सोमवार, 15 नवंबर 2021

Satire : हे भगवान! सबकुछ तेरे भरोसे क्यों?

 


ए. जयजीत

वे नाजुक-सी आत्माएं अभी-अभी धरती पर उतरी ही थीं कि ईश्वर ने उन्हें फिर से वापस बुला लिया। ईश्वर के विशेष फरिश्ते उन्हें लेने आए। ईश्वर के खास निर्देश थे- उन्हें अपने हाथों में इस तरह नज़ाकत से थामकर लाना जैसे कमल के पत्ते किसी ओस की बूंद को थामते हैं। जैसी ईश्वर की आज्ञा, वैसा ही उन फरिश्तों ने किया। लेकिन इतनी बड़ी घटना पर वे चुप्पी भी भला कैसे साध लेते! आखिर वे हमारे सिस्टम का पार्ट तो थे नहीं...

'अचानक क्या हो गया? कुछ अरसा पहले ही तो हम इन्हें धरती पर छोड़कर गए थे? ये तो अभी ढंग से इस दुनिया-ए-फ़ानी को समझ भी नहीं पाए होंगे कि इन्हें वापस बुलाने के निर्देश हो गए।' भोपाल के हमीदिया हॉस्पिटल की छत से अपने गंतव्य की ओर कूच करते हुए पहले फरिश्ते ने कहा। 

'शायद ईश्वर को एहसास हो गया होगा कि यह क्रूर दुनिया इन मासूम आत्माओं के लिए नहीं बनी है।' दूसरे फरिश्ते ने बहुत ही नपा-तुला जवाब दिया। ऐसे मौके पर वह भला और क्या कहता।

'लेकिन इन मासूम आत्माओं में से कुछ ने तो अभी अपनी आंखें भी नहीं खोली होंगी। इन्हें कम से कम कुछ दिन तो रहने देते। अपने मां-बाप को कुछ पलों की खुशियां भी ना दे पाईं ये आत्माएं।' पहले फरिश्ते ने अफ़सोस जताया।

'वैसे शुक्र मनाइए, ये मासूम आत्माएं धरती की तमाम कुव्यवस्थाओं को देखने से बच गईं।'

'अरे, ये तो खुद अव्यवस्थाओं का शिकार हो गईं और तुम कह रहे हो कुव्यवस्थाएं देखने से बच गईं। इतने असंवेदनशील तो मत बनो भाई। माना धरती पर आते रहते हो, तो क्या यहां के लोगों की संगत का तुम पर भी असर हो गया?'

'मेरे कहने का मतलब यही था कि जब शुरुआत ही इतनी कुव्यवस्थाओं के बीच हुई तो आगे ना जाने क्या-क्या भुगतना पड़ता।' दूसरे फरिश्ते ने अपनी बात, जो कि इस मौके पर उचित कतई नहीं थी, पर सफाई देने की विफल कोशिश की।

'इन कुव्यवस्थाओं के लिए तो जिम्मेदार तो पूरा सिस्टम है। तो सिस्टम का खामियाज़ा इन्हें क्यों भुगताना चाहिए? बताओ?' पहला फरिश्ता तर्क-वितर्क करने लगा है।

'शायद ईश्वर की यही मर्जी होगी।' दीर्घ श्वास छोड़ते हुए दूसरे फरिश्ते ने बात खत्म करने के मकसद से कहा। लेकिन बात तो अब शुरू हुई थी। इतनी जल्दी खत्म कैसे होती!

'अरे, यह क्या बात हुई। तुम क्या यह कहना चाहते हो कि पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं? और जब सबकुछ भगवान भरोसे हैं तो इन मासूम आत्माओं के साथ जो कुछ भी हुआ, उसके लिए जिम्मेदार भी हमारे माननीय भगवान ही हैं?' पहला फरिश्ता थोड़े तैश में आ गया।

'ऐसा मैंने कब कहा? और तनिक धीरे बोलिए। ये मासूम आत्माएं सो रही हैं। जग न जाएं। बहुत तकलीफ़ से होकर गुजरी हैं। इसीलिए ईश्वर ने इन्हें बहुत ही नज़ाकत से लाने के निर्देश दिए हैं।' दूसरे फरिश्ते ने बात बदलने की कोशिश की।

