बुधवार, 26 मार्च 2014

भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं ...

Satire on those politicians who want to get involved in politics in their 80s or 90s. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 

 

भाईजी 90 साल के हो चुके हैं। दांत अब नहीं रहे, लेकिन हाईकमान की बैठकों में जाते हैं तो नकली दांत लगाकर जाना पड़ता है। खीसें निपोरने में वही काम आते हैं। चूंकि समस्या बड़ी गंभीर है और वक्त हंसने का नहीं है, इसलिए अभी दांत काॅर्नर टेबल पर रखे गुलदस्ते के पीछे पड़े सुस्ता रहे हैं।

वैसे तो भाईजी ने नौ दषक में सब कुछ देख लिया। इसलिए माया से मोह रहा नहीं। लेकिन इच्छा थी कि जब देष ने उन्हें इतनी सेवा का मौका दिया तो आखिरी बार एक और सेवा का मौका दे दें, तो गंगा नहा लें। लेकिन पार्टीवालों ने उन्हें सरेआम धोखा दे दिया। बुजुर्गांें की कोई इज्जत ही नहीं रही। पार्टी हाईकमान को कम से कम देष की भावनाओं की तो कद्र करनी थी। लेकिन नहीं, बोल दिया, दद्दा आराम करो। अरे कभी आराम किया दद्दा ने! गंगा मैया की कसम, हमेषा सेवा में लगे रहे। कभी इस एयरपोर्ट तो कभी उस एयरपोर्ट। कभी पार्टी के काम से तो कभी प्राॅपर्टी के काम से, कहां-कहां नहीं गए!
तो भाईजी पार्टी का टिकट नहीं मिलने से तन्ना रहे हैं। अब आवाज तो मुंह से निकलती नहीं, लेकिन चेहरे के हाव-भाव बता रहे हैं कि वे मन ही मन पार्टी हाईकमान की कितनी ऐसी की तैसी कर रहे हैं। तभी उनके किसी खास चमचे ने सलाह दी, ‘दद्दा, आप तो निर्दलीय चुनाव लड़ लो। पूरी पार्टी आपने खड़ी की है। अपने एरिया के पार्टीवाले तो आपके साथ हैं ही।’ भाईजी को अब दिखता कम है। इसी का फायदा उठाकर कुछ चमचे वहां से खिसक लिए। भैया रिस्क कौन ले! कौन चमचा हाईकमान का जासूस निकल आए, क्या भरोसा। भाईजी बुढ़ा गए हैं, तो क्या हुआ, अभी हमारा तो पूरा बुढ़ापा बाकी है।

इस बीच, दिल्ली से फोन आ गया। पता चला कि हाईकमान उन्हें कहीं एडजस्ट करने की कोषिष कर रहा है। अब भाईजी को सुनाई कम देता है। मषीन ने भी हार मान ली हैं, इसलिए उनके खास चमचे ने ही फोन रिसीव किया। फोन कटते ही इषारों ही इषारों में बताया, ‘दद्दा बधाई हो, पार्टी ने कहा है कि सत्ता में आने के बाद आपको फलाने राज्य के राजभवन की सेवा में लगा दिया जाएगा।’ भाईजी के तन्नाए चेहरे की झुर्रियां नाच उठीं। अब समझ में आया कि पार्टी उन्हें आराम करने को क्यों कह रही थी। इस बीच, भाईजी के निर्दलीय चुनाव लड़ने की आषंका समाप्त होते ही वे चमचे लौट आए हैं, जो खिसक लिए थे। वे अब नारे लगा रहे हैं, भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है। भाईजी का संघर्ष जारी है, व्हील चेहर पर चढ़ने का संघर्ष। वे अब बेडरूम में जा रहे हैं। भाईजी के सोने का समय हो गया है। देष सेवा में लगने से पहले थोड़ा एनर्जेटिक हो जाए!
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

सरकारी फाइल और कछुए में महामुकाबला

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

सरकारी फाइल को शुरू से ही कछुए से काॅम्पलैक्स रहा है। जब-तब उस पर कछुए का टैग लगता रहा है। तो एक दिन उसने ठान लिया कि कछुए को उसकी औकात बतानी ही होगी। उसने कछुए के साथ रेस लगाने का ऐलान कर दिया। और कछुए को तो देखिए, उसने भी हां कर दी। भोला-भंडारी। सोचा ही नहीं कि इज्जत तो उसी की दांव पर लगेगी। सरकारी फाइल का क्या!

नियत समय पर रेस शुरू हुई। कछुआ तेजी से आगे बढ़ा। लेकिन सरकारी फाइल टस से मस नहीं हुई। दरअसल, उसने खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। उसने सुना था कि खरगोश तेजी से आगे चला था। इसलिए हार गया। फाइल ने सरकारी निष्कर्ष निकाला- जो आगे चलेगा, वह हारेगा। इस बार कछुआ आगे चला है तो वह हारेगा ही। जबरदस्त काॅन्फिडेंस। और फिर इसी काॅन्फिडेंस में सरकारी फाइल किसी सरकारी दफतर में जाकर सो गई।

उधर, कछुआ तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था। उसने भी अपने पुरखों से खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। इस कहानी के आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला- जिस रेस में भी कछुआ शामिल होगा, उसे कछुआ ही जीतेगा। फिर उसने सरकारी फाइलों की महानता के किस्से भी सुन रखे थे। इसी काॅन्फिडेंस में वह भी सो गया।

वर्षों बीत गए। दोनों अपने-अपने काॅन्फिडेंस में सोते रहे। फिर एक दिन अचानक सरकारी फाइल की नींद खुल गई। खुल क्या गई, उसे झिंझोड़कर जगाया गया था। वह पेंशन की फाइल थी। जिसका केस था, वे बड़े आदर्षवादी और आशावादी किस्म के इंसान थे। उन्हें उम्मीद थी कि कभी तो फाइल जागेगी और आगे बढ़ेगी। लेकिन जीते-जी उनकी यह तमन्ना पूरी नहीं हो पाई और वे पीछे छोड़ गए 85 साल की बुढ़िया, अपनी पत्नी। इस बीच, उनका पोता समझदार हो गया। नई पीढ़ी का बंदा है। प्रैक्टिकल है। उसे पता है कि फाइल को जगाना होता है, अपने आप नहीं जागती है और न ही आगे बढ़ती है। वजनदार ठोकर मारो तो जागती है। बड़ी उल्टी चीज है कमबख्त। पीठ पर जितना वजन होगा, उतनी तेजी से आगे बढ़ेगी।

