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बुधवार, 25 जून 2014

मान्यता प्राप्त भगवान!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha
'भगवान' की मान्यता के लिए फार्म जमा करते संतनुमा लोग।

एक काउंटर पर बड़ी भीड़ है। काउंटर के बाहर भगवा से लेकर सफेद-पीले-लाल रंग के कपड़े पहने कई संत टाइप लोग लाइन लगाए खड़े हैं। पास में ही दो-चार आवारा कुत्ते झूम रहे हैं। लाइन से उठने वाले गांजे के धुएं का असर उन पर कुछ ज्यादा ही हो रहा है। यह एक्रीडिएशन सेंटर है और ये संतनुमा लोग ‘भगवान’ की मान्यता का फार्म जमा करने के लिए अपने नंबर का इंतजार कर रहे हैं।
‘जी, क्या नाम है आपका?’ खिड़की के भीतर बैठे बाबू ने पान की पीक पास में ही डस्टबीन की तरफ उछालने के बाद पूछा।
‘संत हरिप्रसाद पिता महासंत रामप्रसाद कावड़िया।’ एक मैले से पीले-चितकबरे कपड़े पहना व्यक्ति बोला।
‘इसीलिए...इसीलिए मैं कंफर्म कर रहा था। यहां हरप्रसाद लिख रखा है। महाराज, भगवान बनकर भक्तों को क्या ऐसी ही उल-जुलूल बातें बताओंगे।’ बाबू ने उसे हल्की से झिड़की दी।
‘जी, लाओ फार्म, मैं ठीक कर लूंगा।’
‘नेक्स्ट’ बाबू ने जोरदार आवाज लगाई। एक लंबा-चौड़ा मोटा-ताजा किस्म का बंदा आगे आया। नाम फकीरचंद। हालांकि उनकी तोंद से वे कहीं भी फकीर नजर नहीं आ रहे थे।
‘यह चिलम यहां तो फेेंक दो। आपको पता नहीं है कि सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान करना प्रतिबंधित है।’ बाबू ने अपना रुतबा झाड़ा।
‘नादान बालक, मुझे रोकता है! भगवान बनते ही सबसे पहले मैं तुझे ही श्राप दूंगा।’
‘महाराज आवाज नीची, अभी आप मान्यता प्राप्त भगवान नहीं बने हैं। फाइल मेरे पास से ही ऊपर
 जाएगी, जान लीजिए।’
‘ओ, मैं तो मजाक कर रहा था बालक। इतनी जल्दी आपा खोना अच्छी बात नहीं है... काम तो हो जाएगा ना?’
‘हूम, नेक्स्ट।’ बाबू जरा जल्दी में है।
अंदर अफसर के पास फाइलों का ढेर लगा है। यहां का सिस्टम बहुत ही क्लियर है। जिसकी जितनी कृपा आएगी, भगवान बनने के उसके चांस उतने ही बढ़ जाएंगे। कई अनुभवी संतनुमा लोग इस सिस्टम का पूरा सम्मान करते हैं। वे तो लाइन में भी नहीं लगते। उन्हें मालूम है कि किस दलाल के माध्यम से वे आसानी से भगवान बन सकते हैं। अफसर भी ऐसे भावी भगवानों की पूरी इज्जत करते हैं। जरूरी है!
और ऊपर देवलोक में नारदजी यह देख-देखकर मुस्कुरा रहे हैं। वैसे तो वे हमेशा ही मुस्कुराते नजर आते हैं, लेकिन ऐसे मौकों पर उनकी मुस्कान कुछ ज्यादा ही चौड़ी हो जाती है। उन्होंने अपनी चिरपरिचित कुटील मुस्कान के साथ पास ही खड़े एक संत से पूछा, ‘महाराज, आपने भी क्या शिरडी में यही सब किया था!’
‘नारदजी, कैसी बात करते हो? मेरे दिल को जो अच्छा लगा, मैंने वह किया, गरीबों को भगवान समझकर उनकी सेवा की। पर देखते ही देखते लोगों ने मुझे भगवान बना दिया। अब इसमें मेरा क्या दोष?’
‘मतलब, आपके पास भगवान का एक्रीडिएशन कार्ड ही नहीं है?’ नारदजी ने हंसते हुए पूछा।
‘मुझे तो यही नहीं मालूम कि यह एक्रीडिएशन कार्ड होता क्या है?’
‘वाह, हमसे ही दिल्लगी कर रहे हो। सोने के सिंहासन पर बैठते हो और कहते हो कि आप भगवान ही नहीं हो।’ नारदजी बोले।
‘इसी बात का तो अफसोस है नारदजी। जिंदगी भर मैं पत्थरों पर सोया लेकिन अब मुझे सोने के सिंहासन पर बैठाया जा रहा है।’
‘तो आपका कहना है कि आपके भक्तों ने आपको तो स्वर्ण सिंहासन पर बैठा दिया और सादगी, गरीबों की सेवा जैसे आपके आदर्श विचारों को सिंहासन के नीचे खिसका दिया?’
‘मैं इस पर कोई कमेंट नहीं करुंगा, चाहे आप मुझे कितना भी उकसा लें। मैं आप जैसे पत्रकारों का मंतव्य खूब समझ रहा हूं। आप तो चाहते ही हैं कि कोई कंट्रोवर्सी पैदा हो। आजकल लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचने में वक्त नहीं लगता। मैं चलता हूं राम-राम।’

गुरुवार, 19 जून 2014

वाॅव, मैं शर्मिंदा हूं! अमेजिंग!!

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

कार्टून: गौतम चक्रवर्ती
हाल ही में एक भारतीय ने किसी अन्य देश में रह रहे अपने एक मित्र को पत्र लिखा था। इसमें उसने शर्मसार होने के फीलगुड का अद्भुत वर्णन किया है। कुछ मित्रों ने तो इसे पढ़कर फेसबुक पर यहां तक सुझाव दे डाला है कि अब हमें ‘शर्म’ नामक दसवें रस की व्युत्पत्ति कर ही देनी चाहिए। खैर, सुझाव अपनी जगह। इस पत्र के मुख्य अंश:
हैलो मिस्टर जाॅन,
आपके लिए यह बड़े गर्व की बात है कि आपको हिंदी आती है। मुझे अंग्रेजी नहीं आती है और इसके लिए वाकई मैं शर्मिंदा हूं। हिंदी में लिखते हुए मैं जो शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूं, उसकी अनुभूति ही अलग है। वैसे मुझे इस बात का गर्व है कि यहां रोजाना शर्मसार होने की कोई न कोई वजह मिल ही जाती है। वाव! शर्मिंदा होने की भी क्या फीलिंग होती है। मैं फेसबुक पर नहीं हूं, न ही ट्विटर पर हूं। मैं तो शर्म से गड़ा जा रहा हूं। वाॅव! शर्मिंदा होने से आगे की स्टेज है शर्म से गड़ा जाना। इसका एहसास ही खूबसूरत है। आप तो फील ही नहीं कर सकते। मेरे पास स्मार्टफोन भी नहीं, वो क्या बोलते है वाॅट्सअप! उसका तो सवाल ही नहीं। अगेन वाॅव! वाॅट ए शर्मिंदगी।
और ताजा शर्मिंदगी हाॅकी में उठानी पड़ी है। हाॅकी वल्र्डकप में हम नौवें स्थान पर रहे। नेशनल शेमनेस। मैं तो शर्मसार हूं ही, हाॅकी के कर्णधारों के चेहरों को तो देखो। शर्म से फूलकर कुप्पा हो रहे हैं। शर्मिंदगी के इस भाव पर कोई भी वारा जाए। अमेजिंग!! पर हाय फुटबाॅल। काश, हमें भी वल्र्ड कप में खेलने का मौका मिलता। हम आठ-आठ दस-दस गोल से हारते। कितने मस्त शर्मसार होते।
पत्र बड़ा हो रहा है, इसलिए मैं सीधे मुद्दे की शर्म पर आता हूं। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं पाॅलिटिकल शेम की बात क्यों नहीं कर रहा हूं। दरअसल, मैं बच रहा था। कहीं आपको काॅम्लैक्स नहीं आ जाए। लेकिन यह सच है कि पाॅलिटिकल शेम के बगैर बात अधूरी ही रह जाएगी। यहां पाॅलिटिकल करप्शन, भाई-भतीजावाद, एक-दूसरे की टांग खिंचाई... सब अद्भुत है। यह सब हमको इतना शर्मसार करते हैं कि लगता है अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है। आपको इस बात पर बेहद गुस्सा आएगा कि हमारे (आपके) यहां ऐसा क्यों नहीं है! हमने ऐसा क्या बिगाड़ा था! सही बात है भाई, यह इनजस्टिस है। भगवान सब को शर्मिंदा होने का मौका दें। हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं, और क्या!
खैर, आप चाहें तो हमारे यहां के सबसे बड़े स्टेट में आकर भरपूर शर्मिंदा हो सकते हैं। आप जैसे फाॅरेनर टूरिस्टों के लिए यहां की सरकार ने जंगल टूरिज्म डिपार्टमेंट ही खोल दिया है। आप वहां के कुछ पेड़ों से लटककर शर्म की फीलिंग कर सकते हैं। उम्मीद है कि जब आप यहां आओगे तो शर्मसार होने के दो-चार मौके आपके सामने भी आ जाएंगे। खुद लाइव शर्मसार हो जाना।
तो देर मत करो। गारंटी है, आपको शर्मिंदा करने की हम भरपूर कोशिश करेंगे। सड़क पर पहली पीक मैं ही मारुंगा। डन रहा!
आपका ही
एक भारतीय दोस्त