'लेकिन भाई, धीरे बोलने से सच्चाई बदल तो नहीं जाएगी ना। तुम्हारे कहने का मतलब तो यही है ना कि जब पूरा सिस्टम भगवान भरोसे हैं तो फिर बेचारे इंसान कर भी क्या सकते हैं? चलिए मान लेते हैं कि सबकुछ हमारे भगवान भरोसे ही हैं। तो फिर सरकारों ने हॉस्पिटल्स क्यों खोल रखे हैं? क्यों न जगह-जगह मंदिर-मस्जिद खोल दिए जाएं। जब सब हमारे ईश्वर को ही देखना है तो फिर वह देख ही लेगा। हटाओ सारे दंद-फंद...।' पहला थोड़ा इमोशनल होने लगा है।  

'देखो, सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो, उसका हमेशा से भगवान पर भरोसा रहा है। इसलिए उसकी ज्यादातर चीजें भगवान भरोसे ही चलती हैं।'

'तो फिर 'भगवान भरोसे मंत्रालय' भी बना देना चाहिए। कम से कम देश के तमाम हॉस्पिटल्स को तो इसी मंत्रालय के अंडर में ले आना चाहिए।' पहले ने कटाक्ष किया जिसमें इमोशन थोड़ा ज्यादा था।

'इतना इमोशनल भी मत बनिए। बी प्रैक्टिकल...।'

'कैसे न बनूं? इन मासूमों की आत्माओं को साथ ले जाते हुए भी तुम कह रहे हो इमोशनल न बनूं? तुम अपनी आत्मा पर पत्थर रख लो, मैं नहीं रख सकता।'

'सरकार अपना काम कर तो रही है। घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार के प्रमुख ने भी कह दिया है कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। जांच होने तक तो सब्र रखो। सब साफ हो जाएगा कि इन मासूम आत्माओं की हत्याओं के लिए जिम्मेदार कौन हैं?'

'मुझे क्या न्यू कमर फरिश्ता समझा! धरती के और खासकर इंडिया के बहुत ट्रिप किए हैं मैंने भी। सब जानता हूं कि जांच रिपोर्ट्स-विपोर्ट्स का क्या टंटा होता है।'

'देखो भाई, हमारे-तुम्हारे बोलने से तो कुछ होगा नहीं। जो भी होगा, सिस्टम से ही होगा।'

'सिस्टम से तुम्हारा क्या मतलब है?'

'पहले जांच समिति बैठेगी, वह अपनी रिपोर्ट देगी। रिपोर्ट में कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाएगा। जिम्मेदारों पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई, इसके लिए फिर कुछ सालों के बाद एक उच्च स्तरीय जांच आयोग बैठेगा। वह जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई न करने वाले जिम्मेदार लोगों को जिम्मेदार ठहराएगा। यही सिस्टम है। मैंने इंडिया के तुमसे ज्यादा ट्रिप किए हैं। ऐसे कई हादसों का साक्षी भी रहा हूं।' दूसरे फरिश्ते ने इमोशनल और बेचैन हो रहे पहले फरिश्ते तो समझाने की कोशिश की।

'लेकिन यह वह हादसा नहीं है, जिसे जांच समितियों, जांच रिपोर्टों में भुला दिया जाए।'

'अब होगा तो वही जो सिस्टम को चलाने वाले 'भगवान' चाहेंगे। और ये हमारे वाले भगवान नहीं हैं, भले ही पूरा सिस्टम हमारे वाले भगवान के भरोसा चलता हो।' दूसरे ने अंतत: बात खत्म की।

और फिर दोनों के बीच चुप्पी छा गई...

'हमारा गंतव्य आ गया है, चलो अब...' पहले ने गोद में सो रहीं मासूम आत्माओं की ओर देखकर कहा। उसकी आंख से आंसू का एक कतरा दूसरे फरिश्ते के हाथ पर टपक पड़ा।

'हां चलो, इन आत्माओं को ईश्वर को सौंपकर इनकी शांति की प्रार्थना करते हैं।'

'और तुम्हारे उस सिस्टम में बैठे लोगों में सद्बुद्धि आए, इसकी भी...'

(ए. जयजीत संवाद की अपनी विशिष्ट शैली में लिखे गए तात्कालिक ख़बरी व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं। मूलत: पत्रकार जयजीत फिलहाल भोपाल स्थित एक प्रतिष्ठित मीडिया हाउस में कार्यरत हैं। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया तीनों का उन्हें लंबा अनुभव रहा है।)

 