तो पोता समझदार था, नया अफसर उससे भी ज्यादा समझदार था। अफसर ने फाइल को जोरदार लताड़ लगाई, ‘तुम यहां सोने आई हो? ऐसे तो काम हो लिया।’

‘लेकिन सर, पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे।’ फाइल बोेली। फाइलें भी समझदार होती हैं। जो बात अफसर अपने मुंह से नहीं कह सकता, उसे फाइल कह देती है। चूंकि पोता बहुत ज्यादा ही समझदार है। इसलिए उसने फाइल के उपर वजन रखा। अब फाइल फर्राटे से आगे बढी।

और अब क्लाइमेक्स देखिए... रास्ते में उसे एक कछुआ मिला। उसे वह कछुआ याद आ गया। इस कछुए के नाक-नक्ष वैसे ही थे, जैसे उस कछुए के थे, लेकिन यह वह नहीं था। पता चला कि यह उस कछुए का पोता है व किसी और सरकारी फाइल के साथ रेस लगा रहा है।

चट भी अपनी, पट भी अपनी

I wrote this Satire when Telangana issue was on fire. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




समस्या बड़ी गंभीर है। इसलिए उनके माथे पर चिंता की लकीर भी उसी अनुपात में गहरी है। आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक कई मौके आए होंगे, लेकिन माथेे की लकीर इतनी गहरी कभी नहीं हुई। जब मंत्री थे तो कई काम चुटकियों में हल कर देते थे। दो-चार लाख के लिए कभी झिक-झिक नहीं की। बड़ा दिल। थोड़ा कम ज्यादा होने पर भी माथे पर कभी बल नहीं पड़ा। कोई आज के नेता हैं भला! आजादी की लड़ाई के समय के नेता हैं। जेल भी गए थे। ऐसा वे खुद कहते आए हैं और अब सबने मान भी लिया है। उसका ताम्रप़त्र भी है, और क्या सबूत चाहिए? हां, देष हित में पेंषन का त्याग कर रखा है। वैसे देष ने उन्हें बहुत कुछ दिया है, ऐसे में वे पेंषन तो छोड़ ही सकते हैं। रिष्तेदारों के नाम पर पांच पेट्रोल पम्प, गैस की दो एजेंसियां हंै। कुछ साल पहले बडे बेटे के नाम पर माइन भी लीज पर मिल गई थी। चार-पांच कोठियां है। देष ने जब उन्हें इतना दिया, तो वे भी कहां पीछे रहे हैं। सूद सहित लौटा रहे हैं। पहले खुद को समर्पित कर दिया। फिर दोनों बेटों को देषसेवा में झोंक दिया। आज दोनों एमएलए हैं। दामाद भी बड़ा सेवाभावी मिला। नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है। तीन पोते अलग-अलग पार्टियों की युवा षाखाओं का दायित्व संभाले हुए हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि पूरा परिवार ही राष्ट को समर्पित है।
‘आप बताइए, क्या करें!’ बड़े एमएलए बेटे ने पूछा।
‘तुम दोनों में से एक को इस्तीफा देना होगा। तुम तय कर लो कि किसे देना है इस्तीफा।’
‘लेकिन इस्तीफा देने की जरूरत क्या है?’ छोटे एमएलए बेटे ने पूछा।
‘बिल्कुल मूरख हो, बाप को लजाओगे। लोग कहेंगे, चाणक्य के घर कैसे मूढ़ पैदा हुए।’
‘लेकिन ऐसा करने से क्या अपने स्टेट को बंटने से बचाया जा सकेगा?’
‘भाड़ में जाए स्टेट, राजनीति को समझो मूरखों। एक को अलग राज्य की मांग करने वालों के पक्ष दिखना होगा और वह इस्तीफा नहीं देगा। दूसरा अलग राज्य की मांग के विरोध में इस्तीफा देगा। अब भविष्य में जो होगा, वह होगा, लेकिन एक का तो मंत्री बनना तय हो जाएगा ना। मैं पूरे परिवार के भविष्य की सोचकर चल रहा हूं। अब राजू, गणेष, सुरेष - तीनों पोते- को अलग-अलग पार्टियां पकड़ने को क्यों कहा? इसीलिए ना कि षासन किसी भी पार्टी का हो, परिवार का दाना-पानी चलता रहे, रूखी-सूखी रोटी मिलती रहे।’
‘लेकिन इस्तीफा देना क्या इतना ही जरूरी है?’ छोटा अब भी अड़ा हुआ है।
‘देखो, राजनीति का 60 साल का अनुभव है, आज तक मैं ने कई बार इस्तीफे दिए, लेकिन स्वीकार कभी नहीं हुआ। यह पूरा देष नाटक नौटंकी में बड़ा विष्वास करता है और उसे ही सही मानता है। इसलिए बेटों, राजनीति में टिकना हो, तो ऐसी नौटंकियों में माहिर होना पड़ेगा। देषसेवा यूं ही नहीं होती, समझें। जयहिंद!’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नेताजी चले रीढ़ निकलवाने

Comment on our political leaders.  
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

 पिछले कई दिनों से नेताजी की रीढ़ की हड्डी चटख रही थी, बहुत दर्द हो रहा था। राजनीति में इतने साल हो गए है तो अब दर्द तो उठना ही था। वार्ड से षुरुआत की थी, तब पहली बार अपनी पार्टी के वार्ड प्रमुख के सामने रीढ़ झुकी थी। इसके बाद रीढ़ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। झुकना-उठना चलता ही रहा। कई बार तो ऐसे भी मौके आए कि महीनों तक यूं झुकाकर ही रहना पड़ा। रीढ़ दिल की बहुत दिलदार थी। इसलिए झुक गई, लेकिन टूटी नहीं। फिर नेताजी भी पक्के देषभक्त और ईमानदार। सत्ता में जो भी आता, उसके प्रति पूरी निष्ठा दिखाते और जब-जब भी अवसर आता या नहीं भी आता, तब-तब पूरी ईमानदारी के साथ रीढ़ झुकाने को तत्पर रखते। कहीं कोई ना-नुकुर नहीं।