शनिवार, 14 जून 2014

सपने रिकाॅर्ड करने वाली मशीन

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

इस खबर से कुछ तबकों में खुशी की लहर दौड़ रही है, तो कहीं दुख और चिंता भी सता रही है। खबर है कि वैज्ञानिकों को ऐसी मशीन बनाने में सफलता मिल गई है जो सपनों को भी रिकाॅर्ड कर पाएगी। इससे सबसे ज्यादा खुशी कुर्सियों पर जमे नेताओं को हो रही है। वे फूलकर कुर्सी में समाए नहीं जा रहे।
बसेसरजी भी बहुत खुश हैं। उन्होंने तो दर्जन भर मशीनें खरीदने का अग्रिम आर्डर भी दे डाला है। उनकी योजना इन मशीनों को चुपके से अपनी ही पार्टी के उन लोगों के कमरों में रखवाने की है जिनके बारे में उन्हें आशंका है कि वे तभी से सपने देख रहे हैं, जबसे बसेसरजी कुर्सी पर बिराजे हैं। कुर्सी खींचने को आतुर लोग हमेशा सपने देखा करते हैं। वैसे सपने देखना बुरी बात तो हैं नहीं। कभी बसेसरजी ने भी ऐसा ही सपना देखा था और देखते-देखते अपना सपना सच कर दिखाया था। जिस कुर्सी पर रामखिलावनजी बैठते थे, उसे लात मारकर स्वयं कुर्सी पर बैठ गए। लेकिन जबसे यह नई खबर सुनी है, वे कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं हैं। किसी ने सपना देखा नहीं कि तुरंत मशीन को खबर हो जाएगी। बस, फिर क्या, तत्काल पार्टी विरोधी गतिविधियों के नाम पर अनुशासन का चाबुक फटकार देंगे। वाह क्या खूब मशीन आई है, सोचकर बसेसरजी मुस्कुरा रहे हैं।
लेकिन यही सुनकर सरकारी अफसर परेशान हैं। वर्माजी ने शर्माजी से अपनी चिंता जाहिर भी कर दी, ‘यह तो गजब हो जाएगा, अफसर ने छोटा-सा सपना देखा नहीं कि सरकार उसके कान खींच लेगी। हमें तो चिंता होने लगी है। कनाट प्लेस पर प्लाॅट तो पहली फुर्सत में ले लिया था। तीन करोड़ का तो वही हो गया है। सोच रहा हूं कि दो-एक करोड़ और लगाकर बच्चे के लिए छोटा-मोटा कोई रेस्टाॅरेंट ही खुलवा दूं। लेकिन सरकार इस नेक काम को भी सपना मान लें तो अपन तो फंस गए ना!’
‘बिल्कुल सही बोले आप’, वर्माजी की चिंता पर मोहर लगाते हुए शर्माजी बोले, ‘अब मैंने भी मझले के लिए किसी मेडिकल काॅलेज में प्रवेश के लिए सपना देख रखा है। दो-तीन बढ़िया असामी पटे हैं, तीन-चार करोड़ कहीं नहीं गए। डोनेशन के लिए पक्का इंतजाम हो ही जाएगा, लेकिन मेरी और आपकी एक ही चिंता, कहीं मशीन से हमारे सपने कोई रिकाॅर्ड नहीं कर लें। यह भी कोई बात हुई भला! हम जैसे लोग क्या सपने देखना ही छोड़ दें?’
इधर, अभी आविष्कार की केवल बात भर हुई है और ज्ञानी लोगों का एक सुझाव आ गया है। उनका कहना है कि सारी रिकाॅर्डिंग म्यूट होनी चाहिए ताकि हमारे कर्णधारों को दिक्कत नहीं हो। आम लोगों के सपने टूटने में वक्त नहीं लगता। आखिर रोजाना लाखों-करोड़ों सपनों के टूटने की आवाजों को हमारे कर्णधार भला कैसे सहन कर पाएंगे! वे तो बहरे ही हो जाएंगे। कौन चाहेगा कि हमारे कर्णधार बिल्कुल ही बहरे हो जाएं!
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 5 जून 2014

इंसानी प्रलय और प्रभु की चिंता

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha


‘भगवान, आज तो आप बहुत खुश होंगे।’ देवलोक में नारदजी ने कुटिल मुस्कान के साथ पूछा।
‘इंसान ने खुश रहने का कारण छोड़ा ही कहां है? लेकिन आपने ऐसा क्यों कहा?’ भगवान ने विस्मित भाव से पूछा।
‘वो इसलिए कि नीचे जमीन पर आपका भव्य मंदिर बन रहा है, उससे आपकी जय-जयकार होगी, आपकी प्रतिष्ठा चहुं दिशाओं में फैलेगी, और क्या।’
‘आप किसकी बात कर रहे हैं देवर्षि ?
‘रामपुर नगर के बगीचे में बन रहे विशालकाय मंदिर की।’
‘लेकिन वह बगीचा तो बच्चों के लिए है, वहां हमारा क्या काम?’
‘अब इसमें इतना भी अचरज न करें। यह कोई पहली बार तो हो नहीं रहा। कहां-कहां के नाम गिनाऊं, हर काॅलोनी के बगीचों में आपके नाम पर मंदिर मिल जाएंगे।’
‘लेकिन बच्चे खेलेंगे कहां?’ भगवान ने नारदजी की ओर सवाल उछाला।
‘वाह, आपने भी क्या बात कह दी प्रभु! क्या बच्चे आजकल खेलते भी हैं? स्कूल, ट्यूशन, कार्टून चैनल, वीडियो गैम्स से फुरसत मिले तो बच्चे खेलेंगे ना? हमारा-आपका जमाना गया प्रभु।’
भगवान की चिंता बढ़ती जा रही थी। उन्हें गुस्सा भी आने लगा था। उन्होंने पूछा, ‘जो हमने बनाया है, फूल-पत्ती, घास-फूस, उसे खत्म करके कांक्रीट के ढांचे क्यों बना रहा है इंसान, वह भी हमारे नाम पर? क्या अब उसे हरियाली पसंद नहीं है?’
‘पसंद है, खूब पसंद है, लेकिन जरा दूसरे टाइप की।’
‘मैं समझा नहीं देवर्षि।’
‘इंसान अब कांक्रीट के जंगलों में हरियाली ढूंढ़ता है। अब उसे हरे-भरे पेड़-पौधे नहीं, हर-हरे नोट पसंद है। आज वही उसकी हरियाली है।’ नारदजी ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा। फिर उन्होंने भ्रष्ट उद्योगपतियों, नेताओं, अफसरों सहित न जाने कितने लोगों के नाम गिना दिए। नारदजी ने प्रभु को समझाया कि कैसे ये सारे लोग नई हरित क्रांति के जनक बन गए हैं। अन्य कई लोग इनके नक्शेकदम पर चलने को आतुर हैं। कई तो चलने भी लगे हैं।
‘बस-बस, और नहीं...’ प्रभु ने नारदजी को रोक लिया। फिर मासूमियत के साथ बोले, ‘उम्मीद बाकी है, आज विश्व पर्यावरण दिवस है। कई लोग ऐसे अवसरों पर जुटेंगे और पर्यावरण को बचाने की कसम खाएंगे। लगता है लोगों को कुछ तो सुध आई है।’
‘प्रभु, इसमें इतना भी खुश होने की जरूरत नहीं है। अपनी हरियाली के चक्कर में इंसान ने पहले ही इतना विनाश कर लिया है कि अब उसके पास ऐसे दिवस मनाने के अलावा और कोई चारा ही कहां बचा है!’ इतना कहकर नारदजी वहां से चलने को तत्पर हुए।
‘कहां के लिए रवानगी?’ भगवान ने पूछा।
‘ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे भी विशेष अतिथि बनाया गया है। औपचारिकता तो निभानी होगी।’ नारायण-नारायण कहते हुए देवर्षि वहां से निकल पड़े।
प्रभु गंभीर चिंता में हैं - ‘प्रलय लाने का अधिकार तो मेरा है। लेकिन यह इंसान खुद क्यों प्रलय लाने पर तुला हुआ है! और क्या मैं इसे रोक पाउंगा! हे भगवान!‘ 


कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

शनिवार, 31 मई 2014

पिज्जा और मंगू के हवाई सपने

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha


एक दिन मंगू ने अपने पड़ोस की झुग्गी में चल रहे टीवी पर एक खबर देख ली। उसके बाद से ही वह बहुत खुश था। टीवी वाले बता रहे थे कि अब जल्दी ही छोटे हवाई जहाजों (ड्रोन विमानों) से पिज्जा घरों में पहुंचा करेगा। पिज्जा, हां उसे मालूम है। इतना भी गया-बिता नहीं है। पिज्जा यानी मोटी-सी रोटी। जैसे उसकी झोपड़ी में उसकी घरवाली मोटी रोटी बनाती है, वैसी ही कुछ। यह उसने बस सुना भर था, खाया तो कभी नहीं।
इस खबर के बाद से ही मंगू की उम्मीदों को पर लग गए। वह रोज सुबह काम पर निकलने से पहले एक नजर आसमान पर जरूर दौड़ा लेता। क्या पता, कब वह छोटा-सा हवाई जहाज उसकी झोपड़ी पर रोटी टपका दे। जब आसमान पर टकटकी कुछ ज्यादा ही हो जाती तो घरवाली से रहा नहीं जाता। वह उसे झिड़कती, ‘अब ऐसे दिन भी नहीं आने वाले कि आसमान से ही रोटियां टपकने लगे।‘ फिर मंगू मन मारकर रात की बासी मोटी रोटी बांधकर काम पर निकल जाता। कभी काम मिलता, कभी नहीं मिलता। नहीं मिलता तो रोटी का संकट। जब आसमान में रोटियां लेकर हवाई जहाज घूमेंगे तो गलती से ही सही, उस जैसे गरीबों के यहां भी महीने में दो-चार बात तो रोटियां टपक ही जाएंगी। ऐसी हवाई कल्पना वह किया करता।
कुछ दिन पहले ही की तो बात है। एक नेताजी उसकी झोपड़ी में आए थे। उन्होंने बोतल पकड़ाते हुए कहा था- देख, यह बोतल रख लें। तेरे जल्दी ही अच्छे दिन आने वाले हैं। फिर रोज काम भी मिलेगा और रोटियां भी। दूसरे दिन दूसरे नेता आए। उन्होंने भी बोतल देकर कहा था- अभी इससे काम चला। हमारे निशान पर बटन दबा आना। फिर होगी- हर हाथ शाक्ति, हर हाथ रोटी। लेकिन मंगू तो सालों से इसका आदी था। यह हर पांच साल का नाटक था। सब उसे बोतल पकड़ाते, रोटी नहीं। लेकिन उसे विश्वास था कि जिसका कोई नही होता, उसका ऊपरवाला तो होता ही है। तभी तो उसे आसमान से रोटियां मिलने वाली हैं। वह अपनी इन्हीं हवाई कल्पनाओं में खोया रहता। उसने काम पर जाना भी छोड़ दिया। घरवाली बेचारी कुछ घरों में बर्तन-चैका करके रोटी की व्यवस्था करती। लेकिन एक दिन अचानक मंगू ने देखा कि बड़ी-बड़ी मशीनें उसकी झोपड़ी की तरफ आ रही हैं। जमीन पर उसने हवाई जहाज तो कभी देखा नहीं था। उसे लगा हवाई जहाज वाकई जमीन पर उतर आया है। इसमें रोटियां ही होंगी। वह खुशी से पागल हो उठा।
और अब क्लाइमेक्स... मंगू खुले आसमान के नीचे बैठा हुआ है। उपर सूरज तमतमा रहा है। उसकी झोपड़ी के टिन-टप्पड़ भी वे लोग ले गए। घरवाली बैठी रो रही हैं। बच्चे सुबक रहे हैं। मंगू चिंतित है- अब वे रोटियां कहां टपकाएंगे! अब तो झोपड़ी ही नहीं रही। तभी एक हवाई जहाज तेजी से उसके सिर से ऊपर से गुजरा। फिर वह शहर की आलीशान उंची इमारतों पीछे ओझल हो गया। 


कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 22 मई 2014

रिमोट कंट्रोल का आत्मकथ्य

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha

मैं रिमोट कंट्रोल। आप सब मुझसे परिचित होंगे ही। लेकिन आप आम लोगों के लिए मैं ठहरा टीवी का रिमोट कंट्रोल - बस बटन दबाते जाओ और इधर से उधर चैनल फेरते जाओ। लेकिन मैं टीवी इत्यादि जैसी छोटी चीजों से कहीं उपर हूं। भारतीय राजनीति को गहराई से जानने वाले लोग मेरा महत्व समझते है। वे जानते हैं कि मेरा महात्म्य कहीं ज्यादा है। छोटा मुंह बड़ी बात, लेकिन सच कहूं, अगर मैं न रहूं तो आप जिस लोकतंत्र का दंभ भरते हैं ना, वह एक कदम भी आगे न बढ़ पाए। देष की कोई भी पार्टी हो, वह रिमोट कंट्रोल के बगैर चल ही नहीं सकती। देष की सबसे पुरानी पार्टी का कंट्रोल एक परिवार के पास है और वह भी सालों से। दूसरी प्रमुख पार्टी का कंट्रोल भी एक अन्य परिवार करता है। यह अलग बात है कि वह मानता नहीं है। किसी भी राज्य में नजर दौड़ा लीजिए। पता चल जाएगा कि वहां केवल और केवल मेरा ही सिक्का चलता है। रिमोट हर जगह है-कही मैं किसी परिवार के हाथ में हूं तो कहीं किसी दबंग राजनेता के हाथ में। ज्यादा पहले की बात न करें। महाराष्ट्र में मुझे जमकर आदर मिला। एक कार्टून बनाने वाला बंदा जितनी मजबूती से हाथ में कूची थामे रहता था, उससे भी नजाकत से उसने रिमोट कंट्रोल को आॅपरेट किया। फिर बिहार में जब एक महिला ने राज्य की कमान संभाली तो उस समय भी मुझे बड़ा सम्मान मिला था। यह मैं नहीं कह रहा हूं। इतिहास में दर्ज है सब बातें।
और पिछले दस साल के बारे में तो मैं क्या बताउं! सोचकर ही खुषी से आंखों में आंसू आ जाते हैं। भारतीय राजनीति में यह मेरा स्वर्णिम काल रहा है। इतना असरदार इससे पहले मैं कभी नहीं रहा। मुझे बताते हुए गर्व महसूस हो रहा है कि यह मैं ही था जिसके जरिए पूरा देष कंट्रोल होता रहा। कोई भी काम मेरे बगैर संभव ही नहीं था। अब दिल्ली में नई सरकार आई है। पता नहीं मेरा क्या होगा! माना पार्टियों में मुझे महत्व मिलता रहेगा, लेकिन जो बात सत्ता में है, वह और कहां।
पुनष्चः - इस बीच मेरे लिए एक राहत की खबर आई है। खबर है कि बिहार में सीएम बदल गया है। मुझे उम्मीद है कि नई दिल्ली की भरपाई पटना से हो जाएगी।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 15 मई 2014

छह अंधे और सत्ता का हाथी

जयजीत अकलेचा

छह अंधे बहुत दिनों से बेकार बैठे हुए थे। एक दिन उन्हें पता चला कि लोकतंत्र के जंगल में सत्ता का हाथी भटक रहा है। पहले वे एक हाथी को छूकर ज्ञानी हो चुके थे। उन्होंने सोचा, चलो इस बार सत्ता के इस हाथी का परीक्षण करते हैं। सभी उसके पास पहुंचे। पहले अंधे ने हाथी के पेट को हाथ लगाया तो वह बोला- अरे यह तो दीवार है। यानी सत्ता दीवार होती है। बाकी अंधे बोले, एक्सप्लेन इट। पहला अंधा- ‘दीवार और सत्ता का निकट संबंध है। पहले वोटों के लिए जाति, धर्म, संप्रदाय की दीवारें खड़ी कर दो और फिर कुर्सी के लिए विचारधारा की दीवारों को गिरा दो। देखना, एक-दो दिन में यही होने वाला है।‘
अब दूसरा अंधा हाथी के मुंह की तरफ बढ़ा। उसने सूंड को हाथ लगाया तो बोल उठा- ‘यह दीवार नहीं, सर्प है, घातक जहरीला सांप।’ उसने टीवी पर किसी के मुंह से सुन रखा था कि सत्ता जहर के समान होती है। तो उसने अपना फैसला सुना दिया कि सत्ता या तो सांपनाथ होती होगी या नागनाथ। वैसे भी पिछले डेढ़-दो महीनों के दौरान लोकतंत्र के जंगल में इतना विष वमन हो चुका था कि उसे यह फैसला करने में देर नहीं लगी।
तीसरा अंधा हाथी की पूंछ के पास पहुंचा। उसे छूकर बोला, ‘सत्ता रस्सी होती है, रस्सी। इसके सहारे खुद उपर चढ़ते जाओ। फिर अपने सगे-संबंधियों को भी चढ़ा लो। सुना है कि कोई जीजाश्री सत्ता की ऐसी ही रस्सी के सहारे काफी उपर पहुंच गए हैं।’
अब चैथे की बारी थी। उसने हाथी के पैर को छूआ तो ऐसा उत्साह से भर गया मानो सत्ता का रहस्य उसी ने ढूंढ़ लिया हो। चिल्लाकर बोला, ‘सत्ता और कुछ नहीं, पेड़ का तना है। आंधी चल रही हो तो इससे चिपक जाओ। उड़ोगो नहीं और फिर लता की तरह उस पर रेंगते रहो। देखना, ऐसी ही कई लताएं फलती-फूलती नजर आएंगी।’
पांचवें अंधे ने हाथी के कानों को छूआ तो बोला, ‘ तुम सब गलत हो। सत्ता तो सूपड़ा है। सूपड़े का तो नेचर ही होता है कि जो काम के नहीं हैं, हल्के हैं, उन्हें झटक दो। भारी वहीं बने रहते हैं। पिछले 60 साल से सत्ता का यह हाथी ऐसे ही काम करते आया है।’
छठे ने सोचा, बहुत बकवास हो गई। मैं देखता हूं। वह हाथी के दांतों के पास पहुंचा और उन्हें छूकर बोलो, ‘अरे मूर्खो, सत्ता तो तलवार है, दोधारी तलवार। सही इस्तेमाल करोगे तो यह आपकी जीत का मार्ग प्रषस्त करेगी, लेकिन जरा-सी लापरवाही आपको ही काट देगी। सुना है कोई नया आदमी अब तलवार घुमाने आने वाला है।’
तो छह अंधे, छह बातें। यानी कन्फ्यूजन ही कन्फ्यूजन। इतने में पास से एक समझदार किस्म का बंदा गुजरा। षायद वह कोई विष्लेषक था और पिछले डेढ़ महीने से टीवी पर आ-आकर और भी समझदार बन गया था। अब अंधों ने उसे ही फैसला करने को कहा। उसने कहा- ‘तुम सब सही हो। सत्ता का हाथी ऐसा ही होता है। अच्छी बात यह है कि तुम लोगों ने अंधे होकर भी सत्ता के इस हाथी को पहचान लिया, जबकि अनेक आंखवाले देखकर भी अंधे बने रहते हैं। इसीलिए सत्ता का यह हाथी अपनी चाल चलता रहता है।’
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