शनिवार, 13 नवंबर 2021

Satire : हिंदी के भक्तिकाल की तर्ज पर सिलेबस में जुड़ेगा नया अध्याय – राजनीति का भक्तिकाल

modi-bhakti-kaal, मोदी के भक्त, कंगना रनौत

By Jayjeet

हिंदी सटायर डेस्क, नई दिल्ली। कंगना रनौत के बयान के बाद से ही इतिहासकारों ने साल 2014 में मिली आजादी, इस आजादी के लिए किए गए संघर्ष और इस संषर्घ में भागीदार बनने वाले आजादी के सिपाहियों पर इतिहास लिखना शुरू कर दिया है। लेकिन इस बीच, केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा एक नई पहल करते हुए हिंदी के भक्तिकाल की तर्ज पर पाठ्यक्रमों में ‘राजनीति का भक्तिकाल’ नाम से एक नया अध्याय जोड़ा जा रहा है। इस अध्याय की एक कॉपी hindisatire के भी हाथ लगी है। इसके मुख्य अंश हम अपने अपने पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं :

‘राजनीति का भक्तिकाल’ पाठ के मुख्य अंश :

भारतीय राजनीति में भक्तिकाल का आरंभ ईस्वी 2014 यानी संवत् 2071 से माना जाता है। मोदी भक्त इतिहासकार, जो प्राय: साेशल मीडिया की देन रहे हैं, इसे भारतीय राजनीतिक शासन व्यवस्था का श्रेष्ठ काल मानते हैं। वैसे भक्तिकाल की धारा का उद्गम ईस्वी 2001 से प्रारंभ हो जाता है, जब नरेंद्र नाम के एक चमत्कारी सेनापति ने गुजरात नामक एक प्रांत की बागडोर संभाली थी। ईस्वी 2012 में उनके चौथी बार मुखिया बनने और ईस्वी 2013 में पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद से भक्तिकाल की यह धारा फूट-फूटकर बहने लगी। 2014 के बाद से तो सोशल मीडिया पर भक्ति की ऐसी धारा बही कि कृष्ण के सूरदास, राम के तुलसीदास जैसे दासों की भक्ति तक उसके सामने फीकी पड़ गई। भक्ति की धारा बहाते समय न जात का फर्क रखा, न पांत का।

जाति-पांति पूछे नहिं कोई।
मोदी को भजै सो मोदी का होई।

इस काल में मोदी भक्ति की कई रचनाएं रची गई हैं जो अविस्मरणीय है :

भक्ति जो सीढ़ी मुक्ति की, चढ़ै मोदी भक्त हरषाय।
और न कोई चढ़ि सकै, लात दे गिराय।।
यानी कवि कहता है कि मोदी का जो भक्त मोदी भक्ति नामक सीढ़ी चल लेता है, वह हमेशा प्रसन्नचित्त रहता है। लेकिन जो चढ़ने में हिचक करता है, तो सीढ़ी के ऊपरी पायदान पर बैठे मोदी भक्त उसे लात मारकर और भी नीचे गिरा देते हैं।

मोदी की भक्ति बिन, अधिक जीवन संसार।
धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार।।
यानी कवि कहता है कि मोदी की भक्ति के बिना संसार में जीना धिक्कार है। यह माया (वती) तो धुएं के महल के समान है। इसके खतम होने में समय नहीं लगता।

नेता ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
यहां कवि कहता है कि इस देश को ऐसे नेता की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो ज्योतिरादित्य जैसे सार्थक को बचा लें और मार्गदर्शक मंडलों में बैठे अब निरर्थक हो चुके बूढ़ों को उड़ा दें।

इसी बात को दूसरे शब्दों में कवि इस तरह से भी कहता है :

पार्टी न पूछो नेता की, पूछ लीजिए वोट बैंक का ज्ञान।

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थात नेता की पार्टी न पूछकर यह जानना चाहिए उसका वोट बैंक कितना है। जैसे तलवार का मूल्य होता है, न कि उसकी म्यान का।

इस काल में कड़वा और तीखा बोलने वाले मोदी विरोधी अभक्तों के प्रति कोई नरमाई भी नहीं बरती गई। कवि की ये पंक्तियां स्पष्ट कर देती हैं :
खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
मोदीभक्त करुए मुखन को, चाहिए यही राजद्रोह की सजाय।
अर्थात जिस तरह खीरे का कड़वापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगाकर घिसा जाता है, उसी तरह कटु वचन बोलने वाले के लिए राजद्रोह की सजा को मोदीभक्त उचित मानते हैं।

दो तरह की होती है भक्ति :
इतिहासकारों ने मोदी के प्रति भक्ति को सगुण भक्ति माना है। यानी वह भक्ति जो गुणों की वजह से की जाती है। लेकिन इसी दौरान निर्गुण भक्ति का भी एक दौर चला है। राजनीति में एक खास परिवार के प्रति भक्ति को इतिहासकार निर्गुण भक्ति की संज्ञा देते हैं। यानी वह भक्ति, जो गुणों की वजह से नहीं, परिवार के कारण की गई।

(Disclaimer : यह खबर कपोल-कल्पित है। इसका मकसद केवल स्वस्थ मनोरंजन और राजनीतिक कटाक्ष करना है, किसी की मानहानि करना नहीं।)

# Modi-Bhakti

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

Satire - नेता पटाखे : कोई अनगाइडेड रॉकेट तो कोई फुस्सी बम!

modi bomb, rahul bomb, मोदी बम, राहुल बम

By Jayjeet

अब मार्केट में देवी-देवताओं के नाम वाले बम और पटाखे तो नहीं हैं, लेकिन नेताओं के नाम वाले पटाखों की भरमार हैं। सुप्रीम कोर्ट अपनी गाइडलाइन में कह चुका है कि पटाखे पॉल्यूशन फ्री होने चाहिए। लेकिन इन नेता ब्रांडेड पटाखों पर ये गाइडलाइन लागू नहीं होती है। इसलिए यूजर्स इनका इस्तेमाल सोच-विचारकर ही करें।
मोदी बम : पिछले कई सालों से यह बम सबसे ज्यादा बिकने वाला बम रहा है। इसकी सबसे बड़ी खासियत तो यही है कि यह न केवल जोरदार आवाज के साथ फटता है, बल्कि फटने के बाद भी लगातार आवाज करते रहता है। यह उस समय भी आवाज करता है, जब इसकी जरूरत नहीं होती है।
राहुल बम : यह बहुत ही मजेदार बम है। जब इसे जलाएंगे तब हो सकता है यह नहीं फटे। इसलिए यह अक्सर फुस्सी बम ही साबित होता है। लेकिन सावधान रहें। यह अचानक बगैर जलाए भी कभी भी फट सकता है। ऐसा कई बार हुआ है कि आप हाथ में राहुल बल को रखकर घूम रहे हो और अचानक फटकर पंजे को जख्मी कर गया। वैसे यह ज्यादातर ट्विटर पर वर्चुअल ही फटता है।
सिद्धू रॉकेट : ऐसा कई बार होता है कि आपने कोई रॉकेट जलाया और वह अनगाइडेड मिसाइल की तरह कहीं भी घुस गया। कभी-कभार तो जलाने वाली की लुंगी तक में भी घुसने के मामले सामने आए हैं। सिद्धू रॉकेट के साथ भी ऐसे खतरे बने हुए हैं। इसीलिए सिद्धू ब्रांड के रॉकेट के ऊपर वैधानिक चेतावनी लिखी हुई है : यह रॉकेट ऊपर जाने के बजाय आपके नीचे भी जा सकता है। अपनी रिस्क पर ही छोड़ें।
केजरी तड़तड़ी : यह बेहद मजेदार और एंटरटेनिंग है। पिट-पिट करके जलती है। पहले तो यह जलते-जलते 'मोदी-मोदी' साउंड करती थी। दिल्ली में इसे काफी पसंद किया जाता है। केजरी तड़तड़ी के निर्माताओं को उम्मीद है कि पंजाब से और थोड़ी बहुत गोवा से भी इसकी अच्छी-खासी डिमांड आ सकती है।
चन्नी टिकली : इन दिनों रुपए-पैसों में चवन्नी और पटाखों में टिकलियां मिलनी बंद हो गई हैं। लेकिन अगर बात नेताओं की हो तो वहां चवन्नियों और टिकलियों दोनों की भरमार होती है। राजनीति के पटाखा बाज़ार में जो नई टिकली आई है, उसका ब्रैंड नाम है 'चन्नी टिकली'। वैसे तो टिकलियां वाकई टिकलियां ही होती हैं, लेकिन इन दिनों पंजाब में यह बड़े-बड़े बमों के साथ होड़ कर रही है।
मनमोहन बम : कुछ बम साइलेंट होते हैं। फटने के बाद भी आवाज नहीं करते। मजेदार बात यह है कि यह बम धुआं भी नहीं करता। इसलिए यह बाकी बमों की तुलना में थोड़ा कम पॉल्यूशन करता है। हालांकि इसका मतलब यह भी नहीं है कि इसका असर नहीं होता। फटने के बाद इसके कंपन तो दूर-दूर तक महसूस किए जाते हैं। वैसे राजनीति के पटाखा बाजार में ऐसे बमों का चलन अब कम हो चला है।