सोमवार, 19 जून 2023

इस तस्वीर के मर्म को समझिए... समझ जाएंगे कि मर्यादा पुरुषोत्तम का मतलब क्या है!



(और हां, मनोज मुंतशिर भी यह समझें कि जो बोओगे, वही तो काटोगे!)
By Jayjeet
बेशक, आदिपुरुष को बहुत अमर्यादित तरीके से बनाया गया। बेशक, मनोज मुंतशिर ने बेहद अमर्यादित संवाद लिखे। और सफाई में उनके दिए गए बयान तो और भी अमर्यादित, कुतर्क की तमाम पराकाष्ठाओं को लांघ गए। इसका विरोध होना चाहिए था। मैंने भी किया और आज भी करता हूं।
लेकिन कुछ लोगों ने विरोध का जो तरीका अपनाया गया, अब उस पर विचार करने का वक्त आ गया है। क्या उसे हम मर्यादित मानेंगे? जैसा कि मुंतशिर ने कल एक ट्वीट में बताया, कई लोगों ने उनकी मां और परिवार की महिला सदस्यों के खिलाफ भारी अभद्र शब्दों का इस्तेमाल किया है। कौन-सा धर्म किसी मां के खिलाफ अमर्यादित होने की अनुमति देता है? और क्या यह बताने की जरूरत होनी चाहिए कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी, उसके केंद्र में नारी प्रतिष्ठा की रक्षा करना ही मुख्य था?
एक क्षत्रिय संगठन के अध्यक्ष ने कहा, 'फिल्म आदिपुरुष के डायरेक्टर को ढूंढो और मारो।' क्या यह मर्यादा पुरुषोत्तम के क्षत्रिय आदर्शों के अनुरूप है? रामायण कहती है- वास्तविक क्षत्रिय वह है, जो अपने दुश्मन का भी सम्मान करता है।
और कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता तो इस पूरे मामले में अचानक से राजनीति को ले आए- 'हमारे राजीव जी के समय की रामायण तो ऐसी थी और मोदीजी के समय की रामायण ऐसी..' वैचारिक विरोध में भी ऐसी मूढ़ बातें?
और ये तमाम अमर्यादित आचरण किए गए उस एक महान किरदार के नाम पर जिसे हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से जानते और पूजते हैं।
हां, मनोज मुंतशिर जैसों को भी अब समझ में आना चाहिए कि भस्मासुर की कहानियां उन्हीं को सबक देने के लिए लिखी गई हैं। 'जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे', मुहावरा भी शायद उन्हीं के लिए बनाया गया है। राष्ट्रवाद और सनातन के नाम पर उन्होंने भी कोई कम प्रपंच नहीं किए। याद रखना होगा कि चीजें धीरे-धीरे बिगड़ती हैं। उन्हें पाकिस्तान याद आना चाहिए। वहां अतिवादी अंतत: उन्हीं के लिए मुसीबत बन गए, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा था।
मनोज यह भूल गए कि वे लेखक हैं, लेकिन उन्होंने लेखकीय धर्म नहीं निभाया। उनके जैसे लोग यह धर्म निभाते तो धर्म के नाम पर देश आज इस तरह अराजकता के मोड़ पर नहीं पहुंचता।
बस, अगला डर यही है कि दुनिया का सबसे उदार धर्म, जिसने मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे ऐसे महानायक दिए जो शत्रुओं को भी शत्रु नहीं मानते हैं, जिनकी रामराज्य की परिकल्पना में हिरण और शेर एक घाट पर पानी पीते हैं, कहीं उस चौराहे पर ना पहुंच जाए जहां कथित ईश निंदा का मतलब होता है खुलेआम मौत।
और हां, इस तस्वीर के मर्म को समझना बेहद जरूरी है। असहमति का मतलब उसकी प्रतिष्ठा का अपमान करना नहीं है। इसे समझ गए तो देश 'अधर्मयुद्ध' के पागलपन से बाहर आ जाएगा।

रविवार, 18 जून 2023

आदिपुरुष: मनोज मुंतशिर के बयान तो उनके डायलॉग्स से भी एक कदम आगे!! कुतर्कों की पराकाष्ठा है ये...