लेकिन अब तो इंतहा हो गई। दर्द है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है। डाॅक्टर के पास गए तो डाॅक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए। झुक-झुककर कलपुर्जे ढीले पड़ गए हैं। डाॅक्टर भी क्या करे! अब उनके ही किसी पट्ठे ने सुझाव दिया, ‘नेताजी, आप तो रीढ़ ही निकलवा दीजिए।’
‘अबे क्या बकता है, रीढ़ ही नहीं रही तो फिर झुकूंगा उठूगा कैसे?’
‘अब उठना क्या, झुके रहो हरदम। कोई मना करता है क्या? राजनीति में रीढ़ ताने खड़े रहने का भी कोई मतलब है क्या! ऐसे कितने ही लोगों की रीढ़ टूट गई। आप ही तो कहा करते थे कि राजनीति में रीढ़ होती ही है झुकाने के लिए।’
लेकिन नेताजी अब भी कन्फ्यूज हंै। बार-बार रीढ़ पर हाथ फेर रहे हैं, थोड़ी-सी भी सीधी करते तो कड़-कड़ सी आवाज होती। पता नहीं लचक कहां चली गई।
‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं तो फिर कहता हूं निकलवा ही लीजिए। जो थोड़ा बहुत दर्द आपको उठता भी है, वह भी गायब हो जाएगा, रीढ़ ही नहीं रहेगी तो काहें का दर्द। मुंषीजी को देख लो, जबसे रीढ़ हटवाई है, ताजगी महसूस कर रहे हैं। और मुझे तो लगता है, वह रीढ़ ही थी जो सालों से उन्हें मंत्री नहीं बनने दे रही थी।’
नेताजी पचास साल से राजनीति में हैं और अपनी रीढ़ को ढोए जा रहे हैं। जिस पार्टी में गए, रीढ़ को साथ ले गए। उनका मानना है कि अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए रीढ़ का होना जरूरी है, क्योंकि यही तो एक पैमाना होगा कि मेरी रीढ़ उसकी रीढ़ से कितनी ज्यादा झुकी। लेकिन फिर उनके सामने ऐसे कई लोगों के चेहरे घूम गए जिन्होंने राजनीति में आने से पहले ही रीढ़ निकलवाकर अपने-अपने घरों के तहखानों में रखवा दी थी। अब वे सभी उंचे ओहदों पर हैं। अपने पट्ठे की बात उन्हें भी जंच गई और वे अस्पताल की ओर चल पड़े, रीढ़ निकलवाने।

सरकार के क्रमिक विकास का सिद्धांत

A satire how government/administration works in our country 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। सुनिए...
बहुत पुरानी बात है। एक दिन ईष्वर को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ करते-धरते नहीं। क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने की सोची (इसी का नाम बाद में सरकार पड़ा)। इसके लिए उसने कुछ लोगों की भर्तियां की। लेकिन बाद में वे भूल गए। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते (यही लोग बाद में सरकारी कर्मचारी कहलाए)। महीनों बीत गए। फिर कुछ ने सोचा कि चलो, कोई ठिकाना ढूंढ लेते हैं (यही ठिकाने बाद में दफतर के नाम से गौरवान्वित हुए)। दफतर मिल गया। सब लोग खुष हुए। सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।
अब लोग थे। दफतर भी थे, मगर खाली-खाली। महसूस हुआ कि दफतर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ ने कहा, चलो बाजार से खरीद लेते हैं। लेकिन कुछ समझदारों ने कहा, नहीं सब कुछ सिस्टमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं उंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यहीं से टेंडर अस्तित्व में आए। टेंडर बुलाए गए। कुछ लोग टेंडर के काम में लग गए। टेंडर के कार्य के लिए पिछले दरवाजे से कुछ टेबलें बुला ली गई। कुर्सियां बुलाना भुल गए, लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। कुछ लोग टेबलों के उपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट हो गया। यहीं से लोगों को ज्ञान हुआ कि जो काम टेबलों के नीचे से आसानी से हो सकता है, वह उपर से नहीं हो सकता। खैर, पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए। सरकार और आगे बढ़ी।
इतने में ईष्वर को सरकार वाली बात याद आ गई। इंसानों द्वारा अब तक की गई प्रगति को देखकर ईष्वर खुष हुआ। उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों को मुखिया बना दिया। लेकिन अब वे सब मुखिया क्या करते? बैठे रहते। फिर सरकार के मुखिया को याद आई वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थी। वे धूल खा रही थी। उसने विभागीय मुखियाओ को आदेष दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के मुखियाओं के दिन फिरे। उन्हें काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्ष करें। बचे-खुचे लोगों को भी काम मिल गया। वे अब चर्चा और परामर्ष करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलांे को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। कभी अटक भी जातीं तो कोई समझदार उन पर वजन रख देता। वे फिर चलने लगती। सरकार अब दौड़ने लगी थी।
इस बीच राज्य में कुछ ऐसे समाज विरोधी तत्व पैदा हो गए थे, जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने षुरू कर दिए थे। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए! लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया (यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की षुरुआत हुई)। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता तो पहले से ही चुप थी। चुप रहना मानो उसका आनुवांषिक गुण हो। इसीलिए वह आज भी चुप रहती है और युगों-युगों तक चुप रहेगी। भला उसका ऐसे सवालों से क्या लेना-देना?
सरकार चलती रही। सालों बीत गए। फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने केलिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला तो फाइलें पुट-अप करते-करते बुढ़े हो गए थे। कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही। आज भी चल रही है, बिंदास। इति दंतकथा।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती
 




लाखों हाथ से निकल गए

Funny satire on Dahej Greedy but hypocrites... 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
वे बड़े परेषान थे। एक तो जन्म कुंडली नहीं मिल रही थी और उपर से लड़के को मंगल अलग था। प्रस्ताव पर प्रस्ताव आ रहे हैं, 50 तोले सोने से लेकर लक्जरी कार तक। लेकिन मुई कुंडली मिले तो बात आगे बढ़े ना!
हमारे पड़ोस में ही एक पंडितजी रहते हैं। बड़े सेवाभावी हैं और चमत्कारी भी। ऐसा चमत्कार दिखाते कि एक झटके में मंगल को षुक्र में बदल देते। हमने उनसे कहा भी कि चलो पंडितजी से कुछ बात कर लेते हैं। कोई न कोई पारस्परिक हित का रास्ता निकल ही आएगा। लेकिन इस मामले में वे बड़े ईमानदार और भगवान से डरने वाले। उन्होंने कहा, ‘षरम करो जी, उपर वाले से कुछ तो डरो। हर मामले में लेन-देन ठीक नहीं।’ इसलिए पंडितजी से झूठी कंुडली बनवाने का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया। रोज घंटों पूजा-पाठ करने वाले। भला ऐसा अनाचार कर सकते हैं क्या!
इस बीच, दो-चार कुंडलियां मिल भी गईं, लेकिन किस्मत खराब। कोई 20 तोले से आगे बढ़ा ही नहीं। वाह भाई, ऐसे कैसे लड़का दे दें! एमबीए हैं, अच्छी-भली कंपनी मंे नौकरी करता है। ऐसा अन्याय नहीं कर सकते। सिद्धांत के पक्के हैं वे। कोई समझौता नहीं। लेकिन वे अब भी परेषान हैं। दमदार पार्टियां मिलतीं तो कुंडली नहीं मिलतीं और कुंडलियां मिलती तो पार्टियां पोची निकलतीं।
हमने सलाह दी किसी मेट्रामोनियल में विज्ञापन दे डालो। वे मान गए। विज्ञापन छपा, ‘30 वर्षीय सुंदर कंुंवारे लड़के के लिए वधु चाहिए। लड़का मांगलिक, लेकिन एमबीए हैं। कृपया सक्षम पार्टियां ही संपर्क करें। कंडीषन अप्लाई।’
विज्ञापन का जबरदस्त असर दिखा। कई पार्टियों ने संपर्क किया। कुछ इसलिए खारिज कर दी गईं क्योंकि गुण और ग्रह नहीं मिल रहे थे और जबरदस्ती मिलवाकर पाप तो अपने सिर पर ले नहीं सकते थे। कुछ पार्टियां इसलिए खारिज हो गई, क्योंकि उन पर कंडीषन अप्लाई नहीं हो रही थीं।
लेकिन भगवान इतना भी कठोर नहीं। एक रिष्ता आ ही गया। लड़की मांगलिक थी। कुंडली भी मिल रही थी और सबसे बड़ी बात कंडीषन भी अप्लाई हो रही थी। लड़की वाले सैद्धांतिक तौर पर 30 तोला सोना, दस लाख कैष और कार देने को राजी हो गए थे।
नियत समय पर मिलना तय हुआ ताकि आगे की बातें की जा सकें। वे डाइंग रूम में सपत्निक बैठे इंतजार कर रहे थे। घर की घंटी बजी। उनके चेहरे पर प्रसन्नता तैर गई। उन्हें लगा कि वे आ गए। उठकर दरवाजा खोला। यह क्या! सामने अपना ही सपूत खड़ा था, पीछे एक सुंदर सी कन्या। ‘पापा आषीर्वाद दीजिए, हमने षादी कर ली है, कोर्ट में!’
सपूत कपूत निकल गया था! अब भगवान को क्या जवाब देंगे। न कुंडली मिली, न ग्रह!... और लाखों हाथ से निकल गए सो अलग!

महंगाई के नाम एक खत

Recently govt announced inflation eases to 9 month low...The satire is based on this development. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



प्रिय महंगाई बहन,
सादर प्रणाम।
जबसे यह खबर सुनी कि आप गिर गई है, तभी से मन बड़ा बेचैन था। सोचा आपसे मोबाइल पर बात कर लें, दिल हलका हो जाएगा। फिर सोचा कि नहीं, खत से ही कुषलक्षेम पूछेंगे तो आपको भी अच्छा लगेगा। अब लिखने की आदत तो रही नहीं, इसलिए विलंब हो गया। इसके लिए क्षमाप्रार्थी।
सरकार ने बताया है कि पिछले 25 सप्ताह में आप इस बार सबसे ज्यादा गिरी है। एक बार तो विष्वास ही नहीं हुआ यह जानकर। सालों से आप गिरी नहीं, फिर एकाएक यह कैसे हो गया! पर सरकार ने बताया तो सच ही होगा। सरकार झूठ कहां बोलती है! पर सच कहूं बहन, जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। क्या चरित्र में गिरावट कम थी जो आपको गिरा दिया? इन दिनों नेता भी एक-दूसरे को टंगड़ी मारकर गिरा रहे हैं। वह तो उनकी आदत है। वे नहीं गिरेंगे तो देष उपर कैसे उठेगा। पर आपका यह गिरना, कुछ ठीक नहीं हुआ।
माफ करना बहन, छोटी मुंह बड़ी बात, लेकिन आपने यूं गिरकर हम सबके लिए मुसीबत अलग बढ़ा दी है। अब आपसे क्या छिपा! बड़ी मुष्किल से आदत डली है। आपकी जो भाभी है न, उसे भी पड़ोसनों ने बताया कि महंगाई गिर गई है। तभी से वह षुद्ध घी मांग रही है। बौरा गई है। समझा रहा हूं, पर समझे तब ना। सालों से नहीं खाया, पचेगा क्या! अब भले ही आप गिर रही हो, लेकिन डाॅक्टर थोड़े इतने गिरे हुए हैं। उनकी फीस तो सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है।
मुन्नी को भी लग रहा है कि अब उसे खूब चाॅकलेटृस मिलेगी। पहले मांगती थी तो  उसे आपका खौफ दिखा देते थे- देखो, महंगाई बुआ डांटेगी। बेचारी मान जाती थी। पर अब क्या करें। आप तो फिर उठ जाएगी, पर एक बार मुन्नी की आदत बिगड़ गई तो मेेरे बजट का तो तिया-पाचा हो जाएगा ना।
और बाबूजी की भी सुन लो। नया चष्मा बनवाने की सोच रहे थे। लेकिन आपकी तस्वीर और मेरा पर्स दिमाग में आते ही वे एडजस्ट कर रहे थे। अब खबर सुनते ही वे भी जिद करने लगे हैं।
मैं जानता हूं कि आप भी मजबूर है। अब बढ़ना-घटना आपके हाथ में तो है नहीं। वैसे जानकारों से पूछवाया है। उनका कहना है कि चुनाव के बाद आप फिर बढ़ने लगेगी। थोड़ी राहत मिली, लेकिन तब तक क्या होगा, भगवान ही जानें। अब तो सब उपर वाले पर छोड़ दिया है। अब उसकी मर्जी के बगैर तो कुछ होता नहीं।
और बताओ, मुनाफाखोर भाईसाहब कैसे है? उन्हें मेरा प्रणाम कहना। वायदा बाजार भाई भी आजकल खूब प्रगति कर रहा है। कसम से, आगे चलकर बड़ा नाम कमाएगा। पुत के पांव पालने में दिख जाते हैं। ब्लैक स्टाकिस्ट चाचाजी की भी खूब याद आती है। उन्हें हमारा चरण स्पर्ष। बाकी को यथायोग्य।

