रविवार, 23 मार्च 2014

चंदा वसूली की फ्रेंचाइजी मिल रही है, खरीदोगे क्या!

The satire is based on Donation Business...
 जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



उनका बड़ा विचित्र बिजनेस है। वे उसे सेवा कहते हैं। बहुत पुराना अनुभव है। कारगिल यु़द्ध से षुरुआत की थी। तब षहीद सैनिकों और उनके परिजनों के लिए जान लगा दी थी। फिर माताजी के जगरात्रे के कई कार्यक्रम करवाए। सेवा का फल तो मिलता ही है। माता के आषीर्वाद से आज उनका तीन मंजिला भवन है।
कुछ दिन पहले ही वे किसी सम्मान समारोह के नाम पर पांच सौ एक रुपए की रसीद काट गए थे। होली नजदीक ही है। तो उनके आने की आषंका थी ही। वे आ भी गए। लेकिन आषंका के विपरीत रसीद नहीं काटी। फार्म आगे बढ़ा लिया।
‘यह क्या है!’ हमने पूछा।
‘प्रपोजल फार्म है। भर दीजिए।’ गंभीरता के साथ वे बोले।
‘ किसी बीमा कंपनी की एजेंसी-वेसेंजी ले ली है क्या? वो बिजनेस भी तो कोई बुरा नहीं था!’ हमने दिल्लगी की।
‘आप गलत समझ रहे हैं। हम चंदा वसूली के लिए फ्रेंचाइजी दे रहे हैं। सोचा आप पुराने कस्टमर हैं। तो आपको ही प्रायोरिटी दे दें।’
‘हमें तो बख्ष दीजिए। ये हमसे नहीं होगा।’ हमने हाथ जोड़ लिए।
‘मौका अच्छा है। चुनाव सिर पर है। षुरुआत अच्छी हो गई तो कोई दिक्कत नहीं होगी। निर्दलीय से लेकर पार्टियों तक के लिए हम चंदा वसूली करेंगे। कई लोगों से बातचीत भी हो गई है। रेट भी फिक्स है। पूरा 30 फीसदी वे हमें देंगे। कट-पिटकर आपको 12 से 15 फीसदी तक मिल ही जाएगा।’ उन्होंने दलील दी।
‘अरे, हमें क्यों फंसाते हो। हमें क्या पता कि कैसे वसूली करनी है?’ हम अब भी सकुचा रहे हैं।
‘वह हमारी चिंता। आप तो हां बोल दो। हमारी पूरी टीम है जो आपको बताएगी कि वसूली कैसे की जाती है।’
फिर उन्होंने वे सारे नाम गिना दिए, जो उनकी टीम में षामिल थे। धुरंधर अनुभवी लोगों की फौज थी उनकी टीम में। आरटीओ का रिटायर्ड अफसर, बर्खास्त थानेदार, प्राइवेट क्लिनिक चलाने वाला एक डाॅक्टर, फाॅरेस्ट का नाकेदार, रेलवे का टीसी आदि-आदि। सलाहकार के तौर पर उन्होंने एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी को रख रखा था। ये अफसर माइनिंग से लेकर पोषाहार जैसे विभागों की कमान संभाल चुके थे। वे हमें इम्प्रेस करने का कोई मौका हाथ से नहीं छोड़ना चाहते थे। उन्होंने बताया कि हमारे ही वार्ड पार्षद ने तो फ्रेंचाइजी लेकर काम भी षुरू कर दिया है।
हम सोच में पड़ गए। कमीषन तो तगड़ा था ही, ट्रेनर्स भी इतने जबरदस्त थे। घाटे का सौदा तो कहीं से नहीं लग रहा था।
‘अब ज्यादा तो न सोचिए। नेक काम में देरी ठीक नहीं।’
हमने भी ज्यादा नहीं सोचा। फार्म भर दिया। पांच हजार रुपए ले गए फ्रेंचाइसी फीस के रूप में। आष्वासन दे गए। पांच के पूरे पचास कमाओगे। कल से षुरुआत कर दो। ओला पीड़ित किसानों के लिए षिविर लगा रहे हैं।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

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