 


By Jayjeet Aklecha
मनोज मुंतशिर को 'आदिपुरुष' में लिखे उनके डायलॉग्स के लिए शायद एक बार के लिए माफ भी किया जा सकता है, लेकिन अपनी सफाई में दिए गए इन बयानों के लिए क्या उन्हें माफ करना चाहिए?
1. नफरत फैलाने की कोशिश: जैसे ही मूवी का विरोध शुरू हुआ, उनका बयान आया- 'मूवी का विरोध वे लोग कर रहे हैं जिन्हें थिएटर में गूंजते जय श्री राम के नारों से आपत्ति है।'
यहां उन्होंने दो वर्गों के बीच फैली नफरत की आग को और फैलाने की विफल कोशिश की। शुक्र है लोग उनके भरमाने में नहीं आए।
2. भावनाओं को कैश करने की कोशिश : जब विरोध बढ़ा तो उनका बयान था - 'यह रामायण पर आधारित नहीं है।'
लेकिन मूवी के एक दिन पहले का उनका ट्वीट देखिए - 'श्री राम की सेना….आज बजरंग बली की सीट छोड़कर, पूरा थियेटर भर देना! जय श्री राम!' निश्चित तौर पर वे रामायण की लोकप्रियता के साये में हिंदुओं की भावनाओं को कैश करने की कोशिश कर रहे थे। तो वे कम से कम अपने स्टैंड पर ही टिके रहते।
3. नई पीढ़ी को दिग्गभ्रमित करने की कोशिश: और जब दोनों बयान काम नहीं आए तो उन्होंने कहा, 'मैंने आज की भाषा में डायलॉग्स लिखे हैं, ताकि नई पीढ़ी को समझ में आ सके।'
नई पीढ़ी आज भारतीय संस्कृति, हिंदू जीवन शैली, हिंदू मॉयथोलॉजी को समझने के लिए काफी तत्पर हैं। उसे सही भाषा में सही ज्ञान देने की जरूरत है। पर मनोज आज के बच्चों को क्या समझाना चाहते थे? यह कि हनुमान जी एक टपोरी जैसे थे? (क्योंकि फिल्म में उनकी भाषा से तो उन्हें जाने-अनजाने यही दिखाने की कोशिश की गई )। फिर समझ के मामले में उन्होंने आज की पीढ़ी को जरा अंडर एस्टीमेट नहीं कर लिया?
कुल मिलाकर आदिपुरुष ने वह सुनहरा मौका खो दिया, जिसके जरिए पूरे देश-दुनिया को श्रीराम के असल आदर्शेों के बारे में बताया जा सकता था। नई पीढ़ी को बताया जा सकता था कि हिंदू जीवन शैली वास्तव में है क्या। और इस अवसर को खोने के लिए केवल मुंतशिर ही नहीं, फिल्म निर्माण से जुड़े सभी लोग जिम्मेदार हैं।

राही मासूम रज़ा V/S मनोज मुंतशिर...!!

Jayjeet Aklecha

बायीं तरफ की तस्वीर में दिवंगत राही मासूम रज़ा दिखाई दे रहे हैं। इन्होंने 'महाभारत' धारावाहिक की पटकथा और संवाद लिखे। कितने परिष्कृत, कितने नफ़ीस, शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है। दाहिनी ओर के शख्स मनोज मुंतशिर हैं। इन्होंने 'आदिपुरुष' के संवाद लिखे हैं, और ऐसे कि पूरी मूवी विवादों में आ गई है।
ये उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि हवा-हवाई बातें कहने से आप संस्कृति और राष्ट्रवाद के ठेकेदार जरूर बन सकते हैं, लेकिन संस्कृति के असल ध्वजवाहक नहीं।
यह उदाहरण ये सवाल भी पेश कर रहा है कि आप किसी व्यक्ति का मूल्यांकन केवल इस आधार पर करेंगे कि वह किस धर्म या जाति में पैदा हुआ या इस आधार पर कि देश और उसकी संस्कृति को लेकर उसे कितना इल्म है? या कड़े शब्दों में कहें तो उसमें कितनी तमीज है?

बुधवार, 14 जून 2023

यथा जनता तथा नेता!


Jayjeet Aklecha/जयजीत अकलेचा


सभी विधर्मी पार्टियों को 'काफ़िर' भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए। चुनाव जीतने का सभी को बड़ा आसान-सा नुस्खा थमा दिया है। कहीं मंदिर चले जाओ, कहीं घाट पर आरती उतार आओ। कभी मंदिरों का निर्माण करवा दो, कभी किसी देवता के नाम पर करोड़ों रुपए का परिसर बनवा दो। लैटेस्ट आकर्षण भांति-भांति के बाबाजी हैं। किसी बाबाजी के चरणों में गिर जाओ, कभी उनसे अपने क्षेत्र में कथा करवा लो। सभी बाबाजी पार्टी लाइनों से ऊपर उठे हुए हैं। वैसे पार्टियों के बीच की ही लाइनें मिट गई हैं तो ये बेचारे बाबा बेमतलब में बंटकर अपनी मोह-माया का नुकसान क्यों करें!

लिहाजा; शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्लोबल वार्मिंग एवं एआई के संभावित खतरों, बढ़ते भ्रष्टाचार आदि बेकार के मुद्दों पर गंभीर चर्चा करने की अब कतई जरूरत नहीं है।
वैसे भी पांडालों में प्रसाद मिल ही रहा है और सरकारों के दरवाजों पर रेवड़ियां। जनता का पेट तो वैसे भी छोटा होता है। उसे और क्या चाहिए!
भाड़ में जाए आर्थिक विकास और वैज्ञानिक तरक्की। हमारे पास अपना खुद का एक अदद मोबाइल फोन तक नहीं है, तो क्या हुआ? चाइना बाजू में ही है। ढंग का ऑपरेटिंग सिस्टम तक नहीं है। कोई बात नहीं। अमेरिका पक्का मित्र है।
हां, बस चिंता है तो भारत के विश्व गुरु बनने की। लेकिन इसकी भी चिंता ना करें। एक न एक दिन कोई न कोई सरकार भारत देश का नाम बदलकर 'विश्व गुरु' कर ही देगी। तो यह चिंता भी खत्म!

शनिवार, 10 जून 2023

जहां वाकई 'जीरो टॉलरेंस' की जरूरत, वहां साबित हो रहे हैं 'जीरो'! तो बाकी जगह हीरोगीरी करने का क्या फायदा?




By Jayjeet Aklecha (जयजीत अकलेचा)

 

दो दिन पहले की खबर है। भोपाल में एक निर्माणाधीन सड़क के बीच में आ रहे पीपल-बरगद के दो पेड़ों को काटा जाने वाला था। लेकिन क्षेत्र की जागरूक महिलाएं आगे आईं, विरोध किया। और लाड़ली बहनाओं के भाई ने तुरंत एलान कर दिया- पेड़ नहीं कटेंगे, भले ही सड़क का काम रुक जाए। विकास पर हरियाली को वरीयता! वाकई प्रशंसनीय बात थी। राज्य के कर्णधारजी हर दिन रोजाना एक पौधा लगाते हैं। उन्हें यह उपक्रम करते हुए ढाई साल हो गए हैं। बेशक, यह भी प्रशंसनीय है।

लेकिन जब जंगल के जंगल साफ होने की खबरें आती हैं (देखें साथ लगी भयावह तस्वीर) तो उक्त सारी प्रशंसाओं पर पानी फिर जाता है। तब ये प्रशंसाएं महज गुलदस्ते में लगे प्लास्टिक के फूल की माफिक नजर आने लगती हैं। क्या कोई मान सकता है कि जंगल साफ हो रहे हों और जिम्मेदार अफसरों को खबर न लगे? ये वही मुख्यमंत्री हैं, जिनके राज्य के एक कलेक्टर ने दो दिन पहले लाड़ली बहना योजना में लापरवाही करने पर दो आंगनवाड़ी कर्मचारियों को जीरो टॉलरेंस दिखाते हुए तत्काल प्रभाव से बर्खास्त कर दिया था। लेकिन जहां असल जीरो टॉलरेंस दिखाने की जरूरत है, वहां यह सरकार, उसके कर्णधार और कर्णधार के बड़े-बड़े अफसर महज जीरो साबित हो रहे हैं।

सरकार और सरकार में बैठे लोग स्वयं को बार-बार सनातनी होने का दावा करते हैं, और उनके दावों पर कोई शक भी नहीं। लेकिन सनातनी होने का मतलब केवल धर्मांतरण पर हवा में मुटि्ठयां तानना भर या एक स्कूल को नेस्तनाबूद करना भर नहीं है। अगर आप सच्चे सनातनी हैं तो प्रकृति को नाश करने वालों के खिलाफ भी मुटि्ठयां तानें। जंगलों को तबाह करने वालों को तबाह करें। क्या किसी भी सनातनी को बताने की जरूरत है कि हिंदू मायथोलॉजी के अनुसार देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी ही ‘प्रकृति हैं! आखिर सनातनी लोग प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? कैसे कर रहे हैं?

याद रखिए, महाकाल धैर्यवान हैं, लेकिन उनके भी धैर्य की एक सीमा तो होगी! वे बीच-बीच में धैर्य खोने भी लगे हैं। यह दिखने लगा है। हर असामान्य आंधी-तूफान में मुझे उनके गुस्से की झलक नजर आती है। आपको भी आती होगी। लेकिन उन्हें अवतरित होने के लिए विवश मत कीजिए। वे अपनी प्रकृति की सार-संभाल करने की जिम्मेदारी हमें सौंप गए हैं।

#ShivrajSinghChouhan #MP

गुरुवार, 8 जून 2023

कैसे पता चलता है कि मानसून आ गया है?

 


कैसे पता चलता है कि मानसून (Monsoon) आ गया है? देख सकते हैं ये वीडियो...

अवकाश कैलैंडर के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर!



अगर ऐसा ही चलता रहा (और चलेगा ही) तो दो-चार साल में मप्र में शासकीय अवकाश कैलैंडर जारी करने के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर जारी करना पड़ेगा। इसमें बताया जाएगा कि सरकारी कर्मचारियों को किस महीने एक या दो दिन दफ्तर आना है।

यहां भी कर्मचारी इस बात पर अफसोस करेंगे कि फलाना छुट्टी शनिवार या रविवार को नहीं आती तो पूरे महीने भर की छुट्‌टी मिल जाती या दो महापुरुषों के एक ही दिन पैदा होने से अब उन्हें इस हफ्ते बुधवार को ऑफिस जाना होगा।
(हालांकि अभी साल में कुल मिलाकर केवल और केवल 182 दिन ही अवकाश लिए जा सकते हैं। यानी एक माह में मात्र 15 दिन। सरकार को इस पर तेजी से काम करना होगा। )

शुक्रवार, 2 जून 2023

भेड़िया आया भेड़िया आया… क्यों याद आ गई यह भूली-बिसरी कहानी!



By Jayjeet
यहां दी गई तस्वीर को याद रखिए, इसकी बात सबसे अंत में... सबसे पहले एक भूली-बिसरी कहानी की बात...
आज अचानक 'भेड़िया आया भेड़िया आया' की कहानी याद आ गई। हमारे यहां इन दिनों धर्मांतरण का परिदृश्य भी कुछ-कुछ इसी तरह का नजर आ रहा है। घास पर जरा-सी आहट नहीं हुई कि जोर-शोर से 'भेड़िया आया' का शोर उच्चारित होने लगता है और लोग हाथों में डंडे लिए धमक पड़ते हैं। कहानी वाले उसे लड़के का वह शोर केवल मन बहलाव का साधन था, लेकिन आज का यह शोर डराता है। विडंबना यह कि दोनों समुदायों को। हां, डराने से वोट मिलते हैं, लेकिन डरने-डराने के इस खेल से अलग से यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर 9-10 साल के भगवा शासनकाल के बाद भी देश का बहुसंख्यक समुदाय डर रहा है तो क्या उसे अपने प्रिय हिंदू हृदय सम्राटों से हाथ जोड़कर घर बैठने की विनती नहीं करनी चाहिए?
खैर, ताजा मामला मप्र के एक स्कूल का है। भारत की दो पवित्र नदियों गंगा-जमुना के नाम पर स्कूल का नाम है। संयोग से स्कूल के संचालक मुस्लिम हैं। हां, स्कूलों को स्कार्फ जैसी ड्रेस को ड्रेस कोड बनाने से बचना चाहिए, लेकिन इसके बावजूद केवल इस आधार पर इस स्कूल पर धर्मांतरण का आरोप लगाना फिर उसी भेड़िया आया की कहानी को दोहराना है। अल्लामा इकबाल को पसंद न करने और उन्हें खारिज करने की ढेरों वाजिब वजहें हो सकती हैं और हैं भी, इसके बावजूद राष्ट्रगान के साथ उनकी नज्म को पढ़वाने के आधार पर स्कूल को 'धर्मांतरण का केंद्र' बताना 'भेड़िया आया' का दूसरा शोर है।
'भेड़िया आया' का यह शोर ईसाई मिशनरीज स्कूलों व कॉलेजों को लेकर भी बीच-बीच में उठाया जाता रहा है। लेकिन आप चाहे ईसाइयों से लाख नफरत कर लें, इस सच को खारिज नहीं कर सकते कि देश में लाखों होशियार बच्चे इन्हीं मिशनरीज स्कूलों-कॉलेजों की देन हैं। अपेक्षाकृत सस्ती और बेहतर शिक्षा की गारंटी प्रदान करने वाली इन मिशनरीज स्कूलों के बरक्स ऐसी ही स्कूलें हमारे यहां के बहुसंख्यक समुदायों ने शुरू की हों, बहुत ज्यादा नजर नहीं आती हैं। विडंबनापूर्ण हकीकत यह भी है कि हिंदू हृदय सम्राटों के अनेक कट्टर समर्थकों के बच्चे भी इन मिशनरी स्कूलों में पढ़ रहे हैं या पढ़-लिखकर कई अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं।
बेशक, आर्थिक मोर्चे पर कुछ अच्छी खबरें सुकून दे रही हैं, लेकिन 'भेड़िया आया भेड़िया आया' का शोर इस सुकून को भंग करने का काम रहा है। मुझे यकीन है कि सरकारों में अब भी कुछ समझदार लोग बैठे हैं। बेहतर होगा कि वे जरा इन आवाजों को काबू में करें, ताकि असली और नकली भेड़ियों को पहचाना जा सके और अनावश्यक डर के माहौल को थोड़ा शांत किया जा सके।
और अब यहां दी गई तस्वीर की बात... जब मुझे इस तरह की लड़कियां धूप से बचने की कवायद करती नजर आती हैं तो मन में सूरज देवता के लिए संवेदनाएं और आशंकाएं भर जाती हैं... कहीं उन पर भी धर्मांतरण की साजिश में शामिल होने का आरोप ना लग जाएं... क्योंकि चेहरे पर किसी भी स्कार्फ को हिजाब बताए जाने का फैशन है इन दिनों...।
और आगे जाकर स्कार्फ पहनने की ये स्वतंत्रता भी छिन ली जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। धार्मिक पागलपन महिलाओं की आजादी को कुलचने के साथ ही आगे बढ़ता है... कहीं जबरदस्ती हिजाब पहनाकर तो कहीं जबरदस्ती स्कार्फ हटवा कर…!
(Disclaimer : तस्वीर केवल प्रतीकात्मक है जो गूगल से ली गई है।)