शुक्रवार, 9 मई 2014

व्यवस्था के ये टाॅमी


जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

किस्मत हो तो साहब के टाॅमी जैसी। साहब जब उसे सुबह-सुबह पार्क में ले जाते हैं, तब उसके जलवे देखते ही बनते हैं। हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति प्यार से कहता मिल जाएगा, टाॅमी टाॅमी! इतने प्यार से तो वे षायद अपने बच्चों को भी नहीं बुलाते होंगे। आखिर साहब का कुत्ता जो ठहरा। साहब भी इतने बड़े आदमी। हर कोई उनकी कृपादृष्टि को लालायित। लेकिन साहब ऐसे तो किसी को भाव देने से रहे। ऐसे में टाॅमी ही काम आता है। अब टाॅमी को यदि कोई पुचकारें तो भला साहब उसे कैसे रोक सकते हैं!
कल की ही बात है। सुबह-सुबह रामकृपालजी पार्क में दिखाई दिए। बड़े ठेकेदार हैं, दिनभर में हजारों लाखों का वारा-न्यारा करते हैं और देर रात थकान मिटाते हैं। उस सुबह वे स्पेषियल ट्रैक सूट पहनकर पार्क में निकल पड़े थे। उन्हें साहब से मिलना जो था, लेकिन अब ऐसे भी कैसे मिल लें। इसीलिए ट्रैक सूट की दोनों जेबों में हड्डियां डाल रखी थीं। आंखें टाॅमी को ही ढूंढ़ रही थीं। और जैसे ही टाॅमी को देखा, आंखों के लाल डोरों में उम्मीदें उतर आई। जाॅगिंग करते हुए उसके पास चल आए। जेब से हड्डी निकाली और आगे बढ़ा दी, ‘ले बेटा टाॅमी, ले लें’।
साहब जानते हैं कि आज रामकृपालजी को टाॅमी पर इतना प्यार क्यों आ रहा है। बड़े एक्सपर्ट हैं। सड़क को उपर से देखकर ही पता लगा लेते हैं कि नीचे क्या घालमेल हुआ है। यह अलग बात है कि ठेकेदारों को ज्यादा परेषान नहीं करते। दिल के उदार है। इसलिए एडजस्ट कर लेते हैं। सुबह-सुबह पार्क में रामकृपालजी को देखकर ही समझ गए थे कि माजरा क्या है। उनके ठेेके का पुराना पैसा अटका है। फाइल साहब के पास ही पड़ी है। रामकृपालजी भी जानते हैं कि फाइल कहां अटकी है, लेकिन इसी उधेड़बुन में हैं कि साहब को कैसे व कितनी हड्डियां आॅफर करें!
षुरुआत रामकृपालजी ने ही की, ‘बड़ा प्यारा कुत्ता है, देखिए कितने प्यार से हड्डी ले ली।’
‘भाईसाहब, हड्डी खिलाने का भी एक तरीका होता है, बस वही आना चाहिए। वह आ गया तो एक टाॅमी तो क्या, कई टाॅमी आपके कंट्रोल में आ जाते हैं।’
रामकृपालजी इषारा समझ गए। एक और हड्डी टाॅमी की ओर फेंकते हुए वे अब सीधे काम की बात पर आ गए, ‘आपके आॅफिस में मेरी फाइल अटकी पडी है। कुछ करवाइए ना?’
‘अब आप जानते ही हैं, आॅफिस में कोई एक टाॅमी तो है नहीं। उपर से नीचे तक कई हड्डियां फेंकनी पड़ती है, तब जाकर बात बनती है।’ साहब बोले।
‘तो इससे हमें कहां इनकार है? कल आॅफिस आ जाउ क्या?’ रामकृपालजी बोले।
‘हां, लेकिन हड्डियों के जरा थोड़े बहुत नमूने लाना मत भूलना। बड़े साहब पहले थोड़ी सी चखकर देखते हैं, फिर आगे की बात करते हैं।’
‘जैसा आप कहें, चलता हूं मैं, राम-रामजी।’ रामकृपालजी वहां से निकल लिए, लेकिन टाॅमी को बाय करना भूल गए। 

कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

रविवार, 4 मई 2014

एक ‘आम’ बहस

 (Recently, EU has banned the import of Alphonso Mangoes.)

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



तोतापरी: अब अकल ठिकाने आई होगी बच्चू की। बड़ा होषियार बनता था। सीधे मुंह बात ही नहीं करता था।
बादामी: तू किसकी बात कर रही है? अल्फांसो की?
तोतापरी: और किसकी? कितना एटीट्यूड था उसमें! बड़ी-बड़ी गाड़ियां, बंगले... बड़े  लोगों के दम पर कितना उछलता था।
बादामी: अब यह तो उसकी किस्मत है। कौन कहां पैदा होता है, इसमें क्या किसी का बस चलता है! असली राजा तो वही है। चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है। हम तो उसके दरबारी। इस गलतफहमी में गरीब इंसान हमें भी राजा मान लेते हैं।
तोतापरी: ईयू के बैन के बाद दो दिन में ही भाव जमीन पर आ गए।
बादामी: लेकिन अब भी 200 से कम नहीं होंगे। आम आदमी की औकात नहीं कि उसे हाथ भी लगा ले। मैं अब भी कह रहा हू, अल्फांसो इस द किंग।
‘अरे भाई, हम आमों के बीच यह आम आदमी कौन है? उसे अपने बीच क्यों ले आते हो यार। उसे चुनावों में ही रहने दो, वहीं उसकी इज्जत है।’ यह लंगड़ा था। बैसाखियां साइड में रखकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया।
बादामी: सही समय पर आए लंगड़ा भाई। अब आप ही समझाओ तोतापरी को।
सफेदा (बीच में टपकते हुए): वैसे इस साल तो हम भी बड़े घरों में ही जा रहे हैं तोतापरी! परेषान क्यों हो रही हो!
बादामी: सफेदा, यह दिल्लगी हर जगह ठीक नहीं। हम गंभीर मुद्दों पर बात कर रहे हैं।
लंगड़ा: देखा जाए तो ईयू का प्रतिबंध है तो सही। क्यों हम पर कीटनाषक छिड़क रहे हो, क्यों हमें केमिकल में पका रहे हो? क्या हमारे बच्चों को नेचुरली आगे बढ़ने का हक नहीं है? हो सकता है कि ईयू के इस कदम से हमारी सरकार को कुछ अकल आए।
तोतापरी: पर इससे होगा क्या? हो सकता है कि अल्फांसो को सरकार ठील दे दे, लेकिन हमारा कुछ नहीं होने वाला। हम तो पब्लिक आम है। हमें तो उसी केमिकल में मरना और जीना है।
इतने में एक दद्दा का प्रवेष। मुरझाई-सी काया। षरीर में मानो कोई रस ही नहीं।
‘आओ देसी दादा, विराजो’ बादामी ने उन्हें कुर्सी दी।
‘वह भी क्या जमाना था, जब अमीर से लेकर गरीब तक सब हमें समान भाव से खाते थे। सबकी पहुंच में थे हम। न कीट का लफड़ा न केमिकम का झंझट। लेकिन इंसानों ने मुझे तो साइड में पटक दिया और आमों की नई जनरेषन को भी केमिकल खिला-खिलाकर बर्बाद किए जा रहे हैं।’ देसी दादा पुरानी यादों में खो गए। सभी आम भी यह सोचकर जल्दी ही वहां से खिसक लिए कि दादा के पुराने किस्से षुरू हो गए तो सब बैठे-बैठे यही सड़ जाएंगे। आम बहस अधूरी ही रह गई।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 1 मई 2014

बेताल की आखिरी कहानी


By Jayjeet 

भारत उसे अपने कंधों पर लादकर फिर चल पड़ा। घनघोर अंधेरी रात में बेताल ने अट्टहास किया तो वह समझ गया कि यह मुआ फिर कोई नई कहानी सुनाएगा। बेताल कुछ बोले, उससे पहले ही भारत ने उसे कंधों से उतारकर ओटले पर दचक दिया। बेताल हक्का-बक्का! भारत बोला। ‘सुन बेताल, बहुत हो गई तेरी ड्रामेबाजी। कब से तूझे मैं उठा-उठाकर घूम रहा हूं। तेरा बोझा ढोते-ढोते थक गया हूं। कभी तो खत्म हो तेरी कहानी। कभी गरीबी हटाओ की कहानी सुनाता, कभी बोफोर्स की, कभी इंडिया षाइनिंग की। फिर तू गायब हो जाता पांच साल के लिए। तुझे लेने मुझे वापस पीछे लौटना पड़ता। आखिर कब तक मैं दो कदम आगे चार कदम पीछे होता रहूंगा? ’

‘यकीन कर भारत, अच्छे दिन आने वाले हैं।’ बेताल ने कुटिल मुस्कान के बाद जोरदार अट्टहास किया।

‘इसमें मेरे लिए क्या ? मैं ठहरा आम आदमी। बोझा ढोना ही मेरी नियति है।’ लाचारी के भाव के साथ भारत बोला।

‘तू सुन, इस बार बड़ी इनट्रेस्टिंग कहानी है। इसमें षहजादा है, रानी है। दामाद है। बीच-बीच में मूक पपेट षो हैं। योग है तो हनीमून भी है। सत्ता के लिए दीवानों की तरह घूमता एक राज्य का सामंत है। उसे रोकने के लिए तलवारें भांजते ढेरो छोटे-बडे क्षत्रप हैं। एक बेचारा भी है जिसे जो चाहे थप्पड़ मारता रहता है और वह षौक से खाता रहता है। बोले तो फूल एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट।’

‘सूरज बड़जात्या और सुभाष घई ने मिलकर क्या कोई खिचड़ी पकाई है? यह भी बता दें कि स्टार कौन है?’ खीजते हुए भारत बोला।

‘अरे भाई, स्टार तो तू ही है। सब तेरा ही नाम ले रहे हैं, कसम से।’

‘इसमें नई बात क्या है? तू 60 साल से कहानियां सुना रहा है। जो भी कहानी सुनाता, उसमें हर पात्र मेरी बात जरूर करता है, लेकिन होता क्या है!’

‘तू इतना सेंटी क्यों हो गया रे। ला कंधा ला।’

‘नहीं, अब यह कंधा कोई फालतू बोझ नहीं उठाएगा।’

’वाह..., अब बेताल फालतू बोझ हो गया! सालों से तू नेताओं का बोझ ढो रहा है तो कुछ नहीं। मैं तुझे जातिवादी-साम्प्रदायिक नेताओं, बाहुबलियों, धनपिषाचों की कहानियां सुनाता। तू एक कान से सुनता, दूसरे से निकाल देता। वोट देने तक नहीं जाता। देता भी तो कभी अपनी जात वाले को देता तो कभी एक बोतल दारू के बदले में बेच देता। क्रांतिकारी बनने का षौक है तो पूरा बन, केवल बातें मत कर, हां।’

‘वोट दे तो आया हूं मैं, और क्या!’ भारत ने कहा।

‘नई सरकार बनने वाली है। नेताओं ने जो-जो वादे किए, उन पर नजर रख, तो मैं मानूं!‘ इतना कहकर बेताल भावुक हो गया। फिर बोला, ‘ अब लगता है तुझसे विदा होने का समय आ गया है। अब तुझे मेरी कहानियों की जरूरत नहीं है। टीवी, स्मार्टफोन, फेसबुक, ट्विटर सब तो हैं... कहानियां सुनना। लेकिन सुनकर चुप न रहना। भारत, अगर सबकुछ जानकर भी तू चुप रहा तो तेरी उम्मीदों, तेरी आकांक्षाओं के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे।’ इतना कहकर बेताल नौ-दो ग्यारह हो गया, हमेषा-हमेशा के लिए।

और अब क्लाईमेक्स... रात हट रही है। सूरज उग रहा है... ओटले पर बैठा भारत अंगड़ाई ले रहा है।

कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

सबसे बड़ी लाइव बहस

This is a satirical comment on TV Discussions which many times prove nonsense. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 


हमारे टीवी चैनल कभी-कभार देशहित व जनहित से जुडे़ मुद्दों पर भी चर्चा करते हैं। पेष है इसकी एक झलक:
एंकर: आज हम देष के सामने मौजूद सबसे ज्वलंत और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे हैं। विषय है - आखिर हम गंजे क्यों हो रहे हैं?
अतिथि परिचय के बाद बहस षुरू।
एंकर: पहली प्रतिक्रिया आपसे ही (नेता नंबर वन की ओर इषारा)
नेता नंबर वन ( जो विपक्ष का नेता है): देखिए, जबसे यह सरकार आई है, देष में गंजे लोगों की बाढ़-सी आ गई। पिछले दस साल में इस सरकार ने गंजों के लिए तो कुछ किया नहीं। जिनके थोड़े-बहुत बाल थे, वे भी तराष लिए गए।
नेता नंबर दो (जो सत्तारूढ़ी है): हमारे विपक्षी भाइयों को तो आरोप लगाने की आदत है। हमने तो कोषिष की है कि सबके सिरों को बाल मिले। दलितों और अल्पसंख्यकों के लिए विषेष योजनाएं चलाई हैं, वे क्यों नहीं दिखतीं? 
एंकर: लेकिन आंकड़े भी तो यही कहते हैं कि आपके राज में गंजे होने वाले लोगों की संख्या में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई है।
सत्तारूढ़ी नेता (हंसते हुए): ये आंकड़े कहां से आए? जिन एजेंसियों ने ये सर्वे किया है, हो सकता है उन्होंने पैसे लेकर बालों में हेर-फेर कर दिया हो। अपनी साम्प्रदायिक नीतियों से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए विपक्षी ऐसी साठगांठ करते हैं।
नेता नंबर तीन (बीच में टपकते हुए): देखिए सरजी, हमारा तो यही कहना है कि ये दोनों पार्टियां तो चाहती हैं कि हमारा देष तेजी से गंजा हो, ताकि गंजेपन से छुटकारा दिलाने की दवाइयां बनाने वाली कंपनियों को फायदा हो। दवा कंपनियों ने इन्हें अपनी जेब में रख रखा है।
पहला विषेषज्ञ: गड़बड़ यह है कि किसी भी पार्टी को बालों की फिक्र नहीं है। हर पार्टी लोगों को टोपी पहनाने की कोषिष करती है, ताकि सिर ढंका रहे तो बालों का इष्यू आए ही नहीं।
दूसरा विषेषज्ञ: समस्या इतनी गंभीर हो गई है कि हमें अब मान लेना चाहिए कि दिन-प्रतिदिन लोग गंजे होने ही हैं, चाहे फिर किसी की भी सरकार आए।
विपक्षी नेता: लेकिन सवाल यह है कि आखिर कुछ लोगों के सिर भारी क्यों हो रहे हैं? इनके (सत्तारूढ़ पार्टी की ओर इषारा) जीजाजी का सिर तो देखिए। कैसे लहलहा रहा है।
सत्तारूढ़ी नेता (भयंकर गुस्साते हुए): देखिए, जीजाजी पर नहीं आना, कह देते हैं। व्यक्तिगत हमले हम सहन नहीं करेंगे।
फिर सभी पक्षों की ओर से अपषब्दों की धुआंधार बौछार। इतना अहम मुद्दा अब भटक गया है।
एंकर (नकली मुस्कान के साथ): अभी वक्त है एक ब्रक का। ब्रेक के बाद जारी रहेगा तमाम ऐसी ही अहम खबरों का सिलसिला।

कार्टून: संजीब मोइ़त्रा
  

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

यमलोक में नेताजी

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




कई दिनों बाद उनका नंबर आया। वे रिसेप्षन पर पहुंचे, लेकिन रिसेप्षनिस्ट गायब थी। वे अंदर चले गए। वहां एक बड़ा-सा कैबिन बना हुआ था जिसके बाहर लटक रही नेमप्लेट पर लिखा हुआ था- चित्रगुप्त। महाषय सीट पर नहीं थे। अलबत्ता एसी आॅन था। सीटों से और भी कई लोग नदारद थे। किससेे पूछे, सोच ही रहे थे कि सामने से एक सुंदर-सी अप्सरा आती दिखाई दी। मन में कुछ लालसा उठी, लेकिन दबाते हुए पूछा, ‘साहब, कब मिलेंगे?’
‘अभी लंच टाइम चल रहा है, दिखता नहीं है क्या!’ अप्सरा ने रुखा-सा जवाब दिया।
‘दो घंटे से लंच!’ मन ही मन कुड़कुड़ाए।
उन्होंने दायीं तरफ देखा तो एक बड़ा-सा टीवी चलता नजर आया। वहां भी कोई नहीं था। उन्होंने सोचा, चलो कुछ देर टीवी पर टाइम पास करते हैं। लेकिन वह टीवी नहीं था। ऐसा लग रहा था मानो धरती से लाइव टेलीकास्ट हो रहा हो। वे पहचान गए, अरे उनका ही षहर था। वे अपने षहर के नेता हुआ करते थे। लेकिन एक हादसे में उपर पहुंच गए। यमलोक का कैमरा उनके पार्टी दफतर पर फोकस था। उनकी बड़ी-सी फोटो पर फूलमाला लटकी हुई है, अगरबत्तियां जल रही हैं। कोने में उनके दो खास पट्ठे बैठे हुए थे, जिन्होंने राजनीति में निःस्वार्थ भाव से उनकी सेवा की थी। ऐसा नेताजी का मानना था। ‘मेरे जाने के बाद दोनों जरूर मुझे मिस कर रहे होंगे और चुनाव को लेकर चिंतित हो रहे होंगे’, यह सोचते हुए उन्होंने स्पीकर आॅन कर दिया।
‘बुढ़वू के जाते ही हवा अपने पाले में आ गई गुरु! सहानुभूति वोट मिलना तय है।’ पहले वाला बोला।
‘सही टाइम पर खिसक गया, नहीं तो जमानत जब्त होनी तय थी। अपने भी करियर की वाट लग जाती।’ दूसरा बोला।
सुनते ही उनका दिल धक्क रह गया। इस बीच कैमरा उनके बंगले में पहुंच गया था। बंगले में धर्मपत्नी रो रही थी। सालियां पास में ही बैठी हुई थीं, ‘दीदी, बहुत बुरा हुआ, अब आपका क्या होगा!’
दीदी-‘होनी को कौन टाल सकता है भला! वैसे भगवान जो भी करते होंगे, सोच-समझकर ही करते होंगे। उनके साथ मुझे भी सादगी का दिखावा करना पड़ता था। घर में फाॅरेन ब्रांड्स की क्या-क्या चीज नहीं हैं, पर कुछ पहनने-ओढ़ने दे तब ना। विरोधियों की ज्यादा ंिचंता थी। मैं तो तंग आ गई थी।’ और फिर आंसू बह निकले। वैसे ही आंसू, जैसे नेताजी अक्सर बहाते थे।

तभी यमलोक का कैमरा उनके बेटे की तरफ गया। बेटे को टिकट मिल गया था। वह अपने बहुत ही खास मित्र से कुछ कह रहा था। उन्होंने स्पीकर लाउड कर दिया, ‘बप्पा जीते-जी विरासत छोड़ जाते थे तो क्या बिगड़ता! लेकिन कुर्सी से इतना मोह कि क्या बताएं! इसलिए मुझे ही कुछ करना पड़ा।’
‘तो क्या, वह हादसा नहीं था?’ मित्र से अचरज से पूछा।
‘नहीं भाई, राजनीति में सब जायज है।’ बेटा मुस्कुरा दिया।
नारे लग रहे थे ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, बप्पा तेरा नाम रहेगा।’ बेटा भी नारे लगाने वालों में षामिल हो गया था।
उधर, यमलोक में नेताजी को दिल का दौरा पड़ गया था। यमलोककर्मी उन पर पानी के छींटे डाल रहे थे।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

हरा-भरा सांसद

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 


हमारा कोई भी पर्व पकवानों के बिना अधूरा है। दिवाली पर गुजिया और ईद पर सैवइयां। तो लोकतंत्र में चुनाव के इस महापर्व के मौके पर पेष है एक विषेष डिष: हरा-भरा सांसद। राजनीतिक दल इस तरह से डिष तैयार करके अपने मतदाताओं का दिल खुष कर सकते हैं।
सामग्री: एक भरा-पूरा नेता। मालदार होगा तो अच्छा रहेगा। ब्लैक मनी जिसका कोई हिसाब-किताब न हो। फर्जी सोषल अकाउंट्स। षोरबे के लिए देसी दारू। खटास के लिए गालियां। सजावट के लिए देसी कट्टे-बंदूकें या ऐसी कोई भी सामग्री। लोकलुभावन वादे। जातिगत जुगाड़ नेता की जाति अनुसार।
विधि: सबसे पहले एक अच्छे से ऐसे नेता का चयन करें जो जीत सकता हो। उसके पास भरपूर पैसा होे, क्षेत्र में जातिगत प्रभाव हो और साथ ही डराने-धमकाने की ताकत भी। उस पर थोड़े-बहुत दाग होंगे तो उससे स्वाद और बढ़ जाएगा। उसे सबसे पहले अच्छे से छील लें, यानी पार्टी फंड के नाम पर जितना हो सके, पैसा कबाड़ लें। अब एक अलग बाॅउल में ब्लैक मनी व देसी दारू को आपस में मिलाकर षोरबा तैयार करें। षोरबे के कालेपन को मिटाने के लिए सोषल वेबसाइट्ृस का तड़का मिला दें। इससे कालापन थोड़ा कम हो जाएगा। थोड़ा-सा रहेगा तो कोई दिक्कत नहीं। स्वाद के षौकीनों को थोड़ा कालापन अच्छा लगता है। अब एक फ्राइंग पैन लें। उसमें नेता को रखें और उस पर ब्लैकमनी-देसी दारू का तैयार षोरबा डाल दें। इतना डालें कि नेता उससे सराबोर हो जाए। अब इस मिश्रण को धर्म की आंच में धीरे-धीरे पकने दें। नेता जितना लिजलिजा होगा, वह उतना ही स्वादिष्ट होगा। जब नेता अच्छी तरह पक जाए तो उसे फिर आंच से उतार लें। धीरे-धीरे ठंडा होने दें ताकि निर्वाचन आयोग को चटका न लगे लेकिन हलका-हलका गरम रहेगा तो स्वाद बना रहेगा। फिर थोड़ी गालियों व अपषब्दों की खटास डालें, और साथ में विरोधी दलों से पाला बदलकर आई थोड़ी षक्कर भी मिला दे। खट-मिट स्वाद आएगा। अब इसे निकालकर तष्तरी में रखें, उसके उपर थोड़े-से लोकलुभावन वादे बुरकें। आपकी यह डिष लगभग तैयार है। लेकिन ध्यान रखें, अच्छी डिष के साथ-साथ उसकी सजावट भी जरूरी है। इसके लिए देसी कट्टों, बंदूकों और चाकुओं की सजावट करना न भूलें। इससे अगर स्वाद में थोड़ी-बहुत कमी भी होगी तो उसकी पूर्ति हो जाएगी। लीजिए हरा-भरा सांसद तैयार।
कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

पांच हजार की घूस और राज्य की नाक

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

सीबीआई उस मामले की जांच कर रही है कि एक बड़ा अफसर पांच हजार रुपए की रिष्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया है। अब मामला इतना बड़ा है तो चर्चा तो होनी ही है। जितने मुंह, उतनी बातें।
- वाकई बड़ी षर्म की बात है, पूरी बिरादरी की नाक कट गई। अच्छा हुआ सरकार ने सीबीआई जांच सौंप दी। ऐसे अफसर तो काम करने के लायक नहीं हैं। सीधे बर्खास्त करना चाहिए।
- लेकिन क्या इतना बड़ा इष्यू था कि सरकार को सीबीआई जांच करवाने की जरूरत पड़ गई?
- आप समझे नहीं, सरकार की भी इज्जत का सवाल है। पूरे राज्य के विकास के दावों की पोल खुल गई। इतना बड़ा अफसर और केवल पांच हजार लेते हुए पकड़ा गया। कोई बाबू-वाबू होता तो भी समझ में आता। टुच्चईपना की भी हद है भई। यह राज्य का अपमान है। दूसरे लोग क्या सोचेंगे भला! विकास के इतने बड़े-बड़े दावे और जमीनी हकीकत कुछ और! इसी कारण केजरीवाल जैसे लोगों को बढ़ावा मिलता है।
- हां, बात तो सही है। समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी थी!
- अब इतनी भी फाका-कषी नहीं थी कि बस पांच हजार के लिए ही बिछ जाओ।
- मेरे ख्याल से पहली कोषिष की होगी। कोई बात नहीं, सबके साथ होता है। अब सर्विस में आए समय ही कितना हुआ है!
- तो क्या जरूरी था? हमसे पूछ लेते। एक तो आता नहीं और एटीट्यूड आसमान पर। अनाड़ीपन की भी हद है। हमने भी ली है। बाएं हाथ से लेते और दाएं हाथ को भी पता नहीं चलता।
- वैसे बाएं हाथ से लेना ठीक नहीं है। हाथ बदल लीजिएगा। षगुन अच्छा नहीं होता। हम लेफटहैंडर हैं, लेकिन हमेषा दाएं से ही लेते हैं।
- हमारा ऐसे अंधविष्वासों में कोई भरोसा नहीं है। प्रगतिषील विचारधारा के हैं हम। वैसे हाथ से लेने का सिस्टम आप भी बदल डालिए। किसी दिन लपेटे में आ जाएंगे, बताए देते हैं। हमने तो बदल लिया है।
- अरे नहीं, हम नौसिखिया है क्या! अब आपको ही हमने सिखाया और आप हमें ही...
- वो ठीक है, पर ऐसे मामलों में ओवर कान्फिडेंस अच्छा नहीं है। जरा ही लापरवाही में पूरे राज्य की नाक कटते देर नहीं लगती।
 कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

बुधवार, 26 मार्च 2014

भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं ...

Satire on those politicians who want to get involved in politics in their 80s or 90s. 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

 

 

भाईजी 90 साल के हो चुके हैं। दांत अब नहीं रहे, लेकिन हाईकमान की बैठकों में जाते हैं तो नकली दांत लगाकर जाना पड़ता है। खीसें निपोरने में वही काम आते हैं। चूंकि समस्या बड़ी गंभीर है और वक्त हंसने का नहीं है, इसलिए अभी दांत काॅर्नर टेबल पर रखे गुलदस्ते के पीछे पड़े सुस्ता रहे हैं।

वैसे तो भाईजी ने नौ दषक में सब कुछ देख लिया। इसलिए माया से मोह रहा नहीं। लेकिन इच्छा थी कि जब देष ने उन्हें इतनी सेवा का मौका दिया तो आखिरी बार एक और सेवा का मौका दे दें, तो गंगा नहा लें। लेकिन पार्टीवालों ने उन्हें सरेआम धोखा दे दिया। बुजुर्गांें की कोई इज्जत ही नहीं रही। पार्टी हाईकमान को कम से कम देष की भावनाओं की तो कद्र करनी थी। लेकिन नहीं, बोल दिया, दद्दा आराम करो। अरे कभी आराम किया दद्दा ने! गंगा मैया की कसम, हमेषा सेवा में लगे रहे। कभी इस एयरपोर्ट तो कभी उस एयरपोर्ट। कभी पार्टी के काम से तो कभी प्राॅपर्टी के काम से, कहां-कहां नहीं गए!
तो भाईजी पार्टी का टिकट नहीं मिलने से तन्ना रहे हैं। अब आवाज तो मुंह से निकलती नहीं, लेकिन चेहरे के हाव-भाव बता रहे हैं कि वे मन ही मन पार्टी हाईकमान की कितनी ऐसी की तैसी कर रहे हैं। तभी उनके किसी खास चमचे ने सलाह दी, ‘दद्दा, आप तो निर्दलीय चुनाव लड़ लो। पूरी पार्टी आपने खड़ी की है। अपने एरिया के पार्टीवाले तो आपके साथ हैं ही।’ भाईजी को अब दिखता कम है। इसी का फायदा उठाकर कुछ चमचे वहां से खिसक लिए। भैया रिस्क कौन ले! कौन चमचा हाईकमान का जासूस निकल आए, क्या भरोसा। भाईजी बुढ़ा गए हैं, तो क्या हुआ, अभी हमारा तो पूरा बुढ़ापा बाकी है।

इस बीच, दिल्ली से फोन आ गया। पता चला कि हाईकमान उन्हें कहीं एडजस्ट करने की कोषिष कर रहा है। अब भाईजी को सुनाई कम देता है। मषीन ने भी हार मान ली हैं, इसलिए उनके खास चमचे ने ही फोन रिसीव किया। फोन कटते ही इषारों ही इषारों में बताया, ‘दद्दा बधाई हो, पार्टी ने कहा है कि सत्ता में आने के बाद आपको फलाने राज्य के राजभवन की सेवा में लगा दिया जाएगा।’ भाईजी के तन्नाए चेहरे की झुर्रियां नाच उठीं। अब समझ में आया कि पार्टी उन्हें आराम करने को क्यों कह रही थी। इस बीच, भाईजी के निर्दलीय चुनाव लड़ने की आषंका समाप्त होते ही वे चमचे लौट आए हैं, जो खिसक लिए थे। वे अब नारे लगा रहे हैं, भाईजी संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ है। भाईजी का संघर्ष जारी है, व्हील चेहर पर चढ़ने का संघर्ष। वे अब बेडरूम में जा रहे हैं। भाईजी के सोने का समय हो गया है। देष सेवा में लगने से पहले थोड़ा एनर्जेटिक हो जाए!
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

सरकारी फाइल और कछुए में महामुकाबला

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

सरकारी फाइल को शुरू से ही कछुए से काॅम्पलैक्स रहा है। जब-तब उस पर कछुए का टैग लगता रहा है। तो एक दिन उसने ठान लिया कि कछुए को उसकी औकात बतानी ही होगी। उसने कछुए के साथ रेस लगाने का ऐलान कर दिया। और कछुए को तो देखिए, उसने भी हां कर दी। भोला-भंडारी। सोचा ही नहीं कि इज्जत तो उसी की दांव पर लगेगी। सरकारी फाइल का क्या!

नियत समय पर रेस शुरू हुई। कछुआ तेजी से आगे बढ़ा। लेकिन सरकारी फाइल टस से मस नहीं हुई। दरअसल, उसने खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। उसने सुना था कि खरगोश तेजी से आगे चला था। इसलिए हार गया। फाइल ने सरकारी निष्कर्ष निकाला- जो आगे चलेगा, वह हारेगा। इस बार कछुआ आगे चला है तो वह हारेगा ही। जबरदस्त काॅन्फिडेंस। और फिर इसी काॅन्फिडेंस में सरकारी फाइल किसी सरकारी दफतर में जाकर सो गई।

उधर, कछुआ तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था। उसने भी अपने पुरखों से खरगोश और कछुए की कहानी सुन रखी थी। इस कहानी के आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला- जिस रेस में भी कछुआ शामिल होगा, उसे कछुआ ही जीतेगा। फिर उसने सरकारी फाइलों की महानता के किस्से भी सुन रखे थे। इसी काॅन्फिडेंस में वह भी सो गया।

वर्षों बीत गए। दोनों अपने-अपने काॅन्फिडेंस में सोते रहे। फिर एक दिन अचानक सरकारी फाइल की नींद खुल गई। खुल क्या गई, उसे झिंझोड़कर जगाया गया था। वह पेंशन की फाइल थी। जिसका केस था, वे बड़े आदर्षवादी और आशावादी किस्म के इंसान थे। उन्हें उम्मीद थी कि कभी तो फाइल जागेगी और आगे बढ़ेगी। लेकिन जीते-जी उनकी यह तमन्ना पूरी नहीं हो पाई और वे पीछे छोड़ गए 85 साल की बुढ़िया, अपनी पत्नी। इस बीच, उनका पोता समझदार हो गया। नई पीढ़ी का बंदा है। प्रैक्टिकल है। उसे पता है कि फाइल को जगाना होता है, अपने आप नहीं जागती है और न ही आगे बढ़ती है। वजनदार ठोकर मारो तो जागती है। बड़ी उल्टी चीज है कमबख्त। पीठ पर जितना वजन होगा, उतनी तेजी से आगे बढ़ेगी।

तो पोता समझदार था, नया अफसर उससे भी ज्यादा समझदार था। अफसर ने फाइल को जोरदार लताड़ लगाई, ‘तुम यहां सोने आई हो? ऐसे तो काम हो लिया।’

‘लेकिन सर, पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे।’ फाइल बोेली। फाइलें भी समझदार होती हैं। जो बात अफसर अपने मुंह से नहीं कह सकता, उसे फाइल कह देती है। चूंकि पोता बहुत ज्यादा ही समझदार है। इसलिए उसने फाइल के उपर वजन रखा। अब फाइल फर्राटे से आगे बढी।

और अब क्लाइमेक्स देखिए... रास्ते में उसे एक कछुआ मिला। उसे वह कछुआ याद आ गया। इस कछुए के नाक-नक्ष वैसे ही थे, जैसे उस कछुए के थे, लेकिन यह वह नहीं था। पता चला कि यह उस कछुए का पोता है व किसी और सरकारी फाइल के साथ रेस लगा रहा है।

चट भी अपनी, पट भी अपनी

I wrote this Satire when Telangana issue was on fire. 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha




समस्या बड़ी गंभीर है। इसलिए उनके माथे पर चिंता की लकीर भी उसी अनुपात में गहरी है। आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक कई मौके आए होंगे, लेकिन माथेे की लकीर इतनी गहरी कभी नहीं हुई। जब मंत्री थे तो कई काम चुटकियों में हल कर देते थे। दो-चार लाख के लिए कभी झिक-झिक नहीं की। बड़ा दिल। थोड़ा कम ज्यादा होने पर भी माथे पर कभी बल नहीं पड़ा। कोई आज के नेता हैं भला! आजादी की लड़ाई के समय के नेता हैं। जेल भी गए थे। ऐसा वे खुद कहते आए हैं और अब सबने मान भी लिया है। उसका ताम्रप़त्र भी है, और क्या सबूत चाहिए? हां, देष हित में पेंषन का त्याग कर रखा है। वैसे देष ने उन्हें बहुत कुछ दिया है, ऐसे में वे पेंषन तो छोड़ ही सकते हैं। रिष्तेदारों के नाम पर पांच पेट्रोल पम्प, गैस की दो एजेंसियां हंै। कुछ साल पहले बडे बेटे के नाम पर माइन भी लीज पर मिल गई थी। चार-पांच कोठियां है। देष ने जब उन्हें इतना दिया, तो वे भी कहां पीछे रहे हैं। सूद सहित लौटा रहे हैं। पहले खुद को समर्पित कर दिया। फिर दोनों बेटों को देषसेवा में झोंक दिया। आज दोनों एमएलए हैं। दामाद भी बड़ा सेवाभावी मिला। नगरपालिका अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है। तीन पोते अलग-अलग पार्टियों की युवा षाखाओं का दायित्व संभाले हुए हैं। एक तरह से कह सकते हैं कि पूरा परिवार ही राष्ट को समर्पित है।
‘आप बताइए, क्या करें!’ बड़े एमएलए बेटे ने पूछा।
‘तुम दोनों में से एक को इस्तीफा देना होगा। तुम तय कर लो कि किसे देना है इस्तीफा।’
‘लेकिन इस्तीफा देने की जरूरत क्या है?’ छोटे एमएलए बेटे ने पूछा।
‘बिल्कुल मूरख हो, बाप को लजाओगे। लोग कहेंगे, चाणक्य के घर कैसे मूढ़ पैदा हुए।’
‘लेकिन ऐसा करने से क्या अपने स्टेट को बंटने से बचाया जा सकेगा?’
‘भाड़ में जाए स्टेट, राजनीति को समझो मूरखों। एक को अलग राज्य की मांग करने वालों के पक्ष दिखना होगा और वह इस्तीफा नहीं देगा। दूसरा अलग राज्य की मांग के विरोध में इस्तीफा देगा। अब भविष्य में जो होगा, वह होगा, लेकिन एक का तो मंत्री बनना तय हो जाएगा ना। मैं पूरे परिवार के भविष्य की सोचकर चल रहा हूं। अब राजू, गणेष, सुरेष - तीनों पोते- को अलग-अलग पार्टियां पकड़ने को क्यों कहा? इसीलिए ना कि षासन किसी भी पार्टी का हो, परिवार का दाना-पानी चलता रहे, रूखी-सूखी रोटी मिलती रहे।’
‘लेकिन इस्तीफा देना क्या इतना ही जरूरी है?’ छोटा अब भी अड़ा हुआ है।
‘देखो, राजनीति का 60 साल का अनुभव है, आज तक मैं ने कई बार इस्तीफे दिए, लेकिन स्वीकार कभी नहीं हुआ। यह पूरा देष नाटक नौटंकी में बड़ा विष्वास करता है और उसे ही सही मानता है। इसलिए बेटों, राजनीति में टिकना हो, तो ऐसी नौटंकियों में माहिर होना पड़ेगा। देषसेवा यूं ही नहीं होती, समझें। जयहिंद!’
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती

नेताजी चले रीढ़ निकलवाने

Comment on our political leaders.  
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha 

 पिछले कई दिनों से नेताजी की रीढ़ की हड्डी चटख रही थी, बहुत दर्द हो रहा था। राजनीति में इतने साल हो गए है तो अब दर्द तो उठना ही था। वार्ड से षुरुआत की थी, तब पहली बार अपनी पार्टी के वार्ड प्रमुख के सामने रीढ़ झुकी थी। इसके बाद रीढ़ ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। झुकना-उठना चलता ही रहा। कई बार तो ऐसे भी मौके आए कि महीनों तक यूं झुकाकर ही रहना पड़ा। रीढ़ दिल की बहुत दिलदार थी। इसलिए झुक गई, लेकिन टूटी नहीं। फिर नेताजी भी पक्के देषभक्त और ईमानदार। सत्ता में जो भी आता, उसके प्रति पूरी निष्ठा दिखाते और जब-जब भी अवसर आता या नहीं भी आता, तब-तब पूरी ईमानदारी के साथ रीढ़ झुकाने को तत्पर रखते। कहीं कोई ना-नुकुर नहीं।

लेकिन अब तो इंतहा हो गई। दर्द है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा है। डाॅक्टर के पास गए तो डाॅक्टर ने भी हाथ खड़े कर दिए। झुक-झुककर कलपुर्जे ढीले पड़ गए हैं। डाॅक्टर भी क्या करे! अब उनके ही किसी पट्ठे ने सुझाव दिया, ‘नेताजी, आप तो रीढ़ ही निकलवा दीजिए।’
‘अबे क्या बकता है, रीढ़ ही नहीं रही तो फिर झुकूंगा उठूगा कैसे?’
‘अब उठना क्या, झुके रहो हरदम। कोई मना करता है क्या? राजनीति में रीढ़ ताने खड़े रहने का भी कोई मतलब है क्या! ऐसे कितने ही लोगों की रीढ़ टूट गई। आप ही तो कहा करते थे कि राजनीति में रीढ़ होती ही है झुकाने के लिए।’
लेकिन नेताजी अब भी कन्फ्यूज हंै। बार-बार रीढ़ पर हाथ फेर रहे हैं, थोड़ी-सी भी सीधी करते तो कड़-कड़ सी आवाज होती। पता नहीं लचक कहां चली गई।
‘क्या सोच रहे हैं आप? मैं तो फिर कहता हूं निकलवा ही लीजिए। जो थोड़ा बहुत दर्द आपको उठता भी है, वह भी गायब हो जाएगा, रीढ़ ही नहीं रहेगी तो काहें का दर्द। मुंषीजी को देख लो, जबसे रीढ़ हटवाई है, ताजगी महसूस कर रहे हैं। और मुझे तो लगता है, वह रीढ़ ही थी जो सालों से उन्हें मंत्री नहीं बनने दे रही थी।’
नेताजी पचास साल से राजनीति में हैं और अपनी रीढ़ को ढोए जा रहे हैं। जिस पार्टी में गए, रीढ़ को साथ ले गए। उनका मानना है कि अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए रीढ़ का होना जरूरी है, क्योंकि यही तो एक पैमाना होगा कि मेरी रीढ़ उसकी रीढ़ से कितनी ज्यादा झुकी। लेकिन फिर उनके सामने ऐसे कई लोगों के चेहरे घूम गए जिन्होंने राजनीति में आने से पहले ही रीढ़ निकलवाकर अपने-अपने घरों के तहखानों में रखवा दी थी। अब वे सभी उंचे ओहदों पर हैं। अपने पट्ठे की बात उन्हें भी जंच गई और वे अस्पताल की ओर चल पड़े, रीढ़ निकलवाने।

