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शनिवार, 27 मई 2023
यहां कोई हेडिंग नहीं... फोटोज में दी गईं हेडिंग्स काफी हैं...
मंगलवार, 23 मई 2023
महाराणा प्रताप के वंशज का तमाचा… आवाज न आई, पर शायद चाेट तो लगी होगी!!!
एक छोटी-सी खबर जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा, आज के परिप्रेक्ष्य
में काफी महत्वपूर्ण है। यह खबर उन लोगों को आईना दिखाती है, जिनके लिए पुराने महान
नायकों के नाम पर राजनीति करना शौक बन गया है।
महाराणा प्रताप के वंशज डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने कल महाराणा प्रताप
की जयंती पर एक अखबार को दिए इंटरव्यू में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार
महाराणा प्रताप एक जननायक थे, केवल हिंदू नायक नहीं। उन्होंने यह भी जोड़ा- हकीम खां
सूर (शेर शाह सूरी के वंशज) उनके सेनापति थे।
इस महत्वपूर्ण बात के साथ एक ऐतिहासिक तथ्य और जोड़ते चलते हैं। महाराणा
प्रताप के मुख्य प्रतिद्वंद्वी यानी अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे राजा मानसिंह
प्रथम। कल्पना कीजिए कि कितना दिलचस्प होगा वह नजारा- हल्दीघाटी की प्रसिद्ध जंग का
मैदान। एक तरफ महाराणा प्रताप की सेना, जिसकी अगुवाई कर रहे हैं हकीम खां सूर और दूसरी
तरफ अकबर की सेना जिसकी अगुवाई कर रहे हैं राजा मानसिंह।
लक्ष्यराज सिंह का यह कहना जितना उचित है कि प्रताप केवल हिंदू नायक नहीं
थे, उतना ही उचित यह मानना भी है कि अकबर केवल मुस्लिमों के नायक नहीं थे। ये वे राजा
थे, जिन्होंने कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़े थे। ये किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे
थे, बल्कि ये सच्चे राजा का कर्त्तव्य निभा रहे थे, जिनके लिए अपनी धरती की रक्षा करना
या अपने साम्राज्य का विस्तार करना ही सबसे महत्वपूर्ण था।
उपरोक्त तथ्य यह भी बताता है कि 400 साल में हम कहां से कहां आ पहुंचे।
आज इक्कीसवीं सदी के नेता हमारे वीर प्रताप को हिंदुओं तक सीमित करने का कुत्सित प्रयास
कर रहे हैं और अकबर को तो इतिहास से निकालकर कूड़ेदान में पटक दिया गया है। अकबर के
साथ-साथ राजा मानसिंह सहित उन नवरत्नों को भी जिनमें तानसेन, बीरबल और राजा टोडरमल
भी शामिल हैं।
डॉ. लक्ष्यराज की बात शायद उन लोगों को 'धोखा' लग सकती है, जिन्होंने उन्हें
अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाने के लिए बुलाया था। लेकिन डॉ. लक्ष्यराज ने बहुत ही साफगोई
से यह बात कहकर साबित कर दिया कि वे वीर महाराणा प्रताप के वंशज यूं ही नहीं हैं। हो
सकता है आपको अकबर पसंद ना हो, लेकिन सोचिए, क्या महाराणा प्रताप को हकीम खां सूर,
अकबर और राजा मानसिंह के बगैर याद किया जा सकता है?
(पुनश्च... यह भी हो सकता है कि आने वाले वर्षों में ‘इतिहास पुनर्लेखन’ के नाम पर सेनापति
अदल-बदल दिए जाएं...! तब शायद यह धर्मसंकट भी खत्म जाएगा, जो आज उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य
से कुछ लोगों के सामने खड़ा हो गया होगा। या कोई नया 'ऐतिहासिक तथ्य' यह भी आ सकता है
कि मानसिंह की मां या बहनों को तो अकबर ने बंदी बनाकर रखा था और वह उसे लड़ने के लिए
ब्लैकमेल कर रहा था, बिल्कुल बॉलीवुडी कहानी के खलनायक अजित की तरह... आजकल ऐतिहासिक
तथ्यों को जिस तरह कहानियों जैसा ट्रीट किया जा रहा है तो यह असंभव भी नहीं है...!)
