गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

हमास-इजरायल संघर्ष: इसे धर्म का मामला कतई ना बनाएं! यह विशुद्ध जियो-पॉलिटिकल इश्यू है, जिसमें बस्स, इंसानियत रौंदी जा रही है!!!

By Jayjeet Aklecha (जयजीत अकलेचा)

फलस्तीनी आतंकी संगठन हमास और इजरायल के बीच ताजे संघर्ष को लेकर हमारे यहां आम से लेकर खास लोगों की जो टिप्पणियां आ रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि कुछ लोग इस मामले को भी धर्म का चोला पहनाने में लग गए हैं। बेशक, हमास ने जो किया, वह अत्यंत बर्बर हमला था। इसे 'क्राइम अगेंस्ट ह्यूमैनिटी' भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। लेकिन फिर भी क्या इसका वाकई धर्म से लेना-देना है? एक त्वरित निगाह:
इस पूरे मामले में, जैसा कि लाजिमी था, अमेरिका ने इजरायल का समर्थन किया है। यानी एक क्रिश्चियन बाहुल्य देश एक यहूदी बाहुल्य देश के साथ है। बढ़िया...
रूस ने अमेरिका के स्टैंड का विरोध करते हुए परोक्ष रूप से हमास का समर्थन किया है। रूस भी क्रिश्चियन बाहुल्य देश है और आज भी एक बड़ी विश्व शक्ति है। यानी एक क्रिश्चियन बाहुल्य शक्ति (अमेरिका) एक मुस्लिम संगठन के खिलाफ है तो दूसरी क्रिश्चियन बाहुल्य शक्ति (रूस) उसी मुस्लिम संगठन के साथ है।
यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने रूस और हमास दोनों को एक ही थैले का चट्टे-बट्टे बताया है। मतलब यूक्रेन परोक्ष रूप से इजरायल के साथ है। अब रूस और यूक्रेन के बीच धर्म-संस्कृति के नाम पर कितनी समानता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इस समानता के बावजूद ये दोनों भी आपस में कितनी क्रूरता से लड़ रहे हैं, यह भी क्या बताने की जरूरत है?
लेकिन अभी तो थोड़ा-सा ही पेंच फंसा है। आगे चलते हैं।
UAE ने इस हिंसा के लिए हमास को जिम्मेदार ठहराया है। यूएई एक मुस्लिम बाहुल्य देश है। तो, एक मुस्लिम बाहुल्य देश का स्टैंड ठीक वही है, जो क्रिश्चियन बाहुल्य देशों (अमेरिका-यूक्रेन) का है, यानी मुस्लिम देश एक मुस्लिम संगठन के खिलाफ है।
पर ईरान? ईरान ने इजरायल का विरोध किया है, करते आया है। यह भी लाजिमी है, क्योंकि अमेरिका इजरायल के साथ है, साथ रहा है। जिस दिन अमेरिका इजरायल के खिलाफ हो जाएगा (हालांकि जो बेहद काल्पनिक स्थिति है, पर असंभव कुछ भी नहीं है), उस दिन ईरान इजरायल के साथ हो जाएगा!
और सबसे बड़ी बात… हमास फलस्तीनियों का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं है। फलस्तीनियों के असल प्रतिनिधित्व का दावा करता है फतह। दोनों मुस्लिम संगठन हैं, दोनों का गठन फलस्तीनियों को अधिकार दिलाने के मकसद से हुआ। दोनों का लक्ष्य एक ही है- इजरायल का समूल नाश। और, मजेदार बात, दोनों के बीच खूनी और राजनीतिक संघर्ष आम बात है।
तो कुल मिलाकर यह वैसा वाला धार्मिक मामला कतई नहीं है, जैसा वाला हममें से कुछ लोग इसे समझ रहे हैं या दूसरों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं। यह विशुद्ध जियो-पॉलिकल इश्यू है, जिसमें हमारे यहां के कुछ मासूम भाई लोग अनावश्यक धर्म का एंगल फंसा रहे हैं।
धर्म के नाम पर बंटवारे का जो खेल ब्रिटेन ने भारत के साथ किया था, वही खेल उसने इजरायल और फलस्तीन के साथ किया। एक मुस्लिम बाहुल्य इलाके में जबरदस्ती यहूदियों को बसाने का मकसद भी यह था कि दुनिया धर्म के नाम पर लड़ती रहे। दुनिया धर्म के नाम पर तो नहीं लड़ रही, लेकिन जियाे-पॉलिटिकल समस्या के रूप में उसने दुनिया को अशांति का पर्याप्त बारूद जरूर थमा दिया है, जिससे गाहे-बगाहे चिंगारियां उठती रहेंगी।
फौरी तौर पर राहत की बात यह है कि आज दुनिया कम से कम धर्म के नाम पर धुव्रीकृत नहीं है (दुर्भाग्य से आतंक के खिलाफ एक भी नहीं है!)। जब तक एक ही अब्राहमी धर्म से निकलने वाली तीनों शाखाएं - यहूदी, ईसाई और मुस्लिम आपस में ही गुत्थम-गुत्था होती रहेंगी (पर धर्म के नाम पर नहीं), तब तक धुव्रीकरण की आशंका दूर-दूर तक बनती नजर नहीं आएगी। और जब तक दुनिया में जियो-पॉलिटिकल इश्यू रहेंगे, तब तक यह संभावना बनेगी भी नहीं।
इसलिए धर्म का मामला न बनाते हुए इस विशुद्ध मानवीय नृशंसता का मामला बताइए। पहल भले ही आतंकी संगठन हमास ने की हो, लेकिन उसी की लाइन को बढ़ाने का काम एक संप्रभु राष्ट्र इजरायल भी कर रहा है।
और अंत में एक निवेदन… कोई संयुक्त राष्ट्र से केवल इतना भर पूछ लें - वह है कहां?

मंगलवार, 19 सितंबर 2023

'बांझन को पुत्र देत' ही क्यों? और फिर, एक पवित्र आरती में 'बांझन' जैसा असंसदीय शब्द भी क्यों?

By Jayjeet Aklecha

मैंने एक क्विक गूगल सर्च के जरिए यह जानने की कोशिश की कि आखिर 'जय गणेश जय गणेश देवा' आरती लिखी किसने। गूगल पर नहीं मिला तो चैट जीपीटी पर सर्च किया। उसने श्रद्धाराम फिल्लौरी का नाम दिया है, लेकिन मेरी जानकारी में पंजाब के उन्नीसवीं इस कवि ने सबसे लोकप्रिय आरती 'ओम जय जगदीश हरे' लिखी है और उनके नाम पर 'जय गणेश देवा' का कोई जिक्र कम से कम गूगल सर्च में नहीं मिला। पर फिर भी कुल मिलाकर प्रतीत यही होता है कि यह आरती काफी पुरानी है और इसलिए उस आरती की इन लाइनों -
अंधन को आंख देत,
कोढ़िन को काया।
बांझन को पुत्र देत
निर्धन को माया॥
में 'बांझन को पुत्र देत' पंक्तियों को तब के समाज की साइकी के हिसाब से शायद उचित ठहराया जा सकता है...!
लेकिन आज जबकि देश ने सांसद-विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने की दिशा में कमर कस ली है, हम दस दिन सुबह-शाम गणेश देवता की यह आरती गाएंगे तो क्या केवल पुत्र की ही आकांक्षा हमारे दिलों से निकलनी चाहिए?
यह स्वयं देवता के प्रति अन्याय है, क्योंकि हमारे देवता भी समय-परिस्थितियों के साथ बदले हैं (सबसे बड़ा उदाहरण स्वयं गणेजी के पिता शिवजी का है) और जब वे बदल सकते हैं तो हम क्यों नहीं? या तो 'बांझन को पुत्र देत' वाली पंक्ति ही हटाई जानी चाहिए या फिर इसे कुछ ऐसी पंक्ति से रिप्लेस किया जाना चाहिए जो पुत्र-पुत्री दोनों के लिए इस्तेमाल में आता हो। वैसे तो 'बांझन' शब्द पर भी सोचना चाहिए। क्या आज कोई सभ्य समाज 'बांझ' शब्द का इस्तेमाल करता है? तो एक पवित्र आरती में इस असंसदीय शब्द का इस्तेमाल क्यों?
तो 'बांझन को पुत्र देत' के बजाय 'संतानहीन को संतान देत' टाइप कुछ किया जा सकता है। वैसे भी संतानहीन केवल महिला ही नहीं, पुरुष भी कहलाता है। 'बांझन' शब्द संतानहीनता का पूरा दायित्व महिला पर डालता प्रतीत होता है, वह भी एक 'कलंक' के तौर पर और हम आरती के जरिए देवता से आग्रह करते हैं कि उसे इस 'कलंक' से मुक्ति दिलाएं!! देवता को इतने धर्मसंकट में ना डालें!!
पर यह बदलाव करेगा कौन? जब 'भद्रा में राखी ना बंधेगी' जैसे धर्मादेश आ सकते हैं और हममें से अधिकांश लोग उसका पालन करते हैं तो इस तरह के आदेश भी लाए ला सकते हैं। वैसे तो इसकी आवश्यकता भी नहीं है। अगर आप खुद को जरा-सा प्रगतिशील मानते हैं तो अपने-अपने घरों में ही इसे कर सकते हैं, अपनी-अपनी सोसाइटियों या कॉलोनियों में कर सकते हैं। और अगर हमारे आज के कथित संत, जो बेशक लोकप्रिय तो हैं, अगर इस नेक काम का बीड़ा उठाएं तो शायद धर्मप्रिय लोगों के लिए इसे आजमाना और भी आसान हो जाएगा।

शुक्रवार, 8 सितंबर 2023

धर्म पर बातें करना अब नेताओं का पसंदीदा शगल! क्योंकि इससे सियासी पाप धोना ज्यादा आसान हो जाता है...!!!

By Jayjeet Aklecha

डीएमके के दो नेताओं द्वारा सनातन धर्म पर दिए गए बयानों से सबसे ज्यादा आनंद किस राजनीतिक दल को आ रहा होगा? बताने की जरूरत नहीं। वही जो सनातन धर्म का सबसे बड़ा पैरोकार होने का दावा करता है। यह राजनीति की विडंबना भी है और मजबूरी भी।
पिछले कुछ सालों से धर्म राजनीति की मुख्यधारा में आ गया है। नेताओं के लिए अब धर्म का इस्तेमाल करना, धर्म की पैरोकारी करना या किसी धर्म विशेष को गालियां देना आम हो गया है तो इसकी वजह भी बहुत स्पष्ट है। धर्म पर अपनी सुविधा से बात करना नेताओं के लिए बड़ा आसान हो जाता है। सत्ता में रहते हुए आपने क्या किया, इसके लिए कोई आंकड़े नहीं देने हैं। आप क्या नहीं कर पाए, इसको लेकर कोई सफाई नहीं देनी है। धर्म आपको अपने तमाम सियासी पापों को धोने का एक दरिया उपलब्ध करवा देता है।
डीएमके के दो नेताओं के बयानों पर आते हैं। तमिलनाडु की राजनीति से गैर वाकिफ लोगों को यह गलतफहमी हो सकती है कि सनातन धर्म के खिलाफ ये बयानबाजी आकस्मिक और नासमझी में की गई बयानबाजी है। लेकिन हकीकत तो यह है कि ये बयान उन नेताओं ने बहुत ही सोच-विचारकर और जानबूझकर तय रणनीति के तहत दिए हैं। तमिलनाडु की जमीन उस पेरियारवाद की प्रवर्तक रही है, जिसने हिंदू धर्म की जातिवादी व्यवस्था की सबसे ज्यादा और सबसे प्रभावी मुखालफत की है, इतनी प्रभावी कि आज वह वहां की राजनीति की मजबूत बुनियाद है। वहां की दोनों प्रमुख पार्टियां डीएमके और एआईडीएमके दोनों पेरियार के 'सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट' से ही निकली हैं। ऐसे में वहां तो दोनों के बीच पेरियार की विचारधारा के अनुरूप रिएक्ट करने की होड़ लगी रहती है। जो इस होड़ में आगे रहता है, वही सियासी बाजी भी मारता है।
हिंदू धर्म को 'सनातन धर्म' के रूप में इस्तेमाल करने के ताजे 'फैशन' से वहां के नेताओं, खासकर डीएमके जैसे कट्‌टर पेरियारवादी राजनीति करने वालों के लिए और भी आसान हो गया है। हिंदू शब्द में अनेक सुधारवादी अंतरधाराएं रही हैं, जो उन्हें कई बार फ्रीहैंड रिएक्शन से रोक देती है। लेकिन 'सनातन' उन्हें उस कथित 'मनुवाद' के करीब लगता है, जिसका विरोध उनकी राजनीति को उर्वर बनाते आया है। इसलिए डीएमके के दोनों नेताओं ने अपनी टिप्पणियों में बहुत ही शिद्दत के साथ 'सनातन' शब्द का इस्तेमाल किया है, 'हिंदू' शब्द का नहीं।
तो मानकर चलिए, अगर भाजपा ने 350 सीटों के लक्ष्य के लिए सनातन धर्म की पैरोकारी को अपनी राजनीति का आधार बनाया है तो डीएमके व उनके गठबंधन की नजर तमिलनाडु में लोकसभा की सभी 39 सीटों पर है और इसके लिए सनातन धर्म के खिलाफ बयानबाजी उनका ताजा हथियार है। यकीन मानिए, यह 'सनातन धर्म' पर हमले की केवल शुरुआत भर है और भाजपा के लिए 2024 के अभी से जश्न मनाने की शुरुआत भी। क्योंकि चुनाव जीतने के लिए धर्म ने आखिर सभी को जवाबदेह मुक्त एक आसान तरीका थमा दिया है।
लेकिन चलते-चलते एक सवाल राहुल गांधी से भी... 'नफरत' को लेकर राहुल गांधी का स्टैंड मुझे पसंद है। लेकिन नई परिस्थितियों में क्या वे यह स्पष्ट करेंगे कि भाजपावादियों की नफरत खराब और उनके गठबंधन के एक सहयोगी द्वारा फैलाई जा रही नफरत अच्छी!! यह भला कैसे?

बुधवार, 9 अगस्त 2023

गांधी जी को बार-बार नजरें झुकाने के लिए विवश न करें!!!



क्या बेहतर नहीं होगा कि तमाम नेतागण, चाहें वे किसी भी पार्टी के हों, महात्मा गांधी को अकेला छोड़ दें...? उन्हें बार-बार नजरें झुकाने के लिए मजबूर करने का क्या मतलब?

गुरुवार, 27 जुलाई 2023

नेताओं पर उंगली अवश्य उठाएं, मगर आज अपनी ओर उठीं इन चार उंगलियों पर भी एक नजर डाल लेते हैं...!

By Jayjeet Aklecha

'बैंक बाजार' की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में उच्च शिक्षा की पढ़ाई 20 साल में आठ गुना महंगी हो गई है। अब एमबीए जैसे कोर्स के 25 लाख रुपए तक लग रहे हैं। आज कई अखबारों में यह रपट छपी है। हां, इस रिपोर्ट के साथ ही एक प्रमुख राजनीतिक दल की आगागी चुनाव घोषणाएं भी प्रमुखता से छपी हैं, जिनमें किसानों की कर्ज माफी के साथ कई तरह के लोकलुभावन वादे शामिल हैं। एक अन्य प्रमुख दल तो लाड़ली बहनाओं को तीन हजार रुपए प्रतिमाह देने सहित कई घोषणाएं पहले कर ही चुका है। घोषणाओं का सिलसिला जारी है। और भी कई दल मुफ्त की घोषणाओं में एक-दूसरे से होड़ में हैं।
वापस रिपोर्ट पर आते हैं। भारत में लोगों की जो परचेसिंग पावर है, उसके हिसाब से उच्च शिक्षा पर यह खर्च कई उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों तक की नींद उड़ाने के लिए काफी होना चाहिए। अब रिपोर्ट आई है तो इसके लिए हम अपने उन नेताओं पर उंगली उठा सकते हैं, जो ऊपर वर्णित नाना तरह की घोषणाएं करते थकते नहीं हैं। पर आज हम अपनी ओर उठी चार उंगलियों की ओर भी देख लेते हैं:
- हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी धर्म या जाति से जुड़ा है। खबरें हमें बताती हैं कि अमुक जाति के लोगों ने अपनी जाति से ही उम्मीदवार या आरक्षण की मांग की है। हम बस इसी मांग से अपनी जातिगत ताकत को महसूस कर खुश हो जाते हैं। पार्टियां और भी ज्यादा खुश, क्योंकि उनकी इस मांग को पूरा करने के बदले में उन्हें थोकबंद वोट मिल जाते हैं।
- हम सरकारों या पार्टियों से मंदिर मांगते हैं, मस्जिद मांगते हैं, गिरजाघरों की सुरक्षा मांगते हैं। सरकार आसानी से दे देती हैं या जो विपक्ष में हैं, वे ये मुहैया करवाने के वादे कर देते हैं। हम खुश हो जाते हैं, सरकार व पार्टियां और भी खुश।
- हम सब इन छोटी-छोटी बातों से खुश हो लेते हैं कि हमें बिजली के बिल में कितनी छूट मिली, हजार रुपए का गैस सिलेंडर पांच सौ रुपए में मिल गया, हमारे बच्चे को लैपटॉप या स्कूटी मिल गई, हमारे कर्ज के एक-दो लाख रुपए माफ हो गए। राजनीतिक दल हमारी इन छोटी-छोटी खुशियों में हमेशा साथ होते हैं। वजह जाहिर है।
- जब भी बजट आता है तो कथित मध्यम वर्ग की बस एक ही पैराग्राफ में दिलचस्पी होती है- इनकम टैक्स में उसे कोई छूट मिली या नहीं। 12-15 हजार की छूट मिलने या ना मिलने के आधार पर वह बजट को सबसे अच्छा या सबसे खराब ठहरा देता है।
एक प्रसिद्ध उक्ति बार-बार दोहराई जाती है कि मां भी बच्चे को तभी दूध पिलाती है, जब बच्चा रोता है। हमारा रोना अपनी जाति के किसी उम्मीदवार को टिकट, मंदिर-मस्जिद, कर्ज माफी, मुफ्त की बिजली, दो-चार हजार रुपए की कैश मदद, टैक्स में 10-15 हजार की छूट तक सीमित है। क्या हमने कभी बेहतर सस्ती शिक्षा मांगी है? क्या कभी बेहतर हॉस्पिटल मांगे हैं? जिस तरह से आरक्षण की मांग के लिए हम सड़कों पर उतरते हैं, क्या इनके लिए कभी सड़कों पर उतरते हैं?
अब ऐसे में यह सवाल पूछना तो और भी बेमानी लगता है कि आखिर जहां दुनिया के बाकी देश 8 दिन में चंद्रमा पर पहुंचकर वापस भी आ जाते हैं, हमारे चंद्रयान को वहां पहुंचने में ही 40-45 दिन क्यों लग रहे हैं? हमें सरकार बस यह आंकड़ा देकर झूठे गर्व से ओतप्रोत कर देती है कि हमारा अभियान सबसे सस्ता है। जहां दुनिया को अरबों डॉलर लगते हैं, हमें केवल कुछ करोड़ लगेंगे। हम यह भूल जाते हैं कि बैलगाड़ी से सफर हमेशा किसी कार की तुलना में सस्ता ही होगा। वैज्ञानिकों का बैलगाड़ी में सफर करना मजबूरी बन जाता है, क्योंकि उन्हें जो पैसे मिलने चाहिए, वे तो चुनाव जीतने में खर्च हो रहे हैं।
जाहिर है, यह तो हमें तय करना है कि सरकारों से और राजनीतिक दलों से हमें क्या चाहिए। राजनीतिक प्रतिष्ठान वे सबकुछ देंगे, जिससे उन्हें चुनाव जीतने में मदद मिले। अगर हम शिक्षा, स्वास्थ्य और विज्ञान के आधार पर उन्हें वोट देंगे तो वे हमें ये तीनों चीजें देंगे, अवश्य देंगे।
मगर फिलहाल तो उन्हें मंदिर, मस्जिद, जाति, गैस सिलेंडर, एक-दो हजार की खैरात से ही वोट मिल रहे हैं। हम इसमें खुश हैं और जाहिर है, वे भी!

रविवार, 23 जुलाई 2023

देख लीजिए, हम तो नंगे थे ही, आप भी नंगे निकले!!!

By Jayjeet

मणिपुर में महिलाओं की मर्यादा को चूर-चूर करने वाला वीडियो आया। भयावह, मर्मांतक। चूंकि वहां भाजपा की सरकार है, तो विपक्षी दल जोश में हैं। मर्माहत कितने, पता नहीं, पर जोश में तो हैं ही। जाहिर है, यह जोश ठंडा होना ही चाहिए। तो इसे ठंडा करने की दायित्व उठाया भाजपा के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने। कल उन्होंने बंगाल में कुछ महिलाओं द्वारा दो महिलाओं को निर्वस्त्र करने की कुछ दिन पूर्व की एक घटना का वीडियो पटक दिया।
निर्वस्त्र महिलाओं का जवाब निर्वस्त्र महिलाओं से...!
हमें पता है कि नैतिकता के हमाम में हमारे राजनीतिक दल कपड़े नहीं पहनते हैं, लेकिन उनकी अंतरात्माएं भी वस्त्र उतार फेकेंगी, वह भी इतनी जल्दी, इसका अंदाजा नहीं था। अंदाजा नहीं था कि ऐसी घटनाओं के प्रति संवेदनशील होने के बजाय राजनीतिक दल विरोधी पार्टियों वाली सरकारों के राज्यों से चुनकर-चुनकर ऐसे वीडियो निकालेंगे और बेइंतहा 'खुशी' के साथ सोशल मीडिया पर शेयर करके कहेंगे- देख लीजिए, हम तो नंगे थे ही, आप भी नंगे निकले। मणिपुर के वीडियो के बाद बंगाल का वीडियो। हो सकता है, कल कांग्रेस के ट्विटर हैंडल पर मप्र राज्य का कोई ऐसा वीडियो मिले, परसो राजस्थान का!
ये घटनाएं तो घृणित हैं ही, मगर इनसे भी ज्यादा घिनौनापन है इन घटनाओं पर हमारी मानसिकता का दो विपरीत राजनीतिक खेमों में बंट जाना। महिलाओं को भाजपा और भाजपा विरोधी सरकारों के राज्यों में बांट देना। हमने इतिहास की किताबों में ही पढ़ा था कि युद्धरत सेनाएं महिलाओं की मान-मर्यादाओ के साथ खेलती थीं। इतिहास की किताबों को बदलते-बदलते देश इस मुकाम पर पहुंच गया है कि वही कबाइली मानसिकता फिर उभर आई है, जिनमें महिलाएं बस एक 'संपत्ति' है...। कथित संत धीरेंद्र शास्त्री जब बिना सिंदूर व मंगलसूत्र वाली शादीशुदा औरत को 'खाली प्लॉट' कहते हैं तो वे इसी मानसिकता को और भी स्पष्ट कर रहे होते हैं।
लेकिन हां, समस्या इस देश की साइकी में पुरुषों का हावी भर होना नहीं है, जितना इसे खुद महिलाओं द्वारा स्वीकार करना। कथित संत के बयान पर प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने के बजाय वहां बैठी महिलाएं बस खिलखिलाती हैं... और लड़कियों द्वारा खुद हिजाब पहनने की 'आजादी' की मांग करके पुरुषों की गुलाम मानसिकता में स्वयं को जकड़ लेने के दुराग्रह पर तो क्या ही टिप्पणी करें!

सोमवार, 17 जुलाई 2023

शहरों का नाम क्यों न नदी कर दें...!


#flood #floods


अगर हमारी सरकारें शहरों का नाम बदलकर 'नदी' या 'दरिया' टाइप कुछ कर दें, जैसे दिल्ली नदी, मुंबई नदी, शिमला नदी... तो फिर शहरों को बाढ़ से बचाने की चिंता ही खत्म हो जाएगी। फिर वे अपना पूरा ध्यान 'विकास' पर लगा सकेंगी !!!

सोमवार, 19 जून 2023

इस तस्वीर के मर्म को समझिए... समझ जाएंगे कि मर्यादा पुरुषोत्तम का मतलब क्या है!



(और हां, मनोज मुंतशिर भी यह समझें कि जो बोओगे, वही तो काटोगे!)
By Jayjeet
बेशक, आदिपुरुष को बहुत अमर्यादित तरीके से बनाया गया। बेशक, मनोज मुंतशिर ने बेहद अमर्यादित संवाद लिखे। और सफाई में उनके दिए गए बयान तो और भी अमर्यादित, कुतर्क की तमाम पराकाष्ठाओं को लांघ गए। इसका विरोध होना चाहिए था। मैंने भी किया और आज भी करता हूं।
लेकिन कुछ लोगों ने विरोध का जो तरीका अपनाया गया, अब उस पर विचार करने का वक्त आ गया है। क्या उसे हम मर्यादित मानेंगे? जैसा कि मुंतशिर ने कल एक ट्वीट में बताया, कई लोगों ने उनकी मां और परिवार की महिला सदस्यों के खिलाफ भारी अभद्र शब्दों का इस्तेमाल किया है। कौन-सा धर्म किसी मां के खिलाफ अमर्यादित होने की अनुमति देता है? और क्या यह बताने की जरूरत होनी चाहिए कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण के खिलाफ जो लड़ाई लड़ी थी, उसके केंद्र में नारी प्रतिष्ठा की रक्षा करना ही मुख्य था?
एक क्षत्रिय संगठन के अध्यक्ष ने कहा, 'फिल्म आदिपुरुष के डायरेक्टर को ढूंढो और मारो।' क्या यह मर्यादा पुरुषोत्तम के क्षत्रिय आदर्शों के अनुरूप है? रामायण कहती है- वास्तविक क्षत्रिय वह है, जो अपने दुश्मन का भी सम्मान करता है।
और कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता तो इस पूरे मामले में अचानक से राजनीति को ले आए- 'हमारे राजीव जी के समय की रामायण तो ऐसी थी और मोदीजी के समय की रामायण ऐसी..' वैचारिक विरोध में भी ऐसी मूढ़ बातें?
और ये तमाम अमर्यादित आचरण किए गए उस एक महान किरदार के नाम पर जिसे हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम से जानते और पूजते हैं।
हां, मनोज मुंतशिर जैसों को भी अब समझ में आना चाहिए कि भस्मासुर की कहानियां उन्हीं को सबक देने के लिए लिखी गई हैं। 'जैसा बोओगे, वैसा ही काटोगे', मुहावरा भी शायद उन्हीं के लिए बनाया गया है। राष्ट्रवाद और सनातन के नाम पर उन्होंने भी कोई कम प्रपंच नहीं किए। याद रखना होगा कि चीजें धीरे-धीरे बिगड़ती हैं। उन्हें पाकिस्तान याद आना चाहिए। वहां अतिवादी अंतत: उन्हीं के लिए मुसीबत बन गए, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा था।
मनोज यह भूल गए कि वे लेखक हैं, लेकिन उन्होंने लेखकीय धर्म नहीं निभाया। उनके जैसे लोग यह धर्म निभाते तो धर्म के नाम पर देश आज इस तरह अराजकता के मोड़ पर नहीं पहुंचता।
बस, अगला डर यही है कि दुनिया का सबसे उदार धर्म, जिसने मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे ऐसे महानायक दिए जो शत्रुओं को भी शत्रु नहीं मानते हैं, जिनकी रामराज्य की परिकल्पना में हिरण और शेर एक घाट पर पानी पीते हैं, कहीं उस चौराहे पर ना पहुंच जाए जहां कथित ईश निंदा का मतलब होता है खुलेआम मौत।
और हां, इस तस्वीर के मर्म को समझना बेहद जरूरी है। असहमति का मतलब उसकी प्रतिष्ठा का अपमान करना नहीं है। इसे समझ गए तो देश 'अधर्मयुद्ध' के पागलपन से बाहर आ जाएगा।

रविवार, 18 जून 2023

आदिपुरुष: मनोज मुंतशिर के बयान तो उनके डायलॉग्स से भी एक कदम आगे!! कुतर्कों की पराकाष्ठा है ये...

 


By Jayjeet Aklecha
मनोज मुंतशिर को 'आदिपुरुष' में लिखे उनके डायलॉग्स के लिए शायद एक बार के लिए माफ भी किया जा सकता है, लेकिन अपनी सफाई में दिए गए इन बयानों के लिए क्या उन्हें माफ करना चाहिए?
1. नफरत फैलाने की कोशिश: जैसे ही मूवी का विरोध शुरू हुआ, उनका बयान आया- 'मूवी का विरोध वे लोग कर रहे हैं जिन्हें थिएटर में गूंजते जय श्री राम के नारों से आपत्ति है।'
यहां उन्होंने दो वर्गों के बीच फैली नफरत की आग को और फैलाने की विफल कोशिश की। शुक्र है लोग उनके भरमाने में नहीं आए।
2. भावनाओं को कैश करने की कोशिश : जब विरोध बढ़ा तो उनका बयान था - 'यह रामायण पर आधारित नहीं है।'
लेकिन मूवी के एक दिन पहले का उनका ट्वीट देखिए - 'श्री राम की सेना….आज बजरंग बली की सीट छोड़कर, पूरा थियेटर भर देना! जय श्री राम!' निश्चित तौर पर वे रामायण की लोकप्रियता के साये में हिंदुओं की भावनाओं को कैश करने की कोशिश कर रहे थे। तो वे कम से कम अपने स्टैंड पर ही टिके रहते।
3. नई पीढ़ी को दिग्गभ्रमित करने की कोशिश: और जब दोनों बयान काम नहीं आए तो उन्होंने कहा, 'मैंने आज की भाषा में डायलॉग्स लिखे हैं, ताकि नई पीढ़ी को समझ में आ सके।'
नई पीढ़ी आज भारतीय संस्कृति, हिंदू जीवन शैली, हिंदू मॉयथोलॉजी को समझने के लिए काफी तत्पर हैं। उसे सही भाषा में सही ज्ञान देने की जरूरत है। पर मनोज आज के बच्चों को क्या समझाना चाहते थे? यह कि हनुमान जी एक टपोरी जैसे थे? (क्योंकि फिल्म में उनकी भाषा से तो उन्हें जाने-अनजाने यही दिखाने की कोशिश की गई )। फिर समझ के मामले में उन्होंने आज की पीढ़ी को जरा अंडर एस्टीमेट नहीं कर लिया?
कुल मिलाकर आदिपुरुष ने वह सुनहरा मौका खो दिया, जिसके जरिए पूरे देश-दुनिया को श्रीराम के असल आदर्शेों के बारे में बताया जा सकता था। नई पीढ़ी को बताया जा सकता था कि हिंदू जीवन शैली वास्तव में है क्या। और इस अवसर को खोने के लिए केवल मुंतशिर ही नहीं, फिल्म निर्माण से जुड़े सभी लोग जिम्मेदार हैं।

राही मासूम रज़ा V/S मनोज मुंतशिर...!!

Jayjeet Aklecha

बायीं तरफ की तस्वीर में दिवंगत राही मासूम रज़ा दिखाई दे रहे हैं। इन्होंने 'महाभारत' धारावाहिक की पटकथा और संवाद लिखे। कितने परिष्कृत, कितने नफ़ीस, शायद किसी को बताने की जरूरत नहीं है। दाहिनी ओर के शख्स मनोज मुंतशिर हैं। इन्होंने 'आदिपुरुष' के संवाद लिखे हैं, और ऐसे कि पूरी मूवी विवादों में आ गई है।
ये उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि हवा-हवाई बातें कहने से आप संस्कृति और राष्ट्रवाद के ठेकेदार जरूर बन सकते हैं, लेकिन संस्कृति के असल ध्वजवाहक नहीं।
यह उदाहरण ये सवाल भी पेश कर रहा है कि आप किसी व्यक्ति का मूल्यांकन केवल इस आधार पर करेंगे कि वह किस धर्म या जाति में पैदा हुआ या इस आधार पर कि देश और उसकी संस्कृति को लेकर उसे कितना इल्म है? या कड़े शब्दों में कहें तो उसमें कितनी तमीज है?

बुधवार, 14 जून 2023

यथा जनता तथा नेता!


Jayjeet Aklecha/जयजीत अकलेचा


सभी विधर्मी पार्टियों को 'काफ़िर' भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए। चुनाव जीतने का सभी को बड़ा आसान-सा नुस्खा थमा दिया है। कहीं मंदिर चले जाओ, कहीं घाट पर आरती उतार आओ। कभी मंदिरों का निर्माण करवा दो, कभी किसी देवता के नाम पर करोड़ों रुपए का परिसर बनवा दो। लैटेस्ट आकर्षण भांति-भांति के बाबाजी हैं। किसी बाबाजी के चरणों में गिर जाओ, कभी उनसे अपने क्षेत्र में कथा करवा लो। सभी बाबाजी पार्टी लाइनों से ऊपर उठे हुए हैं। वैसे पार्टियों के बीच की ही लाइनें मिट गई हैं तो ये बेचारे बाबा बेमतलब में बंटकर अपनी मोह-माया का नुकसान क्यों करें!

लिहाजा; शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, ग्लोबल वार्मिंग एवं एआई के संभावित खतरों, बढ़ते भ्रष्टाचार आदि बेकार के मुद्दों पर गंभीर चर्चा करने की अब कतई जरूरत नहीं है।
वैसे भी पांडालों में प्रसाद मिल ही रहा है और सरकारों के दरवाजों पर रेवड़ियां। जनता का पेट तो वैसे भी छोटा होता है। उसे और क्या चाहिए!
भाड़ में जाए आर्थिक विकास और वैज्ञानिक तरक्की। हमारे पास अपना खुद का एक अदद मोबाइल फोन तक नहीं है, तो क्या हुआ? चाइना बाजू में ही है। ढंग का ऑपरेटिंग सिस्टम तक नहीं है। कोई बात नहीं। अमेरिका पक्का मित्र है।
हां, बस चिंता है तो भारत के विश्व गुरु बनने की। लेकिन इसकी भी चिंता ना करें। एक न एक दिन कोई न कोई सरकार भारत देश का नाम बदलकर 'विश्व गुरु' कर ही देगी। तो यह चिंता भी खत्म!

शनिवार, 10 जून 2023

जहां वाकई 'जीरो टॉलरेंस' की जरूरत, वहां साबित हो रहे हैं 'जीरो'! तो बाकी जगह हीरोगीरी करने का क्या फायदा?




By Jayjeet Aklecha (जयजीत अकलेचा)

 

दो दिन पहले की खबर है। भोपाल में एक निर्माणाधीन सड़क के बीच में आ रहे पीपल-बरगद के दो पेड़ों को काटा जाने वाला था। लेकिन क्षेत्र की जागरूक महिलाएं आगे आईं, विरोध किया। और लाड़ली बहनाओं के भाई ने तुरंत एलान कर दिया- पेड़ नहीं कटेंगे, भले ही सड़क का काम रुक जाए। विकास पर हरियाली को वरीयता! वाकई प्रशंसनीय बात थी। राज्य के कर्णधारजी हर दिन रोजाना एक पौधा लगाते हैं। उन्हें यह उपक्रम करते हुए ढाई साल हो गए हैं। बेशक, यह भी प्रशंसनीय है।

लेकिन जब जंगल के जंगल साफ होने की खबरें आती हैं (देखें साथ लगी भयावह तस्वीर) तो उक्त सारी प्रशंसाओं पर पानी फिर जाता है। तब ये प्रशंसाएं महज गुलदस्ते में लगे प्लास्टिक के फूल की माफिक नजर आने लगती हैं। क्या कोई मान सकता है कि जंगल साफ हो रहे हों और जिम्मेदार अफसरों को खबर न लगे? ये वही मुख्यमंत्री हैं, जिनके राज्य के एक कलेक्टर ने दो दिन पहले लाड़ली बहना योजना में लापरवाही करने पर दो आंगनवाड़ी कर्मचारियों को जीरो टॉलरेंस दिखाते हुए तत्काल प्रभाव से बर्खास्त कर दिया था। लेकिन जहां असल जीरो टॉलरेंस दिखाने की जरूरत है, वहां यह सरकार, उसके कर्णधार और कर्णधार के बड़े-बड़े अफसर महज जीरो साबित हो रहे हैं।

सरकार और सरकार में बैठे लोग स्वयं को बार-बार सनातनी होने का दावा करते हैं, और उनके दावों पर कोई शक भी नहीं। लेकिन सनातनी होने का मतलब केवल धर्मांतरण पर हवा में मुटि्ठयां तानना भर या एक स्कूल को नेस्तनाबूद करना भर नहीं है। अगर आप सच्चे सनातनी हैं तो प्रकृति को नाश करने वालों के खिलाफ भी मुटि्ठयां तानें। जंगलों को तबाह करने वालों को तबाह करें। क्या किसी भी सनातनी को बताने की जरूरत है कि हिंदू मायथोलॉजी के अनुसार देवी यानी शिवजी की अर्धांगिनी ही ‘प्रकृति हैं! आखिर सनातनी लोग प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? कैसे कर रहे हैं?

याद रखिए, महाकाल धैर्यवान हैं, लेकिन उनके भी धैर्य की एक सीमा तो होगी! वे बीच-बीच में धैर्य खोने भी लगे हैं। यह दिखने लगा है। हर असामान्य आंधी-तूफान में मुझे उनके गुस्से की झलक नजर आती है। आपको भी आती होगी। लेकिन उन्हें अवतरित होने के लिए विवश मत कीजिए। वे अपनी प्रकृति की सार-संभाल करने की जिम्मेदारी हमें सौंप गए हैं।

#ShivrajSinghChouhan #MP

गुरुवार, 8 जून 2023

कैसे पता चलता है कि मानसून आ गया है?

 


कैसे पता चलता है कि मानसून (Monsoon) आ गया है? देख सकते हैं ये वीडियो...

अवकाश कैलैंडर के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर!



अगर ऐसा ही चलता रहा (और चलेगा ही) तो दो-चार साल में मप्र में शासकीय अवकाश कैलैंडर जारी करने के बजाय 'वर्किंग डे' का कैलेंडर जारी करना पड़ेगा। इसमें बताया जाएगा कि सरकारी कर्मचारियों को किस महीने एक या दो दिन दफ्तर आना है।

यहां भी कर्मचारी इस बात पर अफसोस करेंगे कि फलाना छुट्टी शनिवार या रविवार को नहीं आती तो पूरे महीने भर की छुट्‌टी मिल जाती या दो महापुरुषों के एक ही दिन पैदा होने से अब उन्हें इस हफ्ते बुधवार को ऑफिस जाना होगा।
(हालांकि अभी साल में कुल मिलाकर केवल और केवल 182 दिन ही अवकाश लिए जा सकते हैं। यानी एक माह में मात्र 15 दिन। सरकार को इस पर तेजी से काम करना होगा। )

शुक्रवार, 2 जून 2023

भेड़िया आया भेड़िया आया… क्यों याद आ गई यह भूली-बिसरी कहानी!



By Jayjeet
यहां दी गई तस्वीर को याद रखिए, इसकी बात सबसे अंत में... सबसे पहले एक भूली-बिसरी कहानी की बात...
आज अचानक 'भेड़िया आया भेड़िया आया' की कहानी याद आ गई। हमारे यहां इन दिनों धर्मांतरण का परिदृश्य भी कुछ-कुछ इसी तरह का नजर आ रहा है। घास पर जरा-सी आहट नहीं हुई कि जोर-शोर से 'भेड़िया आया' का शोर उच्चारित होने लगता है और लोग हाथों में डंडे लिए धमक पड़ते हैं। कहानी वाले उसे लड़के का वह शोर केवल मन बहलाव का साधन था, लेकिन आज का यह शोर डराता है। विडंबना यह कि दोनों समुदायों को। हां, डराने से वोट मिलते हैं, लेकिन डरने-डराने के इस खेल से अलग से यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर 9-10 साल के भगवा शासनकाल के बाद भी देश का बहुसंख्यक समुदाय डर रहा है तो क्या उसे अपने प्रिय हिंदू हृदय सम्राटों से हाथ जोड़कर घर बैठने की विनती नहीं करनी चाहिए?
खैर, ताजा मामला मप्र के एक स्कूल का है। भारत की दो पवित्र नदियों गंगा-जमुना के नाम पर स्कूल का नाम है। संयोग से स्कूल के संचालक मुस्लिम हैं। हां, स्कूलों को स्कार्फ जैसी ड्रेस को ड्रेस कोड बनाने से बचना चाहिए, लेकिन इसके बावजूद केवल इस आधार पर इस स्कूल पर धर्मांतरण का आरोप लगाना फिर उसी भेड़िया आया की कहानी को दोहराना है। अल्लामा इकबाल को पसंद न करने और उन्हें खारिज करने की ढेरों वाजिब वजहें हो सकती हैं और हैं भी, इसके बावजूद राष्ट्रगान के साथ उनकी नज्म को पढ़वाने के आधार पर स्कूल को 'धर्मांतरण का केंद्र' बताना 'भेड़िया आया' का दूसरा शोर है।
'भेड़िया आया' का यह शोर ईसाई मिशनरीज स्कूलों व कॉलेजों को लेकर भी बीच-बीच में उठाया जाता रहा है। लेकिन आप चाहे ईसाइयों से लाख नफरत कर लें, इस सच को खारिज नहीं कर सकते कि देश में लाखों होशियार बच्चे इन्हीं मिशनरीज स्कूलों-कॉलेजों की देन हैं। अपेक्षाकृत सस्ती और बेहतर शिक्षा की गारंटी प्रदान करने वाली इन मिशनरीज स्कूलों के बरक्स ऐसी ही स्कूलें हमारे यहां के बहुसंख्यक समुदायों ने शुरू की हों, बहुत ज्यादा नजर नहीं आती हैं। विडंबनापूर्ण हकीकत यह भी है कि हिंदू हृदय सम्राटों के अनेक कट्टर समर्थकों के बच्चे भी इन मिशनरी स्कूलों में पढ़ रहे हैं या पढ़-लिखकर कई अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं।
बेशक, आर्थिक मोर्चे पर कुछ अच्छी खबरें सुकून दे रही हैं, लेकिन 'भेड़िया आया भेड़िया आया' का शोर इस सुकून को भंग करने का काम रहा है। मुझे यकीन है कि सरकारों में अब भी कुछ समझदार लोग बैठे हैं। बेहतर होगा कि वे जरा इन आवाजों को काबू में करें, ताकि असली और नकली भेड़ियों को पहचाना जा सके और अनावश्यक डर के माहौल को थोड़ा शांत किया जा सके।
और अब यहां दी गई तस्वीर की बात... जब मुझे इस तरह की लड़कियां धूप से बचने की कवायद करती नजर आती हैं तो मन में सूरज देवता के लिए संवेदनाएं और आशंकाएं भर जाती हैं... कहीं उन पर भी धर्मांतरण की साजिश में शामिल होने का आरोप ना लग जाएं... क्योंकि चेहरे पर किसी भी स्कार्फ को हिजाब बताए जाने का फैशन है इन दिनों...।
और आगे जाकर स्कार्फ पहनने की ये स्वतंत्रता भी छिन ली जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। धार्मिक पागलपन महिलाओं की आजादी को कुलचने के साथ ही आगे बढ़ता है... कहीं जबरदस्ती हिजाब पहनाकर तो कहीं जबरदस्ती स्कार्फ हटवा कर…!
(Disclaimer : तस्वीर केवल प्रतीकात्मक है जो गूगल से ली गई है।)

शनिवार, 27 मई 2023

यहां कोई हेडिंग नहीं... फोटोज में दी गईं हेडिंग्स काफी हैं...



(हां, 'सबका साथ, सबका विकास' योजना के अंतर्गत अब कोई बेरोजगार नहीं है। सरकार को लख-लख बधाइयां!!)
By Jayjeet
इंदौर में कथित तौर पर एक हिंदू लड़के के साथ एक मुस्लिम लड़की के घूमने पर मुस्लिम युवकों ने उसे रोका और मारपीट वगैरह की। हमारे राज्य के कर्णधार ने भी भयंकर सक्रियता दिखाते हुए आरोपियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के आदेश दिए।
हमारे कर्णधार जी हमेशा सजग और सतर्क रहते हैं। अब कुछ नामाकुल किस्म के लोग पूछ रहे हैं कि अगर लड़का मुस्लिम और लड़की हिंदू होती तो क्या वे कुछ कार्रवाई करते? उनका आरोप है कि कोई कार्रवाई नहीं होती।
क्यों नहीं करते जी? जरूर करते। वे नहीं करते तो उनके नंबर दो मिनिस्टर करते। वे ऐसे मामलों में उनसे भी तेज हैं। हां, तब कार्रवाई हिंदू लड़की के साथ घूमने वाले मुस्लिम लड़के के खिलाफ होती। पर, होती तो सही ना? ऐसे कैसे कह दिया कि कार्रवाई नहीं होती! कार्रवाई तो कार्रवाई है। इस 'कार्रवाई' और उस 'कार्रवाई' को देखिए। मुझे तो कोई अंतर नजर नहीं आता। इस ‘कार्रवाई’ में भी चार शब्द है और उस ‘कार्रवाई’ में भी चार शब्द।
हां, इस पूरी घटना का एक सकारात्मक पक्ष और है। मुस्लिम समाज अब आरोप ना लगाएं कि उसके युवाओं के पास कोई काम नहीं है। है, जरूर है। ये कोई कम काम है? अपनी बेटियों को काफिरों से बचाना कोई छोटा काम नहीं है। हिंदुओं से पूछिए जरा, केरल स्टोरी के बाद उनकी जिम्मेदारी कितनी बढ़ गई है।
इसकी साजिश का भांडाफोड़, उसकी साजिश का भांडाफोड़... इसको मारो, उसको पीटो... कौन लड़की किस गैर धर्मी लड़के के साथ है... उफ्फ! कितना काम भरा है दुनिया में। इसके बाद भी अगर कोई कहें कि मैं बेरोजगार हूं तो हिंदू और मुस्लिम धर्मों के ठेकेदारों से मेरा विनम्र आग्रह है कि उसे दो चपत जरूर लगाएं।
…. और हां, हम सभी को उस कबाइली युग की वापसी की
बधाई
जिसमें एक कबीले के लोग अपने कबीले की महिलाओं को बचाने के लिए जी-जान लगा देते थे। महिलाएं तब उनके लिए वस्तु थी और वे खुद अपनी महिलाओं का इस्तेमाल कैसे भी कर सकते थे!! इसमें तब किसी को आपत्ति नहीं थी। आज भी शायद नहीं होगी!!!
लेकिन ठहरिए, जरा दोनों कबीलों की महिलाओं से पूछ लेते हैं...!

मंगलवार, 23 मई 2023

महाराणा प्रताप के वंशज का तमाचा… आवाज न आई, पर शायद चाेट तो लगी होगी!!!

 


 By Jayjeet

एक छोटी-सी खबर जिस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा, आज के परिप्रेक्ष्य में काफी महत्वपूर्ण है। यह खबर उन लोगों को आईना दिखाती है, जिनके लिए पुराने महान नायकों के नाम पर राजनीति करना शौक बन गया है।

महाराणा प्रताप के वंशज डॉ. लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ ने कल महाराणा प्रताप की जयंती पर एक अखबार को दिए इंटरव्यू में एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है। उनके अनुसार महाराणा प्रताप एक जननायक थे, केवल हिंदू नायक नहीं। उन्होंने यह भी जोड़ा- हकीम खां सूर (शेर शाह सूरी के वंशज) उनके सेनापति थे। 

इस महत्वपूर्ण बात के साथ एक ऐतिहासिक तथ्य और जोड़ते चलते हैं। महाराणा प्रताप के मुख्य प्रतिद्वंद्वी यानी अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे राजा मानसिंह प्रथम। कल्पना कीजिए कि कितना दिलचस्प होगा वह नजारा- हल्दीघाटी की प्रसिद्ध जंग का मैदान। एक तरफ महाराणा प्रताप की सेना, जिसकी अगुवाई कर रहे हैं हकीम खां सूर और दूसरी तरफ अकबर की सेना जिसकी अगुवाई कर रहे हैं राजा मानसिंह।

लक्ष्यराज सिंह का यह कहना जितना उचित है कि प्रताप केवल हिंदू नायक नहीं थे, उतना ही उचित यह मानना भी है कि अकबर केवल मुस्लिमों के नायक नहीं थे। ये वे राजा थे, जिन्होंने कोई धर्मयुद्ध नहीं लड़े थे। ये किसी धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे, बल्कि ये सच्चे राजा का कर्त्तव्य निभा रहे थे, जिनके लिए अपनी धरती की रक्षा करना या अपने साम्राज्य का विस्तार करना ही सबसे महत्वपूर्ण था।

उपरोक्त तथ्य यह भी बताता है कि 400 साल में हम कहां से कहां आ पहुंचे। आज इक्कीसवीं सदी के नेता हमारे वीर प्रताप को हिंदुओं तक सीमित करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं और अकबर को तो इतिहास से निकालकर कूड़ेदान में पटक दिया गया है। अकबर के साथ-साथ राजा मानसिंह सहित उन नवरत्नों को भी जिनमें तानसेन, बीरबल और राजा टोडरमल भी शामिल हैं।

डॉ. लक्ष्यराज की बात शायद उन लोगों को 'धोखा' लग सकती है, जिन्होंने उन्हें अपने एजेंडे को और आगे बढ़ाने के लिए बुलाया था। लेकिन डॉ. लक्ष्यराज ने बहुत ही साफगोई से यह बात कहकर साबित कर दिया कि वे वीर महाराणा प्रताप के वंशज यूं ही नहीं हैं। हो सकता है आपको अकबर पसंद ना हो, लेकिन सोचिए, क्या महाराणा प्रताप को हकीम खां सूर, अकबर और राजा मानसिंह के बगैर याद किया जा सकता है?

(पुनश्च... यह भी हो सकता है कि आने वाले वर्षों में ‘इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर सेनापति अदल-बदल दिए जाएं...! तब शायद यह धर्मसंकट भी खत्म जाएगा, जो आज उपरोक्त ऐतिहासिक तथ्य से कुछ लोगों के सामने खड़ा हो गया होगा। या कोई नया 'ऐतिहासिक तथ्य' यह भी आ सकता है कि मानसिंह की मां या बहनों को तो अकबर ने बंदी बनाकर रखा था और वह उसे लड़ने के लिए ब्लैकमेल कर रहा था, बिल्कुल बॉलीवुडी कहानी के खलनायक अजित की तरह... आजकल ऐतिहासिक तथ्यों को जिस तरह कहानियों जैसा ट्रीट किया जा रहा है तो यह असंभव भी नहीं है...!)

रविवार, 30 अप्रैल 2023

राजनीति के आगे जब चैम्पियन्स हाथ जोड़ने को मजबूर हो जाएं...!!!


By Jayjeet Aklecha

यौन शोषण के आरोपों पर एफआईआर दायर होने के बाद भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह की पहली प्रतिक्रिया थी कि वह पूरी तरह मजे में है। जिस व्यक्ति पर हत्या के प्रयास करने सहित पहले से ही अनगिनत मामले दर्ज हों (ADR के अनुसार चार और याचिकताकर्ताओं के वकील के अनुसार 40), जिस पर कभी दाऊद इब्राहिम के साथियों को शरण देने का संगीन आरोप भी लग चुका हो, वाकई उसे इन 'छोटे-मोटे' आरोपों से क्या फर्क पड़ेगा?
लेकिन आरोपी के मजे में होने, उसकी नजर में 'छोटे-मोटे' आरोप होने के बावजूद ये आरोप इसलिए गंभीर हैं, क्योंकि ये उन बेटियों ने लगाए हैं, जिनकी उपलब्धियों पर पूरा देश पार्टी लाइन से ऊपर उठकर गर्व करता है। ये आरोप गंभीर इसलिए भी हैं, क्योंकि बेटियों की उपलब्धियों की बात करते समय हमारे देश के प्रधानमंत्री की आंखें भी हमेशा गर्व से चमक उठती हैं। और ये आरोप इसलिए और भी गंभीर हैं, क्योंकि यह बृजभूषण उसी पार्टी से सांसद है, जो अक्सर उस सनातन संस्कृति की बात करती है, जहां 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' श्लोक दोहराने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जाती है।
पर दुर्भाग्यजनक पहलू यह है कि इस पूरे मसले का भी राजनीतिकरण हो गया है। हमारे यहां समस्या ही यह है कि हर मामले का राजनीतिकरण हो जाता है और भोली जनता उसकी बात को ही सच मानने लगती है, जिसकी राजनीति में ज्यादा दम होता है। अब देखिए ना, खबरें आ रही हैं कि यूपी के कुछ संतों ने भी भोलेपन में कह दिया है कि वे यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में जंतर-मंतर पर जाकर पहलवानों के खिलाफ धरना देंगे।
पर एक चिंता यह भी है। अगर भविष्य में इनमें से कोई महिला पहलवान कभी पदक जीतकर लाती है तो हमारे देश के सर्वोच्च कर्णधाता की आंखों में उसकी उपलब्धि का बखान करते समय क्या वैसी ही चमक होगी? या उस चमक पर बृजभूषण जैसे लोगों की कालिमा का ग्रहण रहेगा?
वैसे यह केवल एक नैतिक सवाल है, जिसका आज के राजनैतिक माहौल में कोई अर्थ नहीं रह गया है। लेकिन यह सवाल तो हमेशा मौजूं रहेगा कि हमने जिन हाथों में मेडल देखे हैं, आखिर सिस्टम के सामने में वे हाथ जुड़ने को मजबूर क्यों हो गए?