मंगलवार, 19 सितंबर 2023

'बांझन को पुत्र देत' ही क्यों? और फिर, एक पवित्र आरती में 'बांझन' जैसा असंसदीय शब्द भी क्यों?

By Jayjeet Aklecha

मैंने एक क्विक गूगल सर्च के जरिए यह जानने की कोशिश की कि आखिर 'जय गणेश जय गणेश देवा' आरती लिखी किसने। गूगल पर नहीं मिला तो चैट जीपीटी पर सर्च किया। उसने श्रद्धाराम फिल्लौरी का नाम दिया है, लेकिन मेरी जानकारी में पंजाब के उन्नीसवीं इस कवि ने सबसे लोकप्रिय आरती 'ओम जय जगदीश हरे' लिखी है और उनके नाम पर 'जय गणेश देवा' का कोई जिक्र कम से कम गूगल सर्च में नहीं मिला। पर फिर भी कुल मिलाकर प्रतीत यही होता है कि यह आरती काफी पुरानी है और इसलिए उस आरती की इन लाइनों -
अंधन को आंख देत,
कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत
निर्धन को माया॥
में 'बांझन को पुत्र देत' पंक्तियों को तब के समाज की साइकी के हिसाब से शायद उचित ठहराया जा सकता है...!
लेकिन आज जबकि देश ने सांसद-विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने की दिशा में कमर कस ली है, हम दस दिन सुबह-शाम गणेश देवता की यह आरती गाएंगे तो क्या केवल पुत्र की ही आकांक्षा हमारे दिलों से निकलनी चाहिए?
यह स्वयं देवता के प्रति अन्याय है, क्योंकि हमारे देवता भी समय-परिस्थितियों के साथ बदले हैं (सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं गणेजी के पिता शिवजी का है) और जब वे बदल सकते हैं तो हम क्यों नहीं? या तो 'बांझन को पुत्र देत' वाली पंक्ति ही हटाई जानी चाहिए या फिर इसे कुछ ऐसी पंक्ति से रिप्लेस किया जाना चाहिए जो पुत्र-पुत्री दोनों के लिए इस्तेमाल में आता हो। वैसे तो 'बांझन' शब्द पर भी सोचना चाहिए। क्या आज कोई सभ्य समाज 'बांझ' शब्द का इस्तेमाल करता है? तो एक पवित्र आरती में इस असंसदीय शब्द का इस्तेमाल क्यों?
तो 'बांझन को पुत्र देत' के बजाय 'संतानहीन को संतान देत' टाइप कुछ किया जा सकता है। वैसे भी संतानहीन केवल महिला ही नहीं, पुरुष भी कहलाता है। 'बांझन' शब्द संतानहीनता का पूरा दायित्व महिला पर डालता प्रतीत होता है, वह भी एक 'कलंक' के तौर पर और हम आरती के जरिए देवता से आग्रह करते हैं कि उसे इस 'कलंक' से मुक्ति दिलाएं!! देवता को इतने धर्मसंकट में ना डालें!!
पर यह बदलाव करेगा कौन? जब 'भद्रा में राखी ना बंधेगी' जैसे धर्मादेश आ सकते हैं और हममें से अधिकांश लोग उसका पालन करते हैं तो इस तरह के आदेश भी लाए ला सकते हैं। वैसे तो इसकी आवश्यकता भी नहीं है। अगर आप खुद को जरा-सा प्रगतिशील मानते हैं तो अपने-अपने घरों में ही इसे कर सकते हैं, अपनी-अपनी सोसाइटियों या कॉलोनियों में कर सकते हैं। और अगर हमारे आज के कथित संत, जो बेशक लोकप्रिय तो हैं, अगर इस नेक काम का बीड़ा उठाएं तो शायद धर्मप्रिय लोगों के लिए इसे आजमाना और भी आसान हो जाएगा।

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