सरकार के क्रमिक विकास का सिद्धांत

A satire how government/administration works in our country 

जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha



सरकार नामक व्यवस्था का निर्माण कैसे हुआ, इसकी भी एक दिलचस्प दंतकथा है। सुनिए...
बहुत पुरानी बात है। एक दिन ईष्वर को बोध हुआ कि धरती पर लोग कुछ करते-धरते नहीं। क्यों न लोगों को कुछ काम दिया जाए। उसने एक व्यवस्था बनाने की सोची (इसी का नाम बाद में सरकार पड़ा)। इसके लिए उसने कुछ लोगों की भर्तियां की। लेकिन बाद में वे भूल गए। बात आई-गई हो गई। जिन लोगों की भर्ती की गई थी, वे यूं ही निठल्ले बैठे रहते (यही लोग बाद में सरकारी कर्मचारी कहलाए)। महीनों बीत गए। फिर कुछ ने सोचा कि चलो, कोई ठिकाना ढूंढ लेते हैं (यही ठिकाने बाद में दफतर के नाम से गौरवान्वित हुए)। दफतर मिल गया। सब लोग खुष हुए। सरकार ने पहला कदम आगे बढ़ाया।
अब लोग थे। दफतर भी थे, मगर खाली-खाली। महसूस हुआ कि दफतर में फर्नीचर, पंखे, फाइलें चाहिए। और हां, पानी के मटके भी। कुछ ने कहा, चलो बाजार से खरीद लेते हैं। लेकिन कुछ समझदारों ने कहा, नहीं सब कुछ सिस्टमैटिक होना चाहिए। आखिर सरकारी काम है। कहीं उंच-नीच हो जाए तो जवाब कौन देगा? यहीं से टेंडर अस्तित्व में आए। टेंडर बुलाए गए। कुछ लोग टेंडर के काम में लग गए। टेंडर के कार्य के लिए पिछले दरवाजे से कुछ टेबलें बुला ली गई। कुर्सियां बुलाना भुल गए, लेकिन लोगों ने बुरा नहीं माना। कुछ लोग टेबलों के उपर बैठ गए और कुछ लोग टेबलों के नीचे। नीचे से काम फटाफट हो गया। यहीं से लोगों को ज्ञान हुआ कि जो काम टेबलों के नीचे से आसानी से हो सकता है, वह उपर से नहीं हो सकता। खैर, पंखों, फाइलों से लेकर मटकों तक के टेंडर फटाफट पास हो गए। सरकार और आगे बढ़ी।
इतने में ईष्वर को सरकार वाली बात याद आ गई। इंसानों द्वारा अब तक की गई प्रगति को देखकर ईष्वर खुष हुआ। उसने उन्हीं इंसानों में से एक को सरकार का मुखिया बना दिया। मुखिया ने कुछ विभाग बनाए। कुछ को उन विभागों को मुखिया बना दिया। लेकिन अब वे सब मुखिया क्या करते? बैठे रहते। फिर सरकार के मुखिया को याद आई वे फाइलें जो टेंडरों के जरिए खरीदी गई थी। वे धूल खा रही थी। उसने विभागीय मुखियाओ को आदेष दिया- फाइलें पुट-अप करो। विभागों के मुखियाओं के दिन फिरे। उन्हें काम मिला। फाइलें पुट-अप होने लगीं। सरकार के मुखिया लिखते- चर्चा करें। कभी लिखते- परामर्ष करें। बचे-खुचे लोगों को भी काम मिल गया। वे अब चर्चा और परामर्ष करने लगे। जो लोग ये काम नहीं कर सकते थे, उन्हें फाइलांे को इधर से उधर करने के काम में लगा दिया गया। अब इधर से उधर फाइलें ही फाइलें। कभी अटक भी जातीं तो कोई समझदार उन पर वजन रख देता। वे फिर चलने लगती। सरकार अब दौड़ने लगी थी।
इस बीच राज्य में कुछ ऐसे समाज विरोधी तत्व पैदा हो गए थे, जिन्होंने सरकार से सवाल पूछने षुरू कर दिए थे। वे पूछने लगे, सरकार क्या कर रही है? भला ये भी क्या सवाल हुए! लेकिन सरकार का मुखिया विचलित नहीं हुआ। उसने जांच करवाने का ऐलान कर दिया (यहीं से जांच आयोग जैसी महान परंपराओं की षुरुआत हुई)। समाज विरोधी तत्व चुप। जनता तो पहले से ही चुप थी। चुप रहना मानो उसका आनुवांषिक गुण हो। इसीलिए वह आज भी चुप रहती है और युगों-युगों तक चुप रहेगी। भला उसका ऐसे सवालों से क्या लेना-देना?
सरकार चलती रही। सालों बीत गए। फिर एक दिन अचानक सरकार के मुखिया को जांच आयोग की रिपोर्ट मिली। लेकिन तब तक वह भूल चुका था कि उसने आखिर जांच आयोग क्यों बिठाया था। उसे कुछ समझ में नहीं आया तो उसने इसका पता लगाने केलिए कुछ कमेटियां बना दी। इसमें उन लोगों को काम मिला तो फाइलें पुट-अप करते-करते बुढ़े हो गए थे। कमेटियों के गठन से सरकार और मजबूत हुई। उन कमेटियों की रिपोर्ट का क्या हुआ, सरकार ने कभी इसकी चिंता नहीं की। जनता तो वैसे भी नहीं करती है। तो सरकार चलती रही। आज भी चल रही है, बिंदास। इति दंतकथा।
ग्राफिक: गौतम चक्रवर्ती
 




लाखों हाथ से निकल गए

Funny satire on Dahej Greedy but hypocrites... 
जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha
वे बड़े परेषान थे। एक तो जन्म कुंडली नहीं मिल रही थी और उपर से लड़के को मंगल अलग था। प्रस्ताव पर प्रस्ताव आ रहे हैं, 50 तोले सोने से लेकर लक्जरी कार तक। लेकिन मुई कुंडली मिले तो बात आगे बढ़े ना!
हमारे पड़ोस में ही एक पंडितजी रहते हैं। बड़े सेवाभावी हैं और चमत्कारी भी। ऐसा चमत्कार दिखाते कि एक झटके में मंगल को षुक्र में बदल देते। हमने उनसे कहा भी कि चलो पंडितजी से कुछ बात कर लेते हैं। कोई न कोई पारस्परिक हित का रास्ता निकल ही आएगा। लेकिन इस मामले में वे बड़े ईमानदार और भगवान से डरने वाले। उन्होंने कहा, ‘षरम करो जी, उपर वाले से कुछ तो डरो। हर मामले में लेन-देन ठीक नहीं।’ इसलिए पंडितजी से झूठी कंुडली बनवाने का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया। रोज घंटों पूजा-पाठ करने वाले। भला ऐसा अनाचार कर सकते हैं क्या!
इस बीच, दो-चार कुंडलियां मिल भी गईं, लेकिन किस्मत खराब। कोई 20 तोले से आगे बढ़ा ही नहीं। वाह भाई, ऐसे कैसे लड़का दे दें! एमबीए हैं, अच्छी-भली कंपनी मंे नौकरी करता है। ऐसा अन्याय नहीं कर सकते। सिद्धांत के पक्के हैं वे। कोई समझौता नहीं। लेकिन वे अब भी परेषान हैं। दमदार पार्टियां मिलतीं तो कुंडली नहीं मिलतीं और कुंडलियां मिलती तो पार्टियां पोची निकलतीं।
हमने सलाह दी किसी मेट्रामोनियल में विज्ञापन दे डालो। वे मान गए। विज्ञापन छपा, ‘30 वर्षीय सुंदर कंुंवारे लड़के के लिए वधु चाहिए। लड़का मांगलिक, लेकिन एमबीए हैं। कृपया सक्षम पार्टियां ही संपर्क करें। कंडीषन अप्लाई।’
विज्ञापन का जबरदस्त असर दिखा। कई पार्टियों ने संपर्क किया। कुछ इसलिए खारिज कर दी गईं क्योंकि गुण और ग्रह नहीं मिल रहे थे और जबरदस्ती मिलवाकर पाप तो अपने सिर पर ले नहीं सकते थे। कुछ पार्टियां इसलिए खारिज हो गई, क्योंकि उन पर कंडीषन अप्लाई नहीं हो रही थीं।
लेकिन भगवान इतना भी कठोर नहीं। एक रिष्ता आ ही गया। लड़की मांगलिक थी। कुंडली भी मिल रही थी और सबसे बड़ी बात कंडीषन भी अप्लाई हो रही थी। लड़की वाले सैद्धांतिक तौर पर 30 तोला सोना, दस लाख कैष और कार देने को राजी हो गए थे।
नियत समय पर मिलना तय हुआ ताकि आगे की बातें की जा सकें। वे डाइंग रूम में सपत्निक बैठे इंतजार कर रहे थे। घर की घंटी बजी। उनके चेहरे पर प्रसन्नता तैर गई। उन्हें लगा कि वे आ गए। उठकर दरवाजा खोला। यह क्या! सामने अपना ही सपूत खड़ा था, पीछे एक सुंदर सी कन्या। ‘पापा आषीर्वाद दीजिए, हमने षादी कर ली है, कोर्ट में!’
सपूत कपूत निकल गया था! अब भगवान को क्या जवाब देंगे। न कुंडली मिली, न ग्रह!... और लाखों हाथ से निकल गए सो अलग!