बुधवार, 14 जून 2023

यथा जनता तथा नेता!


Jayjeet Aklecha/जयजीत अकलेचा


सभी विधर्मी पार्टियों को 'काफ़िर' भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए। चुनाव जीतने का सभी को बड़ा आसान-सा नुस्खा थमा दिया है। कहीं मंदिर चले जाओ, कहीं घाट पर आरती उतार आओ। कभी मंदिरों का निर्माण करवा दो, कभी किसी देवता के नाम पर करोड़ों रुपए का परिसर बनवा दो। लैटेस्ट आकर्षण भांति-भांति के बाबाजी हैं। किसी बाबाजी के चरणों में गिर जाओ, कभी उनसे अपने क्षेत्र में कथा करवा लो। सभी बाबाजी पार्टी लाइनों से ऊपर उठे हुए हैं। वैसे पार्टियों के बीच की ही लाइनें मिट गई हैं तो ये बेचारे बाबा बेमतलब में बंटकर अपनी मोह-माया का नुकसान क्यों करें!

लिहाजा; शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्लोबल वार्मिंग एवं एआई के संभावित खतरों, बढ़ते भ्रष्टाचार आदि बेकार के मुद्दों पर गंभीर चर्चा करने की अब कतई जरूरत नहीं है।
वैसे भी पांडालों में प्रसाद मिल ही रहा है और सरकारों के दरवाजों पर रेवड़ियां। जनता का पेट तो वैसे भी छोटा होता है। उसे और क्या चाहिए!
भाड़ में जाए आर्थिक विकास और वैज्ञानिक तरक्की। हमारे पास अपना खुद का एक अदद मोबाइल फोन तक नहीं है, तो क्या हुआ? चाइना बाजू में ही है। ढंग का ऑपरेटिंग सिस्टम तक नहीं है। कोई बात नहीं। अमेरिका पक्का मित्र है।
हां, बस चिंता है तो भारत के विश्व गुरु बनने की। लेकिन इसकी भी चिंता ना करें। एक न एक दिन कोई न कोई सरकार भारत देश का नाम बदलकर 'विश्व गुरु' कर ही देगी। तो यह चिंता भी खत्म!

शनिवार, 10 जून 2023

जहां वाकई 'जीरो टॉलरेंस' की जरूरत, वहां साबित हो रहे हैं 'जीरो'! तो बाकी जगह हीरोगीरी करने का क्या फायदा?




By Jayjeet Aklecha (जयजीत अकलेचा)

 

दो दिन पहले की खबर है। भोपाल में एक निर्माणाधीन सड़क के बीच में आ रहे पीपल-बरगद के दो पेड़ों को काटा जाने वाला था। लेकिन क्षेत्र की जागरूक महिलाएं आगे आईं, विरोध किया। और लाड़ली बहनाओं के भाई ने तुरंत एलान कर दिया- पेड़ नहीं कटेंगे, भले ही सड़क का काम रुक जाए। विकास पर हरियाली को वरीयता! वाकई प्रशंसनीय बात थी। राज्य के कर्णधारजी हर दिन रोजाना एक पौधा लगाते हैं। उन्हें यह उपक्रम करते हुए ढाई साल हो गए हैं। बेशक, यह भी प्रशंसनीय है।

लेकिन जब जंगल के जंगल साफ होने की खबरें आती हैं (देखें साथ लगी भयावह तस्वीर) तो उक्त सारी प्रशंसाओं पर पानी फिर जाता है। तब ये प्रशंसाएं महज गुलदस्ते में लगे प्लास्टिक के फूल की माफिक नजर आने लगती हैं। क्या कोई मान सकता है कि जंगल साफ हो रहे हों और जिम्मेदार अफसरों को खबर न लगे? ये वही मुख्यमंत्री हैं, जिनके राज्य के एक कलेक्टर ने दो दिन पहले लाड़ली बहना योजना में लापरवाही करने पर दो आंगनवाड़ी कर्मचारियों को जीरो टॉलरेंस दिखाते हुए तत्काल प्रभाव से बर्खास्त कर दिया था। लेकिन जहां असल जीरो टॉलरेंस दिखाने की जरूरत है, वहां यह सरकार, उसके कर्णधार और कर्णधार के बड़े-बड़े अफसर महज जीरो साबित हो रहे हैं।

सरकार और सरकार में बैठे लोग स्वयं को बार-बार सनातनी होने का दावा करते हैं, और उनके दावों पर कोई शक भी नहीं। लेकिन सनातनी होने का मतलब केवल धर्मांतरण पर हवा में मुटि्ठयां तानना भर या एक स्कूल को नेस्तनाबूद करना भर नहीं है। अगर आप सच्चे सनातनी हैं तो प्रकृति को नाश करने वालों के खिलाफ भी मुटि्ठयां तानें। जंगलों को तबाह करने वालों को तबाह करें। क्या किसी भी सनातनी को बताने की जरूरत है कि हिंदू मायथोलॉजी के अनुसार देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी ही ‘प्रकृति हैं! आखिर सनातनी लोग प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? कैसे कर रहे हैं?

याद रखिए, महाकाल धैर्यवान हैं, लेकिन उनके भी धैर्य की एक सीमा तो होगी! वे बीच-बीच में धैर्य खोने भी लगे हैं। यह दिखने लगा है। हर असामान्य आंधी-तूफान में मुझे उनके गुस्से की झलक नजर आती है। आपको भी आती होगी। लेकिन उन्हें अवतरित होने के लिए विवश मत कीजिए। वे अपनी प्रकृति की सार-संभाल करने की जिम्मेदारी हमें सौंप गए हैं।

#ShivrajSinghChouhan #MP

गुरुवार, 8 जून 2023

कैसे पता चलता है कि मानसून आ गया है?

 


कैसे पता चलता है कि मानसून (Monsoon) आ गया है? देख सकते हैं ये वीडियो...

अवकाश कैलैंडर के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर!



अगर ऐसा ही चलता रहा (और चलेगा ही) तो दो-चार साल में मप्र में शासकीय अवकाश कैलैंडर जारी करने के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर जारी करना पड़ेगा। इसमें बताया जाएगा कि सरकारी कर्मचारियों को किस महीने एक या दो दिन दफ्तर आना है।

यहां भी कर्मचारी इस बात पर अफसोस करेंगे कि फलाना छुट्टी शनिवार या रविवार को नहीं आती तो पूरे महीने भर की छुट्‌टी मिल जाती या दो महापुरुषों के एक ही दिन पैदा होने से अब उन्हें इस हफ्ते बुधवार को ऑफिस जाना होगा।
(हालांकि अभी साल में कुल मिलाकर केवल और केवल 182 दिन ही अवकाश लिए जा सकते हैं। यानी एक माह में मात्र 15 दिन। सरकार को इस पर तेजी से काम करना होगा। )

शुक्रवार, 2 जून 2023

भेड़िया आया भेड़िया आया… क्यों याद आ गई यह भूली-बिसरी कहानी!



By Jayjeet
यहां दी गई तस्वीर को याद रखिए, इसकी बात सबसे अंत में... सबसे पहले एक भूली-बिसरी कहानी की बात...
आज अचानक 'भेड़िया आया भेड़िया आया' की कहानी याद आ गई। हमारे यहां इन दिनों धर्मांतरण का परिदृश्य भी कुछ-कुछ इसी तरह का नजर आ रहा है। घास पर जरा-सी आहट नहीं हुई कि जोर-शोर से 'भेड़िया आया' का शोर उच्चारित होने लगता है और लोग हाथों में डंडे लिए धमक पड़ते हैं। कहानी वाले उसे लड़के का वह शोर केवल मन बहलाव का साधन था, लेकिन आज का यह शोर डराता है। विडंबना यह कि दोनों समुदायों को। हां, डराने से वोट मिलते हैं, लेकिन डरने-डराने के इस खेल से अलग से यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर 9-10 साल के भगवा शासनकाल के बाद भी देश का बहुसंख्यक समुदाय डर रहा है तो क्या उसे अपने प्रिय हिंदू हृदय सम्राटों से हाथ जोड़कर घर बैठने की विनती नहीं करनी चाहिए?
खैर, ताजा मामला मप्र के एक स्कूल का है। भारत की दो पवित्र नदियों गंगा-जमुना के नाम पर स्कूल का नाम है। संयोग से स्कूल के संचालक मुस्लिम हैं। हां, स्कूलों को स्कार्फ जैसी ड्रेस को ड्रेस कोड बनाने से बचना चाहिए, लेकिन इसके बावजूद केवल इस आधार पर इस स्कूल पर धर्मांतरण का आरोप लगाना फिर उसी भेड़िया आया की कहानी को दोहराना है। अल्लामा इकबाल को पसंद न करने और उन्हें खारिज करने की ढेरों वाजिब वजहें हो सकती हैं और हैं भी, इसके बावजूद राष्ट्रगान के साथ उनकी नज्म को पढ़वाने के आधार पर स्कूल को 'धर्मांतरण का केंद्र' बताना 'भेड़िया आया' का दूसरा शोर है।
'भेड़िया आया' का यह शोर ईसाई मिशनरीज स्कूलों व कॉलेजों को लेकर भी बीच-बीच में उठाया जाता रहा है। लेकिन आप चाहे ईसाइयों से लाख नफरत कर लें, इस सच को खारिज नहीं कर सकते कि देश में लाखों होशियार बच्चे इन्हीं मिशनरीज स्कूलों-कॉलेजों की देन हैं। अपेक्षाकृत सस्ती और बेहतर शिक्षा की गारंटी प्रदान करने वाली इन मिशनरीज स्कूलों के बरक्स ऐसी ही स्कूलें हमारे यहां के बहुसंख्यक समुदायों ने शुरू की हों, बहुत ज्यादा नजर नहीं आती हैं। विडंबनापूर्ण हकीकत यह भी है कि हिंदू हृदय सम्राटों के अनेक कट्टर समर्थकों के बच्चे भी इन मिशनरी स्कूलों में पढ़ रहे हैं या पढ़-लिखकर कई अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं।
बेशक, आर्थिक मोर्चे पर कुछ अच्छी खबरें सुकून दे रही हैं, लेकिन 'भेड़िया आया भेड़िया आया' का शोर इस सुकून को भंग करने का काम रहा है। मुझे यकीन है कि सरकारों में अब भी कुछ समझदार लोग बैठे हैं। बेहतर होगा कि वे जरा इन आवाजों को काबू में करें, ताकि असली और नकली भेड़ियों को पहचाना जा सके और अनावश्यक डर के माहौल को थोड़ा शांत किया जा सके।
और अब यहां दी गई तस्वीर की बात... जब मुझे इस तरह की लड़कियां धूप से बचने की कवायद करती नजर आती हैं तो मन में सूरज देवता के लिए संवेदनाएं और आशंकाएं भर जाती हैं... कहीं उन पर भी धर्मांतरण की साजिश में शामिल होने का आरोप ना लग जाएं... क्योंकि चेहरे पर किसी भी स्कार्फ को हिजाब बताए जाने का फैशन है इन दिनों...।
और आगे जाकर स्कार्फ पहनने की ये स्वतंत्रता भी छिन ली जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। धार्मिक पागलपन महिलाओं की आजादी को कुलचने के साथ ही आगे बढ़ता है... कहीं जबरदस्ती हिजाब पहनाकर तो कहीं जबरदस्ती स्कार्फ हटवा कर…!
(Disclaimer : तस्वीर केवल प्रतीकात्मक है जो गूगल से ली गई है।)

शनिवार, 27 मई 2023

यहां कोई हेडिंग नहीं... फोटोज में दी गईं हेडिंग्स काफी हैं...



(हां, 'सबका साथ, सबका विकास' योजना के अंतर्गत अब कोई बेरोजगार नहीं है। सरकार को लख-लख बधाइयां!!)
By Jayjeet
इंदौर में कथित तौर पर एक हिंदू लड़के के साथ एक मुस्लिम लड़की के घूमने पर मुस्लिम युवकों ने उसे रोका और मारपीट वगैरह की। हमारे राज्य के कर्णधार ने भी भयंकर सक्रियता दिखाते हुए आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के आदेश दिए।
हमारे कर्णधार जी हमेशा सजग और सतर्क रहते हैं। अब कुछ नामाकुल किस्म के लोग पूछ रहे हैं कि अगर लड़का मुस्लिम और लड़की हिंदू होती तो क्या वे कुछ कार्रवाई करते? उनका आरोप है कि कोई कार्रवाई नहीं होती।
क्यों नहीं करते जी? जरूर करते। वे नहीं करते तो उनके नंबर दो मिनिस्टर करते। वे ऐसे मामलों में उनसे भी तेज हैं। हां, तब कार्रवाई हिंदू लड़की के साथ घूमने वाले मुस्लिम लड़के के खिलाफ होती। पर, होती तो सही ना? ऐसे कैसे कह दिया कि कार्रवाई नहीं होती! कार्रवाई तो कार्रवाई है। इस 'कार्रवाई' और उस 'कार्रवाई' को देखिए। मुझे तो कोई अंतर नजर नहीं आता। इस ‘कार्रवाई’ में भी चार शब्द है और उस ‘कार्रवाई’ में भी चार शब्द।
हां, इस पूरी घटना का एक सकारात्मक पक्ष और है। मुस्लिम समाज अब आरोप ना लगाएं कि उसके युवाओं के पास कोई काम नहीं है। है, जरूर है। ये कोई कम काम है? अपनी बेटियों को काफिरों से बचाना कोई छोटा काम नहीं है। हिंदुओं से पूछिए जरा, केरल स्टोरी के बाद उनकी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गई है।
इसकी साजिश का भांडाफोड़, उसकी साजिश का भांडाफोड़... इसको मारो, उसको पीटो... कौन लड़की किस गैर धर्मी लड़के के साथ है... उफ्फ! कितना काम भरा है दुनिया में। इसके बाद भी अगर कोई कहें कि मैं बेरोजगार हूं तो हिंदू और मुस्लिम धर्मों के ठेकेदारों से मेरा विनम्र आग्रह है कि उसे दो चपत जरूर लगाएं।
…. और हां, हम सभी को उस कबाइली युग की वापसी की
बधाई
जिसमें एक कबीले के लोग अपने कबीले की महिलाओं को बचाने के लिए जी-जान लगा देते थे। महिलाएं तब उनके लिए वस्तु थी और वे खुद अपनी महिलाओं का इस्तेमाल कैसे भी कर सकते थे!! इसमें तब किसी को आपत्ति नहीं थी। आज भी शायद नहीं होगी!!!
लेकिन ठहरिए, जरा दोनों कबीलों की महिलाओं से पूछ लेते हैं...!

मंगलवार, 23 मई 2023

महाराणा प्रताप के वंशज का तमाचा… आवाज न आई, पर शायद चाेट तो लगी होगी!!!

 


 By Jayjeet

एक छोटी-सी खबर जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा, आज के परिप्रेक्ष्य में काफी महत्वपूर्ण है। यह खबर उन लोगों को आईना दिखाती है, जिनके लिए पुराने महान नायकों के नाम पर राजनीति करना शौक बन गया है।

महाराणा प्रताप के वंशज डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने कल महाराणा प्रताप की जयंती पर एक अखबार को दिए इंटरव्यू में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार महाराणा प्रताप एक जननायक थे, केवल हिंदू नायक नहीं। उन्होंने यह भी जोड़ा- हकीम खां सूर (शेर शाह सूरी के वंशज) उनके सेनापति थे। 

इस महत्वपूर्ण बात के साथ एक ऐतिहासिक तथ्य और जोड़ते चलते हैं। महाराणा प्रताप के मुख्य प्रतिद्वंद्वी यानी अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे राजा मानसिंह प्रथम। कल्पना कीजिए कि कितना दिलचस्प होगा वह नजारा- हल्दीघाटी की प्रसिद्ध जंग का मैदान। एक तरफ महाराणा प्रताप की सेना, जिसकी अगुवाई कर रहे हैं हकीम खां सूर और दूसरी तरफ अकबर की सेना जिसकी अगुवाई कर रहे हैं राजा मानसिंह।

लक्ष्यराज सिंह का यह कहना जितना उचित है कि प्रताप केवल हिंदू नायक नहीं थे, उतना ही उचित यह मानना भी है कि अकबर केवल मुस्लिमों के नायक नहीं थे। ये वे राजा थे, जिन्होंने कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़े थे। ये किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे, बल्कि ये सच्चे राजा का कर्त्तव्य निभा रहे थे, जिनके लिए अपनी धरती की रक्षा करना या अपने साम्राज्य का विस्तार करना ही सबसे महत्वपूर्ण था।

उपरोक्त तथ्य यह भी बताता है कि 400 साल में हम कहां से कहां आ पहुंचे। आज इक्कीसवीं सदी के नेता हमारे वीर प्रताप को हिंदुओं तक सीमित करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं और अकबर को तो इतिहास से निकालकर कूड़ेदान में पटक दिया गया है। अकबर के साथ-साथ राजा मानसिंह सहित उन नवरत्नों को भी जिनमें तानसेन, बीरबल और राजा टोडरमल भी शामिल हैं।

डॉ. लक्ष्यराज की बात शायद उन लोगों को 'धोखा' लग सकती है, जिन्होंने उन्हें अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाने के लिए बुलाया था। लेकिन डॉ. लक्ष्यराज ने बहुत ही साफगोई से यह बात कहकर साबित कर दिया कि वे वीर महाराणा प्रताप के वंशज यूं ही नहीं हैं। हो सकता है आपको अकबर पसंद ना हो, लेकिन सोचिए, क्या महाराणा प्रताप को हकीम खां सूर, अकबर और राजा मानसिंह के बगैर याद किया जा सकता है?

(पुनश्च... यह भी हो सकता है कि आने वाले वर्षों में ‘इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर सेनापति अदल-बदल दिए जाएं...! तब शायद यह धर्मसंकट भी खत्म जाएगा, जो आज उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य से कुछ लोगों के सामने खड़ा हो गया होगा। या कोई नया 'ऐतिहासिक तथ्य' यह भी आ सकता है कि मानसिंह की मां या बहनों को तो अकबर ने बंदी बनाकर रखा था और वह उसे लड़ने के लिए ब्लैकमेल कर रहा था, बिल्कुल बॉलीवुडी कहानी के खलनायक अजित की तरह... आजकल ऐतिहासिक तथ्यों को जिस तरह कहानियों जैसा ट्रीट किया जा रहा है तो यह असंभव भी नहीं है...!)

रविवार, 30 अप्रैल 2023

राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!


By Jayjeet Aklecha

यौन शोषण के आरोपों पर एफआईआर दायर होने के बाद भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह की पहली प्रतिक्रिया थी कि वह पूरी तरह मजे में है। जिस व्यक्ति पर हत्या के प्रयास करने सहित पहले से ही अनगिनत मामले दर्ज हों (ADR के अनुसार चार और याचिकताकर्ताओं के वकील के अनुसार 40), जिस पर कभी दाऊद इब्राहिम के साथियों को शरण देने का संगीन आरोप भी लग चुका हो, वाकई उसे इन 'छोटे-मोटे' आरोपों से क्या फर्क पड़ेगा?
लेकिन आरोपी के मजे में होने, उसकी नजर में 'छोटे-मोटे' आरोप होने के बावजूद ये आरोप इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि ये उन बेटियों ने लगाए हैं, जिनकी उपलब्धियों पर पूरा देश पार्टी लाइन से ऊपर उठकर गर्व करता है। ये आरोप गंभीर इसलिए भी हैं, क्योंकि बेटियों की उपलब्धियों की बात करते समय हमारे देश के प्रधानमंत्री की आंखें भी हमेशा गर्व से चमक उठती हैं। और ये आरोप इसलिए और भी गंभीर हैं, क्योंकि यह बृजभूषण उसी पार्टी से सांसद है, जो अक्सर उस सनातन संस्कृति की बात करती है, जहां 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' श्लोक दोहराने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती है।
पर दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि इस पूरे मसले का भी राजनीतिकरण हो गया है। हमारे यहां समस्या ही यह है कि हर मामले का राजनीतिकरण हो जाता है और भोली जनता उसकी बात को ही सच मानने लगती है, जिसकी राजनीति में ज्यादा दम होता है। अब देखिए ना, खबरें आ रही हैं कि यूपी के कुछ संतों ने भी भोलेपन में कह दिया है कि वे यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में जंतर-मंतर पर जाकर पहलवानों के खिलाफ धरना देंगे।
पर एक चिंता यह भी है। अगर भविष्य में इनमें से कोई महिला पहलवान कभी पदक जीतकर लाती है तो हमारे देश के सर्वोच्च कर्णधाता की आंखों में उसकी उपलब्धि का बखान करते समय क्या वैसी ही चमक होगी? या उस चमक पर बृजभूषण जैसे लोगों की कालिमा का ग्रहण रहेगा?
वैसे यह केवल एक नैतिक सवाल है, जिसका आज के राजनैतिक माहौल में कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन यह सवाल तो हमेशा मौजूं रहेगा कि हमने जिन हाथों में मेडल देखे हैं, आखिर सिस्टम के सामने में वे हाथ जुड़ने को मजबूर क्यों हो गए?

गुरुवार, 27 अप्रैल 2023

बोर्नविटा के बहाने आइए कुछ असल सवाल उठाएं…


By Jayjeet Aklecha

हमारे देश की बुनियादी समस्या यह है कि हम बुनियादी मुद्दों पर काम करने के बजाय दिखावे पर ज्यादा भरोसा करते हैं। और यह बीमारी आम लोगों से लेकर सरकारों तक में व्याप्त है। शायद इसीलिए सालों पहले ही लोहियाजी कह गए थे कि दुनिया की सबसे ढोंगी कौम अगर कोई है तो वह भारतीय है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। मामला बोर्नविटा का है। मिडिल क्लास से लेकर हायर क्लास परिवारों में इस्तेमाल होने वाला या कभी ना कभी इस्तेमाल हुआ हेल्थ ड्रिंक पाउडर। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इस पाउडर को बनाने वाली कंपनी से जवाब मांगा है। जवाब भी बस इस बात को लेकर कि उसने अपने प्रोडक्ट में चीनी व कुछ अन्य नुकसानदायक तत्वों की मात्रा को लेकर सही जानकारी क्यों नहीं दी। आप यकीन नहीं करेंगे, लेकिन दुखद सच यही है कि आयोग की आपत्ति केवल इस बात पर है कि कंपनी के विज्ञापन भ्रामक हैं। बस, विज्ञापन हटा दें, तो बाकी वह जो करें, सब ठीक है।
आयोग के अफसरों ने तो अपनी नौकरी कर ली है। बढ़िया है। आइए, हम कुछ काम करें, कुछ सवाल उठाएं। मेरा बुनियादी सवाल राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग से ही है। सीधा-सा सवाल यह है कि आज मैंने सुबह नाश्ते में अपने बच्चे को जो फल खाने को दिया या आज दोपहर में जो सब्जी खाने को दूंगा, उसमें चीनी से भी कई गुना घातक केमिकल्स से मैं अपने बच्चे को कैसे बचाऊं? या तमाम अभिभावक अपने-अपने बच्चों को कैसे बचाएं?
हम सब जानते हैं कि बाजार में कदम-कदम पर बिकने वाली तमाम सब्जियां-फल केमिकल्स से सने हुए हैं और इन्हें बच्चे ही नहीं, हम सब खा रहे हैं। हमारे घरों में, आस-पड़ोस में, ऑफिसों में नित बढ़ते कैंसर के मामले चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पानी सिर से कितना ऊपर जा चुका है। लेकिन फिर भी हम सतही चिंताओं में दुबले हुए जा रहे हैं। हमें चिंता इस बात की है कि ज्यादा बोर्नविटा पीने से बच्चे डायबिटीज के शिकार हो जाएंगे, लेकिन वे जिस दूध में इसे मिलाकर पी रहे हैं, उसमें कितने केमिकल्स बच्चों और बड़ों को कैंसर के करीब ले जा सकते हैं, इसकी किसी को चिंता है?
हम समझते हैं कि किसान आपका वोट बैंक है। ठीक है, उसे परेशान मत कीजिए। लेकिन फल-सब्जियों में घातक रसायन केवल किसान के खेत तक सीमित नहीं रह गए हैं। फलों-सब्जियों को पकाने, उसे अधिक चमकदार बनाने, कथित तौर पर मीठा बनाने का जो गोरखधंधा फसल के खेत से आने के बाद हो रहा है, हमें अपनी संस्थाओं व सरकारों से इस पर जवाब चाहिए। जवाब चाहिए कि हमारी आने वाली पीढ़ियों पर प्राणघातक बीमारियों का जो खतरा मंडरा रहा है, आखिर इसको लेकर वे क्या कर रही हैं? प्राकृतिक खेती का एक अव्यावहारिक जुमला उछाल भर देना काफी नहीं है, क्योंकि यह मामला केवल खेती तक सीमित नहीं रह गया है।
यह मुद्दा एक ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के बोर्नविटा में अधिक चीनी होने के आरोप के मद्देनजर उठा है। काश, कम से कम हमारे तथाकथित सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर असली मुद्दों पर काम करते। बोर्नविटा जैसे सतही मुद्दों से देश के बच्चों का स्वास्थ्य सुधरने वाला नहीं है। हां, ऐसे मुद्दों से ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ के फॉलोवर्स की संख्या जरूर बढ़ जाएगी, क्योंकि आखिर ढोंग तो हम सबमें उसी तरह रचा-बचा है, जैसे फलों-सब्जियों में केमिकल्स।
लोहियाजी को गलत साबित करने का वक्त आ चुका है। खुद को गलत साबित होने में उनकी आत्मा प्रसन्न ही होगी। लेकिन बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसी हमारी संस्थाओं, हमारी सरकारों और हम सभी को सतही मुद्दों से फुर्सत मिले, तभी तो।

सोमवार, 17 अप्रैल 2023

मेरी रेवड़ी अच्छी, तुम्हारी खराब!!!

 



By Jayjeet Aklecha

एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा करवाए गए एक सर्वे में एक बेहद रोचक आंकड़ा सामने आया है। इसके अनुसार 90 फीसदी सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को गलत ठहराया है। फ्रीबीज का मतलब मुफ्त अनाज, लाड़ली बहना टाइप की योजनाएं, बिजली बिलों में छूट, गरीबों को गैस सिलिंडर में सब्सिडी आदि।

यहां वह 10 प्रतिशत का डेटा काफी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने फ्रीबीज का विरोध नहीं किया है। इनके नैतिक साहस की सराहना की जा सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिन सरकारी कर्मचारियों ने फ्रीबीज को गलत बताया है, क्या वे इसका विरोध करने का कोई नैतिक आधार भी रखते हैं? आइए कुछ तथ्यों के साथ ही बात करते हैं।

- केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सरकारी कर्मचारियों पर हर साल 4,100 अरब रुपए पेंशन पर खर्च किए जाते हैं। नौकरी खत्म करने के बाद यानी बगैर काम किए यह पैसा फ्रीबीज ही है। हालांकि मैं यह कतई नहीं कर रहा हूं कि यह फ्रीबीज अनुचित है।

- नई पेंशन योजना के तहत अधिकांश सरकारें प्रत्येक सरकारी कर्मचारी की कुल सेलरी का 14 फीसदी अपनी तरफ से योगदान दे रही है। यानी 5 लाख सालाना वेतन पाने वाले कर्मचारी को हर साल औसतन 70 हजार रुपए सरकार दे रही है (वेतन के हिसाब से यह राशि कम-ज्यादा होगी)। यहां भी मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यह गलत है। पर कमजोर वर्गों को मिलने वाली फ्रीबीज को अनुचित बताने वाले कृपया वह डेटा लेकर आएं, जिसमें लोगों को हर साल कम से कम 70 हजार रुपए सरकार अपनी ओर से दे रही है और आने वाले कई सालों तक देगी।

अब इनमें हर साल मिलने वाले ढेरों अवकाश को भी जोड़ लेते हैं। 100 से 150 तक अवकाश तो होंगे ही। जिन्हें मुफ्त योजनाओं यानी फ्रीबीज का फायदा मिलता है, उनमें से अधिकांश असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले वे लोग हैं, जिनकी एक दिन की छुट्टी का मतलब एक दिन की कमाई से वंचित होना होता है।

खैर, यह पेंशन-अवकाश के दिन वेतन वाली फ्रीबीज तो उनके लिए हैं, जो जीवन भर ईमानदारी से काम करते हैं। फिर दोहरा रहा हूं कि यह फ्रीबीज पूरी तरह से गलत नहीं है।

अब जरा उस फ्रीबीज की बात कर लेते हैं जो सब कर्मचारियों को नसीब नहीं होती, लेकिन गरीबों को मिलने वाली फ्रीबीज का विरोध करने वाले 90 प्रतिशत में ये भी अवश्य शामिल रहे होंगे। विश्व बैंक के 2019 के एक आंकड़े के अनुसार दुनियाभर में रिश्वत से सिस्टम को 3,600 अरब रुपए का नुकसान हुआ। यह वह राशि है, जो काउंटेबल थी (व्यावहारिक समझ से हम अनुमान लगा सकते हैं कि यह बहुत छोटा आंकड़ा है )। रिश्वत में बड़ी राशि काउंटेबल नहीं होती है। भारत का अलग से आंकड़ा नहीं है, लेकिन कुछ सौ अरब रुपए तो मान लीजिए। नेताओं के बाद रिश्वत के ज्यादातर मामलों में सरकारी कर्मचारी शामिल होते हैं। तो सरकारी कर्मचारी इस फ्रीबीज के बारे में क्या कहेंगे? अगर देश की सभी लाड़ली बहनों को भी हर माह हजार-हजार रुपए दे दिए जाएं, तब भी वह राशि रिश्वत के बतौर सरकार को होने वाले नुकसान के बराबर नहीं पहुंच पाएगी।

बेशक, वृद्धावस्था में सरकारी कर्मचारियों का ध्यान रखना सरकार की जिम्मेदार है। निम्न वर्ग को भी अतिरिक्त आर्थिक सहायता पहुंचाकर उसके आर्थिक स्तर को ऊंचा उठाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। और खुले मन से यह स्वीकार करना सम्पन्न समाज की भी जिम्मेदारी है कि कमजोरों को हमेशा मदद की दरकार रहेगी।

हां, फ्रीबीज या रेवड़ियों के पीछे निश्चत तौर पर राजनीतिक मकसद होते हैं। हर रेवड़ी अच्छी नहीं हो सकती। उसी तरह से हर रेवड़ी खराब भी नहीं होती। और अगर खराब होगी तो सभी की होगी। मेरी रेवड़ी अच्छी, दूसरों की खराब, यह न्यायसंगत नहीं!

#freebies #Jayjeet #रेवड़ियां



रविवार, 9 अप्रैल 2023

पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...

 पुस्तक 'पांचवां स्तंभ' की समीक्षा...आज तक के एप चैनल 'साहित्य Tak' में...



'आज तक' वेबसाइट पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा - वीडियो


 'आज तक' पर किताब पांचवां स्तंभ की समीक्षा


मान लीजिए, कभी-कभी खराब राजनीति भी अच्छी सामाजिक क्रांति का वाहक बन जाती है…!

 



(तस्वीर किसी बैंक के बाहर लाइन में लगी लाड़ली बहनों की है।)

By Jayjeet Aklecha

हां, आप चाहें तो इसे राजनीतिक स्टंट बताकर खारिज सकते हैं।
अगर आप टैक्स पैयर्स हैं तो हमेशा की तरह इस बात की दुहाई देकर रोना-गाना कर सकते हैं कि मेरे टैक्स की राशि फिर किसी अपात्र को दी जा रही है...
लेकिन जो भी हो, यह है तो सामाजिक बदलाव की एक क्रांतिकारी योजना। ‘क्रांति’ अपने आप में एक बड़ा शब्द है, फिर भी यहां इस्तेमाल करने का दुस्साहस कर रहा हूं।
कभी-कभी राजनेता भी राजनीति के फेर में अच्छे सामाजिक कार्य कर बैठते हैं। ‘लाड़ली बहना योजना’ ऐसा ही वह राजनीतिक शिगूफा है, जो महिला सशक्तिकरण के तौर पर उतनी बड़ी सामाजिक क्रांति का जरिया बनने जा रही है, जिसका अंदाजा उन नेताओं को भी नहीं है, जिन्होंने महज वोट बटोरने के लिए आनन-फानन में इस योजना को शुरू किया है।
यह योजना क्रांतिकारी कैसे हो सकती है, इसके लिए पहले दो उदाहरण लेते हैं:
हाल ही में देश के एक जाने-माने लेखक से मेरी मुलाकात हुई। महिला सशक्तिकरण की बात चली तो बातों-बातों में उन्होंने अपनी बहन का किस्सा बताया। उनके मुताबिक उनकी बहन की शादी एक सम्पन्न लेकिन पारंपरिक परिवार में हुई, लेकिन आश्चर्य की बात थी कि वहां उनकी बहन का अपना कोई बैंक अकाउंट नहीं था। उसके बजाय उनके पति ने अपना एक डेबिट कार्ड दे रखा था और साथ ही उससे खर्च करने की अनलिमिटेड सुविधा भी। फिर भी वे खुश नहीं थीं। अंतत: लेखक ने उनके पति को बताए बगैर उनका खाता खुलवाकर उसमें एक छोटी-सी राशि डालनी शुरू की। एक लिमिटेड राशि। लेकिन अब उनकी बहन के पास अनलिमिटेड आर्थिक स्वायत्तता का एहसास है, जहां उनके खर्च पर किसी की निगाह नहीं है, अपने पति की निगाह भी नहीं।
दूसरा उदाहरण मेरे अपने घर का ही है। मेरी बेटी अभी-अभी 18 साल की हुई है। 18 साल की होते ही उसकी पहली डिमांड थी- मेरा बैंक अकाउंट हो। हर माह केवल 500 रुपए की राशि का ही वादा है मेरी तरफ से, लेकिन फिर भी खुशियां अनलिमिटेड हैं, क्योंकि अब उसके पास होगी 500 रुपए खर्च करने की आर्थिक स्वायत्तता।
तो विचार कीजिए उन लाखों गरीब-वंचित तबकों की महिलाओं के बारे में, जिनका पहली बार किसी बैंक में खाता खुलने जा रहा है या जिन्हें पहली बार एक निश्चित धनराशि अपने खाते में मिलने जा रही है। आर्थिक आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का यह एहसास इतना बड़ा है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हां, बैंकों में ऐसी महिलाओं की भारी भीड़ को देखकर यह महसूस जरूर कर सकते हैं कि सामूहिक तौर पर कुछ तो बदल रहा है।
अब कुछ बातें उनकी जो इसे मुफ्तखोरी बताकर इस पर सवाल उठा रहे हैं।
सवाल उठाना बुरी बात नहीं है। लेकिन कम से कम इस योजना पर तो केवल उसे ही सवाल उठाने का नैतिक अधिकार है, जिसने भ्रष्टाचार की गंगौत्री में बहने वाले अरबों रुपए पर कभी सवाल उठाया हो (और जिसमें समय-समय पर बैंकों में फंसी करोड़ों-अरबों रुपए की राशि को बट्टे-खातों में डालना भी शामिल है)।
अगर नहीं उठाया है तो फिर सामाजिक बदलाव की इस गंगौत्री को बहते देखिए।
फिर याद रखें, गरीब महिलाओं को दिया गया हजार रुपया अंतत: बाजार में ही आना है। और जब बाजार में पैसा घूमता है तो अर्थव्यवस्था का पहिया घूमता है। इसका फायदा ज्यादातर उसी वर्ग को होता है, जो अक्सर अपने टैक्स की दुहाई देता है।

सरकारी पेंशन: शेष 94 फीसदी लोग कम से कम यह तो पूछें- हमें वोट देने के लिए टाइम खोटी करना भी है कि नहीं?

 


By जयजीत अकलेचा
कांग्रेस जैसी विचारशून्य हो चुकी पार्टी के पास तो सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन को बहाल करने के अलावा कोई इश्यू था नहीं। तो उसने वही किया, जहां तक उसकी सोच जा सकती थी: जिन-जिन राज्यों में उसने चुनाव जीते, वहां फौरन इकोनॉमी का सत्यानाश करने वाले निर्णयों की घोषणा कर दी। लेकिन तमाम पुरातनपंथी सोच के बावजूद मुझे लगता था कि भाजपा कम से कम अपने शीर्ष पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी की उस पहल व इच्छा का सम्मान करना जारी रहेगी, जिसके तहत उन्होंने पेंशन जैसे भारी-भरकम अनुत्पादक खर्च को धीरे-धीरे कम करने का आइडिया दिया था। लेकिन राजनीति के इस दौर में जब चुनाव जीतना ही एकमात्र मकसद बन जाए तो बेचारे राजनीतिक दल भी क्या करें? पुरानी पेंशन स्कीमों को बहाल करने जैसे विकास विरोधी काम करना लाजिमी है। जैसी की खबरें आ रही हैं, अब कनार्टक के साथ-साथ मप्र की भाजपा सरकार भी पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की तरफ आगे बढ़ गई है और इस तरह देश को भाजपामुक्त बनाने की दिशा में भी एक और सशक्त कदम बढ़ा लिया गया है। कांग्रेस को भावभीनी
बधाई
!
खैर, नेताओं से कोई शिकायत नहीं। उनके 1,000 पाप माफ। लेकिन फिर वही बुनियादी सवाल- आखिर बाकी लोग सवाल क्यों नहीं उठाते? चलिए उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों को भी छोड़ दीजिए, जिनके वोटों के लिए सरकारें/पार्टियां मरी जा रही हैं। लेकिन बचे हुए वे 94 फीसदी लोग क्या कर रहे हैं, जो इस भारी-भरकम सरकारी मुफ्तखोरी की योजना के दायरे से बाहर हैं? वे क्यों यह एक अदद सवाल नहीं उठाते कि आखिर कुछ सालों के बाद इस पेंशन के लिए पैसा कहां से आएगा?
चलिए, पहले एक छोटा-सा भयावह आंकड़ा ले लेते हैं। हो सकता है, तब सवाल उठाने में आसानी हो: साल 2019-20 में केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा पेंशन और अन्य रिटायरमेंट लाभों पर पर कुल व्यय राशि सालाना 4,134 अरब रुपए पर पहुंच गई थी। यह राशि 30 साल पहले की तुलना में 80 गुना ज्यादा थी। अब 30 साल बाद का अनुमान लगा लीजिए। शायद आपका कैल्युलेटर तो इसकी गणना करते समय माफी मांग लेगा। अब वापस से सवालों के सिलसिले पर आते हैं: आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? राज्य कर्ज लेंगे, तो कर्ज चुकाएगा कौन? केवल सरकारी कर्मचारी तो नहीं चुकाएंगे। चुकाना तो उन 94 फीसदी को भी पड़ेगा, जो असेट्स क्रिएट करने में सबसे ज्यादा भूमिका निभाते हैं। क्या यह उन सरकारी लोगों की ‘सेवा’ की भारी कीमत नहीं है, जिन्हें ‘सेवा’ करने के लिए पीले चावल तो कतई नहीं दिए गए थे?
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब मोहन भागवत साहब ने एक परम ज्ञान दिया था कि युवा सरकारी नौकरी के पीछे ना भागें। पर अब भागवत जी मेरा उलट सवाल- क्यों न भागें? मैं ही बताता हूं। इसमें दो सुभीते हैं- एक तो नौकरी की पक्की गारंटी (जो कोविड जैसे संकट के समय काम आती है) और दूसरा, सरकारों पर पेंशन टाइप की योजनाएं बहाल करने के लिए संगठित तौर ब्लैकमेलिंग करने का सुभीता। सरकारी कर्मचारी अपनी मांगों के लिए जुट सकते हैं, प्रदर्शन कर सकते हैं। और बेचारी मासूम सरकारें, चूं तक नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें तो थोक में सरकारी कर्मचारियों के वोट चाहिए, नहीं तो दूसरी पार्टियां लार टपकाए बैठी ही हैं।
मान लेते हैं कि सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण केवल 6 परसेंट सरकारी कर्मचारी ही हैं। तो सत्तासीन और सत्ता में आने को आतुर पार्टियों से कम से कम 94 फीसदी लोग तो अब यह पूछें- क्या सरकारें हमें अपने 6 परसेंट लाड़लों की पेंशन के बदले में प्रोडक्टिविटी से भरपूर भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की गारंटी दे सकती है? हंड्रेड परसेंट नहीं। तो हमसे यह उम्मीद क्यों कि हम वोट देने भी अपने घरों से निकलें?
(पुनश्च: 30 साल के बाद आज के हालात को देखते हुए जैसी की आशंका है कि देश दिवालिया हो चुका होगा (और जैसा कि तय है कि नरक में बैठे हमारे आज के अधिकांश नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर एकसाथ बैठकर हमारी मूर्खता पर हंस रहे होंगे), उस समय उन 6 फीसदी सरकारी कर्मचारियों की नई पीढ़ी को भी शायद उतना ही खामियाजा भुगतना होगा, जितना की शेष 94 फीसदी लोगों की भावी पीढ़ियों को…।)

जतन करें कि शिवजी मुस्कराएं.. अन्यथा... ‌‌‌!!! और शिवजी केवल रुद्राक्ष को पूजने भर से खुश नहीं होंगे!!!

 


By जयजीत अकलेचा
पहली तस्वीर को सब जानते ही हैं। एक लोकप्रिय कथावाचक। और दूसरी तस्वीर से भी सब परिचित होंगे ही। एक निरीह-सा पौधा। इस दूसरी तस्वीर की चर्चा बाद में करुंगा। शुरुआत पहली तस्वीर के प्रसंग से ...
जो लोग स्वयं के सनातनी हिंदू होने का दावा करते हैं, उन्हें यह अवश्य पता होगा कि हमारे इस संसार का अस्तित्व प्रकृति के बगैर असंभव है। हिंदू मायथोलॉजी में देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी को ‘प्रकृति’ माना गया है। पूरे ब्रह्मांड के संतुलन के लिए इन दोनों का साथ जरूरी है... पर सबसे बड़ा सवाल- आज ‘प्रकृति’ कहां हैं? हम शिव को जरूर पूज रहे हैं, लेकिन उनकी अर्धांगिनी के इस स्वरूप के बगैर, प्रकृति के बगैर।
आइए, इस पूरे ज्ञान को थोड़ा आज के संदर्भ में और विस्तार देते हैं। मौसम वैज्ञानिकों ने एक बार फिर चेताया है कि इस साल भयंकर गर्मी पड़ने वाली है। और इस साल तो क्या, यह हर साल की बात हो गई है। गर्मी पड़ने वाली है, बढ़ने वाली है... लगातार। हो सकता है हमें विज्ञान और वैज्ञानिकों से भारी नफ़रत हो, तब भी हम इस कड़वी हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि अगली पीढ़ी का तो छोड़िए, आने वाले सालों में स्वयं हमें अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए जूझना पड़ सकता है। और यह भी कटु सत्य है कि अगर हम प्रकृति की ओर नहीं लौटें तो किसी भी बाबाजी-शास्त्रीजी का कोई चमत्कार हमें बचा नहीं पाएगा।
मैं कथावाचक बाबाओं/पंडितों/शास्त्रियों की भीड़ को खींचने की अ्दभुत क्षमता का वास्तव में कायल हूं। यह एक बड़ा टैलेंट है, इसमें कोई शक नहीं। इसके लिए उन्हें दिल से साधुवाद। मैं किसी भी बाबा को फॉलो नहीं करता हूं, इसलिए मुझे यह जानकारी कतई नहीं है कि कोई भी प्रकृति और प्रकृति के संरक्षण की बात भी करता है या नहीं (अगर की है तो कृपया मुझे करेक्ट करें। हां, केवल तुलसी, शमी, पीपल का महत्व बताने तक सीमित न हो। यह हमें पता है)। अगर नहीं की है, तो बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि ये सारे सनातनी होने के नाम पर हमें केवल हमारी सनातनी परंपरा की सतही बातों तक सीमित रखना चाह रहे हैं और कोई यह नहीं बता रहा कि सनातन काल में तो हम सभी केवल प्रकृति पूजक थे। पेड़-पौधे, जंगल, नदियां, पहाड़… ये ही हमारे आदिम देवी-देवता थे। मूर्तियां और मंदिर तो बाद में आए। एक यंत्र के तौर पर रुद्राक्ष तो और बाद में...
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, लोगों को प्रभावित करने की हमारे आज के बाबाओं-पंडितों में अद्भुत कला व क्षमता है। क्या ये अपनी इस कला का सही इस्तेमाल करते हुए लोगों को प्रकृति से नहीं जोड़ सकते? हां, वहीं ‘प्रकृति’ जो शिव के लिए सर्वोपरि हैं। मानव कल्याण की खातिर अगर शिवजी वैरागी होकर भी प्रकृति से जुड़े सकते हैं तो शिव का नाम जपने वाले हम सभी लोग दुनियादार होकर भी प्रकृति की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं?
आने वाले दिनों में देशभर में 48 लाख रुद्राक्ष बांटे जाएंगे। शिव भक्त दीवाने हुए जा रहे हैं। सब अच्छा है। पर काश, ये पंडितजी एक रुद्राक्ष के साथ एक-एक पौधा भी दें और कहें कि हे शिव के सच्चे भक्त, इसे रोपें और इसका मरते दम तक ख्याल रखें क्योंकि इसी में शिव की आत्मा बसती है। तो क्या असल चमत्कार नहीं होगा? क्या अपनी प्रकृति को लहलहाता देख शिव मुस्कराएंगे नहीं? शिव के मुस्कराने का मतलब है महाकल्याण और कुपित होने का मतलब, आप सब जानते ही हैं!!
अब, जरा दायीं वाली तस्वीर की बात ...यह मेरे द्वारा लगाए गए करीब डेढ़ दर्जन पौधों में से एक है। अब धीरे-धीरे बड़े हो रहे हैं। मैं नियमित तौर पर न रुद्राक्ष की पूजा करता हूं, न शिवजी की...शायद किसी की भी नहीं। मुझे तो शिवजी की अर्धांगनी का यह रूप पसंद है। लोग मूर्तियों को देखकर मुस्कराते हैं। मैं सुबह-सुबह इन डेढ़ दर्जन सजीव मूर्तियों को देखकर मुस्कराता हूं। यह मुंह मिया मिट्ठू वाली बात सिर्फ इसलिए, ताकि मेरा ज्ञान केवल थोथा ज्ञान न लगे। थोथा ज्ञान केवल मंचों और पंडालों से ही अच्छा लगता है...
मॉरल ऑफ द स्टोरी:
अगर हम वाकई सनातनी हिंदू हैं, तो अपनी प्रकृति को बचाएं। वह हमें बचा लेगी। और केवल एक पौधा हमें सच्चे सनातनी हिंदू होने का गर्व दे सकता है। शिवजी कुपित हो जाए, उससे पहले ही हम उनके मुस्कराने का जतन करें, इसी में सबकी भलाई है.... नहीं तो बाकी तो बातें हैं… करते रहिए और विनाश की ओर बढ़ते रहिए।
(Disclaimer: एक आम इंसान की तरह मैं भी बेहद स्वार्थी हूं और मुझे केवल मेरे घर की चिंता है... इसलिए मैं केवल अपने धर्म, अपनी संस्कृति की बात कर रहा हूं। कोई यह ज्ञान न दें कि दूसरे धर्म की बात क्यों नहीं...! दूसरे धर्म के बारे में दूसरे सोचें, अगर सोच सकें... )

शनिवार, 5 नवंबर 2022

उफ!!! ये तो भारी सदमे वाली खबर है...!!





By Jayjeet
यह ऐसी सदमा पहुंचाने वाली खबर है, जिसने मुझे लिखने को मजबूर कर दिया। दो कर्मचारियों ने 1500 रुपए की रिश्वत ली। लोकायुक्त संगठन ने योजना बनाकर उन्हें पकड़ा, आठ साल तक कमरतोड़ मेहनत की और अंतत: सजा दिलवाकर ही चैन लिया। आखिर इन कर्मचारियों ने ऐसे क्या पाप किए थे, जो वे इस सजा की पात्र थीं? मेरी नजर में उनके ये तीन महापाप हैं :
1. रिश्वत ली भी तो कितनी? महज 1500 रुपए की। अगर आप इतनी टूच्ची-सी रिश्वत मांगोगे या लोगे तो क्या संदेश जाएगा? यही ना कि कितनी छोटी औकात है? आपकी छोटी औकात ही हमारी सरकारी जांच एजेंसियों की हिम्मत देती है, और इतनी हिम्मत देती है कि केस को मुकाम तक पहुंचाकर ही दम लेती है।
2. ठीक है, आपने रिश्वत ली। पर पकड़ में क्यों आ गई? इन दोनों अनाड़ियों को इतना भी पता नहीं था कि रिश्वत लेना जुर्म नहीं है, पकड़ में आना जुर्म है। अगर रिश्वत लेना नहीं आता था कि तो अपने वरिष्ठ अफसरों से सीख लेतीं। वरिष्ठ अफसर आखिर होते किसलिए हैं! शायद इन दोनों ने अपने अफसरों को कॉन्फिडेंस में ही नहीं लिया होगा। इतना सेल्फ कॉन्फिडेंस ठीक नहीं।
3. चलिए, ढंग से रिश्वत लेना नहीं सीखा, पर देना भी नहीं सीखा? क्या ये खुद को आम लोगों से ऊपर समझती थीं? खुद को आम लोग समझतीं तो शायद रिश्वत देने में भी भरोसा करतीं। पकड़ में आ जाने भर को इन्होंने अपना खेल खत्म समझ लिया होगा, जबकि पकड़ में आ जाने के बाद ही असली खेल शुरू होता है (अब क्या कहें, ये देश के सिस्टम को भी नहीं जानती, चली रिश्वत लेने!)। तो बेचारे लोग टापते रहे। और फिर क्या करते! खीजकर सजा दिलवाने में जुट गए। इसीलिए ऊपर लिखा, अपने अफसरों से सीखतीं। बड़े अफसर आखिर होते ही इसलिए हैं।
तीन-तीन बड़ी-बड़ी गलतियां कीं और सजा केवल चार साल? ये तो सिस्टम के साथ बहुत नाइंसाफी है। इसलिए मुझे ज्यादा सदमा लगा। मैंने पिक्चरों में देखा है (पता नहीं क्या सच है) कि कई बार जज साहब सबसे बड़ी सजा देते हुए अपने पेन की निब तोड़ देते हैं। इन दोनों को वैसी ही निब-तोड़ सजा मिलनी चाहिए थी...इसी लायक थी। अगर ऐसी सजा मिलती तो बाकी टुच्चे रिश्वतियों के लिए मिसाल बनती।
(सीखिए, सीखने के लिए कोई रिश्वत ना देनी पड़ती। परसों की ही खबर है। यूपी में 5 लाख रुपए की रिश्वत के दोषी पाए गए DSP को डिमोट करके इंस्पैक्टर बनाया गया है। केवल डिमोट किया गया, 1500 रुपए की टुच्ची रिश्वतखोरों की तरह जेल ना भेजा गया क्योंकि रिश्वत की रकम देखिए। अगर 5 के आगे एक-आध जीरो और लग जाता तो हो सकता, SP पद पर प्रमोट कर दिए जाते!)

ऐसे और भी व्यंग्य आपको मिलेंगे पांचवां स्तंभ में :  (https://amzn.to/3z543lm)

सोमवार, 3 अक्तूबर 2022

जयजीत अकलेचा की व्यंग्य पुस्तक पांचवां स्तम्भ : व्यंग्य विधा में अनुपम प्रयोग

पांचवां स्तंभ, जयजीत ज्योति अकलेचा की पांचवां स्तंभ किताब, व्यंग्य किताब, satire book, Panchwa Stambh book, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, शरद जोशी के व्यंग्य, ब्रजेश कानूनगो

By ब्रजेश कानूनगो

हिंदी साहित्य में इन दिनों कुछ विधाओं में रचनाओं में एक तरह का उछाल सा महसूस किया जा रहा है। साहित्य की विशिष्ट पत्रिकाओं को छोड़कर खासतौर पर लोकप्रिय पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित रचनाओं की बात करें तो लघुकथा और व्यंग्य विधा के जरिए साहित्य संसार में प्रवेश के बड़े द्वार खुल गए हैं।

आधुनिक टेक्नोलॉजी से सम्पन्न और अभ्यस्त अनेक नए लेखक बारास्ता सोशल मीडिया भी कविता के बाद व्यंग्य और लघुकथा के क्षेत्र में ही अधिक सक्रिय नजर आ रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य विधा में जो बहुतायत से लिखा हुआ आ रहा है उस पर कई सवाल भी खड़े किए जाते रहे हैं। विधा की लोकप्रियता और लेखकों की भीड़ के बीच रचनाओं की गुणवत्ता के पतन की बात भी उठती रही है।

व्यंग्य विधा के मानक सौंदर्यशास्त्र के अभाव में परसाई जी और शरद जोशी या अन्य विशिष्ठ व्यंग्यकारों द्वारा स्थापित व्यंग्य के मानकों पर आज भी नई रचनाओं को परखने की विवशता दिखाई देती है। प्रेमचंद के बाद कहानी और परसाई के बाद हिंदी गद्य व्यंग्य की कई पीढ़ियाँ तो निर्धारित की गईं किन्तु रचना की श्रेष्ठता का कोई मानक पैमाना तय नहीं है और न ही हो सकता है। यह अवश्य है कि रचना की विषय वस्तु के निर्वाह में किसी लेखक के जो विचार व  सरोकार दिखाई देते हैं वे निश्चित ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसके बाद भाषा,शैली और व्यंग्य रचना के प्रारूप पर भी ध्यान जाता है।

युवा पत्रकार और व्यंग्यकार जयजीत ज्योति अकलेचा की पहली किताब 'पांचवा स्तम्भ' पर बात करने से पहले मुझे उपर्युक्त चर्चा जरूरी इसलिए भी लगती है कि जयजीत ने व्यंग्य विधा की अब तक कि परंपराओं को नए और अपने  तौर तरीकों से आगे बढ़ाने का साहस किया है। यद्यपि कई बार अखबारी लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता भी कहा गया है। मुझे याद आता है शरदजी के कॉलम लेखन को साहित्यिक पत्रकारिता कहा गया था और उन्हें पद्मश्री भी पत्रकारिता वर्ग में प्रदान किया गया। खबरों और अखबारों की सुर्खियों पर ही ज्यादातर कॉलमी व्यंग्य रचनाएं आ रही हैं जो तात्कालिक संदर्भों के होने से पाठकों को आकर्षित तो करती ही हैं पर संपादकों को भी उन्हें प्रकाशित करने में सुविधा हो जाती है।

थोक में लिखी जा रही ऐसी रचनाओं से इतर जयजीत अकलेचा की रचनाएं इसलिए अलग हो जाती हैं कि पत्रकार होने के कारण खबरों और सुर्खियों के भीतर उतरकर उसकी आत्मा तक पहुंच जाने की योग्यता उनमें पेशागत रूप से है। दूसरे वे जोखिम लेकर अपनी रचनाओं का प्रारूप बदलकर विधा के विकास में अगला महत्वपूर्ण कदम बढ़ा देते हैं।

जयजीत की किताब 'पांचवां स्तम्भ' की सबसे बड़ी खूबी यही है जैसा कि ब्लर्ब में चर्चित व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने कहा भी है, इनमें व्यंग्य विधा में नए प्रयोगों का साहस सचमुच स्पष्टतः परिलक्षित होता है। आवरण पर इसे व्यंग्य रिपोर्टिंग की पहली किताब कहा गया है। निसंदेह व्यंग्य रिपोर्टिंग पहले भी इक्का दुक्का देखने पढ़ने को मिलती रही है। जयजीत के अलावा भी कई पूर्ववर्ती लेखको नें इस प्रारूप को आजमाया है। जयजीत स्वयं 'हिंदी सेटायर' जैसे डिजिटल मंच पर इस तरह लिखते रहे हैं। पुस्तक में ज्यादातर तात्कालिक खबरों और प्रसंगों पर लेख, रिपोर्टिंग किस्से तो हैं हीं साथ ही 'इंटरव्यू' प्रारूप में भी बड़ी दिलचस्प रचनाएं देनें में वे सफल हुए हैं।

मैं इस पुस्तक की हर पंक्ति से ध्यानपूर्वक गुजरा हूँ और कह सकता हूँ कि हर शब्द और वाक्य पाठक को रोमांचित करता है और बहुत प्रभावी रूप से बांधे रखता है। पहले सोच रहा था कुछ पंक्तियों के उदाहरण देकर अपनी बात को पुष्टि दूँ किन्तु यह बिल्कुल भी सम्भव नहीं। हर पंक्ति देकर समीक्षा को लंबा खींचना न सिर्फ लेखक की प्रतिभा के प्रति बल्कि संभावित पाठकों की जिज्ञासा के प्रति भी गलत होगा। पाठक इस किताब को मंगवाकर अवश्य पढ़ें। लेखक की गहरी व्यंग्य समझ और रोचक, मारक प्रस्तुति के कायल हुए बगैर नहीं रहेंगे।

यद्यपि लेखक बड़ी विनम्रता से इब्ने इंशा के कथन को उद्धरित कर कहते हैं, हमने इस किताब में कोई नई बात नहीं लिखी है,वैसे भी आजकल किसी भी किताब में कोई नई बात लिखने का रिवाज़ नहीं है। परंतु मेरा मानना है नया और मौलिक तो कुछ दुनिया में होता ही नही है, हर नई बात एक लंबी परंपरा का नए तरीके से विकास होता है। जयजीत इस किताब में विधा के विकास में एक नया और सार्थक प्रयोग करते हैं। हिंदी व्यंग्य शैली में इन दिनों आई बोझिलता और एकरसता को तोड़ते हैं।

देश दुनिया में प्रजातंत्र के चार स्तंभों की स्थिति कुछ भी चल रही हो, जयजीत अकलेचा का 'पांचवां स्तम्भ' निसंदेह व्यंग्य विधा का ध्वज फहराने योग्य है। बहुत बधाई।

(पुस्तक: पांचवां स्तम्भ, लेखक :जयजीत ज्योति अकलेचा, प्रकाशक : मेंड्रेक पब्लिकेशन भोपाल, कीमत : 199 रुपये)

यह किताब अमेजन पर उपलब्ध हैhttps://amzn.to/3z543lm

(ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्यकार हैं।)


------------------------------------------

Tags : पांचवां स्तंभ, जयजीत ज्योति अकलेचा की पांचवां स्तंभ किताब, व्यंग्य किताब, satire book, Panchwa Stambh book, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, शरद जोशी के व्यंग्य, ब्रजेश कानूनगो

मंगलवार, 2 अगस्त 2022

चंदन चाचा के बाड़े में, नाग पंचमी की कविता (Nag panchami classic kavita )



नागपंचमी (Nag panchami) से संबंधित कविता चंदन चाचा के बाड़े में ...( chandan chacha ke bade me)। इसे मप्र के जबलपुर के कवि नर्मदा प्रसाद खरे ने लिखा था। इसे सबसे पहले 1960 के दशक में कक्षा 4 की बाल भारती में शामिल किया गया था। हालांकि कुछ सोर्स इसके कवि सुधीर त्यागी बताते हैें। 

नर्मदा प्रसाद खरे
सूरज के आते भोर हुआ
लाठी लेझिम का शोर हुआ
यह नागपंचमी झम्मक-झम
यह ढोल-ढमाका ढम्मक-ढम
मल्लों की जब टोली निकली।
यह चर्चा फैली गली-गली
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

सुन समाचार दुनिया धाई,
थी रेलपेल आवाजाई।
यह पहलवान अम्बाले का,
यह पहलवान पटियाले का।
ये दोनों दूर विदेशों में,
लड़ आए हैं परदेशों में।
देखो ये ठठ के ठठ धाए
अटपट चलते उद्भट आए
थी भारी भीड़ अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

वे गौर सलोने रंग लिये,
अरमान विजय का संग लिये।
कुछ हंसते से मुसकाते से,
मूछों पर ताव जमाते से।
जब मांसपेशियां बल खातीं,
तन पर मछलियां उछल आतीं।
थी भारी भीड़ अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

यह कुश्ती एक अजब रंग की,
यह कुश्ती एक गजब ढंग की।
देखो देखो ये मचा शोर,
ये उठा पटक ये लगा जोर।
यह दांव लगाया जब डट कर,
वह साफ बचा तिरछा कट कर।
जब यहां लगी टंगड़ी अंटी,
बज गई वहां घन-घन घंटी।
भगदड़ सी मची अखाड़े में,
चंदन चाचा के बाड़े में॥

वे भरी भुजाएं, भरे वक्ष
वे दांव-पेंच में कुशल-दक्ष
जब मांसपेशियां बल खातीं
तन पर मछलियां उछल जातीं
कुछ हंसते-से मुसकाते-से
मस्ती का मान घटाते-से
मूंछों पर ताव जमाते-से
अलबेले भाव जगाते-से
वे गौर, सलोने रंग लिये
अरमान विजय का संग लिये
दो उतरे मल्ल अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

तालें ठोकीं, हुंकार उठी
अजगर जैसी फुंकार उठी
लिपटे भुज से भुज अचल-अटल
दो बबर शेर जुट गए सबल
बजता ज्यों ढोल-ढमाका था
भिड़ता बांके से बांका था
यों बल से बल था टकराता
था लगता दांव, उखड़ जाता
जब मारा कलाजंघ कस कर
सब दंग कि वह निकला बच कर
बगली उसने मारी डट कर
वह साफ बचा तिरछा कट कर
दंगल हो रहा अखाड़े में
चंदन चाचा के बाड़े में।।

# nag-panchami-kavita  # नागपंचमी की कविता