जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
‘सोचा न था कि ऐसे भी दिन देखने को मिलेंगे। स्कूलों में मास्टरजी बोलते थे तो ठीक है। कोई बात नहीं। स्कूल जैसे पुण्य स्थल पर कोई हमारा नाम ले, इसमें तो हमें गर्व ही होता था। लेकिन राजनीति में भी। छी-छी!’ दूसरे ने बात आगे बढ़ाई।
‘हमारे लोग भी राजनीति करते हैं, लेकिन क्या कभी हम मनुष्यों को बीच में लाते हैं!’
‘दादा सही बोला आपने। पहले भी ये लोग हर षाखा पर उल्लू बैठा जैसी ओझी बातें कहकर हमें लज्जित करते आए हैं।’
‘गलती हमारी ही है। हम कभी एकजुट हुए ही नहीं।’
दो उल्लुओं को उल्लू हित में चिंतन करते देख कुछ और उल्लू भी उनके निकट आ गए हैं। इनमें से अधिकांष को पता ही नहीं है कि मुद्दा क्या है, लेकिन सहमति में सिर हिलाए जा रहे हैं, मानो बाहरी समर्थन दे रहे हो। लेकिन एक ठसबुकिया टाइप उल्लू ने पूछ ही लिया,,:भाई आखिर ऐसा क्या हो गया? हमें भी तो बताओ।’
‘हमेषा ठसबुक पर ही लगे रहते हो। कुछ दुनियादारी की भी खबर रखा करो।’ बाहरी समर्थकों में षामिल एक अधेड़ से समझदार उल्लू बोला।
‘अरे भाई, हुआ यह कि राजनीति करने वाले एक आदमी ने कह दिया, चाय बनाने वालों की इज्जत करो, उल्लू बनाने वालों की नहीं। आपत्ति इसी बात पर है। हम क्या चाय से भी गए बिते हो गए! आप षौक से राजनीति करो। हमें कोई लेना-देना नहीं आपकी राजनीति से, लेकिन कृपा करके अपनी राजनीति में हमें घसीटकर हमारा मान-मर्दन तो न करो।’ उल्लू बोला। उसके सपाट चेहरे पर पीड़ा उभर आई।
ठसबुकिया उल्लू ने तत्काल अपडेट किया और अपनी दुनिया में फिर से खो गया।
इस बीच, चैापाल पर उल्लुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। कई युवा उल्लू मुट्ठियां भींच-भींचकर बात कर रहे हैं। जिन्होंने यह मुद्दा उठाया था, अब वे पीछे भीड़ में खो गए हैं। कुछ दुपट्टेधारी, कुछ खद्दरधारी तो कुछ टोपीबाज उल्लू भी चैपाल पर आ गए हैं और भाषणबाजी षुरू हो गई है।
स्थिति को विकट जानकार अंततः देवी को प्रकट होना पड़ा। ‘मेरे पुत्रों, नाराज माइंड न करो। मुझे ही देख लो। क्या मैंने कभी सोचा था कि ये इंसान मुझ पर ही कालिख पोत देंगे और काली चवन्नियों को राजनीति में भुनाएंगे? यह हुआ ना। आपको तो खुष होना चाहिए कि राजनीति में तो क्या, हर क्षेत्र में आपकी बिरादरी के लोग ठसे पडे हैं! थोडी-बहुत उंच नीच तो झेलनी होगी।’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती