूठे या गोलमाल जवाब देना चाहता नहीं हूँ, क्योंकि मैं नेता नहीं हूँ।

रिपोर्टर : वाह, दिल ख़ुश कर दिया। बस आख़िरी सवाल...

बुलडोज़र : आख़िर-वाख़िरी कुछ नहीं, अब सामने से हट जाओ, पहले ही खोपड़ा ख़राब है। करे कोई, भरे कोई। काम वो करे, आरोप हमपे लगे। हट जाओ सामने से, बहुत झेल लिया... अब झेलेगा नहीं स्साला।

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

गुरुवार, 10 मार्च 2022

Satire & Humor : अकबर रोड का वह भूत; कभी हंसता है, कभी रोता है…

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ए. जयजीत

हिंदुस्तान के एक अज़ीम शासक अकबर के नाम पर बनी सड़क पर स्थित है वह महल। आज खंड खंड। नींव मजबूत है, लेकिन कंगुरे या तो ढह चुके हैं या ढहने के कगार पर हैं। ढहते कंगुरों से लटके शीर्षासन करते चमगादड़ महल के भूतिया गेटअप को बढ़ाने का ही काम करते हैं। इस अफवाह के बाद कि इस खंड-खंड इमारत से अक्सर किसी भूत के रोने की आवाजें आती हैं, आज पूरे मामले की तफ्तीश करने निकला है वह भूतिया रिपोर्टर। हाथ में टिमटिमाती लालटेन के साथ वह उस इमारत के सामने खड़ा है। भानगढ़ के भूतिया किले से कई बार रिपोर्ट कर चुका वह जांबाज रिपोर्टर भूत मामलों का एक्सपर्ट हैं। भूतिया रिपोर्टर्स के हाथों में पेन या माइक टाइप का तामझाम हो या ना हो, लेकिन पुरानी वाली टिमटिमाती लालटेन होती ही होती है। भूतिया महलों की रिपोर्टिंग करने वाले अनुभवी रिपोर्टर जानते होंगे कि ऐसे मौकों पर टिमटिमाटी लालटेन भूतों के लिए "बिल्डिंग कॉन्फिडेंस' का काम करती है।

तो आइए चलते हैं उसी खंड खंड इमारत के पास...

एक हाथ में लालटेन लिए रिपोर्टर ने दूसरे हाथ से जैसे ही इमारत का मुख्य दरवाजा खोला, सफेद बालों में खड़ा भूत सामने ही नजर आ गया। रिपोर्टर चौंका - हें, ये कैसा नॉन ट्रेडिशनल टाइप का भूत है जो तुरंत आ गया। न सांय-सायं की आवाज आई। काली बिल्ली भी झांकती नजर नहीं आई। उसे खटका तो उसी समय हो गया था, जब दरवाजा भी बहुत स्मूदली खुल गया था। और फिर स्साले चमगादड़ भी कंगुरों पर लटके हुए टुकुर-टुकुर देखते ही रहे। मजाल जो उड़कर माहौल बनाने आ जाए। सालों से एक जगह पड़े-पड़े उनके परों में जैसे जंग लग गया हो। खैर, तुरंत अपनी विचारतंद्रा को तोड़ते हुए भूतिया रिपोर्टर ने टांटनुमा डायलॉग मारा, "हम पूरी तरह आए भी नहीं और आप उससे पहले ही पधार गए! कुछ इंतजार तो करते। माहौल-वाहौल तो बनने देते। भूतों के लिए इतनी अधीरता ठीक नहीं।'

"मैं गया ही कहां था जो आऊंगा़? मैं तो यहीं था। शुरू से यहीं था। लोगों ने जरूर मेरे पास आना छोड़ दिया। शुक्र है आप तो आए बात करने।'

"मतलब? आप हैं तो भूत ही ना?' रिपोर्टर को अब भी भरोसा नहीं हो रहा। दरअसल, भानगढ़ के किले में चिरौरी करनी पड़ती, तब कोई आता।

"हां भई, अब मैं भूत ही हूं। 135 साल पुराना भूत। एंड आई एम प्राउड ऑफ माय भूतपना।'

"वाह जी, ऐसा भूत तो पहली बार देख रहा हूं जिसे अपने भूतपने पर प्राउड हो रहा है।'

"जब वर्तमान ठीक न हो और भविष्य नजर न आ रहा हो तो अपने भूतपने पर ही प्राउड करना चाहिए। वैसे आप तनिक आराम से बैठो और अपनी लॉलटेन बुझा दो। तेल वैसे भी बहुत महंगा हो गया है। विरोध करने वाला भी कोई नहीं है।'

"लेकिन... लेकिन भूत जैसे कोई लक्षण तो हैं नहीं। आपके तो उलटे पैर भी नहीं हैं। भानगढ़ के भूतिया किले के तो सभी भूतों के पैर उलटे होते हैं।' रिपोर्टर बार-बार कंफर्म कर रहा है। कहीं ऐसा न हो कि धोखा हो जाए।

"अरे भाई, किसने कहा कि भूत के लिए उलटे पैर होना जरूरी हैं? कांग्रेस होना ही काफी है।'

"अच्छा, तो आप कांग्रेस के भूत हैं? तभी लोगों को अक्सर यहां से रोने की आवाजें सुनाई देती हैं।'

"हां भाई, रोऊं नहीं तो क्या करुं?'

