शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

Satire : चौराहे पर काबुलीवाला और तमाशबीनों की तालियां

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चौराहे पर सवालों की झोली के साथ अकेला खड़ा काबुलीवाला।


 By ए. जयजीत

काबुलीवाला ... हां, वही काबुलीवाला। याद ही होगा सबको। गुरुदेव रवींद्रनाथ की कहानी का पात्र। पांच साल की बच्ची मिनी का अधेड़ दोस्त। गलियों में घूम-घूमकर ड्रायफ्रूट्स बेचता, मिनी में अपनी बेटी को याद करता काबुलीवाला।

आज यह काबुलीवाला फिर आया है। चौराहे पर खड़ा है, अकेला। उसकी यादों में अब कोई बेटी नहीं है, क्योंकि अपनी बेटी को तो वह तालिबानियों के रहमो-करम पर छोड़ आया है। उसकी झोली में अब वे ड्रायफ्रूट्स भी नहीं हैं। कुछ हैं तो चंद सवाल। कुछ पुराने, कुछ नए। वह शायद जानता है कि उसे या उसके सवालों को सुनने वाला भी कोई नहीं है। फिर भी उसने अपनी झोली में कम से कम कुछ सवाल तो बचा रखे हैं।

जब आदमी को कोई सुनने वाला नहीं होता है तो वह खुद से बातें करने लगता है। तब वह पागल भी करार दिया जाता है। और जब कोई पागल जैसी हरकतें करता है तो तमाशा बन ही जाता है। तमाशबीन जुट ही जाते हैं। काबुलीवाला आज पागल की तरह चौराहे पर खड़ा है। झोली से सवाल निकाल रहा है। उसके सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। या हैं भी तो जवाब कोई देगा नहीं। तो अपने सवालों के जवाब भी वह खुद ही दे रहा है।

पागलपन बढ़ते ही मजमा भी बढ़ता चला जाता है। काबुलीवाले का मजमा भी बढ़ता जा रहा है। तमाशा देखने के लिए पूरी दुनिया जुट गई है। यह लेखक भी चुपचाप उसी तरह तमाशबीन भीड़ का हिस्सा है, जैसे कई और भी हैं।

काबुलीवाले ने अपनी झोली से पहला सवाल निकाला और खुद ही बड़बड़ाते हुए पूछने लगा :  'हे संयुक्त राष्ट्र, तू क्यों चुप बैठा है? तुझ पर तो हर साल 3 अरब डॉलर खर्च होते हैं। यह इतना पैसा है कि हमारे जैसे कई मुल्कों के बाशिंदों को एक वक्त की रोटी मिल सकती है। मगर यहां रोटी भी नसीब नहीं है। न बहन-बेटियों को इज्जत। फिर भी तू चुप बैठा है? तुझे हमारी कोई चिंता नहीं?'

 पागलपन में आदमी अक्सर अदबी भूल जाता है। नहीं तो काबुलीवाले की क्या औकात कि संयुक्त राष्ट्र से तू-तड़ाके से बात करे! किसी और की भी क्या हैसियत संयुक्त राष्ट्र के सामने!

पर बेचारा संयुक्त राष्ट्र भी क्या करे। उसे तो मालूम भी नहीं होगा कि कोई काबुलीवाला उससे सवाल कर रहा है।  पता नहीं, उसे यह भी मालूम है या नहीं कि दुनिया में अफ़ग़ानिस्तान नाम की कोई जगह भी है। और मालूम करके करेगा भी क्या! अफ़ग़ानिस्तान जैसे तो न जाने कितने देश होंगे। सबकी इतनी फिक्र करेगा तो बड़े देशों की जी-हुजूरी करने का समय कब मिलेगा। जी-हुजूरी को छोटा काम ना समझें। बड़े झंझट होते हैं इसमें। न जाने कितनी बार सिर झुकाना होता है। उनके प्रपोजलों पर हस्ताक्षर करने होते हैं, वह भी आंख बंद करके। उफ्फ!  कितना मुश्किल होता होगा ये सब।  तो उसे अफ़ग़ानिस्तान जैसे छोटे-छोटे मसलों पर फंसाना ठीक नहीं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र से सवाल पूछने से बड़ा तालिबानी जुर्म और क्या होगा! वैसे अगर संयुक्त राष्ट्र खुद उस चौराहे पर उपस्थित होता, तब भी इस सवाल का जवाब देना उचित नहीं समझता। हो सकता है किसी अन्य भेष में वह उस चौराहे पर तमाशबीन बना बैठा भी हो।

खुद काबुलीवाला भी जानता है कि संयुक्त राष्ट्र से इसका जवाब नहीं मिलना है। तो उसने खुद ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से धीमी मगर सधी हुई आवाज में जवाब देना शुरू किया। वैसे ही जैसे ऐसी संभ्रांत संस्थाओं के कुलीन अफसर देते हैं।

'चिंता मत करो हे काबुलीवाला। हम बहुत ही शिद्दत से तुम्हारे साथ हैं। पिछले कई दिनों से हम तुम्हारे लिए चिंता जता रहे हैं। तीन दिन पहले ही हमारे महासचिव ने पूरी दुनिया को तुम्हारे मामले में साथ आने को कहा है। और क्या चाहिए तुम्हें? वैसे क्या तुम्हारे लिए यह गर्व  की बात नहीं है कि हमारे सभी अफसर अफ़ग़ानिस्तान के ड्रायफ्रूट्स खाकर ही अपने दिन की शुरुआत करते हैं। कसम से, क्या कमाल के ड्रायफ्रूट्स पैदा करते हों तुम लोग। लेकिन यहीं पर हमारे लिए एक चिंता की बात और है...'

काबुलीवाला ने खुद ही प्रतिप्रश्न पूछा -  'और क्या चिंता रह गई?'

'अरे क्या तुमने वे क्लीपिंग्स नहीं देखी जब तालिबान के लीडर्स भी ड्रायफ्रूट्स खा रहे थे। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे यहां के सारे ड्रायफ्रूट्स पर तालिबानियों का कब्जा हो जाए। कितनी बेरहमी से वे ड्रायफ्रूटस खा रहे थे। पूरी दुनिया ने देखे हैं वे दृश्य। वाकई दिल को दहला देते हैं। बहुत ही बर्बर हैं तुम्हारे यहां के तालिबानी। वहां के ड्रायफ्रूट्स को लेकर हम वाकई बहुत चिंतित हैं। हम फिर कह रहे हैं, अपना ध्यान रखना और हमारे ड्रायफ्रूट्स का भी। हम जल्दी ही एक मीटिंग भी करने वाले हैं। उस मीटिंग में भी हम जोरदार शब्दों में चिंता जताएंगे। तुम बिल्कुल भी चिंता मत करना।'

काबुलीवाला ठहरा पागल । संयुक्त राष्ट्र को तुरंत छोड़कर उसने झोले से दूसरा सवाल निकाल लिया। यह सवाल अमेरिका से था। सवाल था तो घिसा-पीटा ही, फिर भी सुन लीजिए - 'तू तो खुद को पूरी दुनिया का चौधरी मानता है। तो अब अचानक अफ़ग़ानिस्तान को मझधार में छोड़कर क्यों जा रहा है? तेरे सारे हथियार चूक गए हैं क्या?'

अमेरिका की तरफ से काबुलीवाला ने ही जवाब दिया - 'क्यों भूल गया हमारे सारे अहसान? अहसान फ़रामोश! मैंने सालों तुम्हारे बेरोजगार मुजाहिदीनों को पाला-पोसा। उनके हथियारों पर करोड़ों-अरबों का खर्च किया। पर इसके बदले में मुझे क्या मिला? एक ओसामा बिन लादेन। फिर उससे छुटकारा पाने के लिए अरबों-खरबों खर्च करने पड़े। फिर अफ़ग़ानिस्तान की भ्रष्ट सरकारों को पालना-पोसना पड़ा। इतना तो किया? अब अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद करने का पूरा ठेका हमने ही थोड़े ले रखा है।'

अमेरिका का जवाब शायद काबुलीवाला ने सुना नहीं। हां, तमाशबीनों की भीड़ ने सुन लिया है। इसीलिए तालियों की आवाज़ आ रही है।

काबुलीवाला के झोले में तो कई सवाल हैं। अगला सवाल पाकिस्तान से था। उसने सवाल को बड़ी ही हिकारत से देखा और जमीन पर फेंककर उसे पैर से मसल दिया। फिर और भी कई सवाल निकले - रूस से, चीन से, पश्चिमी मुल्कों से। पब्लिक वेलफेयर का दावा करने वाली विश्व संस्थाओं से। वह सभी सवालों को जमीन पर फेंकता जा रहा है। अब तो पूरा ही पागल जैसा बर्ताव करने लगा है। इसलिए तमाशबीनों को और भी मजा आने लगा है। तालियों की आवाज बढ़ गई है। वे सब भी शायद तमाशबीन का हिस्सा ही हैं, जिनसे पूछने के लिए काबुलीवाले के झोले में सवाल हैं।

अब उसके झोले में बस एक अंतिम सवाल बाकी है। निकालते ही उसे चूम लिया। उसे याद आ गई कोलकाता की वह गली जहां वह पहली बार उस बच्ची मिनी से मिला था। उसे ड्रायफ्रूट्स देता था। लेकिन अब न वह मिनी रही होगी, न वह गली। जिससे वह सवाल है, वह तमाशबीनों की भीड़ में शामिल नहीं है, लेकिन उसके साथ भी नहीं है। वह कहीं दूर उसकी ओर पीठ किए हुए हैं। वहां भी तो अब मानसिकता पर तालिबान चिपक गए हैं। तो जवाब देने का नैतिक साहस शायद उसके पास भी कहां होगा!

काबुलीवाला की आंखों के किनारे से आंसू की एक बूंद टपक पड़ी। तमाशबीन का हिस्सा बने इस लेखक की आंखें भी नम हैं, पर उसे तो तटस्थ रहना है। तटस्थता ही सबसे मुफ़ीद होती है।

काबुलीवाला ने वह सवाल ससम्मान अपने झोले में सरका दिया है। शायद यह सोचकर कि जब आमने-सामने मुलाकात होगी तो पूछेगा- क्यों भुला दिया अपने काबुलीवाले को! क्यों भुला दिया उस गांधार को जिसे जीतने के लिए भीष्म ने एक पल की भी देरी नहीं की थी? अपने पितामह को याद करके भी क्यों तुम्हारी भुजाएं अब फड़कती नहीं?

पूछेगा, जरूर पूछेगा...। जवाब तो देना होगा!

(ए. जयजीत खबरी व्यंग्यकार हैं। संवाद शैली में लिखे व्यंग्यों के लिए चर्चित हैं।)

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