शुक्रवार, 9 मई 2014

व्यवस्था के ये टाॅमी


जयजीत अकलेचा/Jayjeet Aklecha

किस्मत हो तो साहब के टाॅमी जैसी। साहब जब उसे सुबह-सुबह पार्क में ले जाते हैं, तब उसके जलवे देखते ही बनते हैं। हर दूसरा-तीसरा व्यक्ति प्यार से कहता मिल जाएगा, टाॅमी टाॅमी! इतने प्यार से तो वे षायद अपने बच्चों को भी नहीं बुलाते होंगे। आखिर साहब का कुत्ता जो ठहरा। साहब भी इतने बड़े आदमी। हर कोई उनकी कृपादृष्टि को लालायित। लेकिन साहब ऐसे तो किसी को भाव देने से रहे। ऐसे में टाॅमी ही काम आता है। अब टाॅमी को यदि कोई पुचकारें तो भला साहब उसे कैसे रोक सकते हैं!
कल की ही बात है। सुबह-सुबह रामकृपालजी पार्क में दिखाई दिए। बड़े ठेकेदार हैं, दिनभर में हजारों लाखों का वारा-न्यारा करते हैं और देर रात थकान मिटाते हैं। उस सुबह वे स्पेषियल ट्रैक सूट पहनकर पार्क में निकल पड़े थे। उन्हें साहब से मिलना जो था, लेकिन अब ऐसे भी कैसे मिल लें। इसीलिए ट्रैक सूट की दोनों जेबों में हड्डियां डाल रखी थीं। आंखें टाॅमी को ही ढूंढ़ रही थीं। और जैसे ही टाॅमी को देखा, आंखों के लाल डोरों में उम्मीदें उतर आई। जाॅगिंग करते हुए उसके पास चल आए। जेब से हड्डी निकाली और आगे बढ़ा दी, ‘ले बेटा टाॅमी, ले लें’।
साहब जानते हैं कि आज रामकृपालजी को टाॅमी पर इतना प्यार क्यों आ रहा है। बड़े एक्सपर्ट हैं। सड़क को उपर से देखकर ही पता लगा लेते हैं कि नीचे क्या घालमेल हुआ है। यह अलग बात है कि ठेकेदारों को ज्यादा परेषान नहीं करते। दिल के उदार है। इसलिए एडजस्ट कर लेते हैं। सुबह-सुबह पार्क में रामकृपालजी को देखकर ही समझ गए थे कि माजरा क्या है। उनके ठेेके का पुराना पैसा अटका है। फाइल साहब के पास ही पड़ी है। रामकृपालजी भी जानते हैं कि फाइल कहां अटकी है, लेकिन इसी उधेड़बुन में हैं कि साहब को कैसे व कितनी हड्डियां आॅफर करें!
षुरुआत रामकृपालजी ने ही की, ‘बड़ा प्यारा कुत्ता है, देखिए कितने प्यार से हड्डी ले ली।’
‘भाईसाहब, हड्डी खिलाने का भी एक तरीका होता है, बस वही आना चाहिए। वह आ गया तो एक टाॅमी तो क्या, कई टाॅमी आपके कंट्रोल में आ जाते हैं।’
रामकृपालजी इषारा समझ गए। एक और हड्डी टाॅमी की ओर फेंकते हुए वे अब सीधे काम की बात पर आ गए, ‘आपके आॅफिस में मेरी फाइल अटकी पडी है। कुछ करवाइए ना?’
‘अब आप जानते ही हैं, आॅफिस में कोई एक टाॅमी तो है नहीं। उपर से नीचे तक कई हड्डियां फेंकनी पड़ती है, तब जाकर बात बनती है।’ साहब बोले।
‘तो इससे हमें कहां इनकार है? कल आॅफिस आ जाउ क्या?’ रामकृपालजी बोले।
‘हां, लेकिन हड्डियों के जरा थोड़े बहुत नमूने लाना मत भूलना। बड़े साहब पहले थोड़ी सी चखकर देखते हैं, फिर आगे की बात करते हैं।’
‘जैसा आप कहें, चलता हूं मैं, राम-रामजी।’ रामकृपालजी वहां से निकल लिए, लेकिन टाॅमी को बाय करना भूल गए। 

कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for your comment