आपका ही
आम भारतवासी 

ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

रविवार, 23 मार्च 2014

चंदा वसूली की फ्रेंचाइजी मिल रही है, खरीदोगे क्या!

The satire is based on Donation Business...
 जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



उनका बड़ा विचित्र बिजनेस है। वे उसे सेवा कहते हैं। बहुत पुराना अनुभव है। कारगिल यु़द्ध से षुरुआत की थी। तब षहीद सैनिकों और उनके परिजनों के लिए जान लगा दी थी। फिर माताजी के जगरात्रे के कई कार्यक्रम करवाए। सेवा का फल तो मिलता ही है। माता के आषीर्वाद से आज उनका तीन मंजिला भवन है।
कुछ दिन पहले ही वे किसी सम्मान समारोह के नाम पर पांच सौ एक रुपए की रसीद काट गए थे। होली नजदीक ही है। तो उनके आने की आषंका थी ही। वे आ भी गए। लेकिन आषंका के विपरीत रसीद नहीं काटी। फार्म आगे बढ़ा लिया।
‘यह क्या है!’ हमने पूछा।
‘प्रपोजल फार्म है। भर दीजिए।’ गंभीरता के साथ वे बोले।
‘ किसी बीमा कंपनी की एजेंसी-वेसेंजी ले ली है क्या? वो बिजनेस भी तो कोई बुरा नहीं था!’ हमने दिल्लगी की।
‘आप गलत समझ रहे हैं। हम चंदा वसूली के लिए फ्रेंचाइजी दे रहे हैं। सोचा आप पुराने कस्टमर हैं। तो आपको ही प्रायोरिटी दे दें।’
‘हमें तो बख्ष दीजिए। ये हमसे नहीं होगा।’ हमने हाथ जोड़ लिए।
‘मौका अच्छा है। चुनाव सिर पर है। षुरुआत अच्छी हो गई तो कोई दिक्कत नहीं होगी। निर्दलीय से लेकर पार्टियों तक के लिए हम चंदा वसूली करेंगे। कई लोगों से बातचीत भी हो गई है। रेट भी फिक्स है। पूरा 30 फीसदी वे हमें देंगे। कट-पिटकर आपको 12 से 15 फीसदी तक मिल ही जाएगा।’ उन्होंने दलील दी।
‘अरे, हमें क्यों फंसाते हो। हमें क्या पता कि कैसे वसूली करनी है?’ हम अब भी सकुचा रहे हैं।
‘वह हमारी चिंता। आप तो हां बोल दो। हमारी पूरी टीम है जो आपको बताएगी कि वसूली कैसे की जाती है।’
फिर उन्होंने वे सारे नाम गिना दिए, जो उनकी टीम में षामिल थे। धुरंधर अनुभवी लोगों की फौज थी उनकी टीम में। आरटीओ का रिटायर्ड अफसर, बर्खास्त थानेदार, प्राइवेट क्लिनिक चलाने वाला एक डाॅक्टर, फाॅरेस्ट का नाकेदार, रेलवे का टीसी आदि-आदि। सलाहकार के तौर पर उन्होंने एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी को रख रखा था। ये अफसर माइनिंग से लेकर पोषाहार जैसे विभागों की कमान संभाल चुके थे। वे हमें इम्प्रेस करने का कोई मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहते थे। उन्होंने बताया कि हमारे ही वार्ड पार्षद ने तो फ्रेंचाइजी लेकर काम भी षुरू कर दिया है।
हम सोच में पड़ गए। कमीषन तो तगड़ा था ही, ट्रेनर्स भी इतने जबरदस्त थे। घाटे का सौदा तो कहीं से नहीं लग रहा था।
‘अब ज्यादा तो न सोचिए। नेक काम में देरी ठीक नहीं।’
हमने भी ज्यादा नहीं सोचा। फार्म भर दिया। पांच हजार रुपए ले गए फ्रेंचाइसी फीस के रूप में। आष्वासन दे गए। पांच के पूरे पचास कमाओगे। कल से षुरुआत कर दो। ओला पीड़ित किसानों के लिए षिविर लगा रहे हैं।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नेताजी का यूं दुखी होना

Satire on the "Black day" in the history of parliament when lower house erupted in chaos over the bill to form Telangana state.

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

आज वे बहुत ही दुखी है। इतने दुखी कि सोफा भी उनके दुख में बड़ा भावुक है। वे जब-जब दुखी होते हैं, सोफा भी तब-तब दुखी हो जाता है। यह सोफा तबका है जब वे मंत्री हुआ करते थे और किसी विदेषी मेहमान ने उस समय उन्हें गिफट किया था।
सोफे का नेताजी से और नेताजी का सोफे से बड़ा आत्मीय लगाव रहा है। नेताजी देषहित में जब-जब भी दुखी होते हैं, इसी सोफे में धंसते हैं। और तब सोफा भी इतना दुखी हो जाता है कि नेताजी को पुचकारकर कहना पड़ता है- अब रुलाएगा क्या! आज फिर नेताजी दुखी है। पूरे लोकतंत्र पर कालिख पुत गई है। उन्होंने तय कर लिया है कि वे दो दिन तक सोफे पर बैठकर ही षोक मनाएंगे। वे सोफे से तभी उठते, जब कोई टीवी चैनल वाला आता या कोई प्राकृतिक आपदा आती, अन्यथा सारे काम वहीं से निपटा रहे हैं। आज उन्होंने मिर्च का भी बहिष्कार कर दिया है। इसलिए सुबह से उन्होंने सात-आठ बार केवल फलों का ज्यूस ही लिया है। बीच-बीच में थोड़े बहुत ड्राय फ्रूटृस जरूर ले लेते हैं। सेहत के लिए जरूरी है, क्योंकि कोई दुखी एक बार तो होना नही है। सेहत अच्छी होगी तो ही देषहित के मुद्दों पर दुख जता सकेंगे। खैर लंच तक आते-आते वे इस बात राजी हो गए कि केवल चिकन कबाब के उपर थोडी सी मिर्च बुरक लेंगे। आखिर, जो हुआ उसमें मिर्च का क्या दोष। नेताजी ऐसे ही रहमदिल हैं।
षाम हो गई है और नेताजी ऐसे ही दुख में गढ़े हुए हैं। दुख में ही उन्होंने लंच के बाद सोफे पर झपकी भी निकाल ली। नेताजी को इतना दुखी देखकर हमसे रहा नहीं गया। हम उनके बंगले पहंुचे और दो-टुक कह दिया, बहुत दुखी हो लिए। बयान जारी हो गया। टीवी पर बाइट चल गई। और कितना दुखी होंगे। दूसरों को भी दुखी होने का मौका दीजिए। आप ही दुखी होते रहेंगे तो बेचारे आपकी ही पार्टी के रामलालजी, ष्यामलालजी जैसे युवा नेता क्या करेंगे। इनकी हमेषा षिकायत रहती है कि आप इन्हें दुखी होने नहीं देते। खुद ही दुखी हो होते।
‘अरे, हमें तो कभी बताया नहीं इन लोगों ने।’ नेताजी ने आष्चर्यमिश्रित दुख जताया।
‘अब आपका लिहाज रखकर कुछ बोलते नहीं बेचारे।’
‘अरे, यह तो हमारी गलती है। हमें दूसरों का भी कुछ सोचना चाहिए था।’ नेताजी के कई दुख एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो रहे हैंे।
‘खैर, उन्हें कह दो कि आज रात आठ बजे बाद से वे दुखी हो लें। हम पर्याप्त दुखी हो लिए हैं।’
हमने मन ही मन सोचा। नेताजी धन्य है। दुख की घड़ी में दूसरों का कितना ख्याल रखते हैं। एकदम त्याग की मूर्ति।
अपने वादे के अनुसार आठ बजते ही नेताजी सोफे से उठ गए। अपने दुख को भुलाने वे चैथे माले पर बने विषेष कक्ष में चले गए हैं। कोई कांच का गिलास टूटा है। नीचे तक आवाज आई है।

माइंड न करो उल्लुओ, हर जगह तो आपका राज है

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha


‘यह भी क्या बात हुई! अब मनुष्यों ने हमें भी अपनी नीच राजनीति में घसीट लिया। हमारी कोई वकत ही नहीं रही जैसे।’ घनघोर बियाबान रात में लंच के बाद सुस्ताते उल्लुओं की चैपाल पर बैठा एक उल्लू बोल उठा।
‘सोचा न था कि ऐसे भी दिन देखने को मिलेंगे। स्कूलों में मास्टरजी बोलते थे तो ठीक है। कोई बात नहीं। स्कूल जैसे पुण्य स्थल पर कोई हमारा नाम ले, इसमें तो हमें गर्व ही होता था। लेकिन राजनीति में भी। छी-छी!’ दूसरे ने बात आगे बढ़ाई।
‘हमारे लोग भी राजनीति करते हैं, लेकिन क्या कभी हम मनुष्यों को बीच में लाते हैं!’
‘दादा सही बोला आपने। पहले भी ये लोग हर षाखा पर उल्लू बैठा जैसी ओझी बातें कहकर हमें लज्जित करते आए हैं।’
‘गलती हमारी ही है। हम कभी एकजुट हुए ही नहीं।’
दो उल्लुओं को उल्लू हित में चिंतन करते देख कुछ और उल्लू भी उनके निकट आ गए हैं। इनमें से अधिकांष को पता ही नहीं है कि मुद्दा क्या है, लेकिन सहमति में सिर हिलाए जा रहे हैं, मानो बाहरी समर्थन दे रहे हो। लेकिन एक ठसबुकिया टाइप उल्लू ने पूछ ही लिया,,:भाई आखिर ऐसा क्या हो गया? हमें भी तो बताओ।’
‘हमेषा ठसबुक पर ही लगे रहते हो। कुछ दुनियादारी की भी खबर रखा करो।’ बाहरी समर्थकों में षामिल एक अधेड़ से समझदार उल्लू बोला।
‘अरे भाई, हुआ यह कि राजनीति करने वाले एक आदमी ने कह दिया, चाय बनाने वालों की इज्जत करो, उल्लू बनाने वालों की नहीं। आपत्ति इसी बात पर है। हम क्या चाय से भी गए बिते हो गए! आप षौक से राजनीति करो। हमें कोई लेना-देना नहीं आपकी राजनीति से, लेकिन कृपा करके अपनी राजनीति में हमें घसीटकर हमारा मान-मर्दन तो न करो।’ उल्लू बोला। उसके सपाट चेहरे पर पीड़ा उभर आई।
ठसबुकिया उल्लू ने तत्काल अपडेट किया और अपनी दुनिया में फिर से खो गया।
इस बीच, चैापाल पर उल्लुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। कई युवा उल्लू मुट्ठियां भींच-भींचकर बात कर रहे हैं। जिन्होंने यह मुद्दा उठाया था, अब वे पीछे भीड़ में खो गए हैं। कुछ दुपट्टेधारी, कुछ खद्दरधारी तो कुछ टोपीबाज उल्लू भी चैपाल पर आ गए हैं और भाषणबाजी षुरू हो गई है। 
स्थिति को विकट जानकार अंततः देवी को प्रकट होना पड़ा। ‘मेरे पुत्रों, नाराज माइंड न करो। मुझे ही देख लो। क्या मैंने कभी सोचा था कि ये इंसान मुझ पर ही कालिख पोत देंगे और काली चवन्नियों को राजनीति में भुनाएंगे? यह हुआ ना। आपको तो खुष होना चाहिए कि राजनीति में तो क्या, हर क्षेत्र में आपकी बिरादरी के लोग ठसे पडे हैं! थोडी-बहुत उंच नीच तो झेलनी होगी।’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

यमराज के भैंसे के गुम होने और मिलने की कथा

Recently some Buffaloes of an UP Minister was missing and the administration was to force on the toes. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 

यमराज बड़े परेशान हैं। धरती की विजिट पर गए थे, लेकिन वहां कोई उनका भैंसा चुरा ले गया। अब भन्ना रहे हैं। उनके करीबी सलाहकार पहले भी कई बार समझा चुके थे, ‘महाराज अब मत घुमा करो। उमर हो गई है। काम के लिए यमदूत हैं तो सही।’ लेकिन धरतीवालों की संगत में उन्हें भी टीए-डीए का ऐसा चस्का लगा कि आए दिन वे विजिट निकाल ही लेते।
खैर, यमलोक में अफरा-तफरी का आलम है। सारे यमदूत भैंस की खोज में लगे हुए हैं। पिछले तीन दिन से यमदूतों ने कोई काम नहीं किया है। हर कोई भैंसा ढूंढऩे में लगा है। यह अलग बात है कि इसकी आड़ में कई यमदूत अपने नेटिव चले गए हैं तो कई घरों में आराम फरमा रहे हैं। लेकिन इस फेर में धरती पर बैलेंस कुछ ज्यादा ही बिगड़ता जा रहा है। इससे प्रभु के चेहरे पर शिकन पडऩी लाजिमी है। इंटरनल कम्युनिकेशन के जरिए यमराज को भी मैसेज हो गया है जिसका लब्बोलुबाब यही है कि यह ठीक नहीं है, जान लो। इस मैसेज से यमराज और भी तन्ना गए हैं। यमराज ने भी अपने सचिवालय से उसी लैंग्वेज में कह दिया है कि किसी भी स्थिति में दो दिन में उनका भैंसा वापस आ जाना चाहिए।
यमलोक में समस्या वाकई विकट है, जिसे सुलझाने का जिम्मा अंततः अक्सर धरती पर जाने वाले एक सीनियर यमदूत को दिया गया है। बड़े ही सुलझे हुए किस्म के ये यमदूत जानते हैं कि उन्हें अब क्या करना है। वे सीधे चित्रगुप्त के पास पहुंचे। ‘सरजी, भारत से किसी पुलिसवाले का कोई मामला है क्या?’
‘हां, पांच दिन पहले एक पुलिसवाले की फाइल आई हैै। बस उसके हिसाब की फार्मेलिटी करनी है। वैसे भी हिसाब क्या करना, मालूम ही है कि उसे भेजना है।’ चित्रगुप्त बोले।
ठसके बाद वह सीनियरयमदूत उस पुलिस वाले से मिला और उसे समस्या बताई। ‘इसमें क्या बड़ी बात है! भयंकर कान्फिडेंस के साथ पुलिसवाला बोला। ‘धरती पर भी एक मंत्री की कुछ भैंसें इसी तरह गुम गई थीं। हमारे लोगों ने ढूंढ निकाली। यह भैंसा भी मिल जाएगा, पर एक शर्त है। मेरे नरक में जाने के चांस बन रहे हैं, उसे स्वर्ग में बदलवाना होगा।’
‘हर जगह इधर से उधर करने की आदत गई नहीं!’ सीनियर यमदूत मन ही मन बडबडाया। पर करता क्या न मरता। उसे हामी भरनी पड़ी।
तो शुरू हुआ भैंसा सर्चिंग मिशन। वे एक यमदूत के साथ धरती पर उतरे और पहुंच गए एक दूधवाले के तबेले पर। ‘चुन लो कोई भी भैंसा’ वह पुलिसवाला बोला।
‘पर हमारे साहब का तो इनमें से कोई नहीं है।’ यमदूत बोला।
‘तो हम बना देगे ना, हम किसलिए हैं भाई?’
तो अंततः थोड़ी ना-नुकूर के बाद वह यमदूत भैंसा लेकर यमलोक पहुंचा। यमराज के महल में जाने से पहले वह पांच लीटर दूध पहले ही अपने घर पहुंचा आया था। तो अब यमदूत भी ज्ञानी हो गया है।
और अब क्लाइमेक्स... भैंसे को देखते ही यमराज गले लग गए। खुद भैंसा भी हक्का-बक्का है कि यह सिंग वाला भैया कौन है जो गले आ पड़ा है! यमराज भी जानते हैं कि यह उनका भैंसा नहीं है। लेकिन उपर से पड़ रहे दबाव को देखते हुए उन्होंने उसे अपना ही मान लिया। यमलोक में व्यवस्था ट्रैक पर आ रही है। प्रभु खुश हैं!
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नारदजी की झाडू से देवलोक में मची खलबली

When the craze of AAP was on the rise.  
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha


देवलोक में अफरा-तफरी का आलम है। किसी को समझ में नहीं आ रहा कि अचानक नारदजी को क्या हो गया है। उन्होंने सिर पर फूलों का गजरा छोड़कर एक अजीब-सी टोपी पहन ली है। तंबूरे के स्थान पर झाडू हाथ में ले ली है। इसकी खबर जब देवलोक के सफाई डिपार्टमेंट के मुखिया को लगी तो वे भागे-भागे नारदजी के पास पहुंचे, ‘महाराज, क्या कमी रह गई? आपने झाडू क्यों उठा ली है? मैं सफाई करवा देता हूं।’ वे प्रभु के सबसे करीबी नारदजी को आखिर नाराज कैसे देख सकते थे!
‘अरविंदम अरविंदम’... मुंह से ये बोल फूटते ही सफाई डिपार्टमेंट के मुखिया चैके। नारायण-नारायण के स्थान पर ये क्या बक रहे हैं! वे मन ही मन बुदबुदाए। उन्हें अचरज में देखकर नारदजी ही बोले- ‘बहुत हो गया। अब सिस्टम सुधारने का वक्त आ गया है। मैं पूरे सिस्टम को अपनी झाडू से साफ कर दूंगा।’ और फिर अरविंदम-अरविंदम कहकर हाथ मंे झाडू घूमाएं नारदजी वहां से चले गए।
उधर, देवलोक में अब तक पूरा माजरा साफ हो चुका था। धरती पर आनन-फानन में भेजे गए देवदूतों का एक प्रतिनिधिमंडल वहां से लौट चुका था और देवताओं की कोर कमेटी के सामने पाॅवर पाइंट प्रेजेंटेषन भी दे चुका था। सबके चेहरों पर चिंता साफ थी। हालांकि कुछ ने कहा कि नारदजी की हैसियत ही क्या है? हमें इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। लेकिन एक बुजुर्ग-से देवता ने समझाया कि हमें इसे हलके में नहीं लेना चाहिए। आज उन्होंने झाडू उठाई। अगर कल वे रोजाना तीन लीटर मुफ्त सोमरस की मांग कर दंेगे तो दिक्कत में पड़ जाएंगे। सबसे ज्यादा टैक्स इसी से मिलता है। और यह ऐसी मांग है कि उन्हें इस पर भरपूर समर्थन भी मिल जाएगा।
उधर, इंद्र को अपना आसन भी डोलता नजर आ रहा है। उन्होंने तमाम अप्सराओं को ‘फाॅर टाइम बीइंग’ महल से निकलने का आदेष दे दिया है। अब वे दरबार लगाने लगे हैं, रात को सड़कों पर हाल जानने निकलने लगे हैं। रोजाना दो चार कर्मचारी सस्पेंड भी हो रहे हैं। वहीं, इंद्र के कुछ विरोधी दबी जुबान में कह रहे हैं, देखते हैं यह प्रहसन कब तक चलता है।
उधर नारदजी के साथ कुछ आम टाइप के देवता जुड़ने लगे हैं। पूछने पर ये आम देवता कहते- ‘जस्ट फाॅर ए चंेज।’ अब चेंज की यह सद्भावना उनकी अपनी निजी लाइफ को लेकर है या सिस्टम को लेकर, प्रभु ही जानें!

ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

गब्बर की चुनावी तिकडम

Very funny article, but at the end you will find some satire on our political system.

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha


  

‘चुनाव कब है चुनाव?’ पान खराब का पूरा पाउच मंुह में उड़ेलते हुए अपने लाॅन में बैठे गब्बर ने पूछा।
‘सरदार ये क्या बका जा रहा है।’ बंगले की उपरी मंजिल पर बैठा साम्भा बड़बड़ाया। उसे लगा कि उसने ही कुछ गलत-सलत सुन लिया होगा तो बोला, ‘सरदार, होली अगले महीने हैं।’
‘अरे, मैं पूछ रहा हूं, चुनाव कब है?’
‘यह तो इलेक्षन कमीषन बताएगा। पर माजरा क्या है सरदार?’
‘ठाकुर का संदेषा आया है। वे चुनाव में खड़े हो रहे हैं और हमसे लाॅजिस्टिक सपोर्ट मांग रहे हैं।’
‘सरदार, भूलना नहीं। आपको मारने के लिए ही उन्होंने कभी दो लफंगों को सुपारी दी थी। देखना उन्हें तो लेकर नहीं आ रहे।’ सांभा ने चेताया।
‘नहीं रहे, उनमें से एक तो बिल्डर का काम करता है। दूसरा घोडों पर दांव लगाकर इज्जतदार आदमी बन गया है। दोनों मजे में हैं। सुना है वे भी ठाकुर को चुनाव में सपोर्ट कर रहे हैं।’
‘वो तो करेंगे ही। वे ठाकुर के ही आदमी हैं। ठाकुर ने भी उनके लिए क्या-क्या नहीं किया।’
इतने में कालिया की एंटी।
‘खाली हाथ? ठेका नहीं मिला क्या?’
‘नहीं सरदार।’
‘तुमको पहले ही कहा था कि अफसरों को सेट कर लो। ठाकुर क्या तुम्हें सेट कर गया?’
‘नहीं सरदार, मैंने तो आपकी दारू पी है, चिकन खाया है...’ कहते ही कालिया को घबराहट होने लगी।
‘ले गोली खा, जब देखो तब हाई बीपी...। अब तफसील से बता क्या हुआ?
‘सरदार, वो ठाकुर के आदमियों ने हमारा खेल बिगाड दिया।’
‘अच्छा... तो ठाकुर का डबल गेम। उपर से चिकने जूते और नीचे तलवों में कीलें। वह पक्का नेता है तो हम भी कम नहीं। गब्बर फुसफुसाया। फिर जोर से बोला, ‘संदेषा करवा दो कि कोई सपोर्ट-वपोर्ट नहीं। हम भी चुनाव में खड़े होंगे।’
‘लेकिन सरदार आपको टिकट कौन देगा? सूरत देखी है क्या आपने?’ साम्भा बोला। सालों से मुंहलगा है। मुंहफट भी हो गया है। कुछ भी बोल देता है आजकल।
‘तो हम बदल लेंगे सूरत। वो क्या बोलते इमेज सुधारने वाले लोग होते हैं ना, उन्हें बोलो।’
‘इमेज कन्सलटेंसी।’ कालिया बोला।
’हां हां वही-वही।’ गब्बर खुष होकर बोला। ‘कालिया, जबसे तुमने दुनियादारी संभाली है, काफी होषियार हो गए हो।’
‘सरदार वो तो यूं ही।’ कालिया षरमा गया।
तो अब गब्बर की दाढ़ी ट्रिम हो गई है। चेहरे पर इम्पोर्टेड फ्रेम का चष्मा नजर आ रहा है। पान मसाले पाउच के स्थान पर चांदी का पानदान खरीद लिया गया है। उसे संभालने की जिम्मेदारी सांभा को दी गई है। आखिर कुछ तो करें। उपर बैठा-बैठा मक्खियां मारता रहता है। गब्बर के हाथ में आई फोन नजर आने लगा है। कालिया ने एंड्रायड आॅपरेट करना सिखा दिया है। जैसा कि बताया, कालिया तो पहले ही होषियार हो चुका है।
इस बीच, देष की दो पार्टियों ने गब्बर का नाम षार्टलिस्ट कर लिया है। ठाकुर पहले से ही षार्टलिस्टेड हैं। गब्बर ने वाट्स एप्स से मेसेज पहुंचाया है, ‘ठाकुर, यह सीट मुझे दे दें।’ लेकिन ठाकुर ने मना कर दिया है। गब्बर को कोई चिंता नहीं। वह अट्टहास लगा रहा है, ‘अब आएगा मजा चुनाव के इस खेल का।’
उधर, रामगढ की जनता कांप रही है, हमेषा की तरह।
 ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती