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रविवार, 9 अप्रैल 2023

पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...

 पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...



'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो


 'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा


मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!

 



(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।)

By Jayjeet Aklecha

हां, आप चाहें तो इसे राजनीतिक स्टंट बताकर खारिज सकते हैं।
अगर आप टैक्स पैयर्स हैं तो हमेशा की तरह इस बात की दुहाई देकर रोना-गाना कर सकते हैं कि मेरे टैक्स की राशि फिर किसी अपात्र को दी जा रही है...
लेकिन जो भी हो, यह है तो सामाजिक बदलाव की एक क्रांतिकारी योजना। ‘क्रांति’ अपने आप में एक बड़ा शब्द है, फिर भी यहां इस्तेमाल करने का दुस्साहस कर रहा हूं।
कभी-कभी राजनेता भी राजनीति के फेर में अच्छे सामाजिक कार्य कर बैठते हैं। ‘लाड़ली बहना योजना’ ऐसा ही वह राजनीतिक शिगूफा है, जो महिला सशक्तिकरण के तौर पर उतनी बड़ी सामाजिक क्रांति का जरिया बनने जा रही है, जिसका अंदाजा उन नेताओं को भी नहीं है, जिन्होंने महज वोट बटोरने के लिए आनन-फानन में इस योजना को शुरू किया है।
यह योजना क्रांतिकारी कैसे हो सकती है, इसके लिए पहले दो उदाहरण लेते हैं:
हाल ही में देश के एक जाने-माने लेखक से मेरी मुलाकात हुई। महिला सशक्तिकरण की बात चली तो बातों-बातों में उन्होंने अपनी बहन का किस्सा बताया। उनके मुताबिक उनकी बहन की शादी एक सम्पन्न लेकिन पारंपरिक परिवार में हुई, लेकिन आश्चर्य की बात थी कि वहां उनकी बहन का अपना कोई बैंक अकाउंट नहीं था। उसके बजाय उनके पति ने अपना एक डेबिट कार्ड दे रखा था और साथ ही उससे खर्च करने की अनलिमिटेड सुविधा भी। फिर भी वे खुश नहीं थीं। अंतत: लेखक ने उनके पति को बताए बगैर उनका खाता खुलवाकर उसमें एक छोटी-सी राशि डालनी शुरू की। एक लिमिटेड राशि। लेकिन अब उनकी बहन के पास अनलिमिटेड आर्थिक स्वायत्तता का एहसास है, जहां उनके खर्च पर किसी की निगाह नहीं है, अपने पति की निगाह भी नहीं।
दूसरा उदाहरण मेरे अपने घर का ही है। मेरी बेटी अभी-अभी 18 साल की हुई है। 18 साल की होते ही उसकी पहली डिमांड थी- मेरा बैंक अकाउंट हो। हर माह केवल 500 रुपए की राशि का ही वादा है मेरी तरफ से, लेकिन फिर भी खुशियां अनलिमिटेड हैं, क्योंकि अब उसके पास होगी 500 रुपए खर्च करने की आर्थिक स्वायत्तता।
तो विचार कीजिए उन लाखों गरीब-वंचित तबकों की महिलाओं के बारे में, जिनका पहली बार किसी बैंक में खाता खुलने जा रहा है या जिन्हें पहली बार एक निश्चित धनराशि अपने खाते में मिलने जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का यह एहसास इतना बड़ा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हां, बैंकों में ऐसी महिलाओं की भारी भीड़ को देखकर यह महसूस जरूर कर सकते हैं कि सामूहिक तौर पर कुछ तो बदल रहा है।
अब कुछ बातें उनकी जो इसे मुफ्तखोरी बताकर इस पर सवाल उठा रहे हैं।
सवाल उठाना बुरी बात नहीं है। लेकिन कम से कम इस योजना पर तो केवल उसे ही सवाल उठाने का नैतिक अधिकार है, जिसने भ्रष्टाचार की गंगौत्री में बहने वाले अरबों रुपए पर कभी सवाल उठाया हो (और जिसमें समय-समय पर बैंकों में फंसी करोड़ों-अरबों रुपए की राशि को बट्टे-खातों में डालना भी शामिल है)।
अगर नहीं उठाया है तो फिर सामाजिक बदलाव की इस गंगौत्री को बहते देखिए।
फिर याद रखें, गरीब महिलाओं को दिया गया हजार रुपया अंतत: बाजार में ही आना है। और जब बाजार में पैसा घूमता है तो अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है। इसका फायदा ज्यादातर उसी वर्ग को होता है, जो अक्सर अपने टैक्स की दुहाई देता है।

सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?

 


By जयजीत अकलेचा
कांग्रेस जैसी विचारशून्य हो चुकी पार्टी के पास तो सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन को बहाल करने के अलावा कोई इश्यू था नहीं। तो उसने वही किया, जहां तक उसकी सोच जा सकती थी: जिन-जिन राज्यों में उसने चुनाव जीते, वहां फौरन इकोनॉमी का सत्यानाश करने वाले निर्णयों की घोषणा कर दी। लेकिन तमाम पुरातनपंथी सोच के बावजूद मुझे लगता था कि भाजपा कम से कम अपने शीर्ष पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी की उस पहल व इच्छा का सम्मान करना जारी रहेगी, जिसके तहत उन्होंने पेंशन जैसे भारी-भरकम अनुत्पादक खर्च को धीरे-धीरे कम करने का आइडिया दिया था। लेकिन राजनीति के इस दौर में जब चुनाव जीतना ही एकमात्र मकसद बन जाए तो बेचारे राजनीतिक दल भी क्या करें? पुरानी पेंशन स्कीमों को बहाल करने जैसे विकास विरोधी काम करना लाजिमी है। जैसी की खबरें आ रही हैं, अब कनार्टक के साथ-साथ मप्र की भाजपा सरकार भी पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की तरफ आगे बढ़ गई है और इस तरह देश को भाजपामुक्त बनाने की दिशा में भी एक और सशक्त कदम बढ़ा लिया गया है। कांग्रेस को भावभीनी
बधाई
!
खैर, नेताओं से कोई शिकायत नहीं। उनके 1,000 पाप माफ। लेकिन फिर वही बुनियादी सवाल- आखिर बाकी लोग सवाल क्यों नहीं उठाते? चलिए उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों को भी छोड़ दीजिए, जिनके वोटों के लिए सरकारें/पार्टियां मरी जा रही हैं। लेकिन बचे हुए वे 94 फीसदी लोग क्या कर रहे हैं, जो इस भारी-भरकम सरकारी मुफ्तखोरी की योजना के दायरे से बाहर हैं? वे क्यों यह एक अदद सवाल नहीं उठाते कि आखिर कुछ सालों के बाद इस पेंशन के लिए पैसा कहां से आएगा?
चलिए, पहले एक छोटा-सा भयावह आंकड़ा ले लेते हैं। हो सकता है, तब सवाल उठाने में आसानी हो: साल 2019-20 में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पेंशन और अन्य रिटायरमेंट लाभों पर पर कुल व्यय राशि सालाना 4,134 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। यह राशि 30 साल पहले की तुलना में 80 गुना ज्यादा थी। अब 30 साल बाद का अनुमान लगा लीजिए। शायद आपका कैल्युलेटर तो इसकी गणना करते समय माफी मांग लेगा। अब वापस से सवालों के सिलसिले पर आते हैं: आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? राज्य कर्ज लेंगे, तो कर्ज चुकाएगा कौन? केवल सरकारी कर्मचारी तो नहीं चुकाएंगे। चुकाना तो उन 94 फीसदी को भी पड़ेगा, जो असेट्स क्रिएट करने में सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं। क्या यह उन सरकारी लोगों की ‘सेवा’ की भारी कीमत नहीं है, जिन्हें ‘सेवा’ करने के लिए पीले चावल तो कतई नहीं दिए गए थे?
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मोहन भागवत साहब ने एक परम ज्ञान दिया था कि युवा सरकारी नौकरी के पीछे ना भागें। पर अब भागवत जी मेरा उलट सवाल- क्यों न भागें? मैं ही बताता हूं। इसमें दो सुभीते हैं- एक तो नौकरी की पक्की गारंटी (जो कोविड जैसे संकट के समय काम आती है) और दूसरा, सरकारों पर पेंशन टाइप की योजनाएं बहाल करने के लिए संगठित तौर ब्लैकमेलिंग करने का सुभीता। सरकारी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए जुट सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं। और बेचारी मासूम सरकारें, चूं तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें तो थोक में सरकारी कर्मचारियों के वोट चाहिए, नहीं तो दूसरी पार्टियां लार टपकाए बैठी ही हैं।
मान लेते हैं कि सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण केवल 6 परसेंट सरकारी कर्मचारी ही हैं। तो सत्तासीन और सत्ता में आने को आतुर पार्टियों से कम से कम 94 फीसदी लोग तो अब यह पूछें- क्या सरकारें हमें अपने 6 परसेंट लाड़लों की पेंशन के बदले में प्रोडक्टिविटी से भरपूर भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की गारंटी दे सकती है? हंड्रेड परसेंट नहीं। तो हमसे यह उम्मीद क्यों कि हम वोट देने भी अपने घरों से निकलें?
(पुनश्च: 30 साल के बाद आज के हालात को देखते हुए जैसी की आशंका है कि देश दिवालिया हो चुका होगा (और जैसा कि तय है कि नरक में बैठे हमारे आज के अधिकांश नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकसाथ बैठकर हमारी मूर्खता पर हंस रहे होंगे), उस समय उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नई पीढ़ी को भी शायद उतना ही खामियाजा भुगतना होगा, जितना की शेष 94 फीसदी लोगों की भावी पीढ़ियों को…।)

जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... ‌‌‌!!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!

 


By जयजीत अकलेचा
पहली तस्वीर को सब जानते ही हैं। एक लोकप्रिय कथावाचक। और दूसरी तस्वीर से भी सब परिचित होंगे ही। एक निरीह-सा पौधा। इस दूसरी तस्वीर की चर्चा बाद में करुंगा। शुरुआत पहली तस्वीर के प्रसंग से ...
जो लोग स्वयं के सनातनी हिंदू होने का दावा करते हैं, उन्हें यह अवश्य पता होगा कि हमारे इस संसार का अस्तित्व प्रकृति के बगैर असंभव है। हिंदू मायथोलॉजी में देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी को ‘प्रकृति’ माना गया है। पूरे ब्रह्मांड के संतुलन के लिए इन दोनों का साथ जरूरी है... पर सबसे बड़ा सवाल- आज ‘प्रकृति’ कहां हैं? हम शिव को जरूर पूज रहे हैं, लेकिन उनकी अर्धांगिनी के इस स्वरूप के बगैर, प्रकृति के बगैर।
आइए, इस पूरे ज्ञान को थोड़ा आज के संदर्भ में और विस्तार देते हैं। मौसम वैज्ञानिकों ने एक बार फिर चेताया है कि इस साल भयंकर गर्मी पड़ने वाली है। और इस साल तो क्या, यह हर साल की बात हो गई है। गर्मी पड़ने वाली है, बढ़ने वाली है... लगातार। हो सकता है हमें विज्ञान और वैज्ञानिकों से भारी नफ़रत हो, तब भी हम इस कड़वी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अगली पीढ़ी का तो छोड़िए, आने वाले सालों में स्वयं हमें अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए जूझना पड़ सकता है। और यह भी कटु सत्य है कि अगर हम प्रकृति की ओर नहीं लौटें तो किसी भी बाबाजी-शास्त्रीजी का कोई चमत्कार हमें बचा नहीं पाएगा।
मैं कथावाचक बाबाओं/पंडितों/शास्त्रियों की भीड़ को खींचने की अ्दभुत क्षमता का वास्तव में कायल हूं। यह एक बड़ा टैलेंट है, इसमें कोई शक नहीं। इसके लिए उन्हें दिल से साधुवाद। मैं किसी भी बाबा को फॉलो नहीं करता हूं, इसलिए मुझे यह जानकारी कतई नहीं है कि कोई भी प्रकृति और प्रकृति के संरक्षण की बात भी करता है या नहीं (अगर की है तो कृपया मुझे करेक्ट करें। हां, केवल तुलसी, शमी, पीपल का महत्व बताने तक सीमित न हो। यह हमें पता है)। अगर नहीं की है, तो बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि ये सारे सनातनी होने के नाम पर हमें केवल हमारी सनातनी परंपरा की सतही बातों तक सीमित रखना चाह रहे हैं और कोई यह नहीं बता रहा कि सनातन काल में तो हम सभी केवल प्रकृति पूजक थे। पेड़-पौधे, जंगल, नदियां, पहाड़… ये ही हमारे आदिम देवी-देवता थे। मूर्तियां और मंदिर तो बाद में आए। एक यंत्र के तौर पर रुद्राक्ष तो और बाद में...
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, लोगों को प्रभावित करने की हमारे आज के बाबाओं-पंडितों में अद्भुत कला व क्षमता है। क्या ये अपनी इस कला का सही इस्तेमाल करते हुए लोगों को प्रकृति से नहीं जोड़ सकते? हां, वहीं ‘प्रकृति’ जो शिव के लिए सर्वोपरि हैं। मानव कल्याण की खातिर अगर शिवजी वैरागी होकर भी प्रकृति से जुड़े सकते हैं तो शिव का नाम जपने वाले हम सभी लोग दुनियादार होकर भी प्रकृति की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं?
आने वाले दिनों में देशभर में 48 लाख रुद्राक्ष बांटे जाएंगे। शिव भक्त दीवाने हुए जा रहे हैं। सब अच्छा है। पर काश, ये पंडितजी एक रुद्राक्ष के साथ एक-एक पौधा भी दें और कहें कि हे शिव के सच्चे भक्त, इसे रोपें और इसका मरते दम तक ख्याल रखें क्योंकि इसी में शिव की आत्मा बसती है। तो क्या असल चमत्कार नहीं होगा? क्या अपनी प्रकृति को लहलहाता देख शिव मुस्कराएंगे नहीं? शिव के मुस्कराने का मतलब है महाकल्याण और कुपित होने का मतलब, आप सब जानते ही हैं!!
अब, जरा दायीं वाली तस्वीर की बात ...यह मेरे द्वारा लगाए गए करीब डेढ़ दर्जन पौधों में से एक है। अब धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं। मैं नियमित तौर पर न रुद्राक्ष की पूजा करता हूं, न शिवजी की...शायद किसी की भी नहीं। मुझे तो शिवजी की अर्धांगनी का यह रूप पसंद है। लोग मूर्तियों को देखकर मुस्कराते हैं। मैं सुबह-सुबह इन डेढ़ दर्जन सजीव मूर्तियों को देखकर मुस्कराता हूं। यह मुंह मिया मिट्ठू वाली बात सिर्फ इसलिए, ताकि मेरा ज्ञान केवल थोथा ज्ञान न लगे। थोथा ज्ञान केवल मंचों और पंडालों से ही अच्छा लगता है...
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
अगर हम वाकई सनातनी हिंदू हैं, तो अपनी प्रकृति को बचाएं। वह हमें बचा लेगी। और केवल एक पौधा हमें सच्चे सनातनी हिंदू होने का गर्व दे सकता है। शिवजी कुपित हो जाए, उससे पहले ही हम उनके मुस्कराने का जतन करें, इसी में सबकी भलाई है.... नहीं तो बाकी तो बातें हैं… करते रहिए और विनाश की ओर बढ़ते रहिए।
(Disclaimer: एक आम इंसान की तरह मैं भी बेहद स्वार्थी हूं और मुझे केवल मेरे घर की चिंता है... इसलिए मैं केवल अपने धर्म, अपनी संस्कृति की बात कर रहा हूं। कोई यह ज्ञान न दें कि दूसरे धर्म की बात क्यों नहीं...! दूसरे धर्म के बारे में दूसरे सोचें, अगर सोच सकें... )

रविवार, 22 अगस्त 2021

Thousand Feet Above : क्या गजब का नॉवेल लिखा है इस बालिका ने

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ऊर्जा अपने नॉवेल 'Thousand Feet Above' के साथ।

By रत्नेश

देश में एक असल फिक्शन राइटर का पदार्पण हो चुका है जिसमें असीम संभावनाएं नजर आ रही हैं। यह फिक्शन राइटर हैं महज 16 साल की ऊर्जा अकलेचा (Urja Aklecha)। इनका पहला उपन्यास नॉवेल 'Thousand Feet Above' हाल ही में जाने-माने पब्लिशर Notion Press से न केवल भारत में प्रकाशित हुआ है, बल्कि इसे अमेरिका, ब्रिटेन, जापान सहित करीब 150 देशों में लॉन्च किया गया है।

करीब 200 पेजों का यह नॉवेल 14 साल की एक किशोर बालिका 'अवनि' की कहानी है। यह कहानी कल्पनातीत है। इसे पढ़कर आपको एक बार तो भरोसा ही नहीं होगा कि 16 साल की यंग राइटर किसी कथा को इतनी खूबी के साथ बुन सकती है। लेकिन ऊर्जा ने यह कमाल कर दिखाया है।

'Thousand Feet Above' पहला पार्ट है। यह नॉवेल अपने आप में पूर्ण है, लेकिन इसके आखिर पेज पर लिखा हुआ है - To be Continued... यानी नॉवेल का अगला पार्ट जरूर आएगा।

इस नॉवेल को इसलिए पढ़ना जरूरी है क्योंकि यह बताता है कि फैंटेसी में अब केवल वेस्टर्न राइटर्स का एकाधिकार नहीं रहा है। भारतीय राइटर्स भी फैंटेसी को बुनने लगे हैं, बल्कि बेहतरीन तरीके से बुनने लगे हैं। हालांकि इसका टारगेट रीडर्स 15 से 25 साल के युवा हैं। उन्हीं की भाषा में यह लिखा गया है। भाषा बहुत ही सरल है। इसलिए बेसिक इंग्लिश जानने वाले पाठक भी इसे आसानी से पढ़ सकते हैं। वैसे इसे यह मानकर पढ़ेंगे कि यह केवल 16 साल की बच्ची ने लिखा है, तो और भी मजा आएगा। 

नॉवेल की कीमत भारत में 229 रुपए रखी गई है। भारत में यह नॉवेल तीन साइट पर उपलब्ध हैं जिनकी लिंक्स नीचे दी जा रही हैं। नोशन प्रेस और फ्लिपकार्ट पर डिलिवरी चार्ज जीरो है। अमेजन पर 50 रुपए अलग से चार्ज लिया जा रहा है। ई-बुक्स पढ़ने वाले इसकी ई-बुक्स का इंतजार कर सकते हैं जो 30 अगस्त तक आने की संभावना है। उसकी कीमत करीब 50 से 100 रुपए के बीच हो सकती है, यानी काफी सस्ती।


इन लिंक्स के जरिए बुलवा सकते हैं यह नॉवेल : 

नोशन प्रेस के लिए यहां क्लिक करें (फ्री डिलिवरी)

अमेजन के लिए यहां क्लिक करें 

फ्लिपकार्ड के लिए यहां क्लिक करें  (फ्री डिलिवरी)


(Originally published on hindisatire )

रविवार, 1 अगस्त 2021

India in Olympic Games : हमें इमोशनल स्टोरीज की नहीं, क्रूर कहानियों की जरूरत है...

क्योंकि ओलिम्पिक में पदक जीतना केवल खेल नहीं, एक युद्ध है !!


By Jayjeet

हम भारतीय हद से ज्यादा इमोशनल हैं। या हो सकता है इमोशनल होने का नाटक करते हों। पक्के से कुछ नहीं कहा जा सकता। इमोशनल होना अच्छी बात है, लेकिन हर जगह नहीं! दिक्कत यह है कि हर सफलता या थोड़ी बहुत सफलता या विफलता के समय हम बहुत सारी इमोशनल स्टोरीज ले आते हैं। हमें एक सिल्वर पदक मिलता है तो इमोशनल स्टोरी, किसी खिलाड़ी ने हैट्रिक ठोंक ली तो इमोशनल स्टोरी। कोई हार गया तो इमोशनल स्टोरी। इमोशनल स्टोरीज का फायदा यह होता है कि हमें उस छोटी-मोटी सफलता पर ही संतुष्ट होने या हार के लिए बहाना मिल जाता है। 

ओलिम्पिक में इतनी सारी और बार-बार विफलताओं के बाद भी खेल अब भी हमारे लिए महज खेल क्यों है? पदक जीतने के लालायित जहां अन्य देश इसे युद्ध मानकर सबकुछ झोंक देते हैं, हम अपने खेल संगठनों पर राजनेताओं या राजनेता टाइप लोगों को बिठाकर आम हिंदुस्तानियों की आंखों में पल रहे सपनों पर धूल क्यों झोंकते रहते हैं? 

आज हमारे पास क्या नहीं है? पैसा नहीं है? प्रतिभा नहीं है? जजों को प्रभावित करने का सुवर पॉवर नहीं है (अमेरिका और चीन जैसा!)। तो फिर पदक क्यों नहीं है? लेकिन यह तब तक नहीं होगा, जब तक हम पूरी क्रूरता के साथ जवाबदेही तय नहीं करेंगे। हमें केवल इमोशनल स्टोरीज नहीं चाहिए। केवल जज्बे जैसे शब्द नहीं चाहिए। युद्ध जैसी तैयारियां चाहिए। जब हम सैन्य तैयारियों में अपने सैनिकों के साथ कोई मुरव्वत नहीं करते तो खिलाड़ियों के साथ क्यों होनी चाहिए? जब किसी मोर्चे पर छोटी-सी गलती पर उस मोर्चे के कर्नल या कमांडर के साथ कोर्ट मार्शल करने में नहीं हिचकते तो हमारे खेल संगठनों पर कुंडली जमाए बैठे नाकारा लोगों के साथ कोर्ट मार्शल जैसा कुछ करने से क्यों हिचकिचाते हैं? और सबसे बड़ी बात, जब हम छोटी-छोटी बातों पर भी सरकार/सरकारों को जवाबदेह ठहराने में पीछे नहीं रहते हैं तो ओलिंपिक में ऐसे लचर प्रदर्शन पर सरकार को क्यों बचा लेते हैं? क्या खेलों में सुपर पॉवर बनाने का जिम्मा सरकार का नहीं है? 

तो अगर हमें वाकई पदक जीतने की तमन्ना है, इमोशनल कहानियों को डस्टबीन में फेंकना होगा। इमोशन अक्सर कमजोर ही बनाता है। हमें क्रूरता की कहानियां चाहिए। नहीं तो बस टीवी सेट पर एक अदद कांसे की उम्मीदों को तलाशते रहिए। और हर उम्मीद टूटने के बाद बस क्रिकेट पर दोष मढ़ते रहिए।

सोमवार, 24 मई 2021

Not Funny : बड़े वकीलों की दिल्लगी...और कुछ नॉटी गॉसिप्स...!!

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By Jayjeet

दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट की एक ऑनलाइन सुनवाई के दौरान देश के कुछ वरिष्ठ वकीलों ने हंसी-दिल्लगी के दौरान एक ऐसे विषय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, जो अब गंभीर चर्चा की डिमांड कर रहा है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी एक खबर के अनुसार देश के लब्ध प्रतिष्ठ वकीलों के बीच मजाक का विषय यह था कि कौन-सा वकील सबसे ज्यादा पैसा लेता है। इस हंसी-मजाक में शामिल थे अभिषेक मनु सिंघवी, सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता। 

वकीलों ने आपसी मजाक में इस बात का खुलासा किया कि देश के कुछ वकील ऐसे हैं जो महज 10 मिनट की पैरवी के लिए ही दस लाख रुपए तक लेते हैं। इस बात का खुलासा भी हुआ कि सालों पहले वकीलों द्वारा ली जाने वाली भारी-भरकम फीस को अनुचित मानते हुए सुप्रीम कोर्ट बॉर एसोसिएशन के तत्कालीन प्रेसिडेंट मुरली भंडारे फीस की ऊपरी सीमा तय करने के लिए प्रस्ताव भी लाए थे जिसे शांतिभूषण ने यह कहते हुए डस्टबीन के हवाले कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ऐसा करने वाला कौन? 

वहां ये सब बातें बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में कही जा रही थी और इसलिए ऑनलाइन सुनवाई के लिए जजों के आते ही उनकी इस टिप्पणी के साथ खत्म हो गई कि जज बनने से पहले हम भी वकील थे और जानते हैं कि वकील किस तरह की 'नॉटी गॉसिप' करते हैं। 

सही है, बड़े-बड़े वकीलों के लिए तो यह नॉटी गॉसिप ही है। और हमारी न्याय प्रणाली में ऐसी छोटी-छोटी नॉटी गासिपें चलती रहती हैं कि किस तरह लॉकडाउन की तरह कोर्ट केसेस में तारीख पे तारीख बढ़ती रहती है, किस तरह फैसले आने में 30 से 40 साल तक लग जाते हैं, किस तरह लाखों की तादाद में हर साल मामलों के अंबार लगते रहते हैं, किस तरह आज भी हमारा पूरा न्यायिक सिस्टम 40-50 दिन के समर वैकेशन पर जाना समृद्ध परंपरा का अभिन्न हिस्सा समझता है, आदि आदि... ये सब छोटी-छोटी नॉटी गॉसिप्स हैं, इनके क्या मायने भला?  

पर इन गॉसिप से इतर एक बड़े सवाल पर चर्चा करना जरूरी है। जब इतने बड़े-बड़े वकील इतनी बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं तो उन्हें देने वाला भी तो बड़ा ही होता होगा। और कोई उन्हें इतनी भारी-भरकम फीस क्यों देता है? अभी कुछ दिन पहले ही हम सबने वेब सीरीज 'स्कैम 92' देखी है। याद कीजिए, वेब सीरीज का वह दृश्य जिसमें राम जेठमलानी की बाजू में हर्षद मेहता बैठा हुआ है। राम जेठमलानी जी स्वर्ग सिधार चुके हैं। इसलिए संस्कार यही कहते हैं कि हम उनके बारे में अच्छी बातें ही करें। तो अच्छी बात यह थी कि उन्होंने जनहित के कई मामले फ्री में लड़ें... हां, फ्री में भी... एक दावे के अनुसार 90 फीसदी मामले उन्होंने फ्री में लड़े। जो पैसा कमाया, वह केवल हर्षद मेहता स्कैम, हाजी मस्तान स्मगलिंग केस, जेसिका लाल मर्डर केस फेम मनु शर्मा जैसों से कमाया। आज जो लब्ध प्रतिष्ठ वकील हैं, जिनमें से कई बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों से भी जुडे़ हैं, कई मंत्री हैं और कई मंत्री रह चुके हैं, वे भी जनहित के कई मामले फ्री में लड़ते हैं...। वे भी हर्षद मेहताओं, मनु शर्माओं से ही पैसा कमाते हैं या फिर मधु कोड़ाओं जैसे भ्रष्ट नेताओं से। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि भारी-भरकम पैसा देने वाले सभी अपने अपराधों से बच ही जाते होंगे। फिर भी भारी-भरकम फीस दी जा रही है। बड़े-बड़े वकीलों के टैलेंट का इस्तेमाल हो रहा है। यह इस्तेमाल कैसा और कहां होता होगा, हम-आप जैसे सामान्य लोग तो कभी समझ भी नहीं पाएंगे। हम तो बस हिरण हत्याकांड जैसे मामलों की कोर्ट कार्रवाई में कभी-कभार जाते हुए अपने सल्लू भाई को अपने प्रशंसकों के सामने हाथ हिलाते ही देख पाते हैं, कहीं और 'हाथ मिलाते' हुए नहीं...। 

खैर, देश को अगर वाकई बदलना है तो क्या इसकी चिंता भी नहीं करनी चाहिए कि वकीलों की फीस कितनी होनी चाहिए? मजाक में नहीं, हकीकत में....पर कौन करेगा, कैसे करेगा, पता नहीं क्योंकि माननीय जज तो कह ही चुके हैं - जज बनने से पहले हम भी वकील ही होते हैं...

तो क्या बेहतर नहीं होगा कि बड़े-बड़े वकील ही इसकी चिंता करें...? क्योंकि जेब वाले कफन बनने तो अभी शुरू हुए नहीं। कफनों को तो मैनुप्यूलेट नहीं किया जा सकता...कम से कम अभी नहीं...!

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

Not Funny & humor : सरकार हमें हमारे भगवान भरोसे छोड़ रही है तो प्लीज शिकायत तो मत कीजिए...!!!

 

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(क्योंकि हमने सरकार से हर बार मंदिर और मस्जिद ही मांगे, अस्पताल नहीं...)
By Jayjeet

इन दिनों हर सुबह जब मैं अखबार देखता हूं तो बार-बार खुद से ही पूछता हूं - हमारे यहां अच्छे हॉस्पिटल क्यों नहीं हैं? अस्पतालों में अच्छी व्यवस्थाएं क्यों नहीं हैं? क्यों लोगों को ऑक्सीजन नहीं मिल रही? क्यों जरूरी इंजेक्शन नहीं मिल रहे? और हर व्यक्ति यही सोच रहा है। खुद से यही पूछ रहा है। आपसी बातचीत में भी हम एक-दूसरे से यही पूछ रहे हैं। जाहिर है मेरी उंगली सरकार की तरफ ही उठ रही है। आप सब की भी।
पर सरकार को इससे फर्क पड़ता है? बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि वह उस एक अंगुली को नहीं देखती, जो उसकी तरफ उठती है। वह तो उन चार उंगलियों को देखकर खुशी में मस्त होती है जो मेरी ओर, हमारी ओर उठ रही हैं।
सरकार ने वह सब तो दिया, जो हमने मांगा। हमने मांगा मंदिर, वह दे दिया। हमने मांगी एक भूतपूर्व मस्जिद के टूटे हुए ढांचे की भरपाई। उसके लिए जमीन दे दी। और सरकार देती भी कैसे नहीं? सालों हमने एक से दूसरी अदालतों तक लड़ाई लड़ी, अपने मंदिर के लिए, अपनी मस्जिद के लिए। सड़कों पर भी लड़े। खूब लड़े। किसी ने केसरिया खून बहाया तो किसी ने हरा। तो सरकार किसी के भी बाप की होती, उसे तो मंदिर और मस्जिद देना ही था।
क्या हम एक अदद अस्पताल के लिए लड़े? क्या हमने अस्पताल के लिए खून बहाया? क्या कभी अपने किसी नेता को अस्पताल के नाम पर हराया या जिताया? तो फिर आज सरकार से शिकायत क्यों? उसने मंदिर दे दिया, मस्जिद के लिए जमीन दे दी।
एक और मंदिर का मामला अदालत में पहुंच ही गया है। वहां भी हम लड़ेंगे, अपने मंदिर के लिए, अपनी मस्जिद के लिए। सालों बाद सरकार हमें कुछ न कुछ दे ही देगी। पर हां, सदियों बाद भी हमें अस्पताल नहीं मिलेंगे, क्योंकि वे हमें चाहिए ही नहीं।
अब अगर सरकार हमें भगवान भरोसे छोड़ रही है, तो प्लीज शिकायत तो मत कीजिए। मैंने भी शिकायत करना छोड़ दिया है। क्योंकि मैं और आप अलग थोड़े ही हैं।
और यह तब तक होता रहेगा, जब तक हम अपने मंदिरों और मस्जिदों से यह न कह सकेंगे, माफ कीजिएगा मंदिर-मस्जिद। हमें अस्पताल भी चाहिए। और मुझे नहीं लगता किसी मंदिर या मस्जिद को इसमें कोई आपत्ति होगी।

# temple with mosque

रविवार, 11 अप्रैल 2021

Not Funny : 'तपस्वी' एक साल की तपस्या के बाद फिर से 'गृहस्थ जीवन' में लौट आए हैं...!!

doctors attack corona, डॉक्टरों पर हमला, कोरोन, कोरोना व्यंग्य,  सरकारी अस्पतालों में अस्त-व्यस्त व्यवस्था

 

By Jayjeet


भोपाल के एक सरकारी हॉस्पिटल में शनिवार को एक सरकारी डॉक्टर के साथ कुछ स्थानीय नेताओं द्वारा की गई हरकत को लेकर पिछले दो दिन से सोशल मीडिया पर कई पोस्ट पढ़ने को मिली। उन डॉक्टर के साथ की गई हरकत उतनी ही निंदनीय है, जितनी किसी डॉक्टर द्वारा किसी मरीज की जान के साथ किया जाने वाला खिलवाड़ निंदनीय होता है। उन डॉक साहब को मैं व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता हूं। इसलिए उनके प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है।

तो फिर समस्या कहां है? समस्या यह है कि उस घटना के बहाने दो अलग-अलग चीजों को मिलाने की अनावश्यक कोशिश की जा रही है। उस घटना के बहाने तमाम उन डॉक्टरों को भी क्लीन चिट देने का प्रयास किया गया है जो कोरोना-काल द्वितीय में आई आपदा को 'अवसर' मानने में तन-मन-धन से जुटे हुए हैं। कोरोना काल प्रथम में उनके द्वारा की गई 'तपस्या' को अब किए जाने वाले पापों का सुरक्षा कवच माना जा रहा है। कोरोना काल प्रथम में कई डॉक्टर्स ने, खासकर सरकारी हॉस्पिटल्स के डॉक्टरों ने तपस्वी बनकर सेवा की। उन्हें प्रणाम। लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश तपस्वी महज एक साल की तपस्या के बाद ही फिर से 'गृहस्थ जीवन' में लौट आए हैं।

देशभर में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर जनता की खुलेआम नाराजगी सामने आ रही है तो वह यूं तो नहीं होगी। धुआं बगैर आग के निकलते शायद ही किसी ने देखा होगा। यह नाराजगी सरकारी नाकारा सिस्टम के साथ-साथ उन प्राइवेट हॉस्पिटल्स और निजी डॉक्टर्स के खिलाफ भी है जो कोरोना काल में भी सीटी स्कैन का कमीशन तक नहीं छोड़ रहे हैं। इनमें सरकारी डॉक्टर्स भी कोई अपवाद नहीं है, यह भी सब जानते हैं।

माना सरकारी डॉक्टरों ने सेवा की है। लेकिन सेवा का इतना महिमामंडन क्यों? मैंने कहीं पढ़ा है (जो सच ही होगा) कि हर डॉक्टर अपनी पहली शपथ में सेवा की कसम खाता है। अगर सेवा का महिमामंडन करना ही है तो 7-10 हजार रुपए में संविदा पर कार्यरत स्वास्थ्य कर्मियों का क्यों नहीं जिन्होंने लगभग समान खतरे में रहकर काम किया है, 15-20 हजार रुपए पाने वाली नर्सों का क्यों नहीं, जिन्होंने तो डॉक्टरों से भी ज्यादा जोखिम उठाया है।

माना डॉक्टर बड़ी मुश्किल से, मेहनत से और जो ये नहीं कर पाते, वे लाखों के डोनेशन से बनते हैं (नो डाउट, इस डोनेशन के लिए भी उनके माता-पिता को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है)। लेकिन पता नहीं, डॉक्टर्स यह क्यों नहीं सोच रहे हैं कि कल तो संकट खत्म हो ही जाएगा। आज पैसे नहीं कमा पाएंगे तो कल कमा लेंगे। लेकिन इस दौर में डॉक्टर वह जरूर कमा सकते हैं, जिसका मौका सबको नहीं मिलता है।

चलते-चलते एक कहानी, एक छोटे से शहर के एक डॉक्टर की। कोरोना काल प्रथम में उस शहर के सभी नामी-गिरामी प्राइवेट डॉक्टरों ने अपने क्लीनिक पर 'बंद' के बोर्ड लगा दिए। डर सबको लगता है। उन डॉक्टरों को भी लगा होगा। कुछ भी अस्वाभाविक नहीं। लेकिन एक डॉक्टर ने सोचा- इस समय अगर मैं काम न आया तो फिर मेरी डॉक्टरी को लानत है। लगातार मरीजों की सेवा की। और फिर उन्हें कोरोना से बीमार तो पड़ना ही था। लेकिन शहर के लोग भी कहां पीछे रहे। उनके लिए पूजा की, दुआएं मांगी। और भगवान से जिद करके उन्हें वापस ले ही लाए, सही-सलामत। तो उस डॉक्टर के लिए उनकी सेवा ही इतनी बड़ी कमाई बन गई। किसे मिलता है ऐसा मौका? 

शिकायत करने वाले अच्छे डॉक्टर इस सच्ची कहानी से प्रेरणा ले सकते हैं...। फिर मजाल दो-चार टके वाले नेताओं की...!!! 

सोमवार, 14 सितंबर 2020

#Hindi_Diwas : कमजोर हिंदी दिलवाले इसे ना पढ़ें, सुसाइड जैसी फीलिंग आ सकती है…!!


By Jayjeet


हिंदी सटायर डेस्क।
आज हिंदी दिवस है। आइए आज केंद्र सरकार के कुछ विभागों की वेबसाइट पर लिखी हिंदी को पढ़ने की कोशिश करते हैं। यकीन मानिए, आप वैसे ही बाल नोंचने की कोशिश करेंगे, जैसा कि चित्र में बताया गया है। कृपया कमजोर हिंदी दिल वाले न पढ़ें।

(मंत्रालयों/विभागों की साइट्स से हमने हूबहू कॉपी उठाई है।ये केवल कुछ उदाहरण हैं। अधिक के लिए खुद ट्राय कीजिए…)

सबसे पहले देश के शिक्षा मंत्रालय की वेबसाइट से…(क्योंकि यहीं से हमें ज्ञान मिलता है)

मौजूदा क्षमताओं के आधार पर तथा बात को मान्यकता प्रदान करते हुए कि स्वंतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा संस्थापओं के वृहत नेटवर्क ने राष्ट्रे निर्माण में अत्यकधिक योगदान दिया है; राष्ट्रक उच्च्तर शिक्षा में उत्कृशष्टंता केन्द्रों के विस्ता्र एवं स्थामपना का दूसरा चरण प्रारंभ करने जा रहा है। यह अभिकल्प्ना की गई है कि इस वर्णक्रम के दोनों सिरों नामत: प्रारंभिक शिक्षा एवं उच्च‍तर/तकनीकी शिक्षा के सुदृढ़ीकरण से शिक्षा में विस्ता र, समावेशन एवं उत्कृरष्टसता के लक्ष्यों् को प्राप्तव किया जा सकता है।

(अरे बाप रे… बोल्ड करते-करते थक गए। बोल्ड ही समझ में आया, बाकी तो पल्ले ही नहीं पड़ा। )

पासपोर्ट कार्यालय की वेबसाइट से … :

ऑनलाइन नियुक्ति प्रणाली पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) में भीड़ से बचने और आवेदकों के लिए इंतज़ार न करना सुनिश्चित करने के लिए शुरू किया गया है। नियुक्ति एक पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) की हैंडलिंग क्षमता के अनुसार आवंटित कर रहे हैं और एक इलेक्ट्रॉनिक कतार प्रबंधन प्रणाली पर आधारित हैं। पासपोर्ट के लिए आवेदन करने में ऑनलाइन पंजीकरण भरने और ऑनलाइन आवेदन पत्र (वैकल्पिक रूप से, ई फार्म डाउनलोड भरने और ऑनलाइन पोर्टल पर ही अपलोड) प्रस्तुत करने, एक मुलाकात समयबद्धन और अंत में, पीएसके या पोस्ट ऑफिस पासपोर्ट सेवा केंद्र (पीओपीएसके) जाने के लिए ये सभी कदम शामिल हैं|

अधिक जानकारी के लिए ऑनलाइन पोर्टल के मुख पृष्ठ पर ‘त्वरित गाइड’ के तहत ‘मुलाकात के लिए नयी प्रक्रिया’ लिंक पर क्लिक करके अनुभाग को देखें।

(जिस इंग्लिश सेक्शन से अनुवाद किया गया है, हमने उसका अनुवाद गूगल ट्रांसलेट पर डालकर देखा तो इससे कुछ बेहतर सामने आया। तो इसके लिए गूगल ट्रांसलेटर को भी दोष नहीं दिया जा सकता। )

दूरसंचार विभाग की वेबसाइट से…

हम विश्व स्तर की दूरसंचार बुनियादी ढांचे और जुड़े नेशन “कभी भी, कहीं भी” देश के तेजी से सामाजिक – आर्थिक विकास को सक्षम बनाने सेवाओं के प्रावधान की सुविधा के माध्यम से दृष्टि को पूरा.

(अब इस पर क्या कमेंट करें? कमेंट करने लायक भी ना छोड़ा…। इसलिए हम इस मुद्दे को यही छोड़ रहे हैं, क्योंकि कुछ अनहोनी होने की फीलिंग आ रही है…)

(Disclaimer : इस हिंदी को पढ़कर अगर कोई सुसाइड करने की कोशिश करता है तो इसके लिए हम जिम्मेदार नहीं रहेंगे। हमारा मकसद किसी को सुसाइड के लिए प्रेरित करना नहीं है।)


सोमवार, 31 अगस्त 2020

छह घंटे में राहुल गांधी के वीडियो पर एक भी लाइक नहीं, जानिए क्या है वजह?

rahul gandhi video jokes राहुल गांधी जोक्स

modi video unlike मोदी का वीडियो अनलाइक
30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कही थी। भाजपा के ऑफिशियल यू ट्यूब चैनल पर डले इस वीडियो पर लाइक्स से छह गुना ज्यादा अनलाइक्स आए हैं ( देखें तस्वीर, लाइक्स करीब 100 K, डिसलाइक्स 625 K)। लनलाइक की वजह से यह वीडियो जबरदस्त चर्चा में आ गया है।

लेकिन इतनी ही आश्चर्य की बात और भी है। 31 अगस्त को सुबह करीब 10 बजे राहुल गांधी ने अर्थव्यवस्था की बदहाली पर एक वीडियो डाला। उसे दोपहर में 12 बजे कांग्रेस के ऑफिशियल यू ट्यूब चैनल पर पोस्ट किया गया। शाम को 6 बजे तक यानी करीब 6 घंटे में उस पर न तो एक भी लाइक था और न ही डिसलाइक (देखें राहुल के वीडियो का स्क्रीन शॉट)

आखिर राहुल गांधी के वीडियो पर कोई भी प्रतिक्रिया क्यों नहीं है? इसकी वजह क्या है? humourworld की पड़ताल में पता चला है कि इसकी सीधी सी वजह यही है  कि कांग्रेस के जिन लोगों को चैनल पर जाकर राहुल का वीडियो लाइक करना था, वे सभी तो भाजपा के चैनल पर जाकर मोदी के वीडियो को अनलाइक करने में लगे थे।

#modi video #rahul gandhi

(Modi youtube video disliked my many, but rahul gandhi's video on economy also not liked even by a single people )


गुरुवार, 2 जुलाई 2020

China-Issue : हम मानें या ना मानें, लेकिन हममें से कोई भी इतना राष्ट्रभक्त नहीं हैं...🤔🤔