"लेकिन अगर आप कांग्रेस के भूत हैं तो फिर 10 जनपथ पर कौन हैं?'

"वो कांग्रेस का वर्तमान है, पर कांग्रेस का भूत तो मैं ही हूं। पक्का...।'

"और भविष्य?'

"यह भूत से नहीं, वर्तमान से पूछो। भविष्य तो वर्तमान ही तय करता है, भूत नहीं।'

यह कंफर्म होने के बाद कि वह भूत से ही बात कर रहा है, भूतिया रिपोर्टर अब सहज हो चुका है। भूत की एडवाइज पर लालटेन बुझा दी है। दरवाजा बंद कर दिया है ताकि ढहते हुए कंगुरों पर जोंक की तरह चिपके चमगादड़ उसके इंटरव्यू को पहले ही लीक ना कर दें।

"तो आप अक्सर रोते ही हैं?' भूतिया रिपोर्टर ने इंटरव्यू की शुरुआत करते हुए एक घटिया-सा सवाल दागा।

"आपने तो भानगढ़ के किले में काफी भूतों को कवर किया है। फिर भी ऐसा भूतिया टाइप का सवाल पूछ रहे हैं? आप तो जानते ही होंगे कि भूत दो काम बहुत ही एफिशिएंसी के साथ करते हैं। एक, रोने का और दूसरा हंसने का। मैं दोनों काम बखूबी करता हूं। अपने अतीत को देख-देखकर मुस्कुराता हूं, हंसता हूं, ठहाके लगता हूं। वर्तमान को देखकर रोता हूं।'

"अकेले रोते या हंसते हुए आप बोर नहीं हो जाते हैं?'

"अक्सर शहंशाह-ए-अकबर का भूत भी इस सड़क पर आ जाता है, खैनी मसलने के लिए। वह भी तो इन दिनों फालतू है।'

"अच्छा, इस अकबर रोड पर?'

"हां, उसके नाम पर रोड रखी है तो वह यही मानता है कि ये उसी के बाप की, आई मीन उसी की रोड है। तो वह अपनी इस रोड पर अक्सर मिल जाता है। फिर हम दोनों सामूहिक रूप से रोनागान करते हैं।'

"आपका रोना तो समझ में आता है। पर वह क्यों रोता है?'

"फिर वही भूतिया सवाल। अरे भाई, जैसे मेरे वंशजों ने मुझे बर्बाद किया, तो उसके भी बाद के वंशज कहां दूध के धुले थे। इसलिए वह भी बेचारा जार-जार रोता है।'

.... और बातचीत का सिलसिला चलता रहा, चलता रहा, चलता रहा। बाहर कंगुरों पर लटके चमगादड़ों में अब बेचैनी होने लगी थी। पंख फड़फड़ाने लगे थे। इस बीच, काली बिल्ली की भी एंट्री हो गई थी। मुंह बनाते हुए झांककर दो-तीन बार देख भी गई थी। खिड़की में एक साया भी झांकते हुए नजर आया, पर तुरंत लौट भी गया। शायद अकबर का भूत होगा। अब बारी कुछ अंतिम सवालों की थी -

"बताइए, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?' सवाल इस बार का संकेत था कि भूत अपनी पूरी रामकहानी बहुत ही दुखद अंदाज में सुना चुका था और भूतिया रिपोर्टर के लिए सहानुभूति दर्शाने की यह औपचारिकता निभानी भी जरूरी थी।

"बस, अब बहुत हो गया। मेरी मुक्ति का इंतजाम करवाइए।' भूत ने उसी बेचारगी के भाव के साथ कहा, जैसा उसने पूरे इंटरव्यू के दौरान बनाए रखा होगा।

"उसकी तो मोदीजी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अगर आप पूरी तरह से मुक्त हो जाएंगे तो फिर झंडेवालां पर बैठे लोगों को डराएगा कौन? वे न वर्तमान से डरते हैं, न भविष्य से। उन्हें तो केवल आपसे डर लगता है। और यह डर अच्छा है। उन लोगों के लिए भी, देश के लिए भी और देश की जनता के लिए भी।'

"अच्छा!! तो मैं दूसरों के लिए यूं ही भटकता रहूं, रोता रहूं जार-जार?'

"इंतजार कीजिए ना। हो सकता है, आपके भूत से ही भविष्य पैदा हो। जब वर्तमान नपुंसक हो तो भविष्य को पैदा करने की जिम्मेदारी भूत को ही उठानी पड़ती है। जिम्मेदारियों से मत भागिए। सोचिए, क्या कर सकते हैं। तब तक मैं यह रिपोर्ट फाइल करके आपसे फिर मिलता हूं...'

और लॉलटेन जलाकर दरवाजे से बाहर निकल गया भूतिया रिपोर्टर। ढहते कंगुरों पर उलटे लटके चमगादड़ अब सीधे खड़े हो गए हैं। फिलहाल वे वेट एंड वॉच की मुद्रा में हैं...!

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

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