मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

सबसे बड़े मसले पर हमारी दोनों बड़ी पार्टियां एक राय! मगर ये बेहद शर्मनाक!

Climate change, political issues, जयजीत अकलेचा, जलवायु परिवर्तन राजनीतिक मुद्दा नहीं, jayjeet aklecha

By Jayjeet

भाजपा और कांग्रेस दोनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। दोनों के घोषणा-पत्रों में भी यह अंतर साफ दिखाई देता है। मगर फिर भी कम से कम दोनों एक मसले पर एक ट्रैक पर हैं। दुनिया के सबसे महत्वूपर्ण मसले पर दोनों की एप्रोच एक है...!
आइए, पहले इस सस्पेंस को खत्म करते हैं।
भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज नंबर 67 पर। यह उसके घोषणा पत्र का समापन बिंदु है।
कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में पर्यावरण को जगह दी है पेज 41 पर। यह उसका आखिरी अध्याय है।
इस मसले पर दोनों एक राय हैं। दोनों की एप्रोच समान है। और दोनों के लिए एक ही शब्द निकलता है- शर्मनाक।
एक पार्टी का फोकस विकास पर है तो दूसरी पार्टी गरीबों को न्याय देने के नाम पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं, जिनका लब्बोलुआब यही है कि अगर अब भी पर्यावरण को लेकर हम नहीं जागे तो विकास के तमाम दावे और गरीबी उन्मूलन के तमाम संकल्प, सब धरे के धरे रह जाएंगे। जलवायु परिवर्तन का असर हवा से लेकर पानी तक सब पर पड़ने जा रहा है। अकेले पानी की ही बात कर लेते हैं, जिसका अभूतपूर्व संकट आने वाला है। पानी के बिना सामान्य जीवन-शैली भी मुश्किल है, तो विकास की कल्पना तो एकदम बेमानी है। और फिर भीषण गर्म व उमस भरे परिवेश में हम कितनी कंपनियों को अपने यहां बुला पाएंगे? 'भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाएंगे' जैसे ये पांच शब्द बस घोषणा पत्र में ही टँके रह जाएंगे!
उधर, 'एक झटके में गरीबी दूर करने' का दावा करने वाले 'जादूगर' राहुल को भी कम से कम विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट पढ़नी चाहिए। इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण केवल अगले पांच साल में ही दुनिया के 13 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे। भारत दुनिया से बाहर नहीं है। मौजूद गरीबों का भला तो छोड़ दीजिए, नए गरीबों के साथ न्याय कैसे होगा? इस बारे में कांग्रेस नेता को शायद ही कोई इल्म होगा।
अकेले भारत में ही बढ़ती गर्मी को लेकर कई तरह की डरावनी रिपोर्ट्स हैं। लेकिन केवल रिपोर्ट्स पर भरोसा मत कीजिए। आप तो अपने सहज ज्ञान का इस्तेमाल कीजिए। इस साल गेहूं के उत्पादन में काफी कमी आई है और कई वजहों में एक वजह बढ़ता तापमान भी है। और दुर्भाग्य से, यह स्थाई ट्रेंड बन सकता है। सोचिए, इस साल हमारे यहां बसंत गायब क्यों हो गया? क्यों बेमौसम आंधियां चल रही हैं और क्यों देश के अधिकांश हिस्सों में कभी न पड़ने वाली प्रचंड गर्मी की भविष्यवाणी की गई है? सब हमारे सामने हैं। मगर पार्टियां इसे अपने एजेंड में सबसे पीछे रखे हुए हैं।
इस तरह के मसले पर जनता या मतदाताओं से उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी इप्सॉस की एक रिपोर्ट ने भी कह ही दिया है कि 85 फीसदी लोग चाहते हैं कि पर्यावरण में सुधार का काम सरकार ही करें। बिल्कुल, मैं भी सहमत हूं। वैसे भी यह बहुत जटिल मसला है और इस पर कानून बनाने से लेकर जन-जागरूकता तक के तमाम कामों की शुरुआती अपेक्षा सरकारों से ही की जानी चाहिए।
लेकिन सरकार से उम्मीद कर सकते हैं? देश की दो सबसे बड़ी पार्टियां जब इस संकट को लेकर शुतुरमुर्ग बनी हुई हैं और गैर जरूरी मुद्दों पर शर्मनाक तरीकों से आपस में लड़ रही हैं तो उनकी अगुवाई वाली सरकारें भी आखिर कुछ करेंगी, यह बस खयाली पुलाव है।
तो क्या इस पूरे मसले को भगवान भरोसे छोड़ दें? लेकिन जगह-जगह बगीचों को उजाड़कर वहां चार दीवारों के भीतर बैठा दिए गए 'भगवानों' से भी कितनी उम्मीद करें? और क्यों करें?

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