(क्योंकि राष्ट्रभक्ति केवल नारों से तय नहीं होती... )
By Jayjeet

चाइनीज एप्स पर बैन को लेकर हर जगह माहौल उतना ही खुशगवार है जितना मानसून के आगमन पर होता है। लेकिन क्या हम एप्स पर बैन करने मात्र से चीन को मात दे सकते हैं? और क्या इसे छोटी-सी शुरुआत भी मान सकते हैं?
माफ कीजिएगा। अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो यह निरी मासूमियत है, क्योंकि ऐसा तो सरकार भी नहीं सोच रही। सरकार, भले ही वह मोदी सरकार भी क्यों न हो, को चलाने के लिए कई ब्रेन काम करते हैं और सभी जानते हैं कि ब्रेन कभी भी भावनाओं के वशीभूत नहीं होते। वे व्यावहारिक राजनीति और कूटनीति से ड्राइव होते हैं। इस कूटनीति और राजनीति को समझना हम जैसों के लिए इतना आसान नहीं है। इसलिए इस कठिन चीज को छोड़कर किसी सरल चीज पर बात करते हैं।
मुझे चीन से व्यक्तिगत तौर पर कोई प्रेम नहीं है। हममें से अधिकांश को नहीं है। पर हां, हममें से अधिकांश को चाइनीज सामान से आज भी बेपनाह मोहब्बत है। सबूत चाहिए? आज भी हमारे देश में जो मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स बिक रहे हैं, उनमें 80 फीसदी से अधिक चाइनीज हैं। जितने समय में ( करीब 3 मिनट में) आप मेरी यह पोस्ट पढ़ेंगे, उतनी देर में हम 500 से अधिक चाइनीज फोन खरीद चुके होंगे। इकोनॉमिक टाइम्स के एक लेटेस्ट सर्वे की मानें तो चाइनीज फोन की ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों की बिक्री में धैले भर का भी फर्क नहीं पड़ा है, चीनी उत्पादों के बहिष्कार के आह्वान के बावजूद।
और जो लोग चाइनीज स्मार्टफोन या गैजेट्स खरीद रहे हैं, वे कोई देशद्रोही नहीं हैं। क्योंकि इस पोस्ट को हममें से अधिकांश लोग चाइनीज गैजेट्स पर ही पढ़ रहे हैं और हम इस बहाने की आढ़ भी नहीं ले सकते कि अभी खरीद लिया, पर आगे से ना खरीदेंगे। सच तो यह है कि आगे भी हम चाइनीज फोन ही खरीदेंगे....दिवाली पर चाइनीज सीरीज ही खरीदेंगे... होली पर चाइनीज पिचकारियां ही खरीदेंगे...!!! बशर्ते....
बशर्ते ... अगर हमारे हिंदुस्तानी मैन्युफैक्चरर अब भी ऊंचे दामों पर घटिया माल ही हमें बेचते रहे, अब भी अगर हमारे मैन्युफैक्चरर Value for Money का मंत्र ना समझ पाए...। क्योंकि लोहियाजी के शब्दों में कहें तो भले ही हम हिंदुस्तानी दुनिया की सबसे ढोंगी कौम हो, जो एप्स के बैन होने पर तालियां ठोंक सकती है, लेकिन इतनी मूर्ख भी नहीं है कि इंडियन मैन्युफैक्चरर्स कुछ भी बनाकर हमें कितने भी दामों पर टिकाते रहें...।
तो इसका रास्ता क्या है? 'Boycott चाइनीज प्रोडक्ट्स' तो बिल्कुल भी नहीं। यह नारा न हमारी मदद कर पाएगा, न हमारे देश की। यह नेगेटिव नेरेटिव है। इसके बजाय केवल एक ही नारा होना चाहिए - 'Buy इंडियन प्रोडक्ट्स।' इसमें कहीं नेगेटिव नेरेटिव नहीं है। यानी मेरे देश का मैन्युफैक्चरर चीन के नाम पर डराकर मुझे प्रोडक्ट नहीं बेच रहा, बल्कि वह मुझे प्रोडक्ट इसलिए बेचेगा क्योंकि उसका प्रोडक्ट Value for Money है। इस Value for Money को समझना जरूरी है क्योंकि यही चीनी सफलता का मंत्र है। चीन के प्रोडक्ट कोई बहुत महान नहीं होते, लेकिन वे पैसा वसूल होते हैं। अगर कोई चीनी गैजेट 10 हजार रुपए में मुझे जो कुछ दे रहा है, वह अगर मुझे ग्यारह हजार में भी मिलेगा तो मैं खरीद लूंगा, क्योंकि मैं इतना भी देशद्रोही नहीं हूं। लेकिन यह नहीं हो सकता कि उसके लिए मुझे 20 हजार खर्च करने पड़े। इतना राष्ट्रभक्त भी मैं नहीं हूं। और आप मानें या ना मानें, आप भी नहीं हैं, ग्लोबलाइजेशन के दौर में कोई नहीं है, कम से कम वह तो कतई नहीं है तो ईमानदारी से चार पैसे कमा रहा है। उसे चाहिए ही चाहिए - Value for Money...
रास्ता वही है जो जापानियों ने दिखाया है - 80 सालों में बगैर हल्ला-गुल्ला किए उसने मैन्युफैक्चरिंग के कई क्षेत्रो में उसी अमेरिका पर बढ़त हासिल की है, जिसने कभी उसके दो शहरों को नेस्तनाबूद कर दिया था। वहां के लोगों ने कभी बैन का हल्ला नहीं किया। हमारे पास भी यही रास्ता है, बैन नहीं क्योंकि नारे कभी टिकाऊ नहीं हो सकते।
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शनिवार, 20 जून 2020

Not Funny : चाइनीज प्रोडक्ट्स के बायकॉट के इस दौर में हम जय श्री भैरू भवानी वाले से क्या सीख सकते हैं?



By Jayjeet

हम इस सवाल का जवाब जानें, उससे पहले एक नजर इस ठेले पर डाल लेने का आग्रह करता हूं। मंचुरियन, चाऊमिन से लेकर अमेरिकन चोप्सी तक यहां सबकुछ बिक रहा है। और यह भी पक्की बात है कि इन तमाम चीजों में शिमला मिर्च, सोयाबड़ी से लेकर पत्तागोभी जैसे चीजें होंगी। सॉसेस के नाम पर होगा तीखी मिर्च का पेस्ट…।

वापस सवाल पर आते हैं। जय श्री भैरू भवानी वाले से या भारत में चाऊमिन/मंचुरियन बेचने वालों से हम क्या सीखें? यही कि कैसे हमने शुद्ध चाइनीज प्रोडक्ट में अपनी हैसियत, अपनी टेस्ट हैबिट और अपने परिवेश के मुताबिक बदलाव करके एक ऐसी चीज बना दी जो चाइनीज होते भी हमारी है। क्या हमें ‘राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर भैरू भवानी की चाऊमिन का विरोध करने की जरूरत है? बिल्कुल नहीं। हम इसे मजे से खा सकते हैं, बगैर इस ग्लानि के कि यह चाइनीज है। इसकी धेले भर की रॉयल्टी भी चाइना को नहीं मिलने वाली।

तो जरूरत इस बात की है कि हम महज चाइनीज चीजों के प्रोडक्ट्स का बहिष्कार करने के थोथे नारों से ऊपर उठें और यह देखें कि हम किन चाइनीज प्रोडक्ट्स को मेड इन इंडिया बना सकते हैं। जिन्हें बना सकते हैं, उन्हें बनाइए। जिन्हें नहीं बना सकते, उनका तब तक के लिए इस्तेमाल कीजिए जब तक कि उनका उचित विकल्प नहीं मिल जाता। क्योंकि देश की जरूरतों और देश के हितों के मुताबिक जमीनी व्याहारिकता पर चलना ही आज असली राष्ट्रभक्ति है।

(खबरी व्यंग्य पढ़ने के लिए आप हिंदी खबरी व्यंग्यों पर भारत की पहली वेबसाइट http://www.hindisatire.com पर क्लिक कर सकते हैं।)