रविवार, 30 अप्रैल 2023
राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!
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By Jayjeet Aklecha
गुरुवार, 27 अप्रैल 2023
बोर्नविटा के बहाने आइए कुछ असल सवाल उठाएं…
By Jayjeet Aklecha
सोमवार, 17 अप्रैल 2023
मेरी रेवड़ी अच्छी, तुम्हारी खराब!!!
By Jayjeet Aklecha
एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में एक बेहद रोचक आंकड़ा सामने आया है। इसके अनुसार 90 फीसदी सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को गलत ठहराया है। फ्रीबीज का मतलब मुफ्त अनाज, लाड़ली बहना टाइप की योजनाएं, बिजली बिलों में छूट, गरीबों को गैस सिलिंडर में सब्सिडी आदि।
यहां वह 10 प्रतिशत का डेटा काफी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने फ्रीबीज का विरोध नहीं किया है। इनके नैतिक साहस की सराहना की जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिन सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज को गलत बताया है, क्या वे इसका विरोध करने का कोई नैतिक आधार भी रखते हैं? आइए कुछ तथ्यों के साथ ही बात करते हैं।
- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर हर साल 4,100 अरब रुपए पेंशन पर खर्च किए जाते हैं। नौकरी खत्म करने के बाद यानी बगैर काम किए यह पैसा फ्रीबीज ही है। हालांकि मैं यह कतई नहीं कर रहा हूं कि यह फ्रीबीज अनुचित है।
- नई पेंशन योजना के तहत अधिकांश सरकारें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी की कुल सेलरी का 14 फीसदी अपनी तरफ से योगदान दे रही है। यानी 5 लाख सालाना वेतन पाने वाले कर्मचारी को हर साल औसतन 70 हजार रुपए सरकार दे रही है (वेतन के हिसाब से यह राशि कम-ज्यादा होगी)। यहां भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह गलत है। पर कमजोर वर्गों को मिलने वाली फ्रीबीज को अनुचित बताने वाले कृपया वह डेटा लेकर आएं, जिसमें लोगों को हर साल कम से कम 70 हजार रुपए सरकार अपनी ओर से दे रही है और आने वाले कई सालों तक देगी।
अब इनमें हर साल मिलने वाले ढेरों अवकाश को भी जोड़ लेते हैं। 100 से 150 तक अवकाश तो होंगे ही। जिन्हें मुफ्त योजनाओं यानी फ्रीबीज का फायदा मिलता है, उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले वे लोग हैं, जिनकी एक दिन की छुट्टी का मतलब एक दिन की कमाई से वंचित होना होता है।
खैर, यह पेंशन-अवकाश के दिन वेतन वाली फ्रीबीज तो उनके लिए हैं, जो जीवन भर ईमानदारी से काम करते हैं। फिर दोहरा रहा हूं कि यह फ्रीबीज पूरी तरह से गलत नहीं है।
अब जरा उस फ्रीबीज की बात कर लेते हैं जो सब कर्मचारियों को नसीब नहीं होती, लेकिन गरीबों को मिलने वाली फ्रीबीज का विरोध करने वाले 90 प्रतिशत में ये भी अवश्य शामिल रहे होंगे। विश्व बैंक के 2019 के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में रिश्वत से सिस्टम को 3,600 अरब रुपए का नुकसान हुआ। यह वह राशि है, जो काउंटेबल थी (व्यावहारिक समझ से हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह बहुत छोटा आंकड़ा है )। रिश्वत में बड़ी राशि काउंटेबल नहीं होती है। भारत का अलग से आंकड़ा नहीं है, लेकिन कुछ सौ अरब रुपए तो मान लीजिए। नेताओं के बाद रिश्वत के ज्यादातर मामलों में सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। तो सरकारी कर्मचारी इस फ्रीबीज के बारे में क्या कहेंगे? अगर देश की सभी लाड़ली बहनों को भी हर माह हजार-हजार रुपए दे दिए जाएं, तब भी वह राशि रिश्वत के बतौर सरकार को होने वाले नुकसान के बराबर नहीं पहुंच पाएगी।
बेशक, वृद्धावस्था में सरकारी कर्मचारियों का ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदार है। निम्न वर्ग को भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता पहुंचाकर उसके आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। और खुले मन से यह स्वीकार करना सम्पन्न समाज की भी जिम्मेदारी है कि कमजोरों को हमेशा मदद की दरकार रहेगी।
हां, फ्रीबीज या रेवड़ियों के पीछे निश्चत तौर पर राजनीतिक मकसद होते हैं। हर रेवड़ी अच्छी नहीं हो सकती। उसी तरह से हर रेवड़ी खराब भी नहीं होती। और अगर खराब होगी तो सभी की होगी। मेरी रेवड़ी अच्छी, दूसरों की खराब, यह न्यायसंगत नहीं!
#freebies #Jayjeet #रेवड़ियां
रविवार, 9 अप्रैल 2023
पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...
पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...
'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो
'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा
मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!
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(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।) |
सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?
जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... !!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!
रविवार, 22 अगस्त 2021
Thousand Feet Above : क्या गजब का नॉवेल लिखा है इस बालिका ने
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ऊर्जा अपने नॉवेल 'Thousand Feet Above' के साथ। |
By रत्नेश
देश में एक असल फिक्शन राइटर का पदार्पण हो चुका है जिसमें असीम संभावनाएं नजर आ रही हैं। यह फिक्शन राइटर हैं महज 16 साल की ऊर्जा अकलेचा (Urja Aklecha)। इनका पहला उपन्यास नॉवेल 'Thousand Feet Above' हाल ही में जाने-माने पब्लिशर Notion Press से न केवल भारत में प्रकाशित हुआ है, बल्कि इसे अमेरिका, ब्रिटेन, जापान सहित करीब 150 देशों में लॉन्च किया गया है।
करीब 200 पेजों का यह नॉवेल 14 साल की एक किशोर बालिका 'अवनि' की कहानी है। यह कहानी कल्पनातीत है। इसे पढ़कर आपको एक बार तो भरोसा ही नहीं होगा कि 16 साल की यंग राइटर किसी कथा को इतनी खूबी के साथ बुन सकती है। लेकिन ऊर्जा ने यह कमाल कर दिखाया है।
'Thousand Feet Above' पहला पार्ट है। यह नॉवेल अपने आप में पूर्ण है, लेकिन इसके आखिर पेज पर लिखा हुआ है - To be Continued... यानी नॉवेल का अगला पार्ट जरूर आएगा।
इस नॉवेल को इसलिए पढ़ना जरूरी है क्योंकि यह बताता है कि फैंटेसी में अब केवल वेस्टर्न राइटर्स का एकाधिकार नहीं रहा है। भारतीय राइटर्स भी फैंटेसी को बुनने लगे हैं, बल्कि बेहतरीन तरीके से बुनने लगे हैं। हालांकि इसका टारगेट रीडर्स 15 से 25 साल के युवा हैं। उन्हीं की भाषा में यह लिखा गया है। भाषा बहुत ही सरल है। इसलिए बेसिक इंग्लिश जानने वाले पाठक भी इसे आसानी से पढ़ सकते हैं। वैसे इसे यह मानकर पढ़ेंगे कि यह केवल 16 साल की बच्ची ने लिखा है, तो और भी मजा आएगा।
नॉवेल की कीमत भारत में 229 रुपए रखी गई है। भारत में यह नॉवेल तीन साइट पर उपलब्ध हैं जिनकी लिंक्स नीचे दी जा रही हैं। नोशन प्रेस और फ्लिपकार्ट पर डिलिवरी चार्ज जीरो है। अमेजन पर 50 रुपए अलग से चार्ज लिया जा रहा है। ई-बुक्स पढ़ने वाले इसकी ई-बुक्स का इंतजार कर सकते हैं जो 30 अगस्त तक आने की संभावना है। उसकी कीमत करीब 50 से 100 रुपए के बीच हो सकती है, यानी काफी सस्ती।
इन लिंक्स के जरिए बुलवा सकते हैं यह नॉवेल :
नोशन प्रेस के लिए यहां क्लिक करें (फ्री डिलिवरी)
अमेजन के लिए यहां क्लिक करें
फ्लिपकार्ड के लिए यहां क्लिक करें (फ्री डिलिवरी)
(Originally published on hindisatire )
रविवार, 1 अगस्त 2021
India in Olympic Games : हमें इमोशनल स्टोरीज की नहीं, क्रूर कहानियों की जरूरत है...
क्योंकि ओलिम्पिक में पदक जीतना केवल खेल नहीं, एक युद्ध है !!
By Jayjeet
हम भारतीय हद से ज्यादा इमोशनल हैं। या हो सकता है इमोशनल होने का नाटक करते हों। पक्के से कुछ नहीं कहा जा सकता। इमोशनल होना अच्छी बात है, लेकिन हर जगह नहीं! दिक्कत यह है कि हर सफलता या थोड़ी बहुत सफलता या विफलता के समय हम बहुत सारी इमोशनल स्टोरीज ले आते हैं। हमें एक सिल्वर पदक मिलता है तो इमोशनल स्टोरी, किसी खिलाड़ी ने हैट्रिक ठोंक ली तो इमोशनल स्टोरी। कोई हार गया तो इमोशनल स्टोरी। इमोशनल स्टोरीज का फायदा यह होता है कि हमें उस छोटी-मोटी सफलता पर ही संतुष्ट होने या हार के लिए बहाना मिल जाता है।
ओलिम्पिक में इतनी सारी और बार-बार विफलताओं के बाद भी खेल अब भी हमारे लिए महज खेल क्यों है? पदक जीतने के लालायित जहां अन्य देश इसे युद्ध मानकर सबकुछ झोंक देते हैं, हम अपने खेल संगठनों पर राजनेताओं या राजनेता टाइप लोगों को बिठाकर आम हिंदुस्तानियों की आंखों में पल रहे सपनों पर धूल क्यों झोंकते रहते हैं?
आज हमारे पास क्या नहीं है? पैसा नहीं है? प्रतिभा नहीं है? जजों को प्रभावित करने का सुवर पॉवर नहीं है (अमेरिका और चीन जैसा!)। तो फिर पदक क्यों नहीं है? लेकिन यह तब तक नहीं होगा, जब तक हम पूरी क्रूरता के साथ जवाबदेही तय नहीं करेंगे। हमें केवल इमोशनल स्टोरीज नहीं चाहिए। केवल जज्बे जैसे शब्द नहीं चाहिए। युद्ध जैसी तैयारियां चाहिए। जब हम सैन्य तैयारियों में अपने सैनिकों के साथ कोई मुरव्वत नहीं करते तो खिलाड़ियों के साथ क्यों होनी चाहिए? जब किसी मोर्चे पर छोटी-सी गलती पर उस मोर्चे के कर्नल या कमांडर के साथ कोर्ट मार्शल करने में नहीं हिचकते तो हमारे खेल संगठनों पर कुंडली जमाए बैठे नाकारा लोगों के साथ कोर्ट मार्शल जैसा कुछ करने से क्यों हिचकिचाते हैं? और सबसे बड़ी बात, जब हम छोटी-छोटी बातों पर भी सरकार/सरकारों को जवाबदेह ठहराने में पीछे नहीं रहते हैं तो ओलिंपिक में ऐसे लचर प्रदर्शन पर सरकार को क्यों बचा लेते हैं? क्या खेलों में सुपर पॉवर बनाने का जिम्मा सरकार का नहीं है?
तो अगर हमें वाकई पदक जीतने की तमन्ना है, इमोशनल कहानियों को डस्टबीन में फेंकना होगा। इमोशन अक्सर कमजोर ही बनाता है। हमें क्रूरता की कहानियां चाहिए। नहीं तो बस टीवी सेट पर एक अदद कांसे की उम्मीदों को तलाशते रहिए। और हर उम्मीद टूटने के बाद बस क्रिकेट पर दोष मढ़ते रहिए।
सोमवार, 24 मई 2021
Not Funny : बड़े वकीलों की दिल्लगी...और कुछ नॉटी गॉसिप्स...!!
By Jayjeet
दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक ऑनलाइन सुनवाई के दौरान देश के कुछ वरिष्ठ वकीलों ने हंसी-दिल्लगी के दौरान एक ऐसे विषय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जो अब गंभीर चर्चा की डिमांड कर रहा है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी एक खबर के अनुसार देश के लब्ध प्रतिष्ठ वकीलों के बीच मजाक का विषय यह था कि कौन-सा वकील सबसे ज्यादा पैसा लेता है। इस हंसी-मजाक में शामिल थे अभिषेक मनु सिंघवी, सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता।
वकीलों ने आपसी मजाक में इस बात का खुलासा किया कि देश के कुछ वकील ऐसे हैं जो महज 10 मिनट की पैरवी के लिए ही दस लाख रुपए तक लेते हैं। इस बात का खुलासा भी हुआ कि सालों पहले वकीलों द्वारा ली जाने वाली भारी-भरकम फीस को अनुचित मानते हुए सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट मुरली भंडारे फीस की ऊपरी सीमा तय करने के लिए प्रस्ताव भी लाए थे जिसे शांतिभूषण ने यह कहते हुए डस्टबीन के हवाले कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ऐसा करने वाला कौन?
वहां ये सब बातें बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में कही जा रही थी और इसलिए ऑनलाइन सुनवाई के लिए जजों के आते ही उनकी इस टिप्पणी के साथ खत्म हो गई कि जज बनने से पहले हम भी वकील थे और जानते हैं कि वकील किस तरह की 'नॉटी गॉसिप' करते हैं।
सही है, बड़े-बड़े वकीलों के लिए तो यह नॉटी गॉसिप ही है। और हमारी न्याय प्रणाली में ऐसी छोटी-छोटी नॉटी गासिपें चलती रहती हैं कि किस तरह लॉकडाउन की तरह कोर्ट केसेस में तारीख पे तारीख बढ़ती रहती है, किस तरह फैसले आने में 30 से 40 साल तक लग जाते हैं, किस तरह लाखों की तादाद में हर साल मामलों के अंबार लगते रहते हैं, किस तरह आज भी हमारा पूरा न्यायिक सिस्टम 40-50 दिन के समर वैकेशन पर जाना समृद्ध परंपरा का अभिन्न हिस्सा समझता है, आदि आदि... ये सब छोटी-छोटी नॉटी गॉसिप्स हैं, इनके क्या मायने भला?
पर इन गॉसिप से इतर एक बड़े सवाल पर चर्चा करना जरूरी है। जब इतने बड़े-बड़े वकील इतनी बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं तो उन्हें देने वाला भी तो बड़ा ही होता होगा। और कोई उन्हें इतनी भारी-भरकम फीस क्यों देता है? अभी कुछ दिन पहले ही हम सबने वेब सीरीज 'स्कैम 92' देखी है। याद कीजिए, वेब सीरीज का वह दृश्य जिसमें राम जेठमलानी की बाजू में हर्षद मेहता बैठा हुआ है। राम जेठमलानी जी स्वर्ग सिधार चुके हैं। इसलिए संस्कार यही कहते हैं कि हम उनके बारे में अच्छी बातें ही करें। तो अच्छी बात यह थी कि उन्होंने जनहित के कई मामले फ्री में लड़ें... हां, फ्री में भी... एक दावे के अनुसार 90 फीसदी मामले उन्होंने फ्री में लड़े। जो पैसा कमाया, वह केवल हर्षद मेहता स्कैम, हाजी मस्तान स्मगलिंग केस, जेसिका लाल मर्डर केस फेम मनु शर्मा जैसों से कमाया। आज जो लब्ध प्रतिष्ठ वकील हैं, जिनमें से कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों से भी जुडे़ हैं, कई मंत्री हैं और कई मंत्री रह चुके हैं, वे भी जनहित के कई मामले फ्री में लड़ते हैं...। वे भी हर्षद मेहताओं, मनु शर्माओं से ही पैसा कमाते हैं या फिर मधु कोड़ाओं जैसे भ्रष्ट नेताओं से। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि भारी-भरकम पैसा देने वाले सभी अपने अपराधों से बच ही जाते होंगे। फिर भी भारी-भरकम फीस दी जा रही है। बड़े-बड़े वकीलों के टैलेंट का इस्तेमाल हो रहा है। यह इस्तेमाल कैसा और कहां होता होगा, हम-आप जैसे सामान्य लोग तो कभी समझ भी नहीं पाएंगे। हम तो बस हिरण हत्याकांड जैसे मामलों की कोर्ट कार्रवाई में कभी-कभार जाते हुए अपने सल्लू भाई को अपने प्रशंसकों के सामने हाथ हिलाते ही देख पाते हैं, कहीं और 'हाथ मिलाते' हुए नहीं...।
खैर, देश को अगर वाकई बदलना है तो क्या इसकी चिंता भी नहीं करनी चाहिए कि वकीलों की फीस कितनी होनी चाहिए? मजाक में नहीं, हकीकत में....पर कौन करेगा, कैसे करेगा, पता नहीं क्योंकि माननीय जज तो कह ही चुके हैं - जज बनने से पहले हम भी वकील ही होते हैं...
तो क्या बेहतर नहीं होगा कि बड़े-बड़े वकील ही इसकी चिंता करें...? क्योंकि जेब वाले कफन बनने तो अभी शुरू हुए नहीं। कफनों को तो मैनुप्यूलेट नहीं किया जा सकता...कम से कम अभी नहीं...!
गुरुवार, 15 अप्रैल 2021
Not Funny & humor : सरकार हमें हमारे भगवान भरोसे छोड़ रही है तो प्लीज शिकायत तो मत कीजिए...!!!
रविवार, 11 अप्रैल 2021
Not Funny : 'तपस्वी' एक साल की तपस्या के बाद फिर से 'गृहस्थ जीवन' में लौट आए हैं...!!
By Jayjeet
सोमवार, 14 सितंबर 2020
#Hindi_Diwas : कमजोर हिंदी दिलवाले इसे ना पढ़ें, सुसाइड जैसी फीलिंग आ सकती है…!!
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हिंदी सटायर डेस्क। आज हिंदी दिवस है। आइए आज केंद्र सरकार के कुछ विभागों की वेबसाइट पर लिखी हिंदी को पढ़ने की कोशिश करते हैं। यकीन मानिए, आप वैसे ही बाल नोंचने की कोशिश करेंगे, जैसा कि चित्र में बताया गया है। कृपया कमजोर हिंदी दिल वाले न पढ़ें।
(मंत्रालयों/विभागों की साइट्स से हमने हूबहू कॉपी उठाई है।ये केवल कुछ उदाहरण हैं। अधिक के लिए खुद ट्राय कीजिए…)
सबसे पहले देश के शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट से…(क्योंकि यहीं से हमें ज्ञान मिलता है)
मौजूदा क्षमताओं के आधार पर तथा बात को मान्यकता प्रदान करते हुए कि स्वंतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा संस्थापओं के वृहत नेटवर्क ने राष्ट्रे निर्माण में अत्यकधिक योगदान दिया है; राष्ट्रक उच्च्तर शिक्षा में उत्कृशष्टंता केन्द्रों के विस्ता्र एवं स्थामपना का दूसरा चरण प्रारंभ करने जा रहा है। यह अभिकल्प्ना की गई है कि इस वर्णक्रम के दोनों सिरों नामत: प्रारंभिक शिक्षा एवं उच्चतर/तकनीकी शिक्षा के सुदृढ़ीकरण से शिक्षा में विस्ता र, समावेशन एवं उत्कृरष्टसता के लक्ष्यों् को प्राप्तव किया जा सकता है।
(अरे बाप रे… बोल्ड करते-करते थक गए। बोल्ड ही समझ में आया, बाकी तो पल्ले ही नहीं पड़ा। )
पासपोर्ट कार्यालय की वेबसाइट से … :
ऑनलाइन नियुक्ति प्रणाली पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) में भीड़ से बचने और आवेदकों के लिए इंतज़ार न करना सुनिश्चित करने के लिए शुरू किया गया है। नियुक्ति एक पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) की हैंडलिंग क्षमता के अनुसार आवंटित कर रहे हैं और एक इलेक्ट्रॉनिक कतार प्रबंधन प्रणाली पर आधारित हैं। पासपोर्ट के लिए आवेदन करने में ऑनलाइन पंजीकरण भरने और ऑनलाइन आवेदन पत्र (वैकल्पिक रूप से, ई फार्म डाउनलोड भरने और ऑनलाइन पोर्टल पर ही अपलोड) प्रस्तुत करने, एक मुलाकात समयबद्धन और अंत में, पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) जाने के लिए ये सभी कदम शामिल हैं|
अधिक जानकारी के लिए ऑनलाइन पोर्टल के मुख पृष्ठ पर ‘त्वरित गाइड’ के तहत ‘मुलाकात के लिए नयी प्रक्रिया’ लिंक पर क्लिक करके अनुभाग को देखें।
(जिस इंग्लिश सेक्शन से अनुवाद किया गया है, हमने उसका अनुवाद गूगल ट्रांसलेट पर डालकर देखा तो इससे कुछ बेहतर सामने आया। तो इसके लिए गूगल ट्रांसलेटर को भी दोष नहीं दिया जा सकता। )
दूरसंचार विभाग की वेबसाइट से…
हम विश्व स्तर की दूरसंचार बुनियादी ढांचे और जुड़े नेशन “कभी भी, कहीं भी” देश के तेजी से सामाजिक – आर्थिक विकास को सक्षम बनाने सेवाओं के प्रावधान की सुविधा के माध्यम से दृष्टि को पूरा.
(अब इस पर क्या कमेंट करें? कमेंट करने लायक भी ना छोड़ा…। इसलिए हम इस मुद्दे को यही छोड़ रहे हैं, क्योंकि कुछ अनहोनी होने की फीलिंग आ रही है…)
(Disclaimer : इस हिंदी को पढ़कर अगर कोई सुसाइड करने की कोशिश करता है तो इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं रहेंगे। हमारा मकसद किसी को सुसाइड के लिए प्रेरित करना नहीं है।)
सोमवार, 31 अगस्त 2020
छह घंटे में राहुल गांधी के वीडियो पर एक भी लाइक नहीं, जानिए क्या है वजह?
30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कही थी। भाजपा के ऑफिशियल यू ट्यूब चैनल पर डले इस वीडियो पर लाइक्स से छह गुना ज्यादा अनलाइक्स आए हैं ( देखें तस्वीर, लाइक्स करीब 100 K, डिसलाइक्स 625 K)। लनलाइक की वजह से यह वीडियो जबरदस्त चर्चा में आ गया है।
लेकिन इतनी ही आश्चर्य की बात और भी है। 31 अगस्त को सुबह करीब 10 बजे राहुल गांधी ने अर्थव्यवस्था की बदहाली पर एक वीडियो डाला। उसे दोपहर में 12 बजे कांग्रेस के ऑफिशियल यू ट्यूब चैनल पर पोस्ट किया गया। शाम को 6 बजे तक यानी करीब 6 घंटे में उस पर न तो एक भी लाइक था और न ही डिसलाइक (देखें राहुल के वीडियो का स्क्रीन शॉट)
आखिर राहुल गांधी के वीडियो पर कोई भी प्रतिक्रिया क्यों नहीं है? इसकी वजह क्या है? humourworld की पड़ताल में पता चला है कि इसकी सीधी सी वजह यही है कि कांग्रेस के जिन लोगों को चैनल पर जाकर राहुल का वीडियो लाइक करना था, वे सभी तो भाजपा के चैनल पर जाकर मोदी के वीडियो को अनलाइक करने में लगे थे।
#modi video #rahul gandhi
(Modi youtube video disliked my many, but rahul gandhi's video on economy also not liked